आंतरिक सुरक्षा
26/11 हमलों के बाद से भारत की आतंकवाद विरोधी प्रतिक्रिया में बदलाव
प्रिलिम्स के लिये: नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (NSG), विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (UAPA), राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (NIA), मल्टी-एजेंसी सेंटर (MAC), नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (NATGRID), आंतरिक जलक्षेत्र/प्रादेशिक जल, सीईआरटी-इन (CERT-In: कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम – इंडिया)
मेन्स के लिये: 26/11 हमले के बाद भारत की आतंकवाद-रोधी संरचना में किये गए प्रमुख बदलाव, भारत की आतंकवाद-रोधी क्षमताओं में अब भी बनी सीमाएँ, आतंकवाद-रोधी प्रयासों को मज़बूत करने के लिये उठाए जा सकने वाले कदम
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रपति ने 26/11 हमले में अपने प्राणों की आहुति देने वाले सैनिकों को श्रद्धांजलि दी और सभी से आतंकवाद के हर रूप के विरुद्ध अपने संकल्प को पुनः मज़बूत करने का आह्वान किया।
- 26 नवंबर, 2008 को पाकिस्तान स्थित लश्कर-ए-तैयबा (LeT) से जुड़े 10 सशस्त्र आतंकवादियों ने मुंबई में हमले किये, जिसके परिणामस्वरूप 60 घंटे तक चले इस अभियान में 166 लोगों की दुखद मृत्यु हुई, जिनमें 18 सुरक्षा कर्मी भी शामिल थे।
26/11 के हमलों के बाद भारत के आतंकवाद-रोधी ढाँचे में कौन-से प्रमुख सुधार किये गए?
- कानूनी सुधार: राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (NIA) अधिनियम, 2008 को अधिनियमित किया गया, जिसने अंतर-राज्य समन्वय मुद्दों पर काबू पाते हुए, आतंकवादी मामलों की जाँच के लिये एक संघीय निकाय के रूप में राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (NIA) की स्थापना की।
- आतंकवादी कृत्य की परिभाषा को व्यापक बनाने के लिये विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (UAPA) में संशोधन किया गया।
- खुफिया जानकारी को मज़बूत करना: 2010 में स्थापित नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (NATGRID) एक सुरक्षित, एकीकृत डेटाबेस बनाकर एक प्रमुख आतंकवाद-रोधी पहल के रूप में कार्य करता है, जो सुरक्षा एजेंसियों को सूचना साझा करने और कई सरकारी स्रोतों से डेटा का उपयोग करके संदिग्धों को ट्रैक करने में सक्षम बनाता है।
- इसने वास्तविक समय सूचना समन्वय को सक्षम करने के लिये मल्टी-एजेंसी सेंटर (MAC) को बढ़ाकर राष्ट्रीय खुफिया संरचना को और मज़बूत किया।
- तटीय सुरक्षा सुदृढ़ीकरण: भारत ने एक बहुस्तरीय रक्षा प्रणाली लागू की, जिसमें भारतीय नौसेना समग्र समुद्री सुरक्षा के लिये ज़िम्मेदार है तथा भारतीय तटरक्षक बल क्षेत्रीय जल का प्रबंधन करता है तथा समुद्री पुलिस स्टेशनों के साथ समन्वय करता है।
- जहाज़ों की आवाजाही पर नज़र रखने के लिये समुद्र तट के किनारे रडार सेंसरों का एक तटीय निगरानी नेटवर्क भी स्थापित किया गया।
- पुलिस और विशेष बलों का आधुनिकीकरण: तेज़ प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिये कई राज्यों ने अपने विशेष बल स्थापित किये, जैसे महाराष्ट्र में फोर्स वन। साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) को विकेंद्रित करते हुए मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और कोलकाता में चार क्षेत्रीय हब स्थापित किये गए, ताकि पूरे देश में तेज़ और प्रभावी तैनाती सुनिश्चित की जा सके।
- सॉफ्ट टारगेट सुरक्षा: होटलों और हवाई अड्डों जैसे प्रमुख सॉफ्ट टारगेटों की सुरक्षा को उन्नत प्रोटोकॉल, CCTV कैमरे और एक्सेस कंट्रोल के साथ काफी उन्नत किया गया।
- इसके साथ ही डिजिटल खतरों का सामना करने के लिये CERT-In को सशक्त बनाकर भारत की साइबर सुरक्षा को मज़बूत किया गया।
कौन-सी प्रमुख सीमाएँ भारत की आतंकवाद-रोधी क्षमताओं को प्रभावित कर रही हैं?
- राष्ट्रीय आतंकवाद-रोधी सिद्धांत का अभाव: भारत के पास अभी भी एकीकृत और दीर्घकालिक आतंकवाद-रोधी सिद्धांत नहीं है, जिसके कारण प्रतिक्रिया-आधारित दृष्टिकोण अपनाया जाता है, जो केवल बड़े हमलों के बाद ही सक्रिय होता है।
- स्पष्ट रणनीतिक ढाँचे के बिना नीतियाँ राजनीतिक नेतृत्व के साथ बदलती रहती हैं, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये सुसंगत और द्वि-दलीय दृष्टिकोण विकसित नहीं हो पाता।
- खुफिया तंत्र: लगातार ‘स्टोव-पाइपिंग’ यानी खुफिया जानकारी अभाव का रहना है, जहाँ IB, R&AW और राज्य पुलिस जैसी एजेंसियों के बीच सुचारु समन्वय की कमी है, जिससे मल्टी-एजेंसी सेंटर (MAC) की प्रभावशीलता घटती है।
- नवंबर 2025 के लाल किला कार विस्फोट ने सुरक्षा एजेंसियों के बीच गहरी समन्वय की कमी के आभाव को उजागर किया, क्योंकि पड़ोसी राज्यों में पहले बरामद किये गए विस्फोटकों से संबंधित जानकारी न तो समय पर मिल पाई और न ही प्रभावी रूप से साझा की गई।
- आलोचकों का तर्क है कि MAC में सूचना एकीकरण के अभाव के कारण दिल्ली पुलिस समय पर कार्रवाई नहीं कर सकी।
- कानूनी और न्यायिक खामियाँ: आतंकवाद के मामलों में भारत की न्यायिक प्रक्रिया कमज़ोर अभियोजन के कारण बाधित रहती है, जहाँ कमज़ोर जाँच और गवाहों को डराने-धमकाने के कारण अक्सर मज़बूत प्रारंभिक साक्ष्य के बावजूद मामले विफल हो जाते हैं।
- उदाहरण के लिये, जुलाई 2025 में मुंबई की एक विशेष NIA कोर्ट ने वर्ष 2008 के मालेगाँव विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया, यह देखते हुए कि अभियोजन पक्ष आरोपों को साबित करने में विफल रहा, जिससे आरोपियों को संदेह का लाभ मिला।
- तकनीकी खामियाँ: सुरक्षा एजेंसियों के पास चरमपंथी प्रचार के खिलाफ प्रभावी जवाबी रणनीति का अभाव है और परिष्कृत ऑनलाइन आतंकवादी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिये उनके पास असमान साइबर फॉरेंसिक क्षमताएँ हैं।
- आतंकवादी समूह अब पारंपरिक निगरानी से बचने के लिये डेड-ड्रॉप विधियों (ड्राफ्ट को बिना भेजे साझा ईमेल खातों में सहेजना) और पीयर-टू-पीयर क्रिप्टो ट्रांसफर का उपयोग करते हैं, जबकि खुफिया एजेंसियाँ ऐसे एंक्रिप्टेड संचार को डिकोड करने के लिये आवश्यक साइबर-इंटेलिजेंस विश्लेषकों और भाषा विशेषज्ञों की कमी से जूझ रही हैं।
- जनशक्ति और क्षमता संकट: जुलाई 2025 तक NIA को 541 रिक्तियों के साथ 28% कर्मचारियों की कमी का सामना करना पड़ा, जिससे प्रमुख परिचालन पद, विशेष रूप से निरीक्षक और DSP कम संख्या में रह गए और विशेष कैडर के बजाय प्रतिनियुक्ति पर निर्भरता बढ़ गई।
- राज्य एंटी-टेररिज़्म स्क्वाड (ATS) यूनिट्स भी कम सुसज्जित हैं, उनके पास समर्पित फायरिंग रेंज, आधुनिक नाइट-विजन गियर और फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं का अभाव है, जैसा कि CAG ऑडिट में बार-बार उल्लेख किया गया है।
आतंकवाद-रोधी प्रयासों को सुदृढ़ करने हेतु कौन-से उपाय किये जा सकते हैं?
- MAC के साथ तकनीकी एकीकरण को सुदृढ़ करना: MAC डेटा फीड्स के साथ कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग (ML) को एकीकृत करना।
- यह अवरुद्ध डेटा (चैट्स, वित्तीय लेन-देन, यात्रा रिकॉर्ड) की विशाल मात्रा का विश्लेषण कर सकता है, पैटर्न पहचान सकता है, संभावित हमलों की भविष्यवाणी कर सकता है और संदिग्ध नेटवर्क को मानव विश्लेषकों की तुलना में कहीं अधिक कुशलता से चिह्नित कर सकता है।
- अंतिम चरण में पुलिस को सशक्त करना: चूँकि राज्य पुलिस पहले प्रतिक्रिया देने वाले होते हैं, इसलिये उनकी क्षमता को मज़बूत करने हेतु आधुनिक उपकरणों, विशेष आतंकवाद-रोधी प्रशिक्षण और समय पर क्रियान्वयन योग्य प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिये MAC/SMAC खुफिया साझा करने वाले सिस्टम के लिये निरंतर वित्तीय सहायता आवश्यक है।
- कानूनी प्रावधानों को सशक्त बनाना: आतंकवाद-रोधी न्याय को मज़बूत करने के लिये त्वरित न्यायालय की आवश्यकता है, ताकि मुकदमों को शीघ्रता से निपटाया जा सके और ये निरोधक प्रभाव डालें। साथ ही UAPA जैसे कानूनों की नियमित समीक्षा और संशोधन करना भी आवश्यक है, ताकि आधुनिक खतरों का सामना किया जा सके तथा सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किये जा सकें।
- आतंकवाद वित्तपोषण पर अंकुश लगाना: आतंकवाद के वित्तपोषण पर अंकुश लगाने के लिये हवाला लेन-देन, क्रिप्टोकरेंसी भुगतानों और फंडिंग में शामिल शेल कंपनियों की सख्त निगरानी हेतु वित्तीय खुफिया इकाई (FIU) की क्षमता बढ़ाई जाए तथा आतंकवाद को समर्थन देने वाले देशों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिये FATF के साथ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को और मज़बूत किया जाए।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: विदेशी हमलों की रोकथाम के लिये अमेरिका, इज़राइल, फ्राँस और गल्फ देशों के प्रमुख साझेदारों के साथ वास्तविक समय में प्रभावी खुफिया सहयोग को सुदृढ़ करना।
- बहुपक्षीय मंचों (संयुक्त राष्ट्र, G20, BRICS, SCO) के माध्यम से कूटनीतिक दबाव डालें ताकि आतंकवाद के राज्य-प्रायोजकों को अलग किया जा सके, जिसका समर्थन ‘नो मनी फॉर टेरर’ जैसी पहलों द्वारा किया जाए।
निष्कर्ष
भारत में भविष्य की आतंकवाद-रोधी रणनीतियों को 26/11 के बाद किये गए सुधारों पर आधारित होना चाहिये, जिसमें असंगठित खुफिया तंत्र, न्यायिक अंतराल, साइबर खतरों और जनशक्ति की कमी को संबोधित किया जाए। एकीकृत सिद्धांत, उन्नत तकनीक का समेकन और मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर ज़ोर देने से एक सक्रिय, अनुकूल एवं समन्वित आतंकवाद-रोधी संरचना बनाई जा सकती है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. 26/11 के बाद भारत की तटीय सुरक्षा संरचना में किये गए प्रमुख बदलावों की समीक्षा कीजिये। इन बदलावों ने हमलों के दौरान उजागर हुई कमज़ोरियों को किस हद तक दूर किया है? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. 26/11 के बाद कौन-से प्रमुख संस्थागत सुधार लागू किये गए?
मुख्य सुधारों में NIA का निर्माण/सुदृढ़ीकरण, तटीय निगरानी नेटवर्क का विस्तार, मल्टी-एजेंसी सेंटर (MAC) का सशक्तीकरण, NATGRID का विकास, NSG हब का विकेंद्रीकरण और राज्य स्तर पर विशेष बलों (जैसे, फोर्स वन) का गठन शामिल है।
2. नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (NATGRID) आतंकवाद-रोधी क्षमता को कैसे मज़बूत करता है?
NATGRID सुरक्षा एजेंसियों के लिये एक एकीकृत डेटाबेस बनाता है, जिससे विभिन्न सरकारी स्रोतों से डेटा का उपयोग करके संदिग्धों को ट्रैक किया जा सकता है और जानकारी साझा करके खुफिया समन्वय को बेहतर बनाया जा सकता है।
3. कौन-सी निरंतर मौजूद कमियाँ भारत की आतंकवाद-रोधी क्षमता को बाधित करती हैं?
निरंतर बनी हुई समस्याओं में खुफिया जानकारी का अलग-अलग विभाजन (स्टोव-पाइपिंग), राज्य पुलिस की असमान क्षमताएँ, साइबर एवं निगरानी में तकनीकी कमी, न्यायिक/अभियोजन कमज़ोरियाँ और सिद्धांत व पुनर्वास कार्यक्रमों में अंतराल शामिल हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
मेन्स
प्रश्न. आतंकवाद की महाविपत्ति राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये एक गंभीर चुनौती है। इस बढ़ते हुए संकट का नियंत्रण करने के लिये आप क्या-क्या हल सुझाते हैं? आतंकी निधीयन के प्रमुख स्रोत क्या हैं? (2017)
प्रश्न. डिजिटल मीडिया के माध्यम से धार्मिक मतारोपण का परिणाम भारतीय युवकों का आई.एस.आई.एस. में शामिल हो जाना रहा है। आई.एस.आई.एस. क्या है और उसका ध्येय (लक्ष्य) क्या है? आई.एस.आई.एस. हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये किस प्रकार खतरनाक हो सकती है? (2015)
प्रश्न. कुछ रक्षा विश्लेषक इलेक्ट्रॉनिकी संचार माध्यम द्वारा युद्ध को अलकायदा और आतंकवाद से भी बड़ा खतरा मानते हैं। आप 'इलेक्ट्रॉनिकी संचार माध्यम युद्ध' (Cyber Warfare) से क्या समझते हैं? भारत ऐसे जिन खतरों के प्रति संवेदनशील है उनकी रूपरेखा खींचिये और देश की उनसे निपटने की तैयारी को भी स्पष्ट कीजिये। (2013)

मुख्य परीक्षा
निष्क्रिय इच्छामृत्यु और गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने एक अस्पताल को निर्देश दिया है कि वह एक मेडिकल बोर्ड बनाए, जो 32 वर्षीय व्यक्ति के लिये निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) के अनुरोध का मूल्यांकन करे। यह व्यक्ति पिछले 12 वर्षों से लगातार शारीरिक रूप से बेहोशी की स्थिति (Persistent Vegetative State- PVS) में है।
- शारीरिक रूप से बेहोशी की स्थिति (PVS) एक चिकित्सीय स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी उच्च मस्तिष्क क्रियाएँ (जैसे चेतना, सोचने की क्षमता और उद्देश्यपूर्ण गतिविधियाँ) खो देता है, लेकिन मूलभूत शारीरिक क्रियाएँ जैसे साँस लेना, रक्त संचार, नींद-जागरण चक्र और रिफ्लेक्स बनी रहती हैं।
इच्छामृत्यु क्या है?
- परिचय: इच्छामृत्यु/यूथेनेशिया उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें किसी व्यक्ति की असाध्य या अंतिम अवस्था वाली बीमारी के कारण होने वाले असहनीय दर्द को समाप्त करने के लिये उसके जीवन को जानबूझकर समाप्त किया जाता है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कष्ट से मुक्त करना होता है। यूथेनेशिया दो प्रकार का होता है:
- सक्रिय इच्छामृत्यु: इसमें किसी रोगी के जीवन को जानबूझकर समाप्त किया जाता है। यह विभिन्न रूपों में हो सकता है:
- स्वैच्छिक: जिसमें रोगी सचेत रूप से स्वयं मृत्यु का विकल्प चुनता है।
- गैर-स्वैच्छिक: जिसमें विशेषज्ञ चिकित्सक या कोई अन्य व्यक्ति द्वारा रोगी की असमर्थता या अचेत स्थिति के कारण उसके स्थान पर निर्णय लिया जाता है।
- अनैच्छिक: जिसमें बिना सहमति के किसी व्यक्ति की मृत्यु कराई जाती है यह लगभग सभी देशों में अवैध है।
- निष्क्रिय इच्छामृत्यु: यह उस स्थिति को दर्शाता है जब रोगी असाध्य रूप से बीमार हो और ठीक होने की कोई वास्तविक संभावना न हो, तब जीवन-रक्षक उपकरण या चिकित्सा उपचार को रोकना या वापस लेना, जिससे मृत्यु स्वाभाविक रूप से होती है।
- यह तरीका व्यक्ति के गरिमापूर्ण मृत्यु के अधिकार को बनाए रखने और अपरिवर्तनीय चिकित्सा स्थितियों में होने वाली लंबी, व्यर्थ पीड़ा को रोकने का उद्देश्य रखता है।
- सक्रिय इच्छामृत्यु: इसमें किसी रोगी के जीवन को जानबूझकर समाप्त किया जाता है। यह विभिन्न रूपों में हो सकता है:
- भारत में कानूनी स्थिति:
- सक्रिय इच्छामृत्यु: भारतीय कानून सक्रिय इच्छामृत्यु को प्रतिबंधित करता है। भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita – BNS), 2023 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु जानबूझकर कराना दंडनीय अपराध है। इसे दोषपूर्ण हत्या (Section 100) या हत्या (Section 101) के तहत अपराध माना जाता है और इसके लिये अभियोजन चलाया जा सकता है।
- निष्क्रिय इच्छामृत्यु: सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने कुछ कड़ी शर्तों और सीमाओं के तहत निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मान्यता दी है, बशर्ते यह रोगी के सर्वोत्तम हित में हो और कानूनी प्रक्रिया का सही पालन किया गया हो।
- अनुच्छेद 21 यह संवैधानिक गारंटी प्रदान करता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिकार की व्यापक व्याख्या की है, जिसमें स्वास्थ्य, आजीविका, निजता, आवास और मानवीय गरिमा जैसे अधिकार भी शामिल हैं। सामान्य तौर पर, यह अनुच्छेद मृत्यु के अधिकार को शामिल नहीं करता है। हालाँकि, कुछ विशिष्ट अपवादों के तहत, गरिमापूर्ण मृत्यु (जैसे निष्क्रिय इच्छामृत्यु) को इस अनुच्छेद के दायरे में आने की अनुमति दी गई है।
- विधि आयोग का रुख: विधि आयोग की 241वीं रिपोर्ट (2012) में स्पष्ट किया गया कि एक सक्षम रोगी जीवन-रक्षक उपचार अस्वीकार कर सकता है और इसका कोई कानूनी दंड नहीं होगा। इसके अलावा यदि डॉक्टर रोगी की सूचित इच्छाओं के अनुसार कार्रवाई करते हैं, तो उन्हें उकसावे या दोषपूर्ण हत्या का दोष नहीं माना जाएगा।
- संबंधित न्यायिक निर्णय:
- मारुति श्रीपति दुबल बनाम महाराष्ट्र राज्य (1987): बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि मृत्यु का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का हिस्सा है। अदालत ने कहा कि असाध्य रूप से बीमार या गंभीर पीड़ा में रहने वाले व्यक्तियों को अपनी मृत्यु का विकल्प चुनने की अनुमति दी जानी चाहिये।
- ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य (1996): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जीवन का अधिकार मृत्यु के अधिकार को शामिल नहीं करता। अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि जीवन एक प्राकृतिक उपहार है, जिसे समाप्त करने के बजाय सुरक्षित और संरक्षित रखा जाना चाहिये।
- अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ (2011): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि जीवन-रक्षक उपचार को रोकना या बंद करना संभव है, भले ही रोगी निर्णय लेने में असमर्थ हो, लेकिन यह केवल कड़ी कानूनी और चिकित्सीय सुरक्षा उपायों के तहत ही किया जा सकता है।
- कॉमन कॉज़ बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सक्रिय इच्छामृत्यु (जानबूझकर मृत्यु का कारण बनना) और निष्क्रिय इच्छामृत्यु (जीवन-रक्षक उपचार को हटाना) अलग-अलग हैं, यह कहते हुए कि बहुत कम मामलों में पैसिव यूथेनेशिया की स्वीकृति दी जा सकती है।
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि एक असाध्य रूप से बीमार व्यक्ति को गरिमा के साथ मरने का मौलिक अधिकार है, जिसमें अग्रिम चिकित्सा निर्देश या लिविंग विल के माध्यम से उपचार से इंकार करने का अधिकार भी शामिल है।
- सर्वोच्च न्यायालय के इच्छामृत्यु संबंधी निर्देश:
- वर्ष 2018 के निर्देश: वर्ष 2018 के दिशानिर्देशों में दो चरणों में चिकित्सा समीक्षा की आवश्यकता थी:
- प्राथमिक चिकित्सा बोर्ड: यह अस्पताल द्वारा गठित किया जाता है, जिसमें उपचार करने वाले विभाग के प्रमुख और कम से कम तीन विशेषज्ञ शामिल होते हैं। ये विशेषज्ञ सामान्य चिकित्सा, कार्डियोलॉजी, न्यूरोलॉजी, नेफ्रोलॉजी, मनोरोग या ऑन्कोलॉजी में से हों और प्रत्येक के पास 20 वर्षों का अनुभव होना चाहिये।
- द्वितीयक चिकित्सा बोर्ड: यह ज़िला कलेक्टर द्वारा नियुक्त किया जाता है। इसमें अध्यक्ष के रूप में मुख्य ज़िला चिकित्सा अधिकारी और समान क्षेत्रों के तीन विशेषज्ञ डॉक्टर शामिल होते हैं।
- वर्ष 2023 में किये गए संशोधन: सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों चिकित्सा बोर्डों को बरकरार रखा, लेकिन विशेषज्ञों के अनुभव की आवश्यकता को 20 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया और राय देने के लिये 48 घंटे की सीमा निर्धारित की।
- अब द्वितीयक बोर्ड में मुख्य ज़िला चिकित्सा अधिकारी (CDMO) शामिल नहीं होंगे और उनके स्थान पर ज़िला चिकित्सा अधिकारी (DMO) द्वारा नामित सदस्य हो सकता है। दोनों बोर्डों में अब तीन-तीन सदस्य होंगे।
- वर्ष 2018 के निर्देश: वर्ष 2018 के दिशानिर्देशों में दो चरणों में चिकित्सा समीक्षा की आवश्यकता थी:
- इच्छामृत्यु पर वैश्विक स्थिति: नीदरलैंड, लक्ज़मबर्ग और बेल्ज़ियम में इच्छामृत्यु और चिकित्सकीय सहायता प्राप्त आत्महत्या दोनों की अनुमति है, बशर्ते व्यक्ति असहनीय पीड़ा झेल रहा हो तथा उसके ठीक होने की कोई संभावना न हो।
- स्विट्ज़रलैंड गैर-चिकित्सकों को भी असाध्य रोगियों को आत्महत्या में सहायता करने की अनुमति देता है, हालाँकि सक्रिय इच्छामृत्यु वहाँ अवैध है।
- ऑस्ट्रेलिया भी दोनों प्रकार की इच्छामृत्यु को अनुमति देता है, लेकिन केवल उन वयस्कों के लिये, जिनमें निर्णय लेने की पूर्ण क्षमता हो और जो जानलेवा बीमारी से पीड़ित हों।
- ये वैश्विक भिन्नताएँ दर्शाती हैं कि इच्छामृत्यु मूलतः एक नैतिक मुद्दा है, जिसे चिकित्सा क्षमता से अधिक समाज के नैतिक मूल्यों, सिद्धांतों और दार्शनिक परंपराएँ आकार देती हैं।
इच्छामृत्यु पर प्रमुख नैतिक दृष्टिकोण क्या हैं?
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इच्छामृत्यु के पक्ष में तर्क |
इच्छामृत्यु के विरोध में तर्क |
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स्वायत्तता की सर्वोच्चता (लिबर्टेरियनिज़्म): जॉन स्टुअर्ट मिल के लिबरलिज़्म के आधार पर समर्थक तर्क देते हैं कि व्यक्ति अपने शरीर और मन पर पूर्ण अधिकार रखता है। इसलिये सक्षम वयस्क को आत्म-निर्णय का अधिकार है, जिसमें असहनीय जीवन को समाप्त करने का विकल्प भी शामिल है—बिना राज्य के हस्तक्षेप के। |
जीवन की पवित्रता (डीऑन्टोलॉजी): इमैनुएल कांट की कर्त्तव्यनिष्ठ नैतिकता बताती है कि मानव जीवन ‘अपने आप में एक लक्ष्य’ है, किसी साधन की तरह नहीं। इसलिये जानबूझकर जीवन समाप्त करना—भले ही दर्द से राहत के लिये हो—मानवता को एक साधन की तरह उपयोग करना है, जो प्राकृतिक कानून के उस कर्त्तव्य का उल्लंघन करता है जिसमें जीवन की रक्षा आवश्यक है, चाहे उसकी गुणवत्ता कैसी भी हो। |
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पीड़ा को कम करना (यूटिलिटेरियनिज़्म): जेरेमी बेंथम के एक्ट यूटिलिटेरियनिज़्म के अनुसार, किसी भी क्रिया का नैतिक मूल्य इस तर्क पर निर्भर करता है कि वह सुख को कितना बढ़ाती और दर्द को कितना कम करती है। चूँकि लंबे समय तक चलने वाली पीड़ा का कोई सकारात्मक उद्देश्य नहीं होता, इसलिये इच्छामृत्यु को एक दयालु और तार्किक विकल्प माना जाता है जो विश्व में कुल पीड़ा को कम करता है। |
सहनशीलता का मूल्य (वर्च्यू एथिक्स): गुण-नैतिकतावादी तर्क देते हैं कि पीड़ा, यद्यपि कठिन है, मानव अस्तित्व का हिस्सा है और यह साहस तथा धैर्य जैसी गुणों की मांग करती है। गांधीवादी नैतिकता (अहिंसा) सक्रिय रूप से जीवन लेने को स्वीकार नहीं करती और यह सुझाव देती है कि आध्यात्मिक शक्ति जीवन के प्राकृतिक अंत का सामना करने में है, न कि उसे समय से पहले समाप्त करने में। |
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जीव विज्ञान पर परोपकार: चिकित्सा नैतिकता का (Beneficence) सिद्धांत (अर्थात् रोगी के सर्वोत्तम हित में कार्य करना) यह दर्शाता है कि डॉक्टर का कर्त्तव्य पीड़ा को कम करना है। जब इलाज असंभव हो जाता है और दर्द असहनीय होता है तो एक शांत मृत्यु में सहायता करना चिकित्सा पेशे के मानवीय दायित्व को पूरा करना माना जाता है।. |
‘हानि न पहुँचाना’ (Non-Maleficence): चिकित्सा नैतिकता का मूल सिद्धांत Primum non nocere—’पहले, हानि न पहुँचाओ’—हिप्पोक्रेटिक ओथ से उत्पन्न हुआ है। विरोधियों का तर्क है कि डॉक्टर का कार्य उपचार करना है, न कि जीवन समाप्त करना। यूथेनेशिया में शामिल होना चिकित्सा पेशे के उद्देश्य (telos) को भ्रष्ट करता है और डॉक्टर–रोगी के बीच भरोसे को नष्ट कर देता है। |
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रैशनल रिसोर्स मैनेजमेंट (प्रैग्मैटिज़्म): प्रैक्टिकल यूटिलिटेरियन दृष्टिकोण से देखा जाए तो PVS (परसिस्टेंट वेजिटेटिव स्टेट) मरीज़ों के लिये लाइफ़ सपोर्ट बनाए रखने में बहुत कम मेडिकल संसाधन लगते हैं। इन फंड्स को इलाज वाले मरीज़ों तक रीडायरेक्ट करना डिस्ट्रिब्यूटिव जस्टिस के सिद्धांत को बनाए रखता है, जिससे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को लाभ होता है। |
‘स्लिपरी स्लोप’ (नियम-उपयोगितावाद): नियम-उपयोगितावादी चेतावनी देते हैं कि भले ही किसी विशेष मामले में इच्छामृत्यु दयालु प्रतीत हो, लेकिन इसे वैध बनाने से एक खतरनाक नियम स्थापित हो जाता है। इससे ‘स्लिपरी स्लोप’ का जोखिम उत्पन्न होता है, जहाँ समाज अंततः लागत बचाने के नाम पर बुजुर्गों, दिव्यांगों या गरीबों की अनैच्छिक हत्या को भी उचित ठहराने लग सकता है, जिससे नैतिकता प्रभावित होती है। |
क्या आप जानते हैं?
- यूथेनेशिया (इच्छामृत्यु) और असिस्टेड सुसाइड (सहायता प्राप्त आत्महत्या) अलग-अलग हैं:
यूथेनेशिया (इच्छामृत्यु) में आमतौर पर कोई व्यक्ति (अधिकतर डॉक्टर) प्रत्यक्ष रूप से रोगी के जीवन का अंत करता है, जबकि असिस्टेड सुसाइड में व्यक्ति को अपने जीवन का अंत करने के लिये साधन या मार्गदर्शन उपलब्ध कराया जाता है। - सुसाइड टूरिज़्म या यूथेनेशिया टूरिज़्म तब होता है जब मरीज उन देशों की यात्रा करते हैं जहाँ ये प्रथाएँ कानूनी रूप से मान्य हैं। स्विट्ज़रलैंड इसका एक प्रमुख गंतव्य है, जहाँ मुख्यतः यूके, जर्मनी और फ्राँस के मरीज आते हैं।
निष्कर्ष:
सर्वोच्च न्यायालय का यह हस्तक्षेप ‘गरिमा के साथ मरने के अधिकार’ के प्रति भारत के विकसित होते दृष्टिकोण को मज़बूत करता है। यह कानूनी सुरक्षा उपायों को दयालु देखभाल के साथ जोड़ते हुए एक संरचित और चिकित्सकीय रूप से समीक्षा किये गए पैसिव यूथेनेशिया (निष्क्रिय इच्छामृत्यु) प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Euthanasia) में अंतर बताइये। जीवन-रक्षक उपकरण हटाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने कौन-से प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय निर्धारित किये हैं? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु में मुख्य अंतर क्या है?
सक्रिय इच्छामृत्यु में जीवन समाप्त करने के लिये कोई प्रत्यक्ष कदम उठाया जाता है (जैसे—घातक इंजेक्शन देना), जबकि निष्क्रिय इच्छामृत्यु में जीवन-रक्षक उपचार को रोक दिया जाता है, जिससे व्यक्ति अपनी मूल बीमारी के कारण स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त करता है।
कौन-सा सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय अनुच्छेद 21 के तहत ‘गरिमा के साथ मरने के अधिकार’ को मान्यता देता है?
कॉमन कॉज़ बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) के फैसले ने इस अधिकार को मान्यता दी और भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु तथा ‘लिविंग विल’ को कानूनी रूप से स्वीकार किया।
सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु को कैसे मान्यता दी?
अरुणा शानबाग बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2011) और कॉमन कॉज़ बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत निष्क्रिय इच्छामृत्यु और अग्रिम चिकित्सा निर्देशों (Advance Medical Directives) को कानूनी मान्यता प्रदान की।
अरुणा शानबाग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2011) और कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) में, SC ने आर्टिकल 21 के तहत पैसिव यूथेनेशिया और एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव को कानूनी मान्यता दी।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:
प्रश्न. निजता के अधिकार को जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत भाग के रूप में संरक्षित किया जाता है। भारत के संविधान में निम्नलिखित में से किससे उपर्युक्त कथन सही एवं समुचित ढंग से अर्थित होता है?
(a) अनुच्छेद 14 एवं संविधान के 42वें संशोधन के अधीन उपबंध
(b) अनुच्छेद 17 एवं भाग IV में दिये गए राज्य के नीति निदेशक तत्त्व
(c) अनुच्छेद 21 एवं भाग III में गारंटी की स्वतंत्रताएँ
(d) अनुच्छेद 24 एवं संविधान के 44वें संशोधन के अधीन उपबंध
उत्तर: C
मेन्स:
प्रश्न. सामाजिक विकास की संभावनाओं को बढ़ाने के क्रम में, विशेषकर जराचिकित्सा एवं मातृ स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में सुदृढ़ और पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल संबंधी नीतियों की आवश्यकता है। विवेचन कीजिये। (2020)

मुख्य परीक्षा
मैनुअल स्कैवेंजिंग
चर्चा में क्यो?
कोलकाता उच्च न्यायालय ने कोलकाता के कूड़ाघाट क्षेत्र में वर्ष 2021 में हुई मैन्युअल स्कैवेंजिंग घटना में मृत चार सीवर कर्मचारियों में से प्रत्येक के लिये 30 लाख रुपए मुआवज़े का आदेश दिया, अधिकारियों की ‘गंभीर लापरवाही’ की निंदा की और सरकार को वर्ष 1993 से तय 10 लाख रुपये के पुराने मुआवज़ा मानकों को बढ़ाने का निर्देश दिया।
मैन्युअल स्कैवेंजिंग क्या है?
- परिचय: मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास (PEMSR) अधिनियम, 2013 के अनुसार, यह अस्वास्थ्यकर शौचालयों, खुली नालियों, गड्ढों, रेलवे पटरियों या किसी अन्य अधिसूचित स्थान से मानव मल को मैन्युअल रूप से साफ करने, ले जाने, निपटाने या सॅंभालने की प्रथा है।
- कानूनी ढाँचा: मैनुअल स्कैवेंजर्स का रोज़गार और शुष्क शौचालय का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 के बाद से भारत में इसे आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित कर दिया गया है।
- मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 मैनुअल स्कैवेंजरों के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है, उनका पुनर्वास सुनिश्चित करता है तथा प्रत्येक अपराध को संज्ञेय और गैर-ज़मानती बनाता है।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, अनुसूचित जातियों को मैन्युअल स्कैवेंजिंग में नियोजित करने को अपराध मानता है।
- मैन्युअल स्कैवेंजिंग मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, विशेष रूप से अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन का अधिकार)।
- सर्वोच्च न्यायालय (SC) के दिशा-निर्देश: सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2023) मामले में सीवर सफाई के पूर्ण यांत्रिकीकरण का आदेश दिया और उचित सुरक्षा उपकरणों के बिना मानव प्रवेश को केवल दुर्लभ मामलों में ही अनुमति दी।
- इसने सीवर में होने वाली मृत्यु के लिये पुनर्वास और त्वरित मुआवज़े को संवैधानिक अधिकार घोषित किया, राज्यों से NAMASTE और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के साथ सहायता को जोड़ने के लिये कहा तथा मृत्यु एवं लाभों को ट्रैक करने के लिये एक केंद्रीय पोर्टल बनाने की मांग की।
- वर्तमान स्थिति (2024 के अनुसार): भारत में कुल 766 ज़िलों में से 732 ज़िलों ने स्वयं को मैनुअल स्कैवेंजिंग मुक्त घोषित कर दिया है। इसके बावजूद वर्ष 2024 तक लगभग 58,000 मैनुअल स्कैवेंजर्स अभी भी पहचाने गए हैं।
मैन्युअल स्कैवेंजर्स को कौन-कौन सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
- वंशानुगत असमर्थता: मैन्युअल स्कैवेंजिंग केवल एक रोज़गार नहीं है, यह एक ऐसा तंत्र है जो शारीरिक क्षमता, आत्मविश्वास और भविष्य की संभावनाओं को क्षति पहुँचाता है तथा पूरे परिवार को पीढ़ियों तक एक बंधन में बाँध देता है।
- स्वास्थ्य जोखिम: मानव मल और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी ज़हरीली गैसों के संपर्क में आने से मैनुअल स्कैवेंजर हेपेटाइटिस, टेटनस, हैजा तथा दम घुटने जैसी बीमारियों (Asphyxiation) के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
- सामाजिक कलंक: उन्हें ‘अछूत’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है और वे गहरे जातिगत भेदभाव का सामना करते हैं, जो सामाजिक बहिष्करण तथा प्रणालीगत हाशियेकरण को मज़बूत करता है।
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का कहना है कि महिला मैन्युअल स्कैवेंजर्स दोहरे भेदभाव (जाति और लैंगिक) का सामना करती हैं, जो आगे चलकर तीन तरह का बोझ (जाति, लैंगिक और अपमानजनक पेशा) बना देता है। यह उन्हें सबसे असुरक्षित एवं कलंकित कार्य में फँसा देता है और उनके सामाजिक तथा मानसिक स्वास्थ्य को और खराब करता है, जिससे दुश्चिंता, अवसाद व आत्मसम्मान में कमी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- आर्थिक चुनौतियाँ: न्यूनतम मज़दूरी से भी कम वेतन मिलने तथा प्रायः दैनिक मज़दूरी या संविदात्मक आधार पर कार्य करने के कारण, उनके पास नौकरी की सुरक्षा, सामाजिक संरक्षण और वैकल्पिक आजीविका के विकल्पों का अभाव है, जिसके कारण वे गरीबी में फँसे रहते हैं।
- मादक द्रव्यों का सेवन: कई लोग तनाव, अपमान और शारीरिक कठिनाई से निपटने के लिये शराब या नशीली दवाओं का सहारा लेते हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य तथा कल्याण पर और अधिक प्रभाव पड़ता है।
- विलंबित या नकारा गया मुआवज़ा: सीवर में होने वाली मृत्यु का मुआवज़ा प्राय: देर से मिलता है, विवादों में उलझ जाता है या असंगत रूप से वितरित किया जाता है। कई पीड़ितों को निर्धारित राशि से कहीं कम या बिल्कुल भी मुआवज़ा नहीं मिलता।
- यह समस्या पुराने मानकों के कारण और गंभीर हो जाती है जैसे वर्ष 1993 में तय किया गया 10 लाख रुपए का मुआवज़ा, जिसकी वास्तविक कीमत अब काफी कम हो चुकी है, जैसा कि कोलकाता उच्च न्यायालय ने भी रेखांकित किया है।
- संचालनात्मक चुनौती: आधुनिक सीवर-सफाई मशीनों को संचालित करने के लिये मैनुअल स्कैवेंजर्स को प्रशिक्षण की कमी, जिससे कौशल में अंतर, उपकरण का अपर्याप्त या गलत उपयोग और श्रमिकों को फिर से असुरक्षित मैनुअल सफाई में वापस धकेल दिया जाता है।
भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने हेतु निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं:
- पूर्ण यांत्रिकीकरण की ओर बदलाव: सुनिश्चित करना कि सीवर, सेप्टिक टैंक, नालियाँ, कीचड़ और अपशिष्ट की सफाई पूरी तरह से मशीनों द्वारा की जाए, इसके लिये सुव्यवस्थित सैनिटेशन रिस्पॉन्स यूनिट्स (SRUs) तथा प्रशिक्षित ऑपरेटर उपलब्ध कराए जाएँ।
- मज़बूत संस्थागत प्रणाली: हर ज़िले में एक ज़िम्मेदार स्वच्छता प्राधिकरण स्थापित करना, सभी नगरपालिकाओं में सैनिटेशन रिस्पॉन्स यूनिट्स (SRUs) का निर्माण करना और ब्लॉकेज तथा आपात स्थितियों की रिपोर्टिंग के लिये 24x7 हेल्पलाइन संचालित करना।
- कड़ा कानूनी प्रवर्तन: PEMSR अधिनियम, 2013 को सख्ती से लागू करना, सीवर में होने वाली मौतों को दोषपूर्ण हत्यारोपित मानना, उल्लंघनकर्त्ताओं को दंडित करना और समय पर मुआवज़ा सुनिश्चित करना।
- एकबारगी भुगतान से परे जाकर, प्रभावित परिवारों के लिये गौरवपूर्ण जीवन, सुरक्षित आजीविका और सामाजिक प्रगति सुनिश्चित करने वाले दीर्घकालिक मार्ग विकसित करना।
- नियमन और निगरानी: स्वच्छता कर्मचारियों और मैनुअल स्कैवेंजर्स के बीच कानूनी भेद बनाए रखना, निजी डीस्लजिंग ऑपरेटरों को नियंत्रित करना और NHRC की सिफारिशों के माध्यम से निगरानी मज़बूत करना।
- आर्थिक समर्थन: स्वच्छता उद्यमी योजना के तहत यांत्रिक सफाई उपकरण खरीदने के लिये सुलभ ऋण प्रदान करना और मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास तथा उद्यम समर्थन हेतु स्वयं रोज़गार योजना का दायरा बढ़ाना।
- PM-DAKSH के तहत अपशिष्ट प्रबंधन और मशीन संचालन के लिये कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना और ULBs में रोज़गार एवं MGNREGA के तहत संबंधित कार्यों में प्राथमिकता सुनिश्चित करना।
निष्कर्ष:
मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने के लिये पूर्ण मशीनीकरण, कड़े प्रवर्तन और सम्मानजनक पुनर्वास की आवश्यकता है ताकि जाति-आधारित शोषण को खत्म किया जा सके। मज़बूत संस्थान और सुरक्षित कार्य परिस्थितियाँ SDG 6 (स्वच्छ जल और स्वच्छता) तथा SDG 8 (सम्मानजनक कार्य) को आगे बढ़ाएँगी, जिससे भारत सभी के लिये गरिमा और समानता सुनिश्चित कर सकेगा।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने में PEMSR अधिनियम, 2013 की पर्याप्तता का परीक्षण करें। इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. PEMSR अधिनियम, 2013 क्या है?
हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों (मैनुअल स्कैवेंजिंग) के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 हाथ से मैला ढोने वालों के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है, अपराधों को संज्ञेय (cognizable) और गैर-जमानती (non-bailable) बनाता है तथा पुनर्वास के उपायों को अनिवार्य करता है।
2. डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2023) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश क्या हैं?
सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने ताजा राष्ट्रीय सर्वेक्षण कराने, सीवर सफाई का पूर्ण मशीनीकरण (मानव प्रवेश केवल अपवादजनक मामलों में), अनिवार्य PPE ( व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण), त्वरित मुआवज़ा और पुनर्वास तथा मौतों और लाभों को ट्रैक करने के लिये एक केंद्रीय पोर्टल बनाने का आदेश दिया।
3. हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिये मशीनीकरण क्यों आवश्यक है?
मशीनीकरण (SRUs - सीवर सफाई इकाइयाँ, मशीनें, प्रशिक्षित ऑपरेटर) सीवर में मानव प्रवेश की आवश्यकता को समाप्त करता है, स्वास्थ्य जोखिमों को कम करता है, कानून के अनुपालन को सुनिश्चित करता है तथा सुरक्षा-अनुरूप बड़े पैमाने पर स्वच्छता सेवाएँ प्रदान करता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न:
प्रिलिम्स:
प्रश्न: 'राष्ट्रीय गरिमा अभियान' एक राष्ट्रीय अभियान है, जिसका उद्देश्य है: (2016)
(a) बेघर एवं निराश्रित व्यक्तियों का पुनर्वास और उन्हें आजीविका के उपयुक्त स्रोत प्रदान करना।
(b) यौनकर्मियों को उनके अभ्यास से मुक्त करना और उन्हें आजीविका के वैकल्पिक स्रोत प्रदान करना।
(c) हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करना और हाथ से मैला ढोने वालों का पुनर्वास करना।
(d) बंधुआ मज़दूरों को मुक्त करना और उनका पुनर्वास करना।
उत्तर: (c)
मेन्स:
प्रश्न. निरंतर उत्पन्न किये जा रहे, फेंके गए ठोस कचरे की विशाल मात्राओं का निस्तारण करने में क्या-क्या बाधाएँ हैं? हम अपने रहने योग्य परिवेश में जमा होते जा रहे ज़हरीले अपशिष्टों को सुरक्षित रूप से किस प्रकार हटा सकते हैं? (2018)
प्रश्न. "जल, स्वच्छता और स्वच्छता आवश्यकताओं को संबोधित करने वाली नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये लाभार्थी वर्गों की पहचान को प्रत्याशित परिणामों के साथ समन्वित किया जाना है।" WASH योजना के संदर्भ में कथन की जाँच कीजिये। (2017)



