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भारत में न्यायालय की अवमानना
- 07 Nov 2025
- 63 min read
चर्चा में क्यों?
भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियों को लेकर हाल ही में उठे विवाद ने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय प्रशासन की सीमाओं के बारे में विचार-विमर्श को जन्म दिया है।
- ज़िम्मेदार व्यक्तियों के विरुद्ध अवमान की कार्यवाही शुरू करने की मांग ने अवमान की अवधारणा को सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में ला दिया है।
भारत में न्यायालय का अवमान क्या है और इससे संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971: भारत में न्यायालय के अवमान को न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 (एच.एन. सान्याल समिति 1963 की अनुशंसाओं के आधार पर अधिनियमित) में परिभाषित किया गया है, जो अवमान को दो श्रेणियों में विभाजित करता है:
- सिविल अवमान: इसे किसी न्यायालय के आदेश, डिक्री या निर्णय की जानबूझकर अवहेलना या न्यायालय को दिये गए प्रतिबद्धता (अंडरटेकिंग) के उल्लंघन के रूप में परिभाषित किया जाता है।
- आपराधिक अवमानना: इसे ऐसे कार्यों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो किसी न्यायालय की गरिमा को कलंकित करते हैं या उसकी प्राधिकारिता को कम करते हैं या न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करते हैं।
- इसमें ऐसे किसी भी रूप में (लिखित, मौखिक या दृश्य) सामग्री का प्रकाशन शामिल है जो न्यायालय की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाए या न्याय प्रशासन में बाधा उत्पन्न करे।
- संवैधानिक आधार: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को क्रमशः अनुच्छेद 129 तथा अनुच्छेद 215 के तहत अभिलेख न्यायालय के रूप में नामित किया गया है।
- अभिलेख न्यायालय अपने निर्णयों को भविष्य के संदर्भ हेतु सुरक्षित रखता है और उसमें न्यायालय की अवमानना के लिये दंड देने की अंतर्निहित शक्ति होती है, जैसा कि न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में वर्णित है।
- उद्देश्य (Objective): न्यायपालिका की प्राधिकृति, गरिमा और प्रभावी कार्यप्रणाली को बनाए रखना, ताकि ऐसे कार्यों को रोका जा सके जो न्यायालयों का अनादर करते हैं, उनके कार्य में बाधा डालते हैं या उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाते हैं, इस प्रकार न्यायपालिका के स्वतंत्र और निष्पक्ष संचालन को सुनिश्चित किया जा सके।
- अवमानना कार्यवाही की पहल (Initiation of Contempt Proceedings): अवमानना की कार्यवाही प्रारंभ करने की प्रक्रिया न्यायालय अवमान अधिनियम (Contempt of Court Act,) 1971 में स्पष्ट रूप से परिभाषित की गई है।
- स्वप्रेरित शक्ति (Suo Motu Power): उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय अपने स्तर पर, अर्थात् स्वप्रेरणा से (suo motu), कार्यवाही प्रारंभ कर सकते हैं यदि उन्हें यह विश्वास हो कि अवमानना का अपराध हुआ है।
- तृतीय पक्ष याचिका (Third-Party Petition): कोई तीसरा पक्ष भी अवमानना के लिये याचिका दायर कर सकता है, लेकिन इसके लिये पूर्व अनुमति (सर्वोच्च न्यायालय के मामले में महान्यायवादी की और उच्च न्यायालय के मामले में महाधिवक्ता की) आवश्यक है।
- दंड: अधिनियम के अनुसार, जो व्यक्ति न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, उसे अधिकतम छह महीने का सरल कारावास या अधिकतम ₹2,000 का जुर्माना या दोनों दिये जा सकते हैं।
- हालाँकि, यदि आरोपी द्वारा दिया गया क्षमायाचना (apology) न्यायालय को संतोषजनक प्रतीत होता है तो उसे दंड से मुक्त किया जा सकता है।
- न्यायोचित आलोचना बनाम अवमाननापूर्ण आलोचना से संबंधित प्रमुख निर्णय: सामान्यतः यह स्वीकार किया गया है कि न्यायालय के निर्णय की न्यायोचित आलोचना (fair criticism) अवमानना नहीं मानी जाती। लेकिन जब ऐसी आलोचना न्यायोचित सीमा से आगे बढ़कर न्यायपालिका की गरिमा या अधिकार को कमज़ोर करती है तो इसे अवमाननापूर्ण माना जा सकता है।
- अश्विनी कुमार घोष बनाम अरबिंद बोस (1952) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निष्पक्ष आलोचना की अनुमति है, लेकिन न्यायालय के अधिकार को कमज़ोर करने का कोई भी प्रयास दंडनीय है।
- अनिल रतन सरकार बनाम हीरक घोष (2002) मामले में इस दृष्टिकोण की पुनः पुष्टि की गई, जहाँ न्यायालय ने इस तर्क पर ज़ोर दिया कि अवमानना के लिये दंड देने की शक्ति का प्रयोग संयम के साथ और केवल स्पष्ट एवं गंभीर उल्लंघनों के मामलों में ही किया जाना चाहिये।
- एम.वी. जयराजन बनाम केरल उच्च न्यायालय (2015) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी न्यायालय की आलोचना करते समय सार्वजनिक भाषणों में अपमानजनक भाषा का प्रयोग आपराधिक अवमानना के अंतर्गत आता है।
- इसी प्रकार षणमुगम @ लक्ष्मीनारायणन बनाम मद्रास उच्च न्यायालय (2025) मामले में, न्यायालय ने इस तर्क पर ज़ोर दिया कि अवमानना दंड का उद्देश्य न्याय प्रशासन को बनाए रखना है।
- लोकतंत्र के संदर्भ में प्रासंगिकता: न्यायपालिका राज्य की प्राथमिकताओं और न्याय की पवित्रता को बनाए रखती है। नागरिकों और मीडिया को न्यायालयों की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन ऐसी भ्रामक या अपमानजनक आलोचना जो न्यायपालिका की प्राधिकारिता को कमज़ोर करे, न्याय प्रक्रिया में हस्तक्षेप करे या लोकतंत्र को क्षति पहुँचाए, वह प्रतिबंधित है।
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायालय की अवमानना के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है?
- सशक्त आलोचना की रक्षा: संतुलन बनाए रखने के लिये न्यायपालिका के कार्यप्रणाली की सशक्त और रचनात्मक आलोचना की अनुमति दी जा सकती है ताकि जवाबदेही बनी रहे, लेकिन भ्रामक, दुर्भावनापूर्ण या निराधार आरोप (जैसे भ्रष्टाचार या पक्षपात के) जो जनता के विश्वास को कमज़ोर करते हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिये।
- न्यायिक प्राधिकारिता का संरक्षण: किसी निर्णय के तर्क या परिणाम की निष्पक्ष आलोचना स्वीकार्य है, लेकिन किसी न्यायाधीश के चरित्र या ईमानदारी पर व्यक्तिगत हमले अस्वीकार्य हैं, क्योंकि न्यायाधीशों को निष्पक्ष रूप से कार्य करने हेतु अपमान और बदनामी से संरक्षण मिलना आवश्यक है।
- जनहित की रक्षा के लिये ‘सत्य’ का बचाव: न्यायालय की अवमानना अधिनियम की धारा 13 सत्यनिष्ठ, जनहितकारी आलोचना की रक्षा करती है और न्यायपालिका की साक्ष्य-आधारित जाँच की अनुमति देती है। हालाँकि, सबूत पेश करने का भार अभियोक्ता पर होता है, जिससे यह एक मज़बूत लेकिन सीमित बचाव बन जाता है।
- अवमानना शक्ति का प्रयोग अंतिम उपाय के रूप में करना: न्यायालयों को अवमानना शक्ति का प्रयोग अंतिम उपाय के रूप में करना चाहिये तथा सावधानी एवं संयम के साथ इसका प्रयोग करना चाहिये, साथ ही आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिये और न्याय में बाधा उत्पन्न होने से रोकना चाहिये।
निष्कर्ष
न्यायालय की अवमानना न्यायपालिका के अधिकार, गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा करती है। यद्यपि निष्पक्ष आलोचना की अनुमति है, लेकिन न्याय को कमज़ोर करने या उसमें बाधा डालने वाले कार्यों को दंडनीय माना जाता है, जिससे अभिव्यक्ति और न्यायिक निष्ठा में संतुलन बना रहता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न. भारत में न्यायालय की अवमानना को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों का परीक्ष्ण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. न्यायालय की अवमानना क्या है?
न्यायालय की अवमानना वह कृत्य है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने वाले न्यायालय के अधिकार, गरिमा या कार्यप्रणाली का अनादर करता है, बाधा डालता है या उसे कमज़ोर करता है।
2. न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत अवमानना के प्रकार क्या हैं?
सिविल अवमानना: न्यायालय के आदेशों की जानबूझकर अवज्ञा या वचनबद्धता का उल्लंघन। आपराधिक अवमानना: ऐसे कार्य या प्रकाशन जो न्याय को बदनाम करते हैं, बाधित करते हैं या उसमें हस्तक्षेप करते हैं।
3. न्यायालय की अवमानना के लिये क्या दंड दिया जा सकता है?
दोषी व्यक्ति को छह महीने तक का साधारण कारावास, 2,000 रुपये का जुर्माना या दोनों सज़ा हो सकती हैं, लेकिन यदि आरोपी संतोषजनक माफी मांग लेता है तो अदालत उसे सज़ा से छूट दे सकती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2022)
- एच.एन. सान्याल समिति की रिपोर्ट के अनुसरण में न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 पारित किया गया था।
- भारत का संविधान उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अपनी अवमानना के लिये दंड देने हेतु शक्ति प्रदान करता है।
- भारत का संविधान सिविल अवमानना और आपराधिक अवमानना को परिभाषित करता है।
- भारत में न्यायालय की अवमानना के विषय में कानून बनाने के लिये संसद में शक्ति निहित है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) 1, 2 और 4
(c) केवल 3 और 4
(d) केवल 3
उत्तर: (b)
मेन्स
प्रश्न. क्या आपके विचार में भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता है बल्कि यह “नियंत्रण और संतुलन” के सिद्धांत पर आधारित है? व्याख्या कीजिये। (2019)