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भारतीय राजनीति

विशेष अदालतें

  • 21 Apr 2023
  • 13 min read

विशेष अदालत किसे कहा जाता है?

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट (SC) ने आदेश दिया कि सांसदों के लंबे समय से लंबित मुकदमों को तेज़ी से निपटाने के लिये देश भर में विशेष अदालत स्थापित की जाएँ।
  • इसके पश्चात् 11 राज्यों में विशेष रूप से मौजूदा सांसदों और विधायकों की सुनवाई के लिये 12 विशेष अदालतें स्थापित की गईं।
  • सितंबर, 2020 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एमिकस क्यूरी (अदालत के मित्र) ने अपनी दो रिपोर्टों में इस बात पर प्रकाश डाला कि विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई के लिये अदालत द्वारा विशेष अदालतों का गठन करने के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, 2,556 सांसद और विधायकों से जुड़े लगभग 4,442 आपराधिक मामलों लंबित हैं।
  • ये मामले अब 5,000 का आँकड़ा पार कर चुके हैं, जिनमें से 400 जघन्य अपराधों से संबंधित हैं।

इसके बारे में:

  • एक विशेष अदालत वैसी अदालत है जिसका अधिकार क्षेत्र सीमित है और एक विशिष्ट भौगोलिक स्थान के बजाय कानून के एक विशिष्ट क्षेत्र से संबंधित है।
  • भारत में ये अदालतें वर्ष 1979 के विशेष न्यायालय अधिनियम के तहत स्थापित की गई हैं।
  • इन अदालतों की स्थापना विशिष्ट अपराधों जैसे प्रतिभूति लेनदेन, अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के खिलाफ अत्याचार, नशीले पदार्थों, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) अधिनियम 2008 के उल्लंघन, भ्रष्टाचार आदि से संबंधित विभिन्न परीक्षणों के लिये की गई है।
  • विशेष न्यायालयों की स्थापना और संचालन राज्य और केंद्र शासित प्रदेश सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है।
  • राज्यों में कानूनी ढाँचे को मज़बूत करने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को 14वें वित्त आयोग ने समर्थन दिया था, जिसमें 1800 फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTC) स्थापित करना शामिल था।
  • इन अदालतों की स्थापना समाज के हाशिए और वंचित वर्गों से जुड़े मामलों को संभालने के लिये की गई थी।

संघटन:

  • एक विशेष अदालत में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सहमति से उच्च न्यायालय,जिनके अधिकार क्षेत्र में विशेष अदालत स्थित है, के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित एक उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश शामिल होंगे

क्षेत्राधिकार:

  • विशेष क्षेत्राधिकार कुछ प्रकार के मामलों पर न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है जैसे दिवालियापन, सरकार के खिलाफ दावे, प्रोबेट, पारिवारिक मामले, आप्रवासन, और सीमा शुल्क, या या अधिकतम राशि या मूल्य वाले मामलों की सुनवाई के लिये अदालत के अधिकार पर सीमाएँ। विशेष क्षेत्राधिकार को सीमित क्षेत्राधिकार के रूप में भी जाना जाता है।
  • विशेष न्यायालय एक बहुत ही संकीर्ण अधिकार क्षेत्र में मामलों की सुनवाई करते हैं और न्यायाधीश एक विशिष्ट अवधि के लिये कार्य करते हैं, जबकि संवैधानिक न्यायालय का मुख्य अधिकार यह तय करना है कि जिन कानूनों को चुनौती दी गई है क्या वे असंवैधानिक हैं, उदाहरण के लिये- क्या वे संवैधानिक रूप से स्थापित अधिकारों और स्वतंत्रता के साथ संघर्ष करते हैं।

उदाहरण:

  • उदाहरण के लिये, उच्च न्यायालयों के परामर्श से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण (PoA)) संशोधन अधिनियम, 2015 के तहत संबंधित मुद्दों से निपटने के लिये अधिनियम की धारा 14 के अनुसार, कुछ विशेष अदालतें संबंधित सरकारों द्वारा उनकी आवश्यकताओं और उपलब्ध संसाधनों को देखते हुए स्थापित की जाती हैं।
  • अधिनियम में राज्य सरकार को प्रत्येक क्षेत्र के लिये एक विशेष न्यायालय की पहचान करने की आवश्यकता है, जिसे सत्र न्यायालय के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें इस अधिनियम के तहत कम मामले हैं। यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक राज्य में ऐसे न्यायालयों के गठन की उपेक्षा न की जाए।

फास्ट ट्रैक कोर्ट (FTCs) क्या हैं?

  • FTCs वे विशेष अदालत हैं जो मुकदमे में तेज़ी लाने और मामलों के निपटान के उद्देश्य से स्थापित की जाती हैं, विशेष रूप से वैसे मुकदमे जो लंबे समय से लंबित हैं।
  • FTCs का मुख्य उद्देश्य नियमित अदालतों में लंबित मामलों को कम करना और त्वरित न्याय सुनिश्चित करना है।
  • फास्ट ट्रैक अदालतें आपराधिक मामलों, दीवानी मामलों और मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित मामलों सहित कई प्रकार के मामलों की को संभालती हैं।

विशेष न्यायालय सामान्य न्यायालयों से कैसे भिन्न होते हैं?

  • विशेष न्यायालय कुछ मामलों के अलावा कई मायनों में सामान्य अदालतों से भिन्न होते हैं। विशेष न्यायालयों में, मुकदमे के बिना मामलों को खारिज किये जाने की अधिक संभावना होती है, और यदि कोई सुनवाई होती है तो यह आमतौर पर सामान्य क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय की तुलना में अधिक तेज़ी से आयोजित की जाती है।
  • इसके अलावा विशेष न्यायालय आम तौर पर सामान्य अदालतों के समान प्रक्रियात्मक नियमों का पालन नहीं करते हैं।
  • अक्सर ये अदालतें कानूनी प्रतिनिधित्व या यहां तक ​​कि कानूनी प्रशिक्षण प्राप्त न्यायाधीशों के लाभ या खर्च के बिना काम करती हैं। विशेष अदालतों में काम करने वाले जज अलग-अलग पृष्ठभूमि और योग्यता के साथ एक विविध समूह हैं।
  • सामान्य क्षेत्राधिकार न्यायालयों के विपरीत जहां न्यायाधीशों को योग्यता के आधार पर नियुक्त किया जाता है, अधिकांश विशेष न्यायालयों के न्यायाधीशों को राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त, विशेष न्यायालय के कई न्यायाधीश वकील नहीं होते हैं।

न्यायाधिकरण और विशेष न्यायालयों के बीच अंतर:

  • विशेष अदालत नियमित अदालतों के समान है लेकिन केवल विशिष्ट मामलों से संबंधित है। न्यायाधिकरण के समान एक विशेष अदालत बनाई जाती है।
  • हालाँकि विशेष अदालतें उच्च न्यायालयों के मार्गदर्शन और नियंत्रण में आती हैं। जबकि न्यायाधिकरण विधियों के अंतर्गत बनाए गए हैं।
  • नियमित अदालतों पर बोझ कम करने के लिये न्यायाधिकरण और विशेष अदालतें स्थापित की गईं। हालाँकि न्यायाधिकरण एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय है जो विशिष्ट मामलों से निपटने के लिये स्थापित किया गया है।
  • एक विशेष अदालत इसके समान है लेकिन यह अनिवार्य रूप से केवल एक अदालत है जहां सभी प्रक्रियाएँ लागू होती हैं।

विशेष अदालतों के संबंध में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे का अभाव: भारत में विशेष अदालतें अक्सर नियमित अदालतों के समान चुनौतियों का सामना करती हैं, क्योंकि उन्हें आमतौर पर नए बुनियादी ढाँचे के रूप में स्थापित करने के बजाय निर्दिष्ट किया जाता है।
    • इससे न्यायाधीशों पर अत्यधिक बोझ पड़ता है, जिन्हें आवश्यक सहायक कर्मचारियों या बुनियादी ढाँचे के बिना उनके मौजूदा कार्यभार के अलावा अन्य श्रेणियों के मामले सौंपे जाते हैं। नतीजतन, इन विशेष अदालतों में मामलों के निपटान की दर धीमी हो जाती है।
  • सुव्यवस्थित प्रक्रियाओं का अभाव: इसके अतिरिक्त, प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को सरल किये बिना या विशेष अदालतों को और अधिक सुव्यवस्थित किये बिना तेज़ी से मामले का निपटान नहीं किया जा सकता है। ये चुनौतियाँ विशेष अदालतों की त्वरित सुनवाई प्रदान करने और भारत में मामलों के बैकलॉग को संबोधित करने की प्रभावशीलता में बाधा डालती हैं।
  • दूसरों पर कुछ अपराधों की प्राथमिकता: भारत में विशेष अदालतों की स्थापना अक्सर सरकार की न्यायिक और कार्यकारी दोनों शाखाओं द्वारा किये गए तदर्थ निर्णयों द्वारा निर्धारित की जाती है। इस दृष्टिकोण का मतलब है कि कुछ श्रेणियों के अपराधों को अनियोजित ढंग से दूसरों की तुलना में तेज़ी से निपटाने में प्राथमिकता दी जाती है।
  • सीमित क्षेत्राधिकार: ये अदालतें एक विशिष्ट क्षेत्राधिकार के साथ स्थापित की जाती हैं, जो संबंधित मामलों से निपटने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकती हैं। इससे न्याय वितरण में देरी हो सकती है और कानूनों के लागू होने में निरंतरता की कमी हो सकती है।
  • अन्य बाहरी ताकतों का हस्तक्षेप: विशेष अदालतें अक्सर राजनीतिक और बाहरी हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशील होती हैं, जो उनकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को कमज़ोर कर सकती हैं।

आगे की राह?

  • धन में वृद्धि: भारत में विशेष अदालतों की स्थापना और रखरखाव के लिये अधिक धन आवंटित करने की आवश्यकता है। इससे इन अदालतों के सुचारू कामकाज के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचा और संसाधन उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी।
  • प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण: विशेष अदालतों में न्यायाधीशों और कर्मचारियों को नियमित प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम प्रदान किये जाने चाहिये। इससे उन्हें नवीनतम कानूनी विकास के साथ अद्यतन रहने और जटिल मामलों को कुशलतापूर्वक संभालने के लिये अपने कौशल में सुधार करने में मदद मिलेगी।
  • स्वतंत्रता और निष्पक्षता: विशेष अदालतों को स्वतंत्र और बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त बनाया जाना चाहिये। न्यायाधीशों की नियुक्ति योग्यता और अनुभव के आधार पर की जानी चाहिये न कि राजनीतिक विचारों के आधार पर। इससे न्याय प्रदान करने में निष्पक्षता सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।
  • अधिकार क्षेत्र का विस्तार: सरकार को और श्रेणियों के मामलों को कवर करने के लिये विशेष अदालतों के अधिकार क्षेत्र का विस्तार करने पर विचार करना चाहिये। इससे नियमित अदालतों पर मुकदमों का बोझ कम करने और न्याय देने की प्रक्रिया में तेजी लाने में मदद मिलेगी।
  • प्रक्रियाओं का सरलीकरण: मामलों के त्वरित निपटान को सुनिश्चित करने के लिये विशेष अदालतों में प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को सरल बनाया जाना चाहिये। इसमें वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को अपनाना और अनावश्यक देरी को कम करना शामिल हो सकता है।
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