दृष्टि के NCERT कोर्स के साथ करें UPSC की तैयारी और जानें

डेली न्यूज़

शासन व्यवस्था

भारत में घृणापूर्ण भाषण पर अंकुश लगाना

प्रिलिम्स के लिये: विधि आयोग की रिपोर्ट, अनुच्छेद 19(1)(a), न्यायालय की अवमानना, भारतीय न्याय संहिता, अस्पृश्यता, सर्वोच्च न्यायालय (SC)। 

मेन्स के लिये: घृणापूर्ण भाषण और उससे संबंधित संवैधानिक, विधिक एवं न्यायिक प्रावधान। घृणापूर्ण भाषण पर अंकुश लगाने हेतु उठाए गए कदम तथा प्रभावी नियमन हेतु आवश्यक अन्य कदम।

स्रोत: IE

चर्चा में क्यों?

कर्नाटक, घृणापूर्ण भाषण तथा घृणा‑आधारित अपराधों पर रोक लगाने के लिये पृथक विधेयक लाने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है — “कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, 2025”।

  • इस विधेयक का उद्देश्य भारतीय दंड विधि में विद्यमान उस विधायी रिक्ति को भरना है, जहाँ घृणापूर्ण भाषण’ की संकल्पना राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में बार‑बार प्रयुक्त होने के बावजूद अब भी विधिक रूप से परिभाषित नहीं है।.

कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, 2025 के प्रमुख प्रावधान

  • घृणापूर्ण भाषण की परिभाषा: विधेयक घृणापूर्ण भाषण को ऐसी अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जो धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, यौन अभिविन्यास, जन्म स्थान या विकलांगता के आधार पर किसी व्यक्ति या समूह के विरुद्ध हानि पहुँचाती हो या सौहार्द बिगाड़ने का उद्देश्य रखती हो।
  • सामूहिक दायित्व: विधेयक में संगठनात्मक जवाबदेही का प्रावधान किया गया है, जिसके तहत ज़िम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों को दोषी ठहराया जा सकता है, यदि घृणापूर्ण भाषण उनके संगठन से जुड़ा हो।
  • इंटरनेट विनियमन: यह विधेयक राज्य सरकार को ऑनलाइन घृणापूर्ण सामग्री को ब्लॉक करने या हटाने का अधिकार देता है, जिससे घृणापूर्ण भाषण के डिजिटल प्रसार को रोका जा सके।

घृणापूर्ण भाषण क्या है?

  • 267वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2017) के अनुसार, घृणापूर्ण भाषण का अर्थ है नस्ल, जातीयता, लिंग, धर्म, यौन अभिविन्यास आदि के आधार पर समूहों के विरुद्ध घृणा प्रसारित करने या सौहार्द बिगाड़ने के उद्देश्य से कहे गए शब्द या कार्य।
    • इस प्रकार इसमें भय पैदा करने, हिंसा भड़काने के उद्देश्य से अभिव्यक्त या लिखे गए शब्द, संकेत या दृश्य शामिल हैं।
  • संवैधानिक ढाँचा: अनुच्छेद 19(1)(a) भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, जबकि अनुच्छेद 19(2) संप्रभुता, सुरक्षा, लोक व्यवस्था, नैतिकता, गरिमा, विदेशी संबंधों की रक्षा करने और मानहानि, न्यायालय की अवमानना या अपराधों के कृत्य से रोकने के लिये उचित सीमाओं की अनुमति देता है
  • विधिक ढाँचा: 
    • भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023: BNS की धारा 196, पूर्व में भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 153 (a) धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने पर दंड का प्रावधान करती है।
      • धारा 299 (पूर्व में IPC 295A) धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से ऐच्छिक रूप से किये गए कार्यों को दंडित करती है।
    • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000: इस अधिनियम की धारा 66A का उपयोग ऑनलाइन घृणापूर्ण भाषण को रोकने के लिये किया गया था, किंतु श्रेया सिंघल केस, 2015 में अस्पष्टता के कारण इसे रद्द कर दिया गया थ।
    • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951: RPA, 1951 की धारा 8 उन लोगों को प्रतिबंधित करती है जो धर्म, जाति, जन्मस्थान, निवास या भाषा के आधार पर सामूहिक शत्रुता को बढ़ावा देने या सामाजिक सद्भाव को हानि पहुँचाने के कार्य के दोषी पाए जाते हैं।
    • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: यह किसी भी व्यक्ति को दंडित करता है जो जानबूझकर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य का अपमान करता है।
    • नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955  यह शब्दों, संकेतों, दृश्य चित्रणों या अन्य माध्यमों से अस्पृश्यता को प्रोत्साहित करने पर दंड का प्रावधान करता है।

भारत में घृणापूर्ण भाषण से संबंधित प्रमुख निर्णय क्या हैं?

  • शाहीन अब्दुल्ला बनाम भारत संघ एवं अन्य, 2022: सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने घृणा की बढ़ती स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए पुलिस को औपचारिक शिकायतों की प्रतीक्षा किये बिना स्वतः संज्ञान लेते हुए कार्रवाई करने का निर्देश दिया।
  • तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ, 2018: सर्वोच्च न्यायालय ने घृणापूर्ण भाषण से प्रेरित भीड़ हिंसा के समाधान के लिये IPC की धारा 153 और 295A के तहत दिशानिर्देश जारी किये, जिसमें लिंचिंग और गौरक्षकों की रोकथाम हेतु एक ज़िला नोडल अधिकारी की नियुक्ति भी शामिल है।
  • प्रवासी भलाई संगठन बनाम भारत संघ, 2014: सर्वोच्च न्यायालय ने विधि आयोग से घृणापूर्ण भाषण को परिभाषित करने पर विचार करने और इसके निवारण हेतु निर्वाचन आयोग को सशक्त बनाने के तरीकों की अनुशंसा करने को कहा।
  • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ, 2015: सर्वोच्च न्यायालय ने IT अधिनियम, 2000 की धारा 66A को रद्द कर दिया। न्यायालय ने माना कि यह विधान बहुत अस्पष्ट था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता था, क्योंकि ‘क्षोभ’ और ‘अपमान’ जैसे शब्द अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंध नहीं माने जा सकते थे।

भारत ने घृणापूर्ण भाषण पर अंकुश लगाने के लिये क्या प्रयास किये हैं?

  • विधि आयोग: 267वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2017) ने घृणा फैलाने और हिंसा भड़काने को अपराध घोषित करने के लिये IPC में धारा 153C और 505A जोड़ने की अनुशंसा की।
  • विधिक पहल: वर्ष 2022 में, घृणापूर्ण भाषण और घृणा अपराध (निवारण) विधेयक, 2022 (निजी सदस्य विधेयक) को राज्यसभा में पेश किया गया था ताकि घृणापूर्ण भाषण को ऐसी अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सके जो भेदभाव, घृणा या हिंसा को उकसाती, बढ़ावा देती या प्रसारित करती है, लेकिन यह पारित नहीं हो पाया।
  • समितियाँ: 
    • विश्वनाथन समिति 2015: इसने धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय, लिंग, लैंगिक पहचान, यौन अभिविन्यास, जन्मस्थान, निवास, भाषा, विकलांगता या जनजाति के आधार पर अपराधों के लिये उकसाने पर दो साल तक के कार्यावास और 5,000 रुपये के जुर्माने के साथ IPC में धारा 153C(b) और 505A जोड़ने का प्रस्ताव रखा।
    • बेजबरुआ समिति 2014: इसने IPC की धारा 153C (मानव गरिमा के विरुद्ध कृत्यों को बढ़ावा देना) में संशोधन कर पाँच वर्ष तक के कारावास और जुर्माने का प्रावधान किया तथा IPC की धारा 509A (किसी विशेष जाति का अपमान करना) में संशोधन कर तीन वर्ष तक के कारावास या जुर्माने का प्रावधान किया।

भारत में घृणापूर्ण भाषण पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिये क्या उपाय किये जाने चाहिये?

  • विधिक प्रवर्तन: हिंसा या भेदभाव का प्रसार वाली अभिव्यक्तियों को लक्षित करने वाले घृणापूर्ण भाषणों के लिये एक सटीक विधिक परिभाषा तैयार की जाए। गंभीर मामलों में जुर्माने से लेकर कारावास तक एवं दंड का स्पष्ट प्रावधान किया जाना आवश्यक है। BNS, 2023 में विशिष्ट धाराएँ जोड़कर विश्वनाथन और बेजबरुआ समिति की सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिये। 
  • सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टिकोण: स्कूल कार्यक्रमों और सार्वजनिक अभियानों में मीडिया साक्षरता और समालोचनात्मक चिंतन को शामिल किया जाए ताकि घृणा फैलाने वाले कृत्यों के विरुद्ध आमजन को जागरूक किया जा सके। हानिकारक रूढ़ियों के निवारण हेतु विश्वसनीय सामुदायिक अभिव्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जाए।
  • संस्थागत तंत्र: गोपनीयता सुरक्षा उपायों के साथ घृणापूर्ण भाषण की प्रवृत्तियों की निगरानी हेतु स्वतंत्र निरीक्षण निकायों की स्थापना की जाए तथा व्हिसिलब्लोअर्स के संरक्षण के साथ सुरक्षित, गोपनीय रिपोर्टिंग हेतु समुचित तंत्र बनाया जाए।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घृणापूर्ण भाषण के समाधान हेतु अंतर्राष्ट्रीय समझौते विकसित करना तथा प्रभावी प्रति-रणनीतियों को साझा करने के लिये वैश्विक मंच स्थापित करना आवश्यक है।

निष्कर्ष

कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल, घृणापूर्ण भाषणों को संहिताबद्ध करने और उन्हें कठोर दंड देने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है, जो विधायी रिक्ति को भरता है। इसकी सफलता एक स्पष्ट, संवैधानिक परिभाषा, सुदृढ़ प्रवर्तन तंत्र एवं एक संतुलित दृष्टिकोण पर निर्भर करेगी जो सामाजिक सद्भाव और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार, दोनों की रक्षा करे।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: घृणापूर्ण भाषण केवल एक विधिक विषय नहीं है, बल्कि एक सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दा भी है। घृणापूर्ण भाषण के विरुद्ध एक सुदृढ़ समाज के निर्माण में विधिक ढाँचे के पूरक उपकरण के रूप में शैक्षिक, सामाजिक और तकनीकी उपायों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. भारत में घृणापूर्ण भाषण पर प्रतिबंध लगाने का संवैधानिक आधार क्या है?
संविधान का अनुच्छेद 19(2) लोक व्यवस्था, संप्रभुता, सुरक्षा के हित में तथा अन्य आधारों के अतिरिक्त अपराध के कृत्यों के निवारण हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1)(ए)) पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।

2. सर्वोच्च न्यायालय ने IT अधिनियम, 2000 की धारा 66A को क्यों रद्द कर दिया?
श्रेया सिंघल मामले (2015) में इसे संवैधानिक रूप से अस्पष्ट और अतिव्यापक होने तथा अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के कारण रद्द कर दिया गया था।

3. घृणापूर्ण भाषण पर 267वीं विधि आयोग रिपोर्ट (2017) की प्रमुख सिफारिश क्या थी?
इसने घृणा फैलाने और हिंसा भड़काने को विशेष रूप से आपराधिक बनाने के लिये IPC में नई धाराएँ 153C और 505A जोड़ने की सिफारिश की।

सारांश

  • भारत में, घृणास्पद भाषण के विरुद्ध संहिताबद्ध विधान का अभाव है तथा इस संबंध प्रावधान अस्पष्ट हैं एवं दोषसिद्धि की दर भी कम है। 
  • प्रस्तावित कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम्स (प्रिवेंशन) बिल का उद्देश्य घृणास्पद भाषण को परिभाषित करके, 2-10 साल की कठोर सजा निर्धारित करके एवं संगठनों के लिये सामूहिक दायित्व लागू करके इस अंतर को भरना है। 
  • यह वर्ष 2017 के विधि आयोग की रिपोर्ट जैसी विगत अनुशंसाओं के अनुरूप है  और बढ़ते घृणास्पद भाषण पर सर्वोच्च न्यायालय की चिंताओं का अनुसरण करता है। 
  • यह विधेयक विशिष्ट, प्रवर्तनीय उपायों के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक सद्भाव के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न 1. भारत के संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत ‘निजता का अधिकार’ संरक्षित है? (2021)

(a)अनुच्छेद  15
(b)अनुच्छेद  19
(c)अनुच्छेद  21
(d)अनुच्छेद  29

उत्तर: (c)


प्रश्न 2. निजता के अधिकार को जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्भूत भाग के रूप में संरक्षित किया जाता है। भारत के संविधान में निम्नलिखित में से किससे उपर्युक्त कथन सही और समुचित ढंग से अर्थित होता है? (2018)

(a) अनुच्छेद 14 एवं संविधान के 42वें संशोधन के अधीन उपबंध।
(b) अनुच्छेद 17 एवं भाग IV में दिये राज्य नीति के निदेशक तत्त्व।
(c) अनुच्छेद 21 एवं भाग III में गारंटी की गई स्वतंत्रताएँ।
(d) अनुच्छेद 24 एवं संविधान के 44वें संशोधन के अधीन उपबंध।

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न आप 'वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य' संकल्पना से क्या समझते हैं? क्या इसकी परिधि में घृणा वाक् भी आता है? भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से तनिक भिन्न स्तर पर क्यों हैं? चर्चा कीजिये। (2014)


मुख्य परीक्षा

न्यायाधीशों के लिये महाभियोग और आंतरिक जाँच

स्रोत: द हिंदू

भारत ब्लॉक के सांसद (MPs) मदुराई बेंच, मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जी.आर. स्वामिनाथन के खिलाफ संसद में महाभियोग  प्रस्ताव प्रस्तुत करने की योजना बना रहे हैं।

  • यह कदम उनके उस आदेश के बाद उठाया गया है, जिसमें कार्तिगाई दीपम उत्सव के दौरान दरगाह के पास दीपथूण (स्तंभ) में दीपक जलाने के लिये सुब्रमणिया स्वामी मंदिर प्रबंधन को निर्देश दिया गया था।

भारत में न्यायाधीशों के लिये महाभियोग प्रक्रिया क्या है?

  • न्यायिक महाभियोग: हालाँकि संविधान में ‘महाभियोग’ शब्द स्पष्ट रूप से प्रयोग नहीं किया गया है, यह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सिद्ध दोषपूर्ण आचरण या अक्षमता के आधार पर हटाने की औपचारिक प्रक्रिया को संदर्भित करता है। इसका उद्देश्य राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करना है।
  • संवैधानिक और कानूनी आधार: भारत के संविधान का अनुच्छेद 124(4) और न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने का प्रारूप प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 218 इन प्रावधानों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक लागू करता है।
    • न्यायाधीशों को केवल सिद्ध दोषपूर्ण आचरण गंभीर नैतिक या पेशेवर कदाचार और अक्षम्यता  शारीरिक या मानसिक कारणों से कर्त्तव्यों का निर्वहन न कर पाने की स्थिति के आधार पर ही हटाया जा सकता है।
  • महाभियोग प्रक्रिया:
    • प्रस्ताव प्रस्तुत करना: महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है। 
      • इसके लिये लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों या राज्यसभा में कम से कम 50 सांसदों  का समर्थन आवश्यक है। 
      • प्रस्ताव तभी आगे बढ़ सकता है जब अध्यक्ष या सभापति इसे स्वीकार कर लेते हैं। 
    • जाँच समिति: न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968 के तहत एक तीन सदस्यीय समिति गठित की जाती है। इसमें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (या भारत के मुख्य न्यायाधीश), उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होते हैं।
      • समिति एक तथ्यान्वेषी निकाय की तरह काम करती है और आरोपों की अर्द्ध-न्यायिक जाँच करती है।
    • समिति की रिपोर्ट और संसदीय बहस: जाँच समिति अपनी रिपोर्ट उस सदन को प्रस्तुत करती है जिसने प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। 
      • यदि न्यायाधीश दोषी पाया जाता है, तो प्रस्ताव पर बहस होगी और उसे दोनों सदनों में विशेष बहुमत (दो तिहाई उपस्थित और मतदान, तथा कुल सदस्यता का पूर्ण बहुमत) द्वारा पारित किया जाना चाहिये।
      • संसद की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति अंतिम निष्कासन आदेश जारी करते हैं।
  • मुख्य कमियाँ: यदि न्यायाधीश प्रक्रिया के बीच में ही त्यागपत्र दे देता है, तो आमतौर पर कार्यवाही समाप्त हो जाती है।
    • भारत में अब तक किसी भी न्यायाधीश पर सफलतापूर्वक महाभियोग नहीं चलाया जा सका है।
    • बहुत अधिक मतदान-सीमा के कारण हटाया जाना अत्यंत दुर्लभ हो जाता है।

इन-हाउस इन्क्वायरी

  • उत्पत्ति एवं उद्देश्य: उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1999 में इन-हाउस इन्क्वायरी शुरू की।
    • इसकी प्रेरणा सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्य मामले (1995) से मिली, जिसमें महाभियोग (संविधान के अनुच्छेद 124 और 218) की सीमा से नीचे के न्यायिक कदाचार से निपटने के लिये किसी तंत्र के अभाव को उज़ागर किया गया था।
    • इन-हाउस इन्क्वायरी का उद्देश्य महाभियोग सीमा से नीचे न्यायिक कदाचार को संबोधित करना है, यह सामान्य कदाचार और "सिद्ध कदाचार" के बीच की खाई को कम करता है।
  • शिकायतों की जाँच: शिकायतों की जाँच संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा सीधे की जाती है।
    • अनावश्यक शिकायतों को प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर दिया जाता है। गंभीर शिकायतों के लिये न्यायाधीश की प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है।
  • जाँच समिति का गठन: यदि आगे जाँच की आवश्यकता होती है, तो मुख्य न्यायाधीश एक तीन सदस्यीय समिति (उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिये अलग-अलग संरचना) का गठन करते हैं।
    • उच्च न्यायालय के न्यायाधीश: (3 सदस्यीय समिति जिसमें अन्य उच्च न्यायालयों के 2 मुख्य न्यायाधीश और 1 उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शामिल होंगे)।
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश: (3 सदस्यीय समिति जिसमें 1 उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश और 2 उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे)।
    • उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश: (3 सदस्यीय समिति जिसमें 3 उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश शामिल हैं)
    • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI): (कोई विशिष्ट आंतरिक प्रक्रिया परिभाषित नहीं है)।
    • समिति प्राकृतिक न्याय सुनिश्चित करते हुए जाँच करती है, तथा न्यायाधीश को जवाब देने का अवसर देती है। 
  • परिणाम: 
    • कदाचार सिद्ध होने पर: न्यायाधीश को इस्तीफा देने या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने की सलाह दी जा सकती है।
      • मना करने पर न्यायाधीश को न्यायिक कर्त्तव्यों से मुक्त किया जा सकता है, और यदि आवश्यक हो तो मुख्य न्यायाधीश महाभियोग की सिफारिश कर सकते हैं।
    • कदाचार साधारण है: न्यायाधीश को चेतावनी दी जाती है और रिपोर्ट रिकॉर्ड में अभिलिखित कर ली जाती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत में न्यायाधीशों को हटाए जाने की संवैधानिक प्रक्रिया का परीक्षण कीजिये और चर्चा कीजिये कि अभी तक किसी भी न्यायाधीश पर सफलतापूर्वक महाभियोग क्यों नहीं लगाया जा सका है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाए जाने के लिये कौन-से संवैधानिक प्रावधान किये गए हैं?
न्यायाधीशों को हटाए जाने का प्रावधान अनुच्छेद 124(4) (सर्वोच्च न्यायालय) और अनुच्छेद 218 (उच्च न्यायालयों तक विस्तारित) में किया गया है, जिससे संबंधित न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968 है; इसका आधार सिद्ध कदाचार या असमर्थता होते हैं।

2. महाभियोग प्रस्ताव शुरू करने के लिये किस संसद में कितने सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता है?
प्रस्ताव के लिये 100 लोकसभा सांसदों या 50 राज्यसभा सांसदों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है, और यदि यह सिद्ध हो जाता है तो इसे दोनों सदनों में विशेष बहुमत (पूर्ण बहुमत सहित उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई) द्वारा पारित किया जाना चाहिये।

3. आंतरिक प्रक्रिया क्या है और इसे क्यों शुरू किया गया?
वर्ष 1999 में अपनाई गई (1995 के बाद रविचंद्रन अय्यर मामले में), आंतरिक प्रक्रिया न्यायपालिका को सहकर्मी समितियों के माध्यम से न्यूनतर कदाचार की जाँच करने की अनुमति देती है, जिससे लघु चूक और महाभियोग योग्य अपराधों के बीच एक अंतराल को कम किया जा सकता है।

सारांश

  • न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामीनाथन के थिरुपरनकुंद्रम दीपथून आदेश में एक दरगाह के निकट कार्तिगई दीपम की अनुमति देने से व्यापक राजनीतिक विवाद उत्पन्न हो गया।
  • INDIA गुट ने महाभियोग के लिये प्रयास किया, जिससे न्यायाधीशों को हटाए जाने की शायद ही कभी उपयोग में लाइ गई संवैधानिक प्रक्रिया को ध्यान में लाया गया।
  • न्यायिक महाभियोग अनुच्छेद 124(4) और 218 तथा न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968 द्वारा नियंत्रित होता है, जिसके लिये संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है
  • इस मामले ने सर्वोच्च न्यायालय की आंतरिक जाँच प्रक्रिया (1999) को भी उजागर किया है, जो महाभियोग सीमा से न्यूनतर कदाचार के मामलों का निपटान करती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. भारत के राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर बैठने और कार्य करने हेतु बुलाया जा सकता है। 
  2. भारत में किसी भी उच्च न्यायालय को अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पास है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1                        

(b)  केवल 2

(c)  1 और 2 दोनों  

(d)  न तो 1 और न ही 2

उत्तर:(c)


मेन्स: 

प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)


मुख्य परीक्षा

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के कार्यान्वयन में प्रणालीगत विफलता का निवारण

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

तमिलनाडु से प्राप्त रिपोर्टों की एक शृंखला में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण (PoA) अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज मामलों में चिंताजनक विलंब, प्रणालीगत विफलताओं और निरंतर बने जाति-आधारित दबावों को उजागर किया गया है।

  • यह अधिनियम अप्रभावी हो गया है, जिससे पीड़ितों को निरंतर भय और अन्याय की स्थिति में रहना पड़ रहा है, जिससे सामाजिक न्याय प्रभावित हो रहा है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (PoA) अधिनियम, 1989 क्या है?

  • परिचय: यह एक व्यापक भारतीय विधि है जो विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के सदस्यों के खिलाफ अपराधों और भेदभाव का निवारण करने, दंड का प्रावधान करने और प्रतितोष के लिये अधिनियमित है।
  • प्रमुख प्रावधान:
    • अत्याचारों की परिभाषा: अधिनियम में विभिन्न अत्याचारों को परिभाषित किया गया है, जिनमें जबरन उपभोग, लैंगिक शोषण, भूमि अधिग्रहण, बंधित श्रम, सार्वजनिक अपमान और निर्वाचन के दौरान अभित्रास अथवा धमकी शामिल हैं।
      • इसमें शास्ति सहित 6 माह से 5 वर्ष के कारावास का दंड तथा गंभीर अपराधों के लिये वर्द्धित दंड (आजीवन कारावास या मृत्युदंड भी) निर्धारित किया गया है।
    • त्वरित न्याय: प्रत्येक ज़िले में त्वरित सुनवाई के लिये विशेष न्यायालयों का गठन तथा मामलों को प्रभावी रूप से निपटान करने के लिये विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति का प्रावधान।
    • सक्रिय और निवारक उपाय: इसके अंतर्गत प्राधिकारियों को अत्याचार करने की संभावना वाले व्यक्तियों का निष्कासन करने की अनुमति है तथा मजिस्ट्रेट और पुलिस को अत्याचार संभावित क्षेत्रों की घोषणा करने और SC/ST सुरक्षा के लिये निवारक कार्रवाई करने का अधिकार देता है।
    • सुदृढ़ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय: इसके अंतर्गत अग्रिम जमानत का वर्जन किया गया है, यदि अभियुक्त को वित्तीय सहायता दी जाती है तो यह दुष्प्रेरण माना जाता है तथा विशेष न्यायालय को अपराध में प्रयुक्त संपत्ति को कुर्क करने या ज़ब्त करने की अनुमति होती है।
    • लोक सेवकों की जवाबदेही: धारा 4 के अंतर्गत उन लोक सेवकों (गैर-SC/ST) को दंडित किये जाने का प्रावधान है जो अधिनियम के तहत कर्त्तव्यों की साशय उपेक्षा करते हैं, उन्हें कम-से-कम एक वर्ष के कारावास का दंड दिया जाता है
  • पीड़ित एवं साक्षी व्यक्ति: अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को कार्यान्वयन सुनिश्चित करने, पीड़ितों को कानूनी सहायता, साक्षी व्यक्ति के व्यय और आर्थिक पुनर्वास प्रदान करने की आवश्यकता है
  • संसदीय निगरानी: प्रत्येक वर्ष, केंद्र सरकार को अधिनियम को प्रभावी रूप से लागू करने के लिये स्वयं तथा राज्य सरकारों द्वारा किये गए कार्यों पर संसद में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होती है।

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के प्रभावी कार्यान्वयन में कौन-सी प्रणालीगत विफलताएँ हैं?

  • प्रक्रियागत उपेक्षा: अनिवार्य प्रावधानों का हमेशा से ही उल्लंघन किया जाता रहा है। यथासमय FIR दर्ज नहीं की जाती हैं और आरोपपत्र निर्धारित 60 दिनों के भीतर बहुत कम मामलों में ही कभी दायर किये जाते हैं
  • अनुपयुक्त प्राथमिकताएँ: अधिकारी प्रायः अनौपचारिक शांति बैठकों और गैर-कानूनी समझौतों का विकल्प चुनकर अनिवार्य विधि प्रक्रिया को दरकिनार कर देते हैं, जो एक ऐसी प्रथा है जिसमें न केवल विधिक स्वीकृति का अभाव होता है, बल्कि यह एक प्रणालीगत और दृढ़ता से व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रह को भी उजागर करता है
  • अप्रभावी पुनर्वास: यद्यपि कुछ मामलों में मौद्रिक अनुतोष प्रदान किया जाता है, लेकिन विधि द्वारा अनिवार्य व्यापक सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास- जिसमें भूमि, रोज़गार और शैक्षिक सहायता शामिल है- में विलंब होता है या कभी प्रदान नहीं किया जाता है।
  • जवाबदेही का अभाव: अधिनियम की धारा 4, जो कर्त्तव्यों की साशय उपेक्षा के लिये लोक सेवकों को दंडित करती है, का शायद ही कभी उपयोग किया गया है, जिससे अधिकारियों के बीच दंड से मुक्ति की संस्कृति का निर्माण हुआ है।
  • दंड से मुक्ति के साथ धमकी: आरोपी अक्सर स्वतंत्र रहते हैं, उसी इलाके पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं, जिससे भय का माहौल बनता है, जिससे पीड़ितों और गवाहों पर अपने बयान से पलटने या शिकायत वापस लेने का दबाव पड़ता है।

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के अप्रभावी कार्यान्वयन ने सामाजिक न्याय को कैसे कमज़ोर किया है?

  • निवारण का क्षरण: कम दोषसिद्धि दर, साथ ही दोषी अपराधियों की समयपूर्व रिहाई - जैसे कि मेलावलावु नरसंहार (1997, 6 अनुसूचित जाति के लोग मारे गए) जहाँ 16 दोषियों को अच्छे आचरण के लिये रिहा कर दिया गया - अपराधियों को प्रोत्साहित करती है और निवारण को कमज़ोर करती है।
  • जातिगत आतंक को बढ़ावा देना: मेलावलावु नरसंहार (1997) और सेननगरमपट्टी दोहरे हत्याकांड (1992) जैसे अत्याचारों का उद्देश्य पूरे समुदाय को आतंकित करके चुप कराना और आत्मसमर्पण करवाना था। विलंबित न्याय भय और दंड से मुक्ति को कायम रखकर इस लक्ष्य की पूर्ति करता है।
  • मनोवैज्ञानिक युद्ध: यह प्रक्रिया स्वयं एक सजा बन जाती है, जिसमें पीड़ित न केवल न्याय के लिये लड़ते हैं, बल्कि लगातार धमकियों और नौकरशाही की उदासीनता के खिलाफ भी लड़ते हैं, जिससे विधिक सहायता लेने की उनकी इच्छा समाप्त हो जाती है।
  • संवैधानिक अधिदेशों को कमज़ोर करना: संरक्षण प्रदान करने में अधिनियम की विफलता अस्पृश्यता के संवैधानिक उन्मूलन (अनुच्छेद 17) और सामाजिक न्याय के वादे को निरर्थक और अप्रभावी बना देती है।
  • सामाजिक सद्भाव का विखंडन: अनसुलझे अपराध और पक्षपातपूर्ण प्रतिक्रियाएँ अंतर-जातीय तनाव को बढ़ाती हैं , सामुदायिक संबंधों और सामाजिक सामंजस्य को नुकसान पहुँचाती हैं।

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • मज़बूत निगरानी तंत्र: एक उच्च स्तरीय विशेष समिति को FIR से लेकर पुनर्वास तक के मामलों की सक्रिय निगरानी करनी चाहिये, जो निष्क्रिय राज्य और ज़िला स्तरीय समितियों का स्थान लेगी।
  • शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करना: सरकार को समर्पित न्यायाधीशों और अभियोजकों के साथ पूर्णतः कार्यात्मक अनन्य विशेष न्यायालयों की स्थापना करनी चाहिये, जिससे रिक्तियों और अतिरिक्त शुल्कों को समाप्त किया जा सके, जो विलंब का कारण बनते हैं।
  • जवाबदेही लागू करना: अधिनियम के तहत अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने वाले जाँच अधिकारियों, अभियोजकों या मजिस्ट्रेटों को दंडित करने के लिये धारा 4 को सख्ती से लागू करना।
  • तत्काल सुरक्षा प्रदान करना: विश्वसनीय और दृश्यमान सुरक्षा उपायों के माध्यम से पीड़ितों और गवाहों में विश्वास उत्पन्न करना।
  • ज़मीनी स्तर पर सामाजिक सुधार: सामाजिक लोकतंत्र के लिये मैनुअल जैसी शिक्षा के माध्यम से सामाजिक चेतना और बंधुत्व को बढ़ावा देना विधिक उपायों के पूरक के रूप में दीर्घकालिक परिवर्तन के लिये आवश्यक है।

निष्कर्ष

सख्त प्रावधानों के बावजूद, SC/ST (PoA) अधिनियम उदासीनता, विलंब और निम्नस्तरीय जवाबदेही के कारण कमज़ोर है; प्रभावी न्याय के लिये सख्त प्रवर्तन, मज़बूत निगरानी, ​​पीड़ितों की सुरक्षा और मज़बूती से स्थापित जातिगत पूर्वाग्रह को खत्म करने के लिये सामाजिक प्रयास की आवश्यकता है।

दृष्टि मेंस प्रश्न:

प्रश्न. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 को प्रायः "दंतहीन कानून" कहा जाता है। इस शक्तिशाली कानून को ज़मीनी स्तर पर अप्रभावी बनाने वाली प्रणालीगत और कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 का उद्देश्य क्या है?
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों को रोकना तथा पीड़ितों को विधिक, सामाजिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करना।

2. SC/ST (PoA) अधिनियम की धारा 4 में क्या प्रावधान है?
धारा 4 लोक सेवकों को जवाबदेह बनाती है तथा अधिनियम के तहत निर्धारित कर्त्तव्यों की जानबूझकर उपेक्षा करने वालों के लिये कारावास का प्रावधान करती है, हालाँकि इसका प्रयोग शायद ही कभी किया जाता है।

3. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत एक प्रमुख प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय का नाम बताइये जिसका उद्देश्य त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करना है।
जाँच में विलंब को रोकने के लिये अधिनियम में FIR दर्ज होने के 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल करना अनिवार्य किया गया है।

सारांश

  • SC/ST (PoA) अधिनियम में सख्त प्रावधान हैं - कठोर दंड , अग्रिम जमानत का निषेध और त्वरित सुनवाई - लेकिन यह प्रक्रियागत उपेक्षा एवं जवाबदेही के अभाव से प्रभावित है।
  • जातिगत पूर्वाग्रह , गवाहों को डराने-धमकाने तथा व्यापक सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास प्रदान करने में विफलता के कारण कार्यान्वयन में बाधा आ रही है।
  • अप्रभाविता के परिणामस्वरूप दोषसिद्धि की दर कम होती है, अपराधियों का हौसला बढ़ता है, जातिगत आतंक फैलता है और पीड़ितों को मनोवैज्ञानिक नुकसान होता है।
  • प्रभावी न्याय के लिये धारा 4 के प्रवर्तन, सुदृढ़ निगरानी, ​​कार्यात्मक विशेष न्यायालय, पीड़ितों की सुरक्षा और जातिगत पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिये ज़मीनी स्तर पर सामाजिक शिक्षा की आवश्यकता होती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न

मेंस

प्रश्न. स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एस.टी.) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये, राज्य द्वारा की गई दो मुख्य विधिक पहलें क्या हैं ? (2017)


close
Share Page
images-2
images-2
× Snow