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डेली न्यूज़

  • 13 Nov, 2021
  • 47 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

बढ़ता चालू खाता घाटा

प्रिलिम्स के लिये:

चालू खाता घाटा, भारतीय रिज़र्व बैंक, सकल घरेलू उत्पाद, भुगतान संतुलन

मेन्स के लिये:

भारत के चालू खाता घाटे के कारक

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में जारी ब्रिटिश ब्रोकरेज फर्म बार्कलेज की एक रिपोर्ट के अनुसार, जुलाई 2021 से भारत का व्यापार घाटा (Trade Deficit) लगातार बढ़ रहा है। इस चालू खाता घाटा (Current Account Deficit- CAD) का कारण कच्चे तेल की कीमतों के बढ़ने से कमोडिटी/जिंसों की कीमतों में हुई वृद्धि है।

  • मार्च 2021 तक CAD के 45 अरब डॉलर या जीडीपी के 1.4% तक पहुंँचने की संभावना थी। यह  कमज़ोर आर्थिक सुधार पर दबाव डालेगा।

प्रमुख बिंदु 

  • परिभाषा: चालू खाता घाटा तब होता है जब किसी देश द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य उसके द्वारा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल मूल्य से अधिक हो जाता है।
    • माल के निर्यात और आयात संतुलन को ‘व्यापार संतुलन’ (Trade Balance) कहा जाता है। व्यापार संतुलन 'करंट अकाउंट बैलेंस' का एक हिस्सा है।
  • भारत के चालू खाता घाटे के कारक:
    • उच्च तेल आयात: भारत में तेल की मांग का लगभग 85% आयात के माध्यम से पूरा किया जाता है।
      • इसके कारण यह अनुमान लगाया गया है कि वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में  प्रति बैरल 10 डॉलर की वृद्धि से व्यापार घाटा 12 अरब डॉलर या सकल घरेलू उत्पाद ( Gross Domestic Product- GDP) के 35 बेसिस पॉईंट (Basis Points-bps) तक बढ़ जाएगा।
    • सोने का अधिक मात्रा में आयात: विदेशी मुद्रा को कम करने वाला एक और कारक सोने का अधिक मात्रा में आयात करना है।
      • घरेलू मांग में सुधार और मौजूदा त्योहारी सीज़न के कारण सोने का आयात बढ़ रहा है।
      • विश्व स्वर्ण परिषद ( World Gold Council) के अनुसार, इस वर्ष सोने की मांग वर्ष 2020 के स्तर को पार कर जाएगी और उम्मीद व्यक्त की जा रही है कि बढ़ते धन के प्रवाह और आय को देखते हुए सोने की मांग उच्च बनी रहेगी।
    • सेवाओं का सकारात्मक पक्ष: रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2020 में मासिक सेवाओं का अधिशेष वर्ष 2019 के औसतन 6.6 बिलियन डाॅलर से बढ़कर 7 बिलियन डाँलर तथा वर्ष 2021 के पहले नौ महीनों में 8 बिलियन डॉलर हो गया है।
  • समग्र प्रभाव: रिपोर्ट में किसी भी नकारात्मक स्थिति के उत्पन्न होने से इनकार किया गया है और बताया गया है कि विदेशी मुद्रा भंडार का उच्च स्तर मैक्रो स्टेबिलिटी (Macro Stability) या भुगतान संतुलन के समक्ष कोई बड़ा जोखिम उत्पन्न नहीं करता है।
    • हालांँकि मांग में सुधार के समुच्चय/संयोजन के रूप में घाटे की बढ़ती प्रवृत्ति कुछ समय के लिये जारी रह सकती है तथा कमोडिटी की बढ़ती कीमतों से व्यापार घाटा तेज़ी से बढ़ेगा।

भुगतान संतुलन:

  • परिभाषा:
    • भुगतान संतुलन (Balance Of Payment-BoP) का अभिप्राय ऐसे सांख्यिकी विवरण से है, जो एक निश्चित अवधि के दौरान किसी देश के निवासियों के विश्व के साथ हुए मौद्रिक लेन-देनों के लेखांकन को रिकॉर्ड करता है।
  • BoP की गणना का उद्देश्य:
    • यह निर्धारित करने के लिये इसे एक संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है कि देश में मुद्रा के मूल्य में बढ़ोतरी हो रही है या मूल्यह्रास हो रहा है।
    • यह राजकोषीय और व्यापार नीतियों पर निर्णय लेने में सरकार की मदद करता है।
    • किसी देश के अन्य देशों के साथ आर्थिक व्यवहार का विश्लेषण और उसे समझने के लिये महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
  • BoP के घटक:
    • एक देश का BoP खाता तैयार करने के लिये विश्व के अन्य हिस्सों के बीच इसके आर्थिक लेन-देन को चालू खाते, पूंजी खाते, वित्तीय खाते और त्रुटियों तथा चूक के तहत वर्गीकृत किया जाता है। यह विदेशी मुद्रा भंडार  (Foreign Exchange Reserve) में परिवर्तन को भी दर्शाता है।
    • चालू खाता: यह दृश्यमान (जिसे व्यापारिक माल भी कहा जाता है- व्यापार संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है) और अदृश्यमान वस्तुओं (गैर-व्यापारिक माल भी कहा जाता है) के निर्यात तथा आयात को दर्शाता है।
      • अदृश्यमान में सेवाएँ, विप्रेषण और आय शामिल हैं।
    • पूंजी खाता: यह किसी देश के पूंजीगत व्यय और आय को दर्शाता है।
      • यह एक अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक निवेश दोनों के शुद्ध प्रवाह का सारांश देता है।
    • बाहरी वाणिज्यिक उधार (External Commercial Borrowing), प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment), विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (Foreign Portfolio Investment) आदि पूंजी खाते के हिस्से हैं।
    • त्रुटियाँ और चूक: कभी-कभी भुगतान संतुलन की स्थिति न होने के कारण इस असंतुलन को BoP में त्रुटियों और चूक (Errors and Omissions) के रूप में दिखाया जाता है। यह सभी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन को सही ढंग से रिकॉर्ड करने में देश की अक्षमता को दर्शाता है।
    • विदेशी मुद्रा भंडार में परिवर्तन: मुद्रा भंडार में होने वाले उतार-चढ़ाव में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा धारित विदेशी मुद्रा आस्तियों में परिवर्तन और विशेष आहरण अधिकार (SDR) परिवर्तन शामिल है।
    • कुल मिलाकर BoP खाते में अधिशेष या घाटा हो सकता है। यदि कोई घाटा है तो उसे विदेशी मुद्रा (Forex) खाते से पैसे लेकर पूरा किया जा सकता है।
      • यदि विदेशी मुद्रा खाते का भंडार कम हो रहा है तो इस परिदृश्य को BoP संकट कहा जाता है।

स्रोत: द हिंदू


भूगोल

फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, बाढ़ प्रवण क्षेत्र, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण

मेन्स के लिये:

फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग पहल के माध्यम से आपदा प्रबंधन 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल विधानसभा में बाढ़ की पूर्व-तैयारी और प्रतिक्रिया पर भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट पेश की गई थी।

  • यह रिपोर्ट वर्ष 2018 में केरल में आई विनाशकारी बाढ़ की पृष्ठभूमि के विरुद्ध तैयार की गई थी।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों को फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग प्रक्रिया के लिये एक मॉडल ड्राफ्ट बिल परिचालित किये जाने के 45 वर्षों बाद भी राज्य ने अब तक फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग कानून नहीं बनाया है।

Liable-Floods

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • अवधारणा: फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग की मूल अवधारणा बाढ़ से होने वाले नुकसान को सीमित करने के लिये बाढ़ के मैदानों में भूमि उपयोग को नियंत्रित करना है।
    • विकासात्मक गतिविधियों का निर्धारण: इसका उद्देश्य विकासात्मक गतिविधियों के लिये स्थानों और क्षेत्रों की सीमा को इस तरह से निर्धारित करना है कि नुकसान कम-से-कम हो। 
    • सीमाओं में वृद्धि : इसमें असुरक्षित और संरक्षित दोनों क्षेत्रों के विकास पर सीमाएँ निर्धारित करने की परिकल्पना की गई है। 
      • असंरक्षित क्षेत्रों में अंधाधुंध विकास को रोकने के लिये उन क्षेत्रों में विकासात्मक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाकर उनकी सीमाओं का निर्धारण करना। 
      • संरक्षित क्षेत्रों में केवल ऐसी विकासात्मक गतिविधियों की अनुमति दी जा सकती है, जिनमें सुरक्षात्मक उपाय विफल होने की स्थिति में भारी क्षति न हो। 
    • उपयोगिता: ज़ोनिंग मौज़ूदा स्थितियों का समाधान नहीं कर सकती है, हालाँकि यह निश्चित रूप से नए विकास क्षेत्र में बाढ़ से होने वाली क्षति को कम करने में मदद करेगी। 
      • फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग न केवल नदियों द्वारा आने वाली बाढ़ के मामले में आवश्यक है, बल्कि यह विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में जल जमाव से होने वाले नुकसान को कम करने में भी उपयोगी है।
  • बाढ़ की संवेदनशीलता:
    • भारत के उच्च जोखिम और भेद्यता को इस तथ्य से आकलित किया गया है कि 3290 लाख हेक्टेयर के भौगोलिक क्षेत्र में से 40 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ प्रवण क्षेत्र है।
    • बाढ़ के कारण प्रतिवर्ष औसतन 75 लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है तथा लगभग 1600 लोगों की मृत्यु हो जाती है एवं इसके कारण फसलों व मकानों तथा जन-सुविधाओं को होने वाली क्षति 1805 करोड़ रुपए है।
  • फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग के लिये मॉडल ड्राफ्ट बिल:
    • परिचय: यह बिल/विधेयक बाढ़ क्षेत्र प्राधिकरण, सर्वेक्षण और बाढ़ के मैदानी क्षेत्र के परिसीमन, बाढ़ के मैदानों की सीमाओं की अधिसूचना, बाढ़ के मैदानों के उपयोग पर प्रतिबंध, मुआवज़े और सबसे महत्वपूर्ण रूप से जल के मुक्त प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिये इन बाधाओं को दूर करने के बारे में प्रविष्टि प्रदान करता है।
      • इसके तहत बाढ़ प्रभावी क्षेत्रों के निचले इलाकों के आवासों को पार्कों और खेल मैदानों में प्रतिस्थापित किया जाएगा क्योंकि उन क्षेत्रों में मानव बस्ती की अनुपस्थिति की वजह से जान-माल की हानि में कमी आएगी।
    • कार्यान्वयन में चुनौतियांँ:
      • संभावित विधायी प्रक्रिया के साथ-साथ बाढ़ के मैदान प्रबंधन हेतु विभिन्न पहलुओं का पालन करने के दृष्टिकोण में राज्यों की ओर से प्रतिरोध किया गया है।
        • राज्यों की अनिच्छा मुख्य रूप से जनसंख्या दबाव और वैकल्पिक आजीविका प्रणालियों की कमी के कारण है।
      • बाढ़ के मैदानों के नियमों को लागू करने और लागू करने के प्रति राज्यों की उदासीन प्रतिक्रिया ने बाढ़ क्षेत्रों के अतिक्रमण में उल्लेखनीय वृद्धि की है, जिसमें कभी-कभी अधिकृत और नगर नियोजन अधिकारियों द्वारा विधिवत अनुमोदित अतिक्रमण के मामले देखने को मिलते हैं। 
  • संबंधित संवैधानिक प्रावधान और अन्य उपाय:
    • सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि 17 के रूप में जल निकासी और तटबंधों/बांँधों को शामिल करने के आधार पर, "अंतर-राज्यीय नदियों एवं नदी के विनियमन और विकास" के मामले को छोड़कर, बाढ़ नियंत्रण कार्य राज्य सरकार के दायरे में आता है। 'घाटियों', का उल्लेख सूची I (संघ सूची) की प्रविष्टि 56 में किया गया है।  
      • फ्लड-प्लेन ज़ोनिंग राज्य सरकार के दायरे में है क्योंकि यह नदी के किनारे की भूमि से संबंधित है और सूची II की प्रविष्टि 18 के तहत भूमि राज्य का विषय है।
      • केंद्र सरकार की भूमिका केवल परामर्श देने तथा  दिशा-निर्देश के निर्धारण तक ही  सीमित हो सकती है।
    • संविधान में शामिल सातवीं अनुसूची की तीन विधायी सूचियों में से किसी में भी बाढ़ नियंत्रण और शमन (Flood Control and Mitigation) का सीधे तौर पर उल्लेख नहीं किया गया है।
    • वर्ष 2008 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) ने  बाढ़ को नियंत्रित करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण "गैर-संरचनात्मक उपाय" के रूप में बाढ़ के मैदान क्षेत्र के लिये राज्यों को दिशा-निर्देश जारी किये हैं। 
      • इसने सुझाव दिया कि ऐसे क्षेत्र जहाँ 10 वर्षों में बाढ़ की आवृत्ति के कारण प्रभावित होने की संभावना है, उन क्षेत्रों को पार्कों, उद्यानों जैसे हरे क्षेत्रों के लिये आरक्षित किया जाना चाहिये तथा इन क्षेत्रों में  कंक्रीट संरचनाओं (Concrete Structures) की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
      • इसमें बाढ़ के अन्य क्षेत्रों के बारे में भी बात की गई जैसे-  25 साल की अवधि में बाढ़ की आवृत्ति वाले क्षेत्रों में राज्यों को उन क्षेत्र-विशिष्ट योजना बनाने के लिये कहा गया।

आगे की राह 

  • चूंँकि बाढ़ से हर साल जान-माल की बड़ी क्षति होती है, इसलिये समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें एक दीर्घकालिक योजना तैयार करें जो बाढ़ को नियंत्रित करने हेतु तटबंधों के निर्माण तथा ड्रेजिंग जैसे उपायों से बढ़कर हो। 
  • एक एकीकृत बेसिन प्रबंधन योजना (Integrated Basin Management Plan) की आवश्यकता है जो सभी नदी-बेसिन साझा करने वाले देशों के  साथ-साथ भारतीय राज्यों को भी जोड़े।
  • राज्य सरकार को फ्लड-प्लेन जोनिंग कानून के लिये मॉडल ड्राफ्ट बिल (Model Draft Bill) को लागू करना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


भूगोल

सबसे पुराने महाद्वीपीय भूभाग का उदय

प्रिलिम्स के लिये:

‘महाद्वीपीय विस्थापन’ सिद्धांत

मेन्स के लिये: 

प्रारंभिक भूभाग का निर्माण और जीवों के विकास की प्रक्रिया

चर्चा में क्यों?

एक हालिया अध्ययन में जानकारी दी गई है कि विश्व के सबसे पहले महाद्वीपीय भूभाग का निर्माण 2.5 बिलियन वर्ष पूर्व (‘महाद्वीपीय विस्थापन’ सिद्धांत के अनुसार) नहीं, बल्कि 3.2 बिलियन वर्ष पूर्व हुआ था।

  • यह अध्ययन भारत, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के शोधकर्त्ताओं द्वारा किया गया था।

‘महाद्वीपीय विस्थापन’ सिद्धांत:

  • ‘महाद्वीपीय विस्थापन’ सिद्धांत महासागरों और महाद्वीपों के वितरण से संबंधित है। यह पहली बार वर्ष 1912 में एक जर्मन मौसम विज्ञानी अल्फ्रेड वेगेनर द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
  • इस सिद्धांत के मुताबिक, मौजूदा सभी महाद्वीप अतीत में एक बड़े भूखंड- ‘पैंजिया’ से जुड़े हुए थे और उनके चारों ओर एक विशाल महासागर- पैंथालसा मौजूद था।
  • लगभग 200 मिलियन वर्ष पहले पैंजिया विभाजित होना शुरू हुआ और क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी घटकों का निर्माण करते हुए लारेशिया तथा गोंडवानालैंड के रूप में दो बड़े महाद्वीपीय भूभागों में टूट गया।
  • इसके बाद लारेशिया और गोंडवानालैंड विभिन्न छोटे महाद्वीपों में टूटते रहे जो क्रम आज भी जारी है।

Landmass

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • इस अध्ययन ने व्यापक रूप से स्वीकृत इस दृष्टिकोण को चुनौती देने का प्रयास किया है कि महाद्वीपों का निर्णय लगभग 2.5 बिलियन वर्ष पूर्व महासागरों से हुआ था।
    • इस अध्ययन के मुताबिक, महाद्वीपीय भूभागों का निर्माण लगभग 700 मिलियन वर्ष यानी लगभग 3.2 बिलियन वर्ष पूर्व हुआ था और इस अवधि के दौरान प्रारंभिक महाद्वीपीय भूभाग का निर्माण झारखंड के ‘सिंहभूम’ क्षेत्र में हुआ होगा।
      • हालाँकि प्रारंभिक महाद्वीपीय भूमि के हिस्से ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में भी मौज़ूद हैं।
      • भूवैज्ञानिक समानताओं ने सिंहभूम क्रेटन को दक्षिण अफ्रीका और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के क्रेटन से जोड़ा है।
  • प्रमुख निष्कर्ष:
    • नदी चैनल, ज्वारीय मैदान और समुद्र तट:
      • वैज्ञानिकों ने माना कि जब पहली बार भूमि का निर्माण हुआ, तो यह ‘सिंहभूम’ के उत्तरी क्षेत्र की तलछटी चट्टानों के रूप में था। वैज्ञानिकों ने एक विशेष प्रकार की तलछटी चट्टानें खोजी हैं, जिन्हें ‘बलुआ पत्थर’ (Sandstones) कहा जाता है।
      • वैज्ञानिकों ने यूरेनियम और छोटे खनिजों की लेड कंटेंट का विश्लेषण करके इनकी आयु का पता लगाया।
      • ये चट्टानें 3.1 बिलियन वर्ष पुरानी थीं और इनका निर्माण प्राचीन नदियों, समुद्र तटों और उथले समुद्रों में हुआ था।
      • ये सभी जल निकाय केवल महाद्वीपीय भूमि होने पर ही अस्तित्व में हो सकते थे। इस प्रकार निष्कर्ष निकाला गया कि सिंहभूम क्षेत्र 3.1 बिलियन वर्ष पूर्व समुद्र के ऊपर था।
    • वृहत् ज्वालामुखी गतिविधियाँ:
      • शोधकर्त्ताओं ने ‘सिंहभूम’ क्षेत्र की महाद्वीपीय परत बनाने वाले ग्रेनाइटों का भी अध्ययन किया।
      • ये ग्रेनाइट 3.5 से 3.1 बिलियन वर्ष पुराने हैं और इनका निर्माण वृहत् ज्वालामुखी गतिविधियों के माध्यम से हुआ था तथा यह प्रक्रिया सैकड़ों-लाखों वर्षों तक जारी रही, जब तक कि ‘मैग्मा’ एक मोटी महाद्वीपीय परत बनाने के लिये ठोस नहीं हो गए।
      • मोटाई और कम घनत्व के कारण महाद्वीपीय क्रस्ट आसपास के समुद्री क्रस्ट के ऊपर ‘आधिक्य’ (फ्लोट करने में सक्षम होने की गुणवत्ता) के कारण उभरा।
  • जीवों का विकास:
    • महाद्वीपों के शुरुआती उद्भव ने प्रकाश संश्लेषक जीवों के प्रसार में योगदान दिया होगा, जिससे वातावरण में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ गया होगा।
    • क्रेटन के अपक्षय से पोषक तत्त्वों का अपवाह होता है , जिससे प्रारंभिक जीवन के लिये समुद्र को फॉस्फोरस और अन्य बिल्डिंग ब्लॉक्स की आपूर्ति हुई।
      • क्रेटन, महाद्वीप का एक स्थिर आंतरिक भाग है जो विशेष रूप से प्राचीन क्रिस्टलीय चट्टान से बना है।
  • महत्त्व:
    • ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन को लेकर बहस चल रही है, यह समझना बहुत ज़रूरी है कि हमारा वातावरण, महासागर और जलवायु किस प्रकार अस्तित्व में आए तथा किस प्रकार उन्होंने हमारे ग्रह को रहने योग्य बनाने के लिये पृथ्वी के अंदर महत्त्वपूर्ण भूवैज्ञानिक बदलाव किये।
    • यह हमें पृथ्वी के आंतरिक भाग को इसके बाहरी भाग से जोड़ने की अनुमति देगा।
      • भारत में तीन अन्य प्राचीन महाद्वीपीय खंड- धारवाड़, बस्तर और बुंदेलखंड भी मौजूद हैं। उनके विकास को समझने के लिये इनका अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।

Deccan-Besalt

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


कृषि

भू-प्रजातियों का संरक्षण

प्रिलिम्स के लिये:

जेनेटिक इंजीनियरिंग, हाइब्रिड क्रॉप्स, पद्म श्री पुरस्कार

मेन्स के लिये:

भू-प्रजाति फसलों एवं संकर फसलों में अंतर, भू-प्रजातियों की उपयोगिता 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में महाराष्ट्र के अहमदनगर के अकोले तालुका की निवासी राहीबाई पोपेरे (Rahibai Popere) को पद्म श्री पुरस्कार दिया गया, जिन्हें सीडमदर (Seedmother) के नाम से जाना जाता है।

  • उन्हें उनके काम की पहचान के लिये सम्मानित किया गया, उन्होंने गाँव स्तर पर सैकड़ों भू-प्रजातियों (आमतौर पर उगाई जाने वाली फसलों की जंगली किस्मों) को संरक्षित करने में मदद की है।
  • वर्तमान में किसान मुख्यत: संकर फसलें (Hybrid Crops) उगाते हैं।

प्रमुख बिंदु

  • संकर फसलें (Hybrid Crops):
    • परिचय: हाइब्रिड क्रॉप या संकर फसल वह है जो दो या अधिक पौधों के क्रॉस-परागण/संकरण (Cross-Pollinated) द्वारा उत्पन्न होती है जो एक ऑफ-स्प्रिंग या हाइब्रिड बनाने के लिये प्रयोग होती है जिसमें प्रत्येक प्रजाति के सर्वोत्तम लक्षण होते हैं।  
      • उदाहरण: हाइब्रिड चावल और गेहूँ को एक समयावधि में चयनात्मक प्रजनन द्वारा वैज्ञानिकों को उच्च उपज या अन्य वांछनीय लक्षणों वाली किस्मों को विकसित करने की अनुमति दी गई है।
      • कई वर्षों से कृषकों द्वारा इन किस्मों को अपनाया जा रहा है।
    • संबंधित मुद्दे: कई दशकों में चयन और प्रजनन के माध्यम से फसल सुधार ने अधिकांश फसलों के आनुवंशिक आधार को संकुचित कर दिया है।
      • जैव विविधता फसलों के लिये चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना करने हेतु लक्षण विकसित करने के लिये एक प्राकृतिक तंत्र की अनुमति देती है। 
      • हालाँकि फसल चयन में बड़े पैमाने पर मानवीय हस्तक्षेप के कारण अधिकांश व्यावसायिक फसलों में यह क्षमता अब लुप्त हो गई है।
  • भू-प्रजातियाँ: 
    • परिचय: भू-प्रजातियाँ (Landraces) आमतौर पर खेती की जाने वाली फसलों के प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले प्रकारों को संदर्भित करती हैं। 
      • ये व्यावसायिक रूप से उगाई जाने वाली फसलों के विपरीत हैं, जिन्हें चयनात्मक प्रजनन (संकर) या जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से दूसरी प्रजातियों पर एक निश्चित विशेषता व्यक्त करने के लिये विकसित किया जाता है।
    • भू-प्रजातियों की उपयोगिता: जलवायु परिवर्तन के खतरे के बीच वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं के सामने ऐसी किस्मों को विकसित करना एक चुनौती है जो अजैविक और जैविक दोनों प्रकार के खतरों का सामना कर सकें। 
      • समृद्ध जीन पूल: प्राकृतिक रूप उगने वाली भू-प्रजातियों में अभी भी अप्रयुक्त आनुवांशिक गुणों का एक बड़ा पूल या संयोजक है, जो इनसे जुड़ी समस्याओं का  समाधान प्रदान कर सकता है। 
        • जीन पूल जितना व्यापक होगा, प्रजातियों में एक लक्षण को विकसित करने की संभावना उतनी ही अधिक होगी जो चरम जलवायु घटनाओं से संरक्षण प्रदान करने में मदद कर सकता है।
      • उचित प्रक्रिया के माध्यम से उच्च उपज: यह सामान्य रूप से एक अनुचित धारणा है कि हाइब्रिड की तुलना में भू-प्रजातियों की पैदावार कम होती है। हालाँकि उचित कृषि पद्धतियों के ज़रिये भू-प्रजातियों की फसलें कम लागत के साथ बेहतर उपज प्रदान कर सकती हैं।
      • उच्च पोषक गुण: व्यावसायिक रूप से विकसित किस्मों की तुलना में कई भू-प्रजातियाँ पोषक तत्त्वों से भरपूर होती हैं।
    • भू-प्रजातियों के उदाहरण: कालभात (Kalbhat), सुगंधित चावल की एक अनूठी भू-प्रजातियों में से एक है। 
      • पिछले कुछ वर्षों में यह किस्म काश्तकारों के खेतों से लगभग लुप्त हो गई थी क्योंकि हाइब्रिड किस्मों का उपयोग अधिक होने लगा था। 
      • यह लोकप्रिय रूप से उगाए गए चावल की तुलना में उत्तम जलवायु अनुकूलन प्रजाति है और बाढ़ या सूखे की स्थिति को बेहतर ढंग से झेल सकती है।

आगे की राह 

  • भू-प्रजातियों के संरक्षण की आवश्यकता: वर्तमान में भू-प्रजातियांँ कुछ ही ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में जीवित हैं, लेकिन वे भी उचित संरक्षण के अभाव में समाप्त हो रही हैं।
    • इन्हें किस तरह से उगाया जाना चाहिये या बीजों को कैसे बचाया जाए, इस बारे में पारंपरिक ज्ञान भी लुप्त होता जा रहा है।
  • सामुदायिक नेतृत्व कार्यक्रम: BAIF समुदाय के नेतृत्व वाला कार्यक्रम अन्य राज्यों में अनुकरण करने योग्य है।
    • BAIF डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन महाराष्ट्र में पुणे के पास उरली कंचन में स्थित एक धर्मार्थ संगठन है, जो कृषि के विकास में कार्यरत है। इसका उद्देश्य उपलब्ध जर्मप्लाज़्म की पहचान करना और सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से बीज बैंक निर्मित करना है।
  • भू-प्रजातियों के क्षेत्र में अनुसंधान: भू-प्रजातियों के जर्मप्लाज़्म (Germplasms) के बारे में अभी बहुत कुछ समझा जाना बाकी है। 
    • यह समझना आवश्यक है कि ये भू-प्रजातियांँ जलवायु लचीली कृषि (Climate-Resilient Agriculture) में किस प्रकार अपना योगदान दे सकती हैं, पोषण संबंधी रूपरेखा भी कमियों से लड़ने में कारगर साबित हो सकती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

आरबीआई खुदरा प्रत्यक्ष योजना

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय रिज़र्व बैंक, म्यूचुअल फंड, एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्स  

मेन्स के लिये:

आरबीआई खुदरा प्रत्यक्ष योजना का क्षेत्राधिकार और महत्त्व 

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में प्रधानमंत्री ने खुदरा निवेशकों के लिये सरकारी बॉण्ड बाज़ार (Government bond market) खोलने के लियेभारतीय रिज़र्व बैंक- खुदरा प्रत्यक्ष योजना’ (Reserve Bank of India (RBI)- Retail Direct Scheme) शुरू की है।

प्रमुख बिंदु 

  • खुदरा प्रत्यक्ष योजना:
    • फरवरी 2021 में RBI द्वारा खुदरा निवेशकों को सरकारी प्रतिभूतियों (Government securities- G-secs) में सीधे निवेश करने हेतु केंद्रीय बैंक के साथ गिल्ट खाते खोलने की अनुमति देने का प्रस्ताव रखा।
    • इस योजना के तहत खुदरा निवेशकों (व्यक्तियों) को RBI के साथ 'खुदरा प्रत्यक्ष गिल्ट खाता' (Retail Direct Gilt Account) खोलने और बनाए रखने की सुविधा होगी।
      • खुदरा निवेशक एक गैर-पेशेवर निवेशक है जो प्रतिभूतियों या फंडों को खरीदता और बेचता है जिसमें म्यूचुअल फंड और एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्स (Exchange Traded Funds- ETFs) जैसी प्रतिभूतियों का एक समूह होता है।
      • एक गिल्ट खाते की तुलना बैंक खाते से की जा सकती है, इनमें अंतर इस बात का होता है कि खाते से पैसे के बजाय ट्रेज़री बिल या सरकारी प्रतिभूतियों के साथ डेबिट या क्रेडिट किया जाता है।
    • यह योजना भारत को उन चुनिंदा देशों में शामिल करती है जो इस प्रकार सुविधा  प्रदान करते हैं।
  • उद्देश्य:
    • इस कदम का उद्देश्य सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में विविधता लाना है जिसमें बैंकों, बीमा कंपनियों, म्यूचुअल फंड जैसे अन्य संस्थागत निवेशकों का वर्चस्व है।
  • क्षेत्र/विस्तार:
    • यह केंद्र सरकार की प्रतिभूतियों, ट्रेज़री बिल, राज्य विकास ऋण और सॉवरेन गोल्ड बॉण्ड में निवेश करने के लिये एक पोर्टल एवेन्यू (Portal Avenue) प्रदान करता है।
    • वे प्राथमिक और साथ ही द्वितीयक बाज़ार, सरकारी प्रतिभूति बाज़ारों में निवेश कर सकते हैं।
      • नेगोशिएटेड डीलिंग सिस्टम-ऑर्डर मैचिंग सेगमेंट (Negotiated Dealing System-Order Matching Segment- NDS-OM) का मतलब  द्वितीयक बाज़ार में सरकारी प्रतिभूतियों में ट्रेडिंग के लिये RBI की स्क्रीन आधारित, एनोनिमस इलेक्ट्रॉनिक ऑर्डर मैचिंग सिस्टम (Anonymous Electronic Order Matching System) है।
  • महत्त्व:
    • एक आत्मनिर्भर भारत का निर्माण:
      • अभी तक सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में छोटे निवेशक वर्ग, वेतनभोगी वर्ग, छोटे व्यापारियों को बैंकों और म्यूचुअल फंड के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से निवेश करना पड़ता था।
    • बेहतर पहुंँच हेतु सुगमता:
      • यह छोटे निवेशकों हेतु जी-सेक ट्रेडिंग की प्रक्रिया को आसान बनाएगा,  इसलिये यह जी-सेक में खुदरा भागीदारी को बढ़ावा देगा तथा आसान पहुंँच प्रदान करेगा।
    • सरकारी ऋण की सुविधा:
      • यह उपाय मेंडेडरी होल्ड टू मेच्योरिटी (प्रतिभूतियांँ जो परिपक्वता तक स्वामित्व हेतु खरीदी जाती हैं) प्रावधानों में छूट के साथ वर्ष 2021-22 में सरकारी उधार कार्यक्रम को सुचारु रूप से पूरा करने की सुविधा प्रदान करेगा।
    • घरेलू बचत का वित्तीयकरण:
      • जी-सेक बाज़ार में प्रत्यक्ष खुदरा भागीदारी की अनुमति देने से घरेलू बचत के एक विशाल पूल के वित्तीयकरण को बढ़ावा मिलेगा और यह भारत के निवेश बाज़ार में निर्णायक साबित हो सकता है।
  • सरकारी प्रतिभूतियों में खुदरा निवेश बढ़ाने हेतु किये गए अन्य उपाय:
    • प्राथमिक नीलामियों में गैर-प्रतिस्पर्द्धी बोली लगाना।
      • गैर-प्रतिस्पर्द्धी बोली का अर्थ है कि बोलीदाता बोली में प्रतिफल या मूल्य उद्धृत किये बिना दिनांकित सरकारी प्रतिभूतियों की नीलामी में भाग ले सकेगा।
    • स्टॉक एक्सचेंज खुदरा बोलियों के एग्रीगेटर और फैसिलिटेटर के रूप में कार्य करेंगे।
    • द्वितीयक बाज़ार में एक विशिष्ट खुदरा खंड (Specific Retail Segment) को अनुमति देना।
      • द्वितीयक बाज़ार वह है जहांँ निवेशक पहले से ही अपनी प्रतिभूतियों को खरीदते और बेचते हैं।
      • प्राथमिक बाज़ार पहली बार जारी की जा रही नई प्रतिभूतियों से संबंधित है।

सरकारी प्रतिभूति (Government Security)

  • सरकारी प्रतिभूतियाँ केंद्र सरकार या राज्य सरकारों द्वारा जारी की जाने वाली एक व्यापार योग्य साधन होती हैं। 
  • ये सरकार के ऋण दायित्व को स्वीकार करती हैं। ऐसी प्रतिभूतियाँ अल्पकालिक (आमतौर पर एक वर्ष से भी कम समय की मेच्योरिटी वाली इन प्रतिभूतियों को ट्रेज़री बिल कहा जाता है जिसे वर्तमान में तीन रूपों में जारी किया जाता है, अर्थात् 91 दिन, 182 दिन और 364 दिन) या दीर्घकालिक (आमतौर पर एक वर्ष या उससे अधिक की मेच्योरिटी वाली इन प्रतिभूतियों को सरकारी बॉण्ड या दिनांकित प्रतिभूतियाँ कहा जाता है) होती हैं।
  • भारत में केंद्र सरकार ट्रेज़री बिल और बॉण्ड या दिनांकित प्रतिभूतियाँ दोनों को जारी करती है, जबकि राज्य सरकारें केवल बॉण्ड या दिनांकित प्रतिभूतियों को जारी करती हैं, जिन्हें राज्य विकास ऋण (SDL) कहा जाता है। 
  • सरकारी प्रतिभूतियों में व्यावहारिक रूप से डिफॉल्ट का कोई जोखिम नहीं होता है, इसलिये इन्हें जोखिम रहित गिल्ट-एज्ड उपकरण भी कहा जाता है।
    • गिल्ट-एज्ड प्रतिभूतियाँ सरकार और बड़े निगमों द्वारा उधार ली गई निधि के साधन के रूप में जारी किये जाने वाले उच्च-श्रेणी के निवेश बॉण्ड हैं।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

अमेरिकी मुद्रास्फीति और भारत पर प्रभाव

प्रिलिम्स के लिये:

खुदरा मुद्रास्फीति, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, "तकनीकी" आर्थिक मंदी

मेन्स के लिये:

अमेरिकी मुद्रास्फीति का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

चर्चा में क्यों?

विगत कुछ दिनों में अमेरिका में खुदरा मुद्रास्फीति बढ़कर 6.2% हो गई है, जो 3 दशकों में साल-दर-साल सबसे अधिक उछाल पर है। इन बढ़ती कीमतों ने विश्व स्तर पर और भारत दोनों के प्रति बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किया है।

प्रमुख बिंदु

  • मुद्रास्फीति के बारे में:
    • क्रियाविधि: यह वह दर है जिस पर एक निश्चित अवधि में कीमतों में वृद्धि होती है। सामान्यत: भारत में मुद्रास्फीति दर की गणना साल-दर-साल के आधार पर की जाती है। 
      • दूसरे शब्दों में यदि किसी विशेष माह की मुद्रास्फीति दर 10% है, तो इसका आशय है कि उस महीने की कीमतें एक वर्ष पहले उसी महीने की कीमतों की तुलना में 10% अधिक थीं।
      • भारत में मुद्रास्फीति को मुख्य रूप से दो मुख्य सूचकांकोंथोक मूल्य सूचकांक (WPI) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) द्वारा मापा जाता है, जो क्रमशः थोक एवं खुदरा स्तर पर मूल्य में परिवर्तन को मापते हैं।
      • भारत द्वारा 4 (+/- 2) प्रतिशत को लक्षित करते हुए एक लचीली मुद्रास्फीति नीति को अपनाया गया है। 
    • लोगों पर मुद्रास्फीति का प्रभाव: एक उच्च मुद्रास्फीति दर लोगों की क्रय शक्ति को नष्ट कर देती है। चूँकि गरीबों के पास तेज़ी से बढ़ती कीमतों का सामना करने के लिये कम पैसा है, अत: उच्च मुद्रास्फीति उन्हें सर्वाधिक नुकसान पहुँचाती है।
      • हालाँकि अर्थव्यवस्था में उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये मुद्रास्फीति का एक मध्यम स्तर बनाए रखना आवश्यक होता है।
  • अमेरिका में बढ़ती मुद्रास्फीति का कारण:
    • अमेरिकी केंद्रीय बैंक अपने फेडरल रिज़र्व में केवल 2% की मुद्रास्फीति दर का लक्ष्य निर्धारित है। इस संदर्भ के आधार पर 6.2% मुद्रास्फीति दर कीमतों में सर्वाधिक वृद्धि है।
    • सामान्य तौर पर मुद्रास्फीति स्पाइक्स को मांग में वृद्धि या आपूर्ति में कमी के लिये सौंपा जा सकता है।
      • अमेरिका में दोनों कारक शामिल हैं।
      • आपूर्ति शृंखला में सुधार की तुलना में आर्थिक सुधार की गति बहुत तीव्र रही है और इसने मांग व आपूर्ति के बीच असंतुलन और बढ़ा दिया है, जिससे निरंतर मूल्य वृद्धि हुई है।
    • मांग आधारित मुद्रास्फीति: कोविड-19 टीकाकरण अभियान के तेज़ी से रोलआउट गतिविधियों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेज़ी से सुधार किया। 
      • मुद्रास्फीति की वृद्धि का एक हिस्सा उपभोक्ताओं की चौतरफा मांग में अप्रत्याशित रूप से तेज़ी से सुधार से आया है।
      • सरकार द्वारा न केवल उपभोक्ताओं और अपनी नौकरी गँवाने वालों को राहत प्रदान करने के लिये बल्कि मांग को प्रोत्साहित करने हेतु सरकार द्वारा संग्रहित किये गए अरबों डॉलर से इस रिकवरी को और बढ़ावा मिला।
    • आपूर्ति पक्ष मुद्रास्फीति: वर्ष 2020 में महामारी ने न केवल अमेरिका में बल्कि दुनिया भर में व्यापक तालाबंदी और व्यवधान पैदा किया। 
      • कंपनियों ने कर्मचारियों की संख्या को कम किया और उत्पादन में तेज़ी से कटौती की।
      • संक्षेप में उत्पादन की वैश्विक आपूर्ति शृंखला ने महामारी के पूर्व स्तरों पर पुन: उत्पादन शुरू नहीं किया है।
    • विश्व स्तर पर मुद्रास्फीति: जबकि अमेरिका ने कीमतों में सबसे तेज़ वृद्धि देखी है, मुद्रास्फीति ने अधिकांश प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में नीति निर्माताओं को आश्चर्यचकित कर दिया है यहाँ तक की जर्मनी, चीन या जापान को भी।
  • मुद्रास्फीति (भारतीय परिप्रेक्ष्य): 
    •  महामारी-पूर्व मुद्रास्फीति: जबकि अधिकांश अन्य अर्थव्यवस्थाएँ महामारी के मद्देनज़र मुद्रास्फीति में वृद्धि से हैरान थीं, भारत उन दुर्लभ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक था जहाँ उच्च मुद्रास्फीति महामारी से पहले मौज़ूद थी।
      • महामारी ने आपूर्ति की कमी के कारण और भी चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर दी, फिर भी भारत में मांग अभी तक पूर्व-कोविड स्तरों तक नहीं पहुँची है।
      • इसके परिणामस्वरूप भारत में "तकनीकी" आर्थिक मंदी में प्रवेश करने के बावजूद आरबीआई ने मई 2020 के बाद से अपनी बेंचमार्क ब्याज दरों (रेपो दर) को एक बार भी कम नहीं किया है।
      • आरबीआई ने टिकाऊ आधार पर विकास को पुनर्जीवित करने और बनाए रखने तथा अर्थव्यवस्था पर कोविड-19 के प्रभाव को कम करने के लिये जब तक आवश्यक हो, तब तक एक समायोजन रुख जारी रखने का फैसला किया है, जबकि यह सुनिश्चित करते हुए कि मुद्रास्फीति आगे बढ़ने वाले लक्ष्य के भीतर बनी रहे।
    • कोर मुद्रास्फीति एक चिंताजनक कारक: जबकि समग्र मुद्रास्फीति औसत वर्तमान में काफी प्रबंधनीय प्रतीत होता है, यह "कोर" मुद्रास्फीति है जो चिंताजनक है।
      • जब हम खाद्य और ईंधन की कीमतों की उपेक्षा करते हैं तो कोर मुद्रास्फीति दर मुद्रास्फीति की दर होती है। 
      • यह दर उच्च है और अब आरबीआई के सुविधा क्षेत्र को भंग करने का खतरा उत्पन्न करता है।
      • कीमतों में वैश्विक वृद्धि के आलोक में भारत की मुद्रास्फीति और गंभीर हो सकती है।
  • भारत पर अमेरिकी मुद्रास्फीति का प्रभाव:
    • जब वैश्विक स्तर पर कीमतें बढ़ती हैं, तो इससे उच्च आयातित मुद्रास्फीति होगी। दूसरे शब्दों में भारत और भारतीय जो कुछ भी आयात करते हैं वे सभी वस्तुएँ महँगी हो जाएगी।
    • उन्नत अर्थव्यवस्थाओं विशेष रूप से अमेरिका में उच्च मुद्रास्फीति, संभवतः उनके केंद्रीय बैंकों को अपनी ढीली मौद्रिक नीति को त्यागने के लिये मजबूर करेगी।
    • उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में एक सख्त मुद्रा नीति उच्च ब्याज दरों का संकेत देगी।
      • एक सख्त मौद्रिक नीति में ऋण लेने को बाध्य करने और बचत को प्रोत्साहित करने के लिये ब्याज दरों में वृद्धि शामिल है।
    • यह भारतीय अर्थव्यवस्था को दो व्यापक तरीकों से प्रभावित करेगा। 
      • भारत के बाहर धन का सृजन करने की कोशिश कर रही भारतीय फर्मों को ऐसा करना महँगा पड़ेगा।
      • आरबीआई को घरेलू स्तर पर ब्याज दरें बढ़ाकर अपनी मौद्रिक नीति को घरेलू स्तर पर संरेखित करना होगा। यह बदले में मुद्रास्फीति को और बढ़ा सकता है क्योंकि उत्पादन लागत बढ़ जाएगी।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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