भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत की चार श्रम संहिताओं का राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन
प्रिलिम्स के लिये: मज़दूरी संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त (OSH) संहिता, 2020
मेन्स के लिये: भारत की श्रम संहिताएँ: अवसर और चुनौतियाँ; श्रम सुधार तथा रोज़गार सृजन और औपचारिककरण में उनकी भूमिका
चर्चा में क्यों?
भारत सरकार ने चार श्रम संहिताओं- मज़दूरी संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त (OSH) संहिता, 2020 को लागू करने की घोषणा की है, जो पहले मौजूद 29 श्रम कानूनों का स्थान लेंगी।
- यह सुधार श्रम विनियमन को आधुनिक बनाने, श्रमिक सुरक्षा को मज़बूत करने तथा एक सरल, भविष्य-उन्मुख ढाँचा तैयार करने का लक्ष्य रखता है, जो एक सुदृढ़ कार्यबल एवं आत्मनिर्भर भारत को समर्थन दे सके।
- दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग (2002) की सिफारिशों के आधार पर इन चार श्रम संहिताओं को अधिनियमित किया गया था, जिसमें अनेक श्रम कानूनों को चार कार्यात्मक संहिताओं में सम्मिलित करने का प्रस्ताव दिया गया था।
चार श्रम संहिताओं के मुख्य प्रावधान क्या हैं?
- श्रम संहिता: श्रम संहिता उन समेकित कानूनों का समूह है जो नियोक्ता–कर्मचारी संबंधों को विनियमित करते हैं, जिनमें वेतन, सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंध और कार्यस्थल सुरक्षा शामिल है।
भारत की चार श्रम संहिताएँ
- मज़दूरी संहिता, 2019: यह चार प्रमुख कानूनों (वेतन भुगतान अधिनियम, 1936; न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948; बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976) को एक ही ढाँचे में समाहित करती है।
- यह वेतन नियमों में एकरूपता लाती है, निष्पक्ष और समय पर भुगतान सुनिश्चित करती है, लैंगिक समानता को बढ़ावा देती है और नियोक्ताओं के लिये अनुपालन प्रक्रिया को सरल बनाते हुए श्रमिकों के अधिकारों को मज़बूत करती है।
- औद्योगिक संबंध संहिता, 2020: यह पूर्व के कई कानूनों व्यवसाय संघ अधिनियम, 1926, औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 और औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के प्रावधानों को मिलाकर सरल बनाती है।
- यह संघ की मान्यता, नियोजन की शर्तों और विवाद निवारण से संबंधित नियमों को सुव्यवस्थित करके श्रमिक अधिकारों तथा औद्योगिक स्थिरता के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती है।
- सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020: यह नौ मौजूदा कानूनों जैसे कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 तथा कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952 को एकीकृत ढाँचे में समाहित करती है। यह असंगठित क्षेत्र, गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स सहित सभी श्रमिकों तक लाभों का विस्तार करती है।
- यह मातृत्व, स्वास्थ्य, जीवन बीमा और भविष्य निधि जैसे लाभों को शामिल करती है, साथ ही डिजिटल प्रक्रियाओं तथा सरल अनुपालन को बढ़ावा देती है।
- व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त संहिता, 2020: यह 13 श्रम कानूनों जैसे कारखाना अधिनियम, 1948, बागान श्रम अधिनियम, 1951 और खान अधिनियम, 1952 को समेकित करती है।
- यह संहिता सुरक्षित कार्य परिस्थितियाँ प्रदान करने का उद्देश्य रखती है तथा व्यवसायों के लिये अनुपालन को सरल बनाकर एक अधिक कुशल, न्यायसंगत और भविष्य-उन्मुख श्रम व्यवस्था निर्मित करती है।
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श्रम संहिता |
प्रमुख प्रावधान |
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मज़दूरी संहिता, 2019 |
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औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 |
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सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 |
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व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशाएँ संहिता, 2020 |
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भारत के श्रम कानूनों में सुधार की आवश्यकता क्यों है?
- कानूनी ढाँचा: भारत में 29 अलग-अलग श्रम कानून थे, जिनमें कई प्रावधान एक-दूसरे से ओवरलैप करते थे, जिससे श्रमिकों और नियोक्ताओं के लिये अनुपालन जटिल और समय लेने वाला हो जाता था।
- पुराने प्रावधान: कई कानून स्वतंत्रता-पूर्व और स्वतंत्रता-पश्चात् के आरंभिक काल में बनाए गए थे तथा अब वे आधुनिक उद्योग प्रथाओं, प्रौद्योगिकी या रोज़गार के नए रूपों के अनुकूल नहीं थे।
- उच्च अनुपालन बोझ: अनेक लाइसेंस, पंजीकरण और रिटर्न के कारण कागज़ी कार्रवाई बढ़ गई और व्यवसायों, विशेषकर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) के लिये सुचारू रूप से संचालन करना कठिन हो गया।
- सीमित श्रमिक कवरेज़: कई सुरक्षाएँ केवल विशिष्ट श्रेणियों या क्षेत्रों पर ही लागू होती हैं, जिससे बड़ी संख्या में अनौपचारिक और असंगठित श्रमिक इससे वंचित रह जाते हैं।
- कार्य की बदलती प्रकृति: गिग कार्य, प्लेटफॉर्म नौकरियॉं, निश्चित अवधि के रोज़गार और अनुकूलता सेवा-आधारित भूमिकाओं के बढ़ने से अद्यतन नियामक ढाँचे की आवश्यकता हुई।
- वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता: सिंगापुर जैसी अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं ने श्रम नियमों का आधुनिकीकरण और समेकन किया है तथा भारत को भी निवेश आकर्षित करने एवं विकास को समर्थन प्रदान करने के लिये इसी प्रकार के सुधारों की आवश्यकता है।
- श्रमिक कल्याण में सुधार: पूर्ववर्ती प्रणाली में मज़दूरी, सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा के लिये एकसमान मानकों का अभाव था, जिसके कारण श्रम संरक्षण में अंतराल उत्पन्न हो गया।
- रोज़गार और औपचारिकता को बढ़ावा देना: सरलीकृत नियम उद्योगों को समर्थन देते हैं, रोज़गार सृजन में सुधार करते हैं तथा श्रमिकों को अनौपचारिक से औपचारिक रोज़गार की ओर स्थानांतरित करने में सहायता करते हैं।
भारत की नई श्रम संहिताओं के संबंध में प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?
- लघु व्यवसायों और MSME के लिये उच्च अनुपालन: विस्तारित ESIC, PF और सुरक्षा अधिदेश सूक्ष्म और लघु उद्यमों के लिये श्रम लागत में वृद्धि करते हैं।
- MSME को कार्यबल के आकार का पुनर्गठन करने, डिजिटल मानव संसाधन प्रणालियों, चिकित्सा जाँच और नए कार्यस्थल मानकों में निवेश करने की आवश्यकता हो सकती है।
- केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय: श्रम समवर्ती सूची के अंतर्गत आता है, इसलिये केंद्र और राज्य दोनों को अपने नियम बनाने और उन्हें संरेखित करने होंगे।
- सीमाओं और छूटों में राज्य-स्तरीय अनुकूलन भ्रम उत्पन्न कर सकता है, अनुपालन में असंगतियाँ ला सकता है तथा कानूनी विवादों को बढ़ा सकता है, जिससे पूरे देश में श्रमिक सुरक्षा असमान हो जाने का जोखिम रहता है।
- हड़तालों का विनियमन और यूनियन मान्यता: हड़तालों के नियमन और यूनियन मान्यता से जुड़ा 51% एकल-यूनियन नियम छोटे यूनियनों को कमज़ोर कर सकता है और श्रमिक प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया को और जटिल बना सकता है।
- यदि श्रमिकों को लगता है कि प्रक्रियागत बाधाएँ अनुचित हैं तो हड़ताल पर प्रतिबंध तनाव को रोकने के बजाय उसे बढ़ा सकते हैं।
- श्रमिकों के बीच जागरूकता का अंतर: कई श्रमिक, विशेष रूप से अनौपचारिक, प्रवासी और संविदात्मक, नियुक्ति पत्र, ESIC, न्यूनतम वेतन या शिकायत अधिकार जैसे नए अधिकारों को नहीं समझ पाते हैं।
- निश्चित अवधि के रोज़गार के बारे में चिंताएँ: नियोक्ता स्थायीपन से बचने के लिये FTE अनुबंधों का अधिक उपयोग कर सकते हैं, जिससे नौकरी की असुरक्षा बढ़ जाती है।
- न्यायालयों में यह विवाद बढ़ सकता है कि क्या बार-बार निश्चित अनुबंधों को प्रच्छन्न स्थायी रोज़गार माना जाता है।
- छँटनी के लिये आवश्यक सरकारी अनुमोदन की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 श्रमिकों तक कर दी गई है। इससे नियोक्ताओं को अधिक अनुकूलता मिलेगी, लेकिन इससे श्रमिकों की सुरक्षा कमज़ोर पड़ सकती है।
- संक्रमण के दौरान कार्यबल में व्यवधान: वेतन ढाँचे, ओवरटाइम संबंधी नियमों और रोज़गार वर्गीकरण में बदलाव के कारण नियोक्ता कुछ समय के लिये नई भर्ती को रोक सकते हैं।
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अधिकार |
संबंधित अनुच्छेद |
श्रम संबंध |
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समानता (Equality) |
14–18 |
उचित वेतन, जाति, लिंग या सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव का निषेध |
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स्वतंत्रता (Freedom) |
19–22 |
संघ बनाने की स्वतंत्रता (ट्रेड यूनियनों का गठन) |
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शोषण के विरुद्ध अधिकार (Against Exploitation) |
23–24 |
बंधुआ मज़दूरी का निषेध, खतरनाक कार्यों में बाल श्रम पर प्रतिबंध |
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जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Life and Personal Liberty) |
21 |
सम्मानजनक कार्य परिस्थितियों का अधिकार |
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संवैधानिक उपचार (Constitutional Remedies) |
32–35 |
श्रम अधिकारों के प्रवर्तन हेतु लोक हित याचिका (PIL) का उपयोग |
- मुख्य मामले:
- बंधुआ मुक्ति मोर्चा (1984): सम्मान के साथ जीने के अधिकार में मज़दूरों के अधिकार भी शामिल हैं।
- पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (1983): अनुच्छेद 23 के तहत मिनिमम मज़दूरी से कम मज़दूरी ज़बरदस्ती मज़दूरी मानी जाती है।
- नीरजा चौधरी (1984): बंधुआ मज़दूरों का पुनर्वास किया जाना चाहिये।
नई श्रम संहिताओं के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये किन उपायों की आवश्यकता है?
- राज्यों के बीच एकरूपता: श्रम संहिताओं के सुचारू कार्यान्वयन के लिये एक मॉडल नियम-पुस्तिका या अंतर-सरकारी श्रम परिषद बनाई जा सकती है, जिससे भ्रम कम होगा और पूरे देश में श्रमिक संरक्षण के मानक एक समान रहेंगे।
- फिक्स्ड-टर्म रोज़गार के दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा: ऐसे स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाए जाने चाहिये, जो नियोक्ताओं को स्थायी नियुक्ति से बचने के लिये फिक्स्ड-टर्म कॉन्ट्रैक्ट का गलत उपयोग करने से रोकें।
- नियमित ऑडिट और प्रभावी शिकायत निवारण प्रणाली लागू की जानी चाहिये, ताकि श्रमिकों को किसी भी प्रकार के शोषण से सुरक्षित रखा जा सके।
- गिग श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा को मज़बूत करना: एक राष्ट्रीय गिग और प्लेटफॉर्म श्रमिक नीति तैयार की जानी चाहिये, जिसमें एग्रीगेटर कंपनियों के अनिवार्य योगदान का प्रावधान हो।
- MSME के लिये क्षमता और अनुपालन समर्थन: छोटे उद्यमों को संक्रमण अवधि में सहायता देने के लिये डिजिटल हेल्पडेस्क, सरल फाइलिंग मॉड्यूल और अस्थायी वित्तीय सहायता (जैसे EPF में सह-योगदान) उपलब्ध कराई जानी चाहिये, ताकि वे लागत और अनुपालन में होने वाले बदलावों को आसानी से अपना सकें।
निष्कर्ष:
नई श्रम संहिता (Labour Codes) भारत के श्रम ढाँचे में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का संकेत देती हैं, जिनका उद्देश्य श्रमिक कल्याण और व्यापारिक दक्षता के बीच संतुलन स्थापित करना है। अनुपालन को सरल बनाकर, सुरक्षा मानकों को बेहतर बनाकर और उचित वेतन सुनिश्चित करके, ये सुधार श्रमिकों और उद्योग—दोनों का समर्थन करने वाले एक अधिक पारदर्शी, न्यायसंगत और विकास-उन्मुख श्रम पारिस्थितिकी तंत्र की आधारशिला प्रदान करते हैं।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: “भारत की समेकित श्रम संहिताएँ श्रमिक कल्याण और औद्योगिक समुत्थानशीलता के बीच संतुलन स्थापित करती हैं।” विश्लेषणात्मक रूप से विवेचना कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. किस संस्था ने मूल रूप से श्रम कानूनों के एकीकरण की सिफारिश की थी?
द्वितीय राष्ट्रीय श्रम आयोग ने मौज़ूदा श्रम कानूनों को व्यापक कार्यात्मक संहिताओं में समूहित करने की सिफारिश की थी।
2. मौजूदा श्रम कानूनों के संहिताकरण का उद्देश्य क्या है?
जटिल और पुराने श्रम कानूनों को सरल बनाकर एक आधुनिक और एकसमान ढाँचे में परिवर्तित करना, ताकि अनुपालन में सुधार हो, श्रमिकों की सुरक्षा मज़बूत हो और व्यापार सुगमता को बढ़ावा मिल सके।
3. क्या श्रम संहिताएँ सार्वभौमिक न्यूनतम मज़दूरी प्रदान करती हैं?
वेतन संहिता सभी श्रमिकों के लिये एक सार्वभौमिक न्यूनतम मज़दूरी सुनिश्चित करता है और एक फ़्लोर वेज (न्यूनतम आधार वेतन) की व्यवस्था करता है, जिसके नीचे राज्य अपनी मज़दूरी निर्धारित नहीं कर सकते।
4. गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को इन सुधारों के तहत किस प्रकार शामिल किया गया है?
सामाजिक सुरक्षा कोड के तहत गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को वैधानिक मान्यता दी गई है।
एग्रीगेटर कंपनियों को अपने वार्षिक टर्नओवर का 1–2% (पेआउट के 5% की अधिकतम सीमा के साथ) एक कल्याण कोष में योगदान करना अनिवार्य है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रिलिम्स:
प्रश्न. भारत में, निम्नलिखित में कौन एक, उन फैक्टरियों में जिनमें कामगार नियुक्त हैं, औद्योगिक विवादों, समापनों, छँटनी और कामबंदी के विषय में सूचनाओं को संकलित करता है?
(a) केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय
(b) उद्योग संवर्द्धन और आंतरिक व्यापार विभाग
(c) श्रम ब्यूरो
(d) राष्ट्रीय तकनीकी जनशक्ति सूचना प्रणाली
उत्तर:(c)
मेन्स:
प्रश्न. भारत में श्रम बाज़ार सुधारों के संदर्भ में, चार 'श्रम संहिताओं' के गुण व दोषों की विवेचना कीजिये। इस संबंध मेंअभी तक क्या प्रगति हुई है? (2024)
मुख्य परीक्षा
न्यायपालिका राष्ट्रपति और राज्यपालों पर समय-सीमा लागू नहीं कर सकती: सर्वोच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशोंकी संविधान पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत 16वें प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर अपनी सलाह दी है।
- न्यायालय ने कहा कि राज्य विधेयकों पर राष्ट्रपति या राज्यपाल की स्वीकृति के लिये वह कोई न्यायिक समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसी समय-सीमाएँ संघवाद के सिद्धांतों और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध होंगी।
- यह संदर्भ उस निर्णय से उत्पन्न हुआ जो तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (अप्रैल 2025) मामले में दिया गया था, जिसमें लंबित विधेयकों पर संवैधानिक स्वीकृति के लिये समय-सीमाएँ और ‘अनुमानित स्वीकृति’ (Deemed Assent) का प्रावधान निर्धारित किया गया था।
16वें प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर SC के निर्णय के प्रमुख बिंदु क्या हैं?
- न्यायिक रूप से निर्धारित समय-सीमा नहीं: न्यायालय ने माना कि न तो राज्यपाल (अनुच्छेद 200 के तहत) और न ही राष्ट्रपति (अनुच्छेद 201 के तहत) विधेयकों को स्वीकृति देने या रोकने के लिये निश्चित, न्यायालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा के अधीन हैं, क्योंकि ऐसा करना न्यायिक अतिक्रमण के समान होगा तथा शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 और 201 में कोई निश्चित समय-सीमा नहीं है और "जितनी जल्दी हो सके (As soon as possible)" वाक्यांश की व्याख्या सख्त या लागू करने योग्य समय-सीमा के रूप में नहीं की जा सकती।
- हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “लंबी, अस्पष्टीकृत और अनिश्चित निष्क्रियता” की न्यायपालिका द्वारा समीक्षा की जा सकती है तथा ऐसे मामलों में न्यायालय राज्यपाल को कार्रवाई करने का निर्देश दे सकता है, लेकिन कोई समय सीमा निर्धारित किये बिना या निर्णय की योग्यता की जाँच किये बिना।
- ‘अनुमानित स्वीकृति (Deemed Assent)’ असंवैधानिक है: न्यायालय ने यह विचार स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया कि यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति किसी निर्धारित अवधि में कोई कार्रवाई नहीं करते तो विधेयक स्वतः कानून बन जाएगा (यानी deemed assent मिल जाएगा)।
- न्यायालय ने कहा कि अनुमानित स्वीकृति का संविधान में कोई आधार नहीं है और अनुच्छेद 142 का उपयोग करके ऐसा प्रावधान बनाना अस्वीकार्य है, क्योंकि इससे न्यायपालिका राज्यपाल या राष्ट्रपति की भूमिका अपने हाथ में ले लेगी जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
- राष्ट्रपति के लिये अनिवार्य रूप से सर्वोच्च न्यायालय की सलाह लेना आवश्यक नहीं: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक आरक्षित विधेयक पर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत अनिवार्य रूप से न्यायालय की राय लेने की ज़रूरत नहीं है।
- अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति अपनी संवैधानिक संतुष्टि के आधार पर स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है।
राज्य विधानमंडल द्वारा विधेयक पारित करने के बाद राज्यपाल और राष्ट्रपति की क्या भूमिका होती है?
राज्यपाल की भूमिका (अनुच्छेद 200)
- राज्य विधानमंडल द्वारा विधेयक पारित किये जाने के बाद उसे अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के पास भेजा जाता है।
- राज्यपाल निम्नलिखित कार्य कर सकते हैं:
- स्वीकृति प्रदान करना: राज्यपाल विधेयक को मंज़ूरी दे सकता है, जिससे यह कानून बन जाएगा।
- स्वीकृति रोकना: राज्यपाल के पास विधेयक पर स्वीकृति देने से इंकार करने का अधिकार है।
- विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस भेजना (धन विधेयक को छोड़कर): राज्यपाल विधेयक को आगे की समीक्षा और पुनर्विचार के लिये राज्य विधानमंडल को वापस भेज सकता है।
- यदि विधानमंडल पुनर्विचार के बाद विधेयक को पुन: पारित कर देती है तो राज्यपाल के पास केवल दो विकल्प रहते हैं: या तो वह अपनी स्वीकृति दे या उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करे। इस चरण में राज्यपाल के पास पुनः स्वीकृति रोकने का अधिकार नहीं होता।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षण: कुछ मामलों में राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये आरक्षित कर सकता है, विशेषकर जब विधेयक राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों से संबंधित हों या केंद्र के कानूनों से असंगति या विरोध उत्पन्न करता हो।
राष्ट्रपति की भूमिका (अनुच्छेद 201)
- जब किसी विधेयक को राज्यपाल द्वारा आरक्षित किया जाता है तो वह अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।
- राष्ट्रपति निम्नलिखित कर सकते हैं:
- स्वीकृति प्रदान करना: राष्ट्रपति विधेयक को स्वीकृति देकर उसे कानून बना सकता है।
- स्वीकृति रोकना: राष्ट्रपति चाहे तो विधेयक को स्वीकृति देने से इंकार कर सकता है।
- विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस भेजना: गैर-धन विधेयकों में, यदि राष्ट्रपति स्वीकृति नहीं देता तो वह राज्यपाल को यह निर्देशित कर सकता है कि विधेयक को पुनः विचार हेतु वापस विधानमंडल को भेजा जाए।
- विधानमंडल को छह महीनों के भीतर कार्रवाई करनी होती है। यदि विधेयक पुन: पारित किया जाता है तो इसे अंतिम स्वीकृति के लिये पुन: राष्ट्रपति को भेजना अनिवार्य होता है।
- पुनर्विचार के बाद फिर से पारित होने पर राष्ट्रपति को अंतिम निर्णय लेना होता है और इसके लिये संविधान में कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय समय-सीमा और अनुमानित स्वीकृति की अवधारणा को अस्वीकार कर संवैधानिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करता है। यह राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों के विवेकाधिकार की रक्षा करता है, साथ ही अनुचित विलंब के विरुद्ध सीमित समीक्षा की अनुमति भी देता है। समग्र रूप से यह विधायी स्वीकृति से संबंधित शक्तियों के पृथक्करण को और सुदृढ़ करता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. किसी राज्य की विधानमंडल द्वारा विधेयक पारित किये जाने के बाद राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका को विनियमित करने वाली संवैधानिक व्यवस्था की समीक्षा कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. संविधान का अनुच्छेद 200 क्या है?
अनुच्छेद 200 राज्य की विधानमंडल द्वारा विधेयक पारित किये जाने के बाद राज्यपाल के विकल्पों को निर्धारित करता है। इनमें शामिल हैं: स्वीकृति प्रदान करना, स्वीकृति रोकना, विधेयक वापस भेजना (धन विधेयक छोड़कर) या उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करना।
2. अनुच्छेद 201 क्या है?
अनुच्छेद 201 उस स्थिति से संबंधित है जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के लिये आरक्षित किया गया हो। इसमें राष्ट्रपति के विकल्प शामिल हैं: स्वीकृति प्रदान करना, स्वीकृति रोकना या गैर–धन विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस भेजना।
3. क्या संविधान अनुच्छेद 200 या 201 के तहत स्वीकृति के लिये किसी समय-सीमा का उल्लेख करता है?
नहीं। संविधान कोई निर्धारित समय-सीमा नहीं बताता। केवल ‘यथाशीघ्र’ शब्द का उपयोग किया गया है, जो एक अनिवार्य अंतिम समय-सीमा नहीं है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
प्रिलिम्स:
प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सी किसी राज्य के राज्यपाल को दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ हैं? (2014)
- भारत के राष्ट्रपति को, राष्ट्रपति शासन अधिरोपित करने के लिये रिपोर्ट भेजना
- मंत्रियों की नियुक्ति करना
- राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कतिपय विधेयकों को, भारत के राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित करना
- राज्य सरकार के कार्य संचालन के लिये नियम बनाना
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये।
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1 और 3
(c) केवल 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (b)
प्रश्न. निम्नलिखित में कौन-सी लोकसभा की अनन्य शक्ति(याँ) है/हैं ? (2022)
- आपात की उद्घोषणा का अनुसमर्थन करना
- मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करना
- भारत के राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाना
नीचे दिये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:
(a) 1 और 2
(b) केवल 2
(c) 1 और 3
(d) केवल 3
उत्तर: (b)
मेन्स:
प्रश्न. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग की आवश्यक शर्तों का विवेचन कीजिये। विधायिका के समक्ष रखे बिना राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों के पुनः प्रख्यापन की वैधता की विवेचना कीजिये। (2022)
प्रश्न. यद्यपि परिसंघीय सिद्धांत हमारे संविधान में प्रबल है और वह सिद्धांत संविधान के आधारिक अभिलक्षणों में से एक है, परंतु यह भी इतना ही सत्य है कि भारतीय संविधान के अधीन परिसंघवाद (फैडरलिज़्म) सशक्त केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है। यह एक ऐसा लक्षण है जो प्रबल परिसंघवाद की संकल्पना के विरोध में है। चर्चा कीजिये। (2014)
मुख्य परीक्षा
भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका (IBSA) फोरम
जोहांसबर्ग में आयोजित G20 शिखर सम्मेलन के अवसर पर, भारत के प्रधानमंत्री ने ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति के साथ मुलाकात कर IBSA (भारत-ब्राजील-साउथ अफ्रीका) फोरम को सुदृढ़ बनाने पर चर्चा की।
- इस बैठक में जलवायु-अनुकूल कृषि, डिजिटल नवाचार, संयुक्त राष्ट्र सुधार, आतंकवाद और वैश्विक दक्षिण संबंधी पहलों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
IBSA फोरम
- परिचय: IBSA भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका का एक विशिष्ट फोरम है, जो समान चुनौतियों का सामना कर रहे तीन बड़े लोकतंत्र वाले महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करता है।
- इसे 6 जून 2003 को ब्रासीलिया में IBSA डायलॉग फोरम के रूप में औपचारिक रूप दिया गया और ब्रासीलिया घोषणा-पत्र जारी किया गया। वर्तमान में दक्षिण अफ्रीका IBSA की अध्यक्षता कर रहा है।
- IBSA का कोई मुख्यालय या स्थायी सचिवालय नहीं है।
- सहयोग के क्षेत्र: IBSA में सहयोग तीन क्षेत्रों में होता है:
- राजनीतिक परामर्श: वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीतिक मुद्दों पर समन्वय।
- त्रिपक्षीय सहयोग: कार्य समूहों और जन-से-जन संवाद के माध्यम से संयुक्त परियोजनाएँ।
- अन्य विकासशील देशों को सहायता: IBSA फंड के माध्यम से परियोजनाओं का कार्यान्वयन।
- IBSA ट्रस्ट फंड: वर्ष 2004 में स्थापित, वर्ष 2006 से गरीबी और भूख निवारण हेतु संचालन में।
- इसने 34 साझेदार देशों में 46 साउथ-साउथ विकास परियोजनाओं के लिये 53.27 मिलियन अमेरिकी डॉलर आवंटित किये, जिनमें अधिकांश लघु-विकसित देश (LDCs) हैं।
- IBSAMAR: भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका की नौसेनाओं के बीच संयुक्त बहुराष्ट्रीय समुद्री अभ्यास। 8वाँ संस्करण अक्तूबर 2024 में दक्षिण अफ्रीका के तट पर आयोजित हुआ।
- वर्ष 2025 में प्रस्तावित पहलें: भारत के प्रधानमंत्री ने तीनों देशों के बीच नियमित सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी परामर्श के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की वार्ता का प्रस्ताव रखा।
- उन्होंने जलवायु-अनुकूल कृषि के लिये IBSA फंड और UPI, CoWIN तथा साइबर सुरक्षा ढाँचे साझा करने हेतु डिजिटल नवाचार गठबंधन का सुझाव भी दिया।
भारत के हितों को आगे बढ़ाने में IBSA फोरम की क्या भूमिका है?
- वैश्विक दक्षिण की आवाज़: एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के तीन प्रमुख लोकतंत्र और अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए, IBSA वैश्विक दक्षिण के साझा हितों और विकास संबंधी प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाने के लिये एक संयुक्त मंच के रूप में कार्य करता है।
- यह भारत को वैश्विक दक्षिण में नेतृत्व स्थापित करने और BRICS या शंघाई सहयोग संगठन के विपरीत, चीन के वर्चस्व या हस्तक्षेप के बगैर एजेंडा प्रभावित करने में सक्षम बनाता है।
- बहुपक्षीय सुधार हेतु समर्थन: IBSA का एक प्रमुख उद्देश्य वैश्विक शासन सुधार को बढ़ावा देना है, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में, क्योंकि सभी सदस्य स्थायी सदस्यता के उम्मीदवार हैं और उनका तर्क है कि वर्तमान संरचनाएँ 21वीं सदी की भू-राजनीति को प्रतिबिंबित नहीं करतीं।
- यह भारत के स्थायी UNSC सीट के प्रयासों के साथ सीधे जुड़ा है और उसके सुधार कार्यक्रम को मज़बूती प्रदान करता है।
- लोकतंत्र और साझा मूल्य: IBSA बड़े, बहु-जातीय लोकतंत्र होने के साझा मूल्यों द्वारा जुड़ा हुआ है, जो मानव-केंद्रित विकास और नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में सहयोग को संभव बनाता है।
- यह भारत की सॉफ्ट पावर को बढ़ाता है, इसे विकासशील विश्व के एक ज़िम्मेदार ‘लोकतांत्रिक स्तंभ’ के रूप में स्थापित करता है और चीन जैसे तानाशाही विकल्पों से अलग करता है।
- IBSA कोष के माध्यम से व्यावहारिक सहयोग: IBSA कोष दक्षिण-दक्षिण सहयोग का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कृषि में विकास परियोजनाओं के लिये संसाधनों को एकत्रित करता है और सदस्य देशों से परे एकजुटता दर्शाता है।
- यह भारत को एक कम लागत वाला, उच्च विश्वसनीयता वाला साधन प्रदान करता है, जिसके माध्यम से वह स्वयं को एक उदार और हितैषी विकास साझेदार के रूप में प्रस्तुत कर सकता है—बिना इस आरोप के कि वह ऋण-जाल कूटनीति (Debt-trap diplomacy) अपना रहा है।
- वैश्विक मुद्दों पर रणनीतिक संवाद: यह मंच आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और व्यापार पर समन्वय सक्षम बनाता है तथा वैश्विक एजेंडों को आकार देने में उनके प्रभाव को बढ़ाता है।
- यह भारत की सीमा-पार आतंकवाद पर चिंताओं को वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करने (जिसमें ‘दोहरा मानदंड न अपनाने’ की माँग शामिल है) और UPI एवं डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) जैसे भारतीय समाधान अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं को निर्यात करने का मंच भी प्रदान करता है।
प्रभावी IBSA सहयोग में मुख्य अवरोध क्या हैं?
- भू-राजनीतिक मतभेद: ब्राज़ील की निरंतर बदलती विदेश नीति प्राथमिकताएँ और दक्षिण अफ्रीका की आंतरिक राजनीतिक–आर्थिक अस्थिरता रणनीतिक समन्वय को कमज़ोर करती हैं।
- भारत की रणनीतिक अभिसंरेखता ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका की गैर-संरेखित या चीन समर्थक नीतियों के अनुरूप नहीं है, जिससे बाहरी दृष्टिकोणों में अंतर उत्पन्न होता है तथा त्रिपक्षीय सहयोग को व्यापक रूप से बढ़ाने की संभावनाएँ कम हो जाती हैं।
- BRICS के साथ एजेंडे का अधिव्यापन: IBSA द्वारा उठाए जाने वाले लगभग सभी मुद्दे (संयुक्त राष्ट्र सुधार, ग्लोबल साउथ विकास, सतत् ऊर्जा) को BRICS भी शामिल करता है।
- चूँकि BRICS में चीन की विशाल आर्थिक शक्ति शामिल है, यह स्वाभाविक रूप से ब्राज़ील एवं दक्षिण अफ्रीका से अधिक राजनीतिक पूंजी और ध्यान आकर्षित करता है।
- जैसे-जैसे BRICS का विस्तार होता है (मिस्र, इथियोपिया, UAE को जोड़कर), IBSA को एक स्वतंत्र संस्था के रूप में अपनी मौजूदगी को न्यायसंगत ठहराने में कठिनाई होती है। इसका जोखिम यह है कि IBSA ‘डिस्कशन क्लब’ बन सकता है, जबकि BRICS ‘एक्शन ब्लॉक’ बन जाता है।
- आर्थिक परस्परपूरकता और प्रतिस्पर्द्धा: कमोडिटी, कृषि एवं सेवाओं में समान आर्थिक ढाँचे होने के बावजूद, IBSA देशों के भीतर आपसी व्यापार (Intra-IBSA trade) कम है, क्योंकि आपूर्ति शृंखलाएँ और लॉजिस्टिक कॉरिडोर सीमित हैं। इसका परिणाम यह होता है कि देशों के बीच परस्परपूरकता विकसित होने के बजाय प्रतिस्पर्द्धा बढ़ जाती है।
- नौकरशाही और संस्थागत बाधाएँ: IBSA के पास कोई स्थायी सचिवालय नहीं है, जिसके कारण संस्थागत स्मृति कमज़ोर रहती है और तीनों देशों में नौकरशाही जटिलताओं (red tape) के चलते परियोजनाओं का कार्यान्वयन धीमा हो जाता है।
IBSA सहयोग के लिये भविष्य की राह क्या हैं?
- निश्चित (Niche) क्षेत्रों में सहयोग पर ध्यान: लोकतांत्रिक प्रशासन, जलवायु परिवर्तन और हरित ऊर्जा तथा डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI) जैसे क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ाया जाए। साझा मूल्यों और भारत के UPI तथा आधार जैसे अनुभवों का उपयोग कर ग्लोबल साउथ को लाभ पहुँचाया जा सकता है।
- संस्थागत क्षमता को मज़बूत करना: निरंतरता और परियोजनाओं की निगरानी के लिये एक छोटा, स्थायी IBSA सचिवालय स्थापित किया जाए। साथ ही, व्यापारिक अवसरों की पहचान करने और आर्थिक संबंधों को मज़बूत करने के लिये एक IBSA बिज़नेस काउंसिल बनाई जाए।
- रणनीतिक समन्वय और फंड का पुनर्जीवन: BRICS के ढाँचे में IBSA को एक समन्वय मंच के रूप में इस्तेमाल कर देशों के रुख में बेहतर तालमेल स्थापित किया जाए और चीन तथा रूस के बढ़ते प्रभाव का संतुलन बनाया जाए। साथ ही, गरीबी एवं भूख उन्मूलन के लिये स्थापित IBSA फंड को फिर से सक्रिय कर दक्षिण–दक्षिण सहयोग का एक प्रभावी मॉडल प्रस्तुत किया जाए।
निष्कर्ष:
IBSA मंच दक्षिण–दक्षिण सहयोग को मज़बूत करता है, भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका को एकजुट करते हुए लोकतंत्र, जलवायु-सहनीय विकास, डिजिटल नवाचार और वैश्विक शासन सुधार को बढ़ावा देता है। यह ग्लोबल साउथ की आवाज़ को और प्रभावशाली बनाता है तथा सुरक्षा, व्यापार और बहुपक्षीय मुद्दों पर रणनीतिक संवाद को भी सुगम बनाता है।
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दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: IBSA ढाँचे के अंतर्गत सहयोग के प्रमुख क्षेत्रों का विस्तृत वर्णन कीजिये। हाल ही में इस त्रिपक्षीय साझेदारी को मज़बूत करने के लिये कौन-सी नई पहलों का प्रस्ताव किया गया है? |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. IBSA फ़ोरम क्या है?
IBSA भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका का त्रिपक्षीय समूह है, जिसकी स्थापना वर्ष 2003 में हुई थी। इसका उद्देश्य राजनीतिक परामर्श, त्रिपक्षीय सहयोग और दक्षिण–दक्षिण विकास सहायता को बढ़ावा देना है।
2. IBSA फ़ंड का उद्देश्य क्या है?
वर्ष 2004 में स्थापित IBSA फंड स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबी उन्मूलन से जुड़े विकास परियोजनाओं को 34 साझेदार देशों में समर्थन देता है, जो प्रभावी दक्षिण–दक्षिण सहयोग का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
3. वर्ष 2025 में भारत ने IBSA के लिये कौन-सी रणनीतिक पहलें प्रस्तावित कीं?
भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) स्तर की वार्ता शुरू करने, जलवायु-सहनीय कृषि के लिये एक IBSA फंड बनाने और डिजिटल नवाचार गठबंधन (Digital Innovation Alliance) स्थापित करने का प्रस्ताव दिया ताकि UPI, CoWIN और साइबर सुरक्षा ढाँचों को साझा किया जा सके।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले साल के सवाल (PYQs)
मेन्स:
प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट प्राप्त करने में भारत के सामने आने वाली बाधाओं पर चर्चा कीजिये। (2015)
प्रश्न: "यदि पिछले कुछ दशक एशिया की विकास गाथा के थे, तो अगले कुछ दशक अफ्रीका के होने की उम्मीद है।" इस कथन के आलोक में हाल के वर्षों में अफ्रीका में भारत के प्रभाव का परीक्षण कीजिये। (2021)

