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सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गुमनाम राजनीतिक चंदे की समीक्षा

प्रिलिम्स के लिये: सर्वोच्च न्यायालय, आयकर अधिनियम, 1961, सूचना का अधिकार, भारत निर्वाचन आयोग (ECI), चुनाव चिह्न आदेश, 1968, जन प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951, इलेक्टोरल ट्रस्ट, इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम। 

मेन्स के लिये: राजनीतिक चंदे, सर्वोच्च न्यायालय समीक्षा, राजनीतिक चंदे के नियामकीय ढाँचे, राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की आवश्यकता और आगे के आवश्यक सुधार।

स्रोत: TH

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय ने उस याचिका की समीक्षा करने का निर्णय लिया है जिसमें उस नियम को चुनौती दी गई है, जो राजनीतिक दलों को 2,000 रुपये से कम का गुमनाम नकद चंदा (इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम) प्राप्त करने की अनुमति देता है। याचिकाकर्त्ताओं का कहना है कि यह प्रावधान अपारदर्शी और अप्राप्य राजनीतिक चंदे (फंडिंग) में एक लूपहोल बनता है, जिसका पता नहीं चल पाता।

याचिका में किस मुख्य चिंता को उजागर किया गया है?

  • नकद चंदा पर पूर्ण प्रतिबंध: यह विधेयक आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13A (d) के तहत स्वीकृत 2000 रुपये तक के नकद दान को समाप्त करने का प्रयास करता है, जो गुमनाम योगदान को सक्षम बनाता है तथा दानकर्त्ता के विवरण का पूर्ण खुलासा करने की मांग करता है। 
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: याचिका में तर्क दिया गया है कि धारा 13A(d) नागरिकों को सूचना के अधिकार से वंचित करके अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करती है तथा कहा गया है कि मतदाताओं को सूचित विकल्प बनाने के लिये राजनीतिक वित्तपोषण के स्रोतों के बारे में पता होना चाहिये।
  • फॉर्म 24A पर निर्देश मांगे गए: याचिका में निर्वाचन आयोग (ECI) को यह निर्देश देने की मांग की गई है कि वह राजनीतिक दलों द्वारा जमा किये गए फॉर्म 24A योगदान-रिपोर्टों की गहन जाँच करना और जिन चंदों में दाता का पता या PAN विवरण नहीं है, उन्हें राजनीतिक दलों से अनिवार्य रूप से जमा कराने (डिपॉज़िट करवाने) के लिये बाध्य करे।
    • यह याचिका निर्वाचन आयोग (ECI) से यह भी आग्रह करती है कि वह चुनाव चिन्ह आदेश, 1968 के पैरा 16A के तहत नियमों का उल्लंघन करने वाली राजनीतिक पार्टियों को नोटिस जारी करे और आवश्यकता पड़ने पर उनके चुनाव चिन्ह को निलंबित या वापस ले ले।
  • प्रस्तावित अन्य सुधार: इसमें आग्रह किया गया है कि राजनीतिक दलों के खातों का लेखा-परीक्षण भारत निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त स्वतंत्र लेखा परीक्षकों द्वारा किया जाए तथा अंशदान और लेखा-परीक्षण रिपोर्ट समय पर प्रस्तुतिकरण को सुनिश्चित करने के लिये मज़बूत तंत्र की मांग की गई है।

भारत में राजनीतिक चंदे के लिये कौन-से नियम लागू होते हैं?

  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29B राजनीतिक दलों को व्यक्तियों और कंपनियों (सरकारी कंपनियों और विदेशी स्रोतों को छोड़कर) से स्वैच्छिक योगदान प्राप्त करने की अनुमति प्रदान करती है।
  • कंपनी अधिनियम, 2013: किसी भी कंपनी—सरकारी कंपनियों और तीन वर्ष से कम पुरानी कंपनियों को छोड़कर—किसी राजनीतिक दल को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई भी राशि दान कर सकती है। हालाँकि, यह राशि पिछले तीन वर्षों के औसत वार्षिक शुद्ध लाभ के अधिकतम 7.5% तक सीमित है।
  • आयकर अधिनियम, 1961: भारतीय कंपनियाँ और व्यक्ति धारा 80GGB और 80GGC के तहत राजनीतिक दलों या चुनावी ट्रस्टों को दिये गए दान पर कर कटौती का दावा कर सकते हैं।
  • विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 (FCRA): सामान्यतः, विदेशी दान निषिद्ध हैं। हालाँकि, विदेशी स्रोत की परिभाषा में संशोधन करके विदेशी निवेश वाली भारतीय कंपनियों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है (50% से अधिक विदेशी शेयरधारिता वाली भारतीय कंपनी को विदेशी स्रोत नहीं माना जाता)। यह कंपनियों (विदेशी सहायक कंपनियों सहित) को दान करने की अनुमति देता है, बशर्ते वे FEMA की क्षेत्रीय सीमाओं का पालन करें।
  • इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम, 2013: कंपनियों द्वारा व्यक्तियों और फर्मों से दान एकत्र करने और उन्हें राजनीतिक दलों को वितरित करने के लिये चुनावी ट्रस्ट की स्थापना की जाती है।
    • यह अपने फंड का 5% तक (प्रशासनिक व्यय के लिये) रख सकता है, 95% पात्र पक्षों (RPA, 1951 की धारा 29A के तहत पंजीकृत) को वितरित करना चाहिये तथा नकद दान स्वीकार नहीं कर सकता है।

राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता क्यों आवश्यक है?

  • सूचित राजनीतिक चयन: नागरिकों को यह जानने का मौलिक सूचना का अधिकार है कि राजनीतिक दलों को निधि कौन देता है। यह अधिकार अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत निहित रूप से संरक्षित है और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (2002) में इसे पुष्टि मिली, जिससे मतदाताओं को सूचित निर्णय लेने में सहायता मिलती है।
    • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (2024): एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2024) में सर्वोच्च न्यायालय ने मतदाताओं के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन होने के कारण इलेक्टोरल बॉण्ड स्कीम को रद्द (असंवैधानिक) कर दिया।
  • संस्थागत ईमानदारी को सुदृढ़ करना: पारदर्शी चंदा लेन-देन आधारित राजनीति के चक्र को तोड़ने में सहायता करती है और संस्थागत ईमानदारी को सुदृढ़ करती है। पारदर्शिता बढ़ने से अपारदर्शिता घटती है, जिससे संसाधन आवंटन, कराधान और विनियमन जैसे क्षेत्रों में होने वाले नियमित नीतिगत विकृतियों पर रोक लगती है।
  • राष्ट्रीय संप्रभुता के लिये सुरक्षा: गुमनाम चंदा चैनल विदेशी हस्तक्षेप को सक्षम बनाते हैं, जिससे प्रतिकूल राज्य या गैर-राज्य अभिकर्त्ता विदेश नीति, रक्षा खरीद या आंतरिक सुरक्षा को प्रभावित कर सकते हैं और भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के लिये खतरा उत्पन्न करते हैं।
  • बाज़ार में विकृतियों को रोकना: गुप्त रूप से दिये गए कॉर्पोरेट दान क्रोनी कैपिटलिज़्म को बढ़ावा देते हैं, जहाँ  राजनीतिक संबंध बाज़ार की दक्षता पर हावी हो जाते हैं।
    • इससे संसाधनों का असमान वितरण होता है, नवाचार पर रोक लगती है, ईमानदार व्यवसायों को हानि होती है और स्थायी आर्थिक विकास प्रभावित होता है।
  • ‘समानतावादी लोकतंत्र’ को बनाए रखना: पारदर्शिता के बिना, लोकतंत्र एक प्लूटोक्रेसी में बदलने का जोखिम उठाता है, जहाँ संपन्न व्यक्ति राजनीतिक पहुँच और प्रभाव खरीदते हैं, जिससे संविधान की प्रस्तावना में निहित समानता के सिद्धांत कमज़ोर पड़ते हैं।
  • वैश्विक मानकों के अनुरूप होना: कई देशों में राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता अनिवार्य है, जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका, जहाँ वर्ष 1910 से इसकी जानकारी सार्वजनिक करने की व्यवस्था लागू है।

भारत में पारदर्शी राजनीतिक चंदे के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • गुमनाम नकद दान पर पूर्ण प्रतिबंध: एक महत्त्वपूर्ण सुधार यह है कि आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13A(d) में संशोधन किया जाए, जिसमें 2000 रुपए तक के नकद दान को हटा दिया जाए या इसे कम सीमा के साथ बदल दिया जाए।
    • सभी राजनीतिक योगदानों को डिजिटल माध्यम से करना अनिवार्य करने से ऑडिट ट्रेल स्पष्ट होगी, नकद समाप्त होगा और डिजिटल पहुँच एवं साक्षरता सुनिश्चित होकर मतदाता वंचना से बचाव होगा।
    • 170वीं कानून आयोग की रिपोर्ट ने RPA की धारा 77 की व्याख्या 1 को हटाने की सिफारिश की, जिसने मित्रों या दलों को स्वतंत्र रूप से व्यय करने की अनुमति दी थी, ताकि सभी उम्मीदवार-संबंधित व्यय को व्यय सीमा में शामिल किया जा सके।
      • इसे हटाने पर सभी व्यय को व्यय सीमा में शामिल किया जाएगा।
  • संस्थागत प्रवर्तन को सुदृढ़ करना: ECI के अधिकारों को मज़बूत करना, ताकि गैर-अनुपालक दलों का पंजीकरण रद्द किया जा सके तथा स्वतंत्र लेखा परीक्षक नियुक्त किये जा सकें, साथ ही RBI और SEBI को यह सुनिश्चित करना कि वे कॉर्पोरेट दानों पर कड़ी निगरानी रखें, ताकि राजनीतिक चंदे में काले धन की रोकथाम हो सके।
    • राजनीतिक दानों से संबंधित शिकायतों का निवारण या व्हिसलब्लोअर संरक्षण की व्यवस्था लागू करने से प्रवर्तन और मज़बूत हो सकता है।
  • वास्तविक-समय पारदर्शिता: सभी राजनीतिक दलों को अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वे दाताओं का विवरण (PAN, पता, राशि) वास्तविक समय में एक ही ECI पोर्टल पर सार्वजनिक रूप से अपलोड करें। यह पोर्टल आयकर विभाग के साथ एकीकृत होना चाहिये ताकि दानों का स्वचालित सत्यापन हो सके और जाँच के लिये  किसी भी विसंगति को चिह्नित किया जा सके।
  • व्यवस्थित और दीर्घकालिक सुधार: चुनावी खर्च के लिये आंशिक राज्य वित्तपोषण लागू किया जाए (जैसे सार्वजनिक एयरटाइम, सीमित प्रिंटिंग) ताकि निजी पूंजी पर निर्भरता कम हो, जैसा कि इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998) और विधि आयोग (1999) ने सिफारिश की थी। इसके अलावा राष्ट्रीय चुनावी व्यय सीमा तय की जाए और निष्पक्ष खर्च सुनिश्चित करने हेतु कड़ी निगरानी की जाए।
    • राज्य द्वारा चंदा सुधारों को आगे की जवाबदेही उपायों से जोड़ा जा सकता है, जैसे कि यह पारदर्शिता कि राजनीतिक दल इन फंडों का उपयोग कैसे करते हैं।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय की राजनीतिक चंदे पारदर्शिता की समीक्षा यह उजागर करती है कि गुमनाम नकद दानों को समाप्त करना, संस्थागत निगरानी को मजबूत करना और दानों का वास्तविक समय में खुलासा सुनिश्चित करना आवश्यक है। पारदर्शी चंदा लोकतंत्र की सुरक्षा करती है, भ्रष्टाचार को रोकती है, नीतियों के अधिग्रहण को टालती है और भारत को वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप बनाती है, जिससे मतदाता समझदारी से अपने मतदान के निर्णय ले सकें।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में लोकतांत्रिक जवाबदेही को मज़बूत करने के लिये राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. आयकर अधिनियम की धारा 13A(d) क्या है?
यह राजनीतिक दलों को ₹2000 तक के नकद दान स्वीकार करने की अनुमति देता है, जिसके बारे में याचिका का दावा है कि यह अपारदर्शी और अनट्रेसेबल फंडिंग को सक्षम बनाता है।

2. वह सर्वोच्च न्यायालय का वह मामला जिसने चुनावी बॉण्ड योजना को रद्द कर दिया?
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत संघ (2024) ने मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन होने के कारण चुनावी बॉण्ड योजना को रद्द कर दिया।

3. चुनावी ट्रस्ट क्या हैं?
चुनावी ट्रस्ट गैर-लाभकारी संस्थाएँ होती हैं जिन्हें कंपनियों द्वारा धन एकत्र करने और उन्हें पात्र राजनीतिक दलों में वितरित करने हेतु स्थापित किया जाता है। ये प्रशासनिक खर्चों के लिये अधिकतम 5% राशि रख सकते हैं और नकद योगदान स्वीकार नहीं कर सकते।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)

  1. भारत का निर्वाचन आयोग पाँच-सदस्यीय निकाय है। 
  2. संघ का गृह मंत्रालय, आम चुनाव और उप-चुनावों दोनों के लिये चुनाव कार्यक्रम तय करता है। 
  3. निर्वाचन आयोग मान्यता-प्राप्त राजनीतिक दलों के विभाजन/विलय से संबंधित विवाद निपटाता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2

(b) केवल 2

(c) केवल 2 और 3

(d) केवल 3

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न. भारत में लोकतंत्र की गुणता को बढ़ाने के लिए भारत के चुनाव आयोग ने 2016 में चुनावी सुधारों का प्रस्ताव दिया है। सुझाए गए सुधार क्या हैं और लोकतंत्र को सफल बनाने में वे किस सीमा तक महत्त्वपूर्ण हैं? (2017)


शासन व्यवस्था

भारत में हिरासत में हिंसा

प्रिलिम्स के लिये: अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 20(1), अनुच्छेद 20(3), मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR), इंटरनेशनल कवनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स, इंटरनेशनल कवनेंट ऑन इकोनॉमिक, सोशल एंड कल्चरल राइट्स, UNCAT, NHRC।

मेन्स के लिये: भारत में हिरासत में यातना (कस्टोडियल टॉर्चर), हिरासत में यातना को रोकने के लिये आवश्यक उपाय।

स्रोत: TH

चर्चा में क्यों? 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस थानों और केंद्रीय अन्वेषण एजेंसी के ऑफिस में CCTV कैमरे लगाने के अपने वर्ष 2020 के आदेश का ठीक से पालन न होने पर ध्यान देने के बाद हिरासत में यातना/कस्टोडियल टॉर्चर के मुद्दे पर फिर से विचार किया। राजस्थान में आठ महीनों में 11 हिरासत में हुई मौतों की रिपोर्ट से यह चिंता और बढ़ गई है।

नोट: वर्ष 2020 में, परमवीर सिंह सैनी बनाम बलजीत सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को हिरासत में यातना रोकने के लिये सभी पुलिस स्टेशनों में CCTV कैमरे और रिकॉर्डिंग सिस्टम लगाने का निर्देश दिया था।

  • यह आदेश राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, राजस्व खुफिया निदेशालय जैसी केंद्रीय एजेंसियों तथा पूछताछ और गिरफ्तारी की शक्तियों वाली किसी भी एजेंसी पर लागू होता है।
  • न्यायालय ने कहा कि ये सुरक्षा उपाय सम्मान और जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा के लिये आवश्यक हैं।

हिरासत में हिंसा क्या है?

  • हिरासत में हिंसा: इसे किसी भी भारतीय कानून में परिभाषित नहीं किया गया है। यह शब्द हिरासत (अर्थात वैध हिरासत या सुरक्षा) और हिंसा को जोड़ता है, जिसका अर्थ पुलिस या न्यायिक हिरासत में किसी व्यक्ति को पहुँचाई गई शारीरिक या मानसिक क्षति है।
  • इसका उल्लेख किसी भी भारतीय कानून में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है। यह शब्द कस्टडी (अर्थात् वैध हिरासत या संरक्षण) तथा हिंसा को मिलाकर बनता है, जो पुलिस या न्यायिक हिरासत में किसी व्यक्ति पर की गई शारीरिक या मानसिक क्षति को दर्शाता है।
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के तहत हिरासत को पुलिस हिरासत (पूछताछ के लिये 15 दिनों तक) और न्यायिक हिरासत (जमानत या सजा पूरी होने तक जेल में हिरासत) में वर्गीकृत किया गया है।
    • हिरासत में हिंसा में यातना, हमला, उत्पीड़न, अपमान, बलात्कार और यहाँ तक ​​कि मृत्यु भी शामिल है, जो तब होती है जब कोई व्यक्ति आधिकारिक हिरासत में होता है।
  • भारत में हिरासत में हिंसा:
    • प्राचीन भारत: कौटिल्य के अर्थशास्त्र  में अत्यंत कठोर दंडों का उल्लेख मिलता है, जिनमें अंग-भंग, जलाना और पशुओं द्वारा हमला करवाना शामिल थे।
  • मध्यकालीन काल: मुग़ल काल में शरीयत-आधारित कानूनों के तहत कठोर शारीरिक दंड आम कानून-प्रवर्तन की प्रक्रिया का हिस्सा थे।
  • ब्रिटिश औपनिवेशिक काल: वर्ष 1861 के पुलिस अधिनियम ने दमन के लिये एक बल का निर्माण किया।
    • राजनीतिक कैदियों और सामान्य बंदियों को अक्सर पीटा जाता था, भूखा रखा जाता था या गंभीर शारीरिक दंड दिया जाता था। 
    • 1894 का कारागार अधिनियम, जिसने जेल अधिकारियों को व्यापक अधिकार प्रदान किये, आज भी जेल प्रशासन को प्रभावित करता है।
  • स्वतंत्रता के बाद की अवधि:  स्वतंत्रता के बाद, भारत ने बहुत कम सुधार के साथ अपनी औपनिवेशिक युग की पुलिसिंग और जेल प्रणाली को बरकरार रखा। 
    • नियंत्रण और जबरदस्ती की पुरानी मानसिकता कायम रही तथा पुराने कानूनों, कमज़ोर जवाबदेही और खराब संस्थागत आधुनिकीकरण के कारण हिरासत में हिंसा जारी रही।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को वर्ष 2023-2024 के दौरान न्यायिक हिरासत में मृत्यु से संबंधित 2,346 नई सूचनाएँ और पुलिस हिरासत में मृत्यु से संबंधित 160 सूचनाएँ प्राप्त हुईं।

भारत में हिरासत में हिंसा को किस प्रकार नियंत्रित किया जाता है?

संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार या दंड से स्वतंत्रता शामिल है। 
  • अनुच्छेद 20(1): इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे कार्य के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता जो उस समय कानून के तहत अपराध नहीं था, जिससे अत्यधिक या पूर्वव्यापी दंड पर रोक लगती है। 
  • अनुच्छेद 20(3): किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिये मज़बूर किये जाने से संरक्षण प्रदान करता है। यह प्रावधान आरोपी को यातना, दबाव या जबरन स्वीकारोक्ति से बचाता है।

कानूनी प्रावधान

  • भारतीय न्याय संहिता (2023): यह उन व्यक्तियों को दंडित करती है जो हिंसा या दबाव के माध्यम से स्वीकारोक्ति या जानकारी प्राप्त करने के लिये जानबूझकर चोट या गंभीर चोट पहुँचाते हैं।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS, 2023): यह अनिवार्य करती है कि गिरफ्तारी और हिरासत वैध कारणों और प्रलेखित प्रक्रियाओं के अनुसार ही की जाए।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023): यह किसी भी ऐसे स्वीकारोक्ति कथन को अमान्य घोषित करता है जो प्रलोभन, धमकी, दबाव या किसी वादे के आधार पर कराया गया हो।

अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा उपाय

  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945: यह अनिवार्य करता है कि कैदियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाए तथा यह पुष्टि करता है कि उनके मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा के तहत संरक्षित रहें (भारत ने 1979 में ICCPR की पुष्टि की)। 
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945: यह अनिवार्य करता है कि कैदियों के साथ गरिमा के साथ व्यवहार किया जाए। यह भी सुनिश्चित करता है कि अंतर्राष्ट्रीय नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर वाचा (ICCPR), जिसे भारत ने वर्ष 1979 में अनुमोदित किया, के तहत उनके मौलिक अधिकार और स्वतंत्रताएँ सुरक्षित रहें।
  • मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (1948): यह व्यक्तियों को यातना, क्रूर व्यवहार और जबरन हिरासत किये जाने से बचाता है तथा सम्मान एवं सुरक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करता है। 

हिरासत में यातना रोकने के निर्देश

  • भारतीय विधि आयोग ने अपनी 273वीं रिपोर्ट (2017) में भारत से UNCAT की पुष्टि करने और यातना को अपराध घोषित करने वाला एक समर्पित कानून बनाने का आग्रह किया।
  • न्यायिक घोषणाएँ: 
    • डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997): सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी और हिरासत के दिशा-निर्देश निर्धारित किये, थर्ड-डिग्री विधियों पर रोक लगाई तथा लोक सेवकों द्वारा हिरासत में हिंसा के लिये राज्य को जवाबदेह ठहराया।
    • नांबी नारायणन बनाम सिबी मैथ्यूज और अन्य (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने गलत तरीके से गिरफ्तारी और उत्पीड़न के कारण हुए भारी अपमान के लिये उन्हें मुआवजा देने का आदेश दिया, जो हिरासत में यातना और झूठे मुकदमे से होने वाली गंभीर मानसिक पीड़ा को रेखांकित करता है।

भारत में हिरासत में हिंसा को रोकने में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • कमज़ोर कानूनी ढाँचा: भारत में अभी भी यातना की स्पष्ट कानूनी परिभाषा नहीं है, जिससे अभियोजन मुश्किल हो जाता है और प्रवर्तन में बड़े अंतर रह जाते हैं।
    • 1861 का पुलिस अधिनियम और 1894 का कारागार अधिनियम जैसी औपनिवेशिक कानून अभी भी पुलिसिंग और जेल प्रशासन को न्यूनतम सुधार के साथ आकार देते हैं।
    • यातना निवारण विधेयक कभी कानून नहीं बन पाया और व्यापक विरोध-यातना कानून की अनुपस्थिति हिरासत में होने वाले दुरुपयोग को रोकने में एक बड़ी बाधा बनी हुई है।
  • जवाबदेही की कमी और संस्थागत संरक्षण: BNSS के तहत अभियोजन के लिये पहले से सरकार की अनुमति आवश्यक होने के कारण अधिकारी कानूनी कार्रवाई से सुरक्षित रहते हैं।
    • हिरासत में होने वाली मौतों की जाँच में देरी, साक्ष्यों के नष्ट होने और जाँच की स्वतंत्रता की कमी के कारण दोषसिद्धि की दर कम रहती है।
  • औपनिवेशिक पुलिसिंग संस्कृति और दंडात्मक मानसिकता: भारत में पुलिसिंग की संस्कृति अभी भी औपनिवेशिक जड़ों से प्रभावित है, जो नियंत्रण बनाए रखने के लिये बल प्रयोग पर आधारित थी।
    • कुछ अधिकारी मानते हैं कि अपराधियों से निपटने के लिये शारीरिक ज़बरदस्ती आवश्यक है, और कुछ मामलों में थर्ड-डिग्री तरीके पुलिस की उपसंस्कृति का हिस्सा बन गए हैं।
    • ‘सख्त कार्रवाई’ की सामाजिक स्वीकृति और राजनीतिक हस्तक्षेप इन दंडात्मक रुझानों और प्रथाओं को और अधिक मज़बूत करते हैं।
  • व्यावसायिक दक्षता और भ्रष्टाचार का अभाव: फोरेंसिक तरीकों, मानवाधिकारों और गैर-ज़बरदस्ती पूछताछ में अपर्याप्त प्रशिक्षण के कारण अधिकारी अक्सर शारीरिक बल पर निर्भर रहते हैं।
    • आधुनिक जाँच उपकरणों और वैज्ञानिक क्षमता की कमी के कारण जानकारी निकालने के लिये यातना को एक आसान रास्ता माना जाता है।
    • हिरासत में हिंसा का अक्सर भ्रष्टाचार के उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है; शक्तिशाली स्टेशन हाउस अधिकारी (SHO)-आधारित पदानुक्रम ऐसे दुराचार को बढ़ावा देता है, जिससे यातना वित्तीय लाभ या प्रभाव का साधन बन जाती है।
  • विलंबित न्याय और कमज़ोर निगरानी तंत्र: धीमी न्यायिक प्रक्रियाएँ, विलंबित चिकित्सा रिपोर्टें और अप्रभावी मजिस्ट्रेटीय जाँच हिरासत में होने वाले दुरुपयोग को अनियंत्रित छोड़ने का अवसर उत्पन्न करते हैं।
    • NHRC जैसी निगरानी संस्थाएँ दिशा-निर्देश जारी करती हैं, लेकिन उनकी सिफारिशें केवल सलाहकार होती हैं और अक्सर उन्हें अनदेखा कर दिया जाता है।
    • यहाँ तक कि CCTV लगवाने जैसे न्यायालय के आदेशों का भी पालन कम होता है, जिससे हिरासत में हिंसा न्यूनतम जांच के साथ जारी रहती है।

भारत में हिरासत में हिंसा को कैसे रोका जा सकता है?

  • कानून में हिरासत में हिंसा की परिभाषा तय करना और CAT का अनुमोदन करना: भारत को ‘हिरासत में हिंसा’ की स्पष्ट कानूनी परिभाषा निर्धारित करनी चाहिये और यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (CAT) का अनुमोदन करना चाहिये, जिसे भारत ने वर्ष 1997 में हस्ताक्षरित तो किया था, लेकिन अभी तक अनुमोदित नहीं किया है।
    • CAT का अनुमोदन भारत को वैश्विक मानकों के अनुरूप बाध्य करेगा, यातना को एक दंडनीय अपराध के रूप में परिभाषित करने की आवश्यकता उत्पन्न करेगा और जवाबदेही तंत्र को मज़बूत करेगा।
    • CAT के अनुरूप एक एंटी-टॉर्चर लॉ लागू करने से हिरासत में होने वाले अत्याचारों के प्रति शून्य सहनशीलता का स्पष्ट संदेश जाएगा तथा राज्य को ऐसे उल्लंघनों को रोकने, जाँच करने और दंडित करने के लिये बाध्य करेगा।
  • प्रौद्योगिकी के माध्यम से पारदर्शिता बढ़ाना: CCTV निगरानी, डिजिटल गिरफ्तारी रिकॉर्ड और क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम्स (CCTNS) जैसे वास्तविक समय की रिपोर्टिंग प्रणालियों का विस्तार किया जाना चाहिये।
    • प्रौद्योगिकी दुरुपयोग की संभावनाओं को कम करती है और साक्ष्यों की गुणवत्ता में सुधार करती है।
  • पेशेवर क्षमता में सुधार: पुलिस कर्मियों को अनबलित पूछताछ, फॉरेंसिक उपकरणों और वैज्ञानिक जाँच में प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
    • मानवाधिकार संवेदनशीलता, तनाव प्रबंधन कौशल और नैतिक पुलिसिंग मॉड्यूल को प्रशिक्षण अकादमियों में शामिल किया जाना चाहिये।
  • मानवाधिकार संस्थाओं को सुदृढ़ करना: NHRC को केवल सलाहकार भूमिका के बजाय बाध्यकारी अधिकार दिये जाने चाहिये। हिरासत में हुई मृत्यु की 24 घंटे के भीतर रिपोर्टिंग पूरी तरह से अनिवार्य होनी चाहिये और अनुपालन न करने पर परिणामस्वरूप दंडात्मक कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिये।
  • सार्वजनिक जागरूकता और कानूनी साक्षरता बढ़ाना: नागरिकों को अपनी गिरफ्तारी के अधिकारों और सुरक्षा उपायों के बारे में सूचित किया जाना चाहिये। नागरिक समाज, मीडिया और सामुदायिक पुलिसिंग पहलों के माध्यम से हिंसक पुलिसिंग के प्रति सहनशीलता को कम किया जा सकता है।

निष्कर्ष

भारत में हिरासत में हिंसा कमज़ोर कानूनी सुरक्षा, अपर्याप्त जवाबदेही और पुराने पुलिस ढाँचों के कारण बनी हुई है। संवैधानिक अधिकारों और मानव गरिमा की रक्षा के लिये निगरानी तंत्र को मज़बूत करना, कानून में यातना की स्पष्ट परिभाषा जोड़ना और CAT का अनुमोदन करना अत्यंत आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न. औपनिवेशिक पुलिस ढाँचे और दंडात्मक पुलिस उप-संस्कृति भारत में हिरासत में हिंसा के मुख्य कारण हैं। विवेचना कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. हिरासत में हिंसा क्या है?
हिरासत में हिंसा वह शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न है जो पुलिस या राज्य प्राधिकरणों द्वारा हिरासत में रखे गए व्यक्तियों पर किया जाता है। इसमें पिटाई, यौन हिंसा, धमकियाँ, नींद से वंचित करना और जबरन स्वीकारोक्ति करवाना शामिल हैं। यह अनुच्छेद 21 (गरिमा के अधिकार) का उल्लंघन करता है।

2. हिरासत सुरक्षा के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्देश कौन-से हैं? 
डी.के. बसु (1997) ने गिरफ्तारी, हिरासत और चिकित्सकीय परीक्षण से संबंधित प्रक्रियागत सुरक्षा उपाय निर्धारित किए गए। परमवीर सिंह सैनी (2020) ने पुलिस थानों व पूछताछ कक्षों में CCTV और रिकॉर्डिंग सिस्टम अनिवार्य किये गए, ताकि यातना को रोका जा सके।

3. भारत को UNCAT की पुष्टि क्यों करनी चाहिये?
यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCAT) की पुष्टि करने से भारत को यातना को अपराध घोषित करना, रोकथाम के उपाय अपनाना, स्वतंत्र शिकायत तंत्र विकसित करना और जवाबदेही को मज़बूत करना अनिवार्य होगा, जिससे बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा किया जा सके।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले साल के सवाल (PYQ)

मेन्स 

प्रश्न. यद्यपि मानवाधिकार आयोगों ने भारत में मानवाधिकारों की सुरक्षा में काफी हद तक योगदान दिया है, फिर भी वे ताकतवर और प्रभावशालियों के विरुद्ध अधिकार जताने में असफल रहे हैं। इनकी संरचनात्मक एवं व्यावहारिक सीमाओं का विश्लेषण करते हुए सुधारात्मक उपायों के सुझाव दीजिये। (2021) 

प्रश्न. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)


भारतीय अर्थव्यवस्था

आर्थिक समुत्थानशीलता के लिये MSMEs को सशक्त बनाना

प्रिलिम्स के लिये: MSME, प्राथमिकता क्षेत्र ऋण, मुद्रा, गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA), व्यापार प्राप्य बट्टाकरण/छूट प्रणाली (TReDS), समाधान पोर्टल, खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC), नीति आयोग, बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR), क्लाउड कंप्यूटिंग

मेन्स के लिये: MSME क्षेत्र का GDP, रोज़गार और निर्यात में योगदान, साथ ही क्रेडिट अंतर, विलंबित भुगतान जैसी चुनौतियाँ और आवश्यक नीति हस्तक्षेप।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

डिलेड पेमेंट्स रिपोर्ट 3.0, ‘MSME की वित्तीय पहुँच और समय पर भुगतान’ यह दर्शाती है कि कई MSME कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं, जो उनके विकास तथा भारतीय अर्थव्यवस्था में योगदान को सीमित करती हैं, एवं यह क्षेत्र में नवाचार व प्रतिस्पर्द्धात्मक क्षमता को सशक्त बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (MSMEs) क्या है?

  • परिचय: सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs) वे व्यवसाय हैं जिन्हें उनके संयंत्र और मशीनरी या उपकरण में निवेश और वार्षिक कारोबार के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।
    • ये भारत की अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये उद्यमिता को बढ़ावा देते हैं, रोज़गार सृजित करते हैं, और ग्रामीण तथा अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहित करते हैं।
  • MSME का वर्गीकरण:

MSME_Classification

  • भारत में MSME विनियमन: MSME विकास अधिनियम, 2006, MSME से संबंधित मुद्दों को संबोधित करता है, एक राष्ट्रीय बोर्ड स्थापित करता है, उद्यम की परिभाषा देता है और केंद्रीय सरकार को MSME की प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने का अधिकार प्रदान करता है।
    • वर्ष 2007 में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय का गठन किया गया, जो नीतियाँ विकसित करता है, कार्यक्रमों की सुविधा प्रदान करता है और MSMEs का समर्थन करने के लिये कार्यान्वयन की निगरानी करता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में MSMEs की क्या भूमिका है?

  • आर्थिक विकास और रोज़गार के इंजन: MSMEs भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में लगभग 29% तथा विनिर्माण उत्पादन में लगभग 36% का योगदान देती हैं।
    • यह 12 करोड़ से अधिक लोगों को रोज़गार देती है। उदाहरण के लिये वस्त्र उद्योग में स्पिनिंग, बुनाई और परिधान निर्माण में लाखों लोग काम करते हैं।
  • निर्यात और वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देना: MSMEs भारत के कुल निर्यात का लगभग 45% हिस्सा होती हैं, जिससे भारत की वैश्विक व्यापार में स्थिति मज़बूत होती है। हस्तशिल्प क्षेत्र, जो छोटे उद्यमों द्वारा संचालित है, वैश्विक हस्तनिर्मित कार्पेट निर्यात में लगभग 40% योगदान देता है।
  • ग्रामीण विकास और समावेशिता: MSMEs ग्रामीण औद्योगिकीकरण और समावेशी विकास को बढ़ावा देती हैं, जो डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के PURA (ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएँ प्रदान करना) दृष्टिकोण के अनुरूप है। खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) जैसी संस्थाएँ, जो मुख्यतः लघु इकाइयाँ हैं, संतुलित क्षेत्रीय विकास में सहायता करती हैं।
  • नवाचार को बढ़ावा देना: भारत की स्टार्टअप इकोसिस्टम—जो वैश्विक स्तर पर तीसरी सबसे बड़ी है—मुख्य रूप से MSMEs द्वारा संचालित है, जिसमें ई-कॉमर्स, फिनटेक और अन्य उभरते उद्योगों में नवाचार शामिल हैं।
  • महिला सशक्तीकरण: उद्यम पंजीकरण पोर्टल के अनुसार, 20% से अधिक MSMEs महिलाओं के स्वामित्व वाली हैं, जो उद्यमिता में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दर्शाता है।

भारत में MSME विकास को बाधित करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

वित्तीय बाधा (रिपोर्ट के अनुसार)

  • विलंबित भुगतान: विलंबित भुगतानों का मूल्य अत्यधिक 8.14 लाख करोड़ रुपये है। यह आवश्यक कार्यशील पूंजी को बाधित करता है, जिससे व्यवसाय कच्चे माल, नई मशीनरी में निवेश करने या अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देने में असमर्थ रहते हैं।
  • अपर्याप्त क्रेडिट की आवश्यकता: रिपोर्ट के अनुसार, अपर्याप्त क्रेडिट की आवश्यकता लगभग 25 लाख करोड़ रुपये है।
    • हालाँकि बैंक ऋण 12.99 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ गए हैं, फिर भी एक बड़ा अंतर बना हुआ है, जिससे MSMEs को महंगे अनौपचारिक ऋण पर निर्भर रहना पड़ता है या विकास के अवसर गवाँ देते हैं।
  • कड़े बैंकिंग मानदंड: प्राथमिकता क्षेत्र ऋण, और मुद्रा ऋण जैसी क्रेडिट नीतियाँ कवरेज बढ़ा चुकी हैं, लेकिन निम्न कारणों से असफल हैं:
    • सूचना विषमता (बैंकों के पास छोटे व्यवसायों की ऋण-योग्यता का सही आकलन करने के लिये पर्याप्त डेटा नहीं होता)।
    • दंडात्मक गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) वर्गीकरण मानदंड, जिनके कारण बैंक संभावित रूप से जोखिमपूर्ण मानी जाने वाली MSMEs को ऋण देने में हिचकिचाते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि ये ऋण तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के रूप में वर्गीकृत हो जाएंगे।

अन्य बाधाएँ

  • औपचारिकरण की बाधा: कर और नियामकीय जाँच के भय के कारण कई छोटे उद्यमी औपचारिक रूप से पंजीकरण कराने से बचते हैं, जिससे उन्हें औपचारिक ऋण तथा सरकारी योजनाओं तक पहुँच सीमित हो जाती है। नीति आयोग के अनुसार, भारत में 90% से अधिक MSME अभी भी अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं।
  • विशेषीकृत ज्ञान तक अपर्याप्त पहुँच: MSME को प्राय: निर्यात, बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) फाइलिंग और गुणवत्ता प्रमाणन (ISO) के लिये किफायती परामर्श सेवाएँ उपलब्ध नहीं हो पातीं, जिसके कारण वे उच्च-मूल्य वाले बाज़ारों से बाहर रह जाती हैं। इसके साथ ही, उन्हें विस्तार और संकट प्रबंधन में मार्गदर्शन देने वाले मेंटरशिप नेटवर्क भी नहीं मिल पाते।
  • वैश्विक आपूर्ति शृंखला आघातों के प्रति संवेदनशीलता: कई MSME कच्चे माल के आयात पर निर्भर रहती हैं, जिससे वे महामारी, भू-राजनीतिक संघर्ष या शिपिंग संकट जैसे कारकों के प्रति अत्यंत संवेदनशील हो जाती हैं। ये परिस्थितियाँ आपूर्ति शृंखलाओं को बाधित करती हैं और इनपुट लागत बढ़ा देती हैं।
    • उदाहरण: लाल सागर में व्यवधानों के कारण अगस्त 2024 में भारत के निर्यात में 9.3% की गिरावट दर्ज की गई।
  • सीमित बाज़ार पहुँच: MSME को सीमित विपणन और डिजिटल पहुँच का सामना करना पड़ता है। उच्च शुल्कों (जैसे अमेरिका के 50% टैरिफ) के कारण प्रतिस्पर्द्धात्मकता घट जाती है और छोटे आकार के कारण प्रति-इकाई लागत बढ़ जाती है, जिससे निर्यात और लाभप्रदता दोनों बाधित होते हैं।
    • कार्यशील पूंजी की कमी के चलते MSME निरंतर अस्तित्व बनाए रखने की चुनौती से जूझती रहती ह, जिसके परिणामस्वरूप अनुसंधान एवं विकास, नई तकनीकों या मशीनरी के आधुनिकीकरण में निवेश के लिये पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता।

MSME को सशक्त करने हेतु प्रमुख समितियाँ

  • वित्त संबंधी स्टैंडिंग कमेटी की MSME क्रेडिट पर रिपोर्ट (अप्रैल 2022):
    • कैश-फ्लो आधारित ऋण: आस्ति-आधारित ऋणों से हटकर वास्तविक समय के कैश-फ्लो आधारित ऋणों की ओर बढ़ना तथा बेहतर ऋण मूल्यांकन के लिये GSTIN को अकाउंट एग्रीगेटर फ्रेमवर्क से जोड़ना।
    • MSME औपचारिकरण को गति देना: GST चालानों को ऋण पहुँच से जोड़कर GST पंजीकरण को प्रोत्साहित करना, जिससे औपचारिक ऋण का उपयोग बढ़े और महंगे अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भरता KAM HO।
    • लक्षित क्रेडिट गारंटी: संकट के समय संवेदनशील क्षेत्रों (जैसे सैलून, टूर एजेंसियाँ, ग्रामीण MSME) को वित्तीय सहायता सुनिश्चित करने के लिये लक्षित गारंटियाँ प्रदान करना।
    • SIDBI की भूमिका को सुदृढ़ करना: SIDBI में ₹5,000–10,000 करोड़ का निवेश करना ताकि वह NBFC को वित्त उपलब्ध करा सके और उधार लागत कम कर सके (जैसे उद्यम असिस्ट प्लेटफार्म पंजीकरण और वित्तीय लिंक प्रदान करने हेतु)।
  • यूके सिन्हा समिति (2019): इसने नोटबंदी, GST और तरलता संकट से प्रभावित MSME के लिये ₹5,000 करोड़ का तनावग्रस्त परिसंपत्ति कोष बनाने की सिफारिश की। साथ ही, मुद्रा उधारकर्त्ताओं, स्वयं-सहायता समूहों (SHG) और MSME के लिये बिना गारंटी वाले ऋण की सीमा ₹10 लाख से बढ़ाकर ₹20 लाख करने की अनुशंसा की।
  • आबिद हुसैन समिति (1997): इस समिति ने सुझाव दिया कि भविष्य की नीति सुरक्षा के बजाय प्रोत्साहन पर केंद्रित होनी चाहिये। साथ ही, प्रशिक्षण और विपणन सहायता प्रदान करने तथा उद्यम क्लस्टर्स में अवसंरचना विकसित करने की सिफारिश की।
  • नायक समिति (1992): इसने अनुशंसा की कि बैंक किसी व्यवसाय के वार्षिक टर्नओवर का कम से कम 20% वित्त के रूप में प्रदान करें, जबकि व्यवसाय 5% मार्जिन के रूप में योगदान दे।

भारत के MSME क्षेत्र को रूपांतरित करने के लिये कौन-सी प्रमुख रणनीतियाँ आवश्यक हैं?

  • वैकल्पिक वित्तपोषण को बढ़ावा देना: इनवॉइस डिस्काउंटिंग, पीयर-टू-पीयर (P2P) लेंडिंग तथा हाई-ग्रोथ MSMEs के लिये वेंचर डेट को बढ़ावा दिया जाएँ। GST, उपयोगिता बिलों और उद्यम डेटा का उपयोग करके एक पब्लिक क्रेडिट रजिस्ट्री बनाई जाएँ, ताकि कोलेटरल-आधारित ऋण के बजाय कैश-फ्लो आधारित ऋण को सक्षम बनाया जा सके।
  • बाज़ार तक पहुँच: ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों के साथ मिलकर कम शुल्क वाले, केवल MSMEs के लिये समर्पित स्टोरफ्रंट बनाए जाएँ, जिनमें ऑनबोर्डिंग, कैटलॉगिंग और डिजिटल मार्केटिंग का समर्थन शामिल हो।
    • निर्यात संघों को अनुदान और लॉजिस्टिक सहायता देकर MSME क्लस्टर्स को बड़े ऑर्डर पूरे करने तथा अंतर्राष्ट्रीय मानकों को प्राप्त करने में सहायता दी जाएँ।
  • प्रौद्योगिकी अपनाना: MSME को क्लाउड कंप्यूटिंग और स्वचालित मशीनरी अपनाने के लिये वित्तीय अनुदान प्रदान किये जाएँ ताकि उनकी उत्पादकता बढ़ सके। तकनीकी उन्नयन के लिये किफायती परामर्श सेवाएँ उपलब्ध कराने हेतु क्षेत्र-विशेष टेक क्लीनिक स्थापित किये जाएँ।
  • MSME समाधान पोर्टल को मज़बूत बनाना: बड़ी कंपनियों द्वारा MSME को 45 दिनों से अधिक समय तक भुगतान में देरी करने पर स्वचालित दंड लागू किये जाएँ। सूक्ष्म उद्यमों के वैधानिक बकायों के निपटान हेतु एकमुश्त निपटान योजना लागू की जाएँ, ताकि उनका कानूनी भार कम किया जा सके।
  • अनुकूलन क्षमता को मज़बूत करना: क्लस्टर-आधारित विकास को बढ़ावा दिया जाएँ, जिसमें कॉमन फैसिलिटी सेंटर (जैसे परीक्षण, डिज़ाइन, R&D) और साझा अवसंरचना (अपशिष्ट उपचार, वेयरहाउसिंग) उपलब्ध हों, ताकि लागत कम हो सके। साथ ही, हरित प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के लिये कर लाभ, त्वरित ऋण और ESG प्रमाणन जैसी प्रोत्साहन व्यवस्थाएँ लागू की जाएँ।

निष्कर्ष

MSME क्षेत्र भारत की आर्थिक वृद्धि, रोज़गार और निर्यात के लिये महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इसका पूर्ण क्षमता क्रेडिट गैप, भुगतान में देरी तथा तकनीकी पुरातनता जैसी बाधाओं के कारण सीमित है। इसके पूरे प्रभाव के लिये औपचारिककरण, डिजिटल वित्त, बाज़ार तक पहुँच और अनुकूल अवसंरचना पर आधारित परिवर्तनकारी रणनीति आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न. ‘MSME क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बनी है, फिर भी यह इसकी सबसे कमज़ोर कड़ी भी है’। MSMEs को वित्तीय और संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करने के परिप्रेक्ष्य में इस कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. भारत में MSMEs क्या हैं?

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs) वे व्यवसाय हैं जिन्हें उनके प्लांट, मशीनरी में निवेश और टर्नओवर के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। ये रोज़गार, निर्यात और ग्रामीण औद्योगिकीकरण के लिये  महत्त्वपूर्ण हैं।

2. MSMEs भारत की अर्थव्यवस्था में कैसे योगदान देते हैं?

ये GDP का 29%, उत्पादन का 36%, लगभग निर्यात का 45% प्रदान करते हैं और 120 मिलियन से अधिक लोगों को रोज़गार देते हैं।

3. देर से भुगतान MSMEs की वृद्धि को कैसे प्रभावित करता है?

₹8.14 लाख करोड़ से अधिक मूल्य के देर से भुगतान आवश्यक वर्किंग कैपिटल को रोक देते हैं, जिससे MSMEs की कच्चे माल, नई मशीनरी और नवाचार में निवेश करने की क्षमता प्रभावित होती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स 

प्रश्न. विनिर्माण क्षेत्र के विकास को प्रोत्साहित करने के लिये भारत सरकार ने कौन-सी नई नीतिगत पहल की है/ हैं? (2012)  

  1. राष्ट्रीय निवेश तथा विनिर्माण क्षेत्रो की स्थापना
  2. 'एकल खिड़की मंजूरी' (सिंगल विड़ो क्लीयरेंस) की सुविधा प्रदान करना
  3. प्रौद्योगिकी अधिग्रहण तथा विकास कोष की स्थापना

निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1

(b) केवल 2 और 3

(c) केवल 1 और 3

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d) 


प्रश्न. सरकार के समावेशित वृद्धि लक्ष्य को आगे ले जाने में निम्नलिखित में से कौन-सा/कौन-से कार्य सहायक साबित हो सकते हैं: (2011)  

  1. स्व-सहायता समूहों (सेल्फ-हैल्प ग्रुप्स) को प्रोत्साहन देना
  2. सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को प्रोत्साहन देना
  3. शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू करना

निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1

(b) केवल 1 और 2

(c) केवल 2 और 3

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d) 


प्रश्न. भारत के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2023) 

  1. ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम विकास (एम.एस.एम.ई.डी.) अधिनियम 2006’ के अनुसार, ‘जिनके संयंत्र और मशीन में निवेश 15 करोड़ रुपये से 25 करोड़ रुपये के बीच हैं, वे मध्यम उद्यम हैं’।  
  2.  सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को दिये गए सभी बैंक ऋण प्राथमिकता क्षेत्रक के अधीन हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/है?

(a) केवल 1                            
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों               
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर:(b)


मेन्स

प्रश्न. "सुधारोत्तर अवधि में सकल-घरेलू-उत्पाद (जी.डी.पी.) की समग्र संवृद्धि में औद्योगिक संवृद्धि दर पिछड़ती  गई है।" कारण बताइये। औद्योगिक नीति में हाल में किये गए परिवर्तन औद्योगिक संवृद्धि दर को बढ़ाने में कहाँ तक सक्षम हैं? (2017)

प्रश्न. सामान्यतः देश कृषि से उद्योग और बाद में सेवाओं को अंतरित होते हैं पर भारत सीधे ही कृषि से सेवाओं को  अंतरित हो गया। देश में उद्योग के मुकाबले सेवाओं की विशाल संवृद्धि के क्या कारण हैं? क्या भारत सशक्त औद्योगिक आधार के बिना एक विकसित देश बन सकता है? (2014)


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