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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

पेरू में मारान्योन नदी को ‘विधिक व्यक्तित्व’ का दर्जा

  • 02 Jun, 2025

पेरू ने अपनी एक प्रमुख नदी 'मारान्योन’ को ‘विधिक व्यक्तित्व’ प्रदान किया है, जिससे वह अब एक स्वतंत्र कानूनी अस्तित्व रखने वाली इकाई बन गई है। इसका अर्थ यह है कि मारान्योन नदी को भी उसी प्रकार कानूनी अधिकार, उत्तरदायित्व और संरक्षण प्राप्त होंगे जैसे किसी व्यक्ति या संगठन को प्राप्त होते हैं। यह कदम पर्यावरण संरक्षण और स्वदेशी समुदायों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है।

विधिक व्यक्तित्व का विचार पारंपरिक मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर प्रकृति-केंद्रित न्याय की दिशा में एक साहसिक कदम माना जाता है। इस अवधारणा के अंतर्गत नदियों, वनों और प्राकृतिक संसाधनों को भी ‘अधिकार प्राप्त सजीव निकाय’ की तरह देखा जाता है, जिनकी रक्षा केवल संसाधन के रूप में नहीं बल्कि जीवंत सत्ता के रूप में की जानी चाहिये। इस प्रसंग में प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत जैसे देश में, जहाँ नदियों को सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से ‘माता’ का दर्जा प्राप्त है, इस प्रकार की कानूनी पहचान और अधिकारों को संवैधानिक ढाँचे में समाहित किया जा सकता है? 

विधिक व्यक्तित्व की अवधारणा 

‘विधिक व्यक्तित्व’ (Legal Personhood) एक कानूनी अवधारणा है जिसके अंतर्गत किसी गैर-मानव इकाई,जैसे– कंपनी, संस्था या अब प्रकृति के कुछ घटकों को कानून की दृष्टि से किसी व्यक्ति के समान अधिकार और दायित्व प्रदान किये जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि ऐसी इकाई किसी अन्य पर व्यक्तिनिष्ठ सत्ता में वाद-परिवाद में शामिल हो सकती है और उसे संपत्ति रखने, अनुबंध करने तथा अपने अधिकारों की रक्षा हेतु प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का अधिकार होता है। इस विचार ने हाल के वर्षों में पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान की है। कई देशों ने प्रकृति की रक्षा के लिये इस दृष्टिकोण को अपनाया है:

  • कोलंबिया – आत्रातो नदी (Atrato River): 
    • कोलंबिया के संवैधानिक न्यायालय ने वर्ष 2016 में आत्रातो नदी को एक विधिक व्यक्ति के रूप में मान्यता दी। इस निर्णय में नदी के संरक्षण, रखरखाव और पुनरुद्धार के अधिकारों की पुष्टि की गई। अदालत ने सरकार को निर्देश दिया कि वह नदी के हितों की रक्षा के लिये प्राकृतिक संरक्षकों (Guardians of Nature) की एक परिषद बनाए, जिसमें समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
  • न्यूज़ीलैंड – वांगानुई नदी (Whanganui River): 
    • वर्ष 2017 में न्यूज़ीलैंड सरकार ने वांगानुई नदी को विधिक व्यक्तित्व प्रदान किया। यह नदी माओरी समुदाय के लिये आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस निर्णय के अनुसार, नदी की ओर से कार्य करने के लिये दो संरक्षक नियुक्त किये गए—एक माओरी जनजाति का प्रतिनिधि और एक सरकारी प्रतिनिधि। इस मॉडल ने नदी और समुदाय के सांस्कृतिक संबंध को कानूनी मान्यता प्रदान की।
  • इक्वाडोर – विल्काबांबा नदी (Vilcabamba River): 
    • इक्वाडोर,जिसने वर्ष 2008 में अपने संविधान में प्रकृति के अधिकार (Rights of Nature) को शामिल किया, 2011 में एक ऐतिहासिक निर्णय में विल्काबांबा नदी के पर्यावरणीय अधिकारों की रक्षा की। एक सड़क निर्माण परियोजना से नदी को हुए नुकसान के विरुद्ध अदालत ने प्रकृति को वादी (plaintiff) के रूप में स्वीकार किया और परियोजना को संशोधित करने का आदेश दिया।
  • पेरू – मारान्योन नदी (Marañón River): 
    • वर्ष 2023 में पेरू की एक क्षेत्रीय अदालत ने मारान्योन नदी को विधिक अधिकारों से संपन्न 'जीवित इकाई' घोषित किया। यह नदी अमेज़न की प्रमुख सहायक नदी है और जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। निर्णय का उदेश्य नदी के पारिस्थितिक मूल्य और स्वदेशी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना है।

भारत में नदियों की स्थिति और महत्त्व

  • सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व
    • भारत की नदियाँ हमारी सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना की प्रतीक हैं। नदियों को ‘माता’ पुकारना न केवल आस्था का भाव है, बल्कि यह नदियों के साथ आत्मीय संबंध को दर्शाता है। नदी स्नान, नदी पूजा और पर्व-त्योहारों के आयोजन में नदियों की उपस्थिति उन्हें एक धार्मिक संस्था का स्वरूप प्रदान करती है। 
  • आर्थिक महत्त्व
    • भारतीय कृषि व्यवस्था और ग्रामीण जीवन पद्धति नदियों पर अत्यधिक निर्भर है। देश की लगभग 70% सिंचाई व्यवस्था नदियों के जल से ही संचालित होती है। जलविद्युत परियोजनाओं से विद्युत उत्पादन, औद्योगिक जल आपूर्ति, नगरों में पेयजल वितरण जैसी सुविधाएँ नदियों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त, मत्स्यपालन, नदी परिवहन और पर्यटन उद्योग जैसे क्षेत्रों में लाखों लोगों को आजीविका प्राप्त होती है। नदी तटों पर बसे शहर व्यापार, निर्माण और सेवा क्षेत्रों के भी केंद्र हैं। इस प्रकार नदियाँ देश की आर्थिक रीढ़ बनकर खड़ी हैं।
  • पारिस्थितिकीय महत्त्व
    • नदियाँ पारिस्थितिक संतुलन की धुरी हैं। ये आर्द्रभूमियों, दलदलों, झीलों और अन्य जल निकायों को पोषित करती हैं। वर्षा चक्र को बनाए रखने, तापमान संतुलन में सहायता देने और भूजल पुनर्भरण में इनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। नदियाँ प्रवासी पक्षियों, मछलियों और अन्य जलीय जीवों के लिये सुरक्षित पर्यावास का कार्य करती हैं। इनका सतत् प्रवाह जैव विविधता के संरक्षण और पारिस्थितिक तंत्र की निरंतरता सुनिश्चित करता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने में भी नदियाँ एक प्राकृतिक समाधान प्रस्तुत करती हैं।
  • वर्तमान संकट
    • भारत की अधिकांश नदियाँ आज गहरे संकट का सामना कर रही हैं। शहरी अपशिष्ट, औद्योगिक रसायन और धार्मिक अपशिष्टों के अनियंत्रित विसर्जन से जल गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। अवैध रेत खनन और बांध निर्माण ने प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध कर पारिस्थितिक असंतुलन पैदा कर दिया है। नदी तटों पर अनधिकृत निर्माण कार्य जैव विविधता और प्रवाह मार्ग के लिये संकट बनते जा रहे हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून चक्र में हो रहे बदलाव और भूजल के अत्यधिक दोहन ने नदियों को क्षीण और मौसमी बना दिया है, जिससे उनका सतत् अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
  • नीतिगत और प्रशासनिक विफलताएँ
    • नदी संरक्षण की दिशा में नीतिगत प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव, नीति निर्माण में दोहराव और योजनाओं के क्रियान्वयन में लापरवाही स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। नदियों को केवल एक ‘प्राकृतिक संसाधन’ मानने की प्रवृत्ति ने उनके अधिकारों की उपेक्षा की है।

भारतीय संविधान और पर्यावरण

  • अनुच्छेद 21: जीवन का अधिकार और पर्यावरण
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन के अधिकार में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वच्छ पर्यावरण, स्वच्छ जल और प्रदूषणमुक्त वायु के अधिकार को भी स्वीकार किया है।
    • एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1987) जैसे मामलों में अदालत ने स्पष्ट किया कि गंगा नदी में प्रदूषण मूल अधिकारों का उल्लंघन है। इसी प्रकार, सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991) मामले में यह माना गया कि स्वच्छ पर्यावरण में जीने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शामिल है।
  • नीति निदेशक सिद्धांतों की भूमिका
    • अनुच्छेद 48A के तहत राज्य को पर्यावरण, वनों और वन्यजीवों की रक्षा एवं संवर्द्धन का निर्देश दिया गया है। इसे वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा शामिल किया गया था।
    • इसी प्रकार, अनुच्छेद 51A(g) नागरिकों के लिये यह मूल कर्त्तव्य  निर्धारित करता है कि वे प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करें, जिसमें वन, झीलें, नदियाँ और वन्यजीव शामिल हैं।
    • ये प्रावधान संविधान की संरक्षणवादी दृष्टि को स्पष्ट करते हैं और नीति निर्माण, शिक्षा और विधायी कार्रवाई में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। जल (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 जैसे कानून इन्हीं मूल्यों पर आधारित हैं।
  • न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)
    • भारत की न्यायपालिका ने पर्यावरण संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभाई है। एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ, वेल्लोर  सिटिज़न फोरम बनाम तमिलनाडु राज्य और टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद जैसे मामलों के निर्णयों में अदालत ने सतत् विकास, जनहित याचिका, 'पोल्ल्यूटर पेयज़' सिद्धांत और 'प्रिकॉश्नरी प्रिंसिपल' को भारत के विधिक तंत्र में समाहित किया है।
    • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) और औद्योगिक अपशिष्ट नियंत्रण से संबंधित दिशा-निर्देशों में न्यायपालिका की भूमिका मार्गदर्शक रही है।
    • पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत (जिसे पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने एम.सी. मेहता मामले में मान्यता दी) के अनुसार राज्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षक होता है, न कि स्वामी।
  • गंगा और यमुना को विधिक व्यक्तित्व का दर्जा: एक ऐतिहासिक निर्णय
    • वर्ष 2017 में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों को ‘कानूनी व्यक्ति’ (Legal Person) का दर्जा देते हुए कहा कि इन्हें मनुष्य की भाँति अधिकार प्राप्त हैं।
    • इस निर्णय के अंतर्गत उत्तराखंड के महाधिवक्ता, सचिव (जल संसाधन) और निदेशक (नमामि गंगे) को इन नदियों का संरक्षक नियुक्त किया गया।
    • यह निर्णय भारत में नदियों के लिये विधिक व्यक्तित्व की अवधारणा को संवैधानिक व्याख्या के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास था।
    • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में इस निर्णय पर रोक लगा दी।

भारतीय संदर्भ में नदियों को अधिकार सौंपने की आवश्यक रणनीति क्या हो सकती है?

  • विधिक आधार: संवैधानिक संशोधन या न्यायिक व्याख्या
    • अनुच्छेद 21 और 48A के तहत न्यायपालिका पहले ही पर्यावरण को जीवन का अधिकार मान चुकी है; इसी व्याख्या के दायरे में नदियों को ‘विधिक व्यक्तित्व’ प्रदान किया जा सकता है। संसद या राज्य विधानसभाएँ चाहें तो एक संवैधानिक संशोधन या विशिष्ट अधिनियम द्वारा इसे वैधानिक मान्यता दे सकती हैं। इस प्रक्रिया में मूल अधिकारों की भावना के अनुरूप विधिक व्यक्तित्व को संस्थागत रूप देना होगा, ताकि यह केवल वैचारिक अवधारणा न रहकर व्यावहारिक संरचना बन सके। 
  • विशेष कानून: 'नदी संरक्षण अधिनियम' की आवश्यकता
    • नदियों को जीवित संस्था का दर्जा देने वाले एक पृथक् अधिनियम की तत्काल आवश्यकता है, जहाँ संरक्षक प्रणाली, उनके अधिकारों एवं  कर्त्तव्यों  की स्पष्ट रूपरेखा हो। इस अधिनियम में नदी के अधिकारों के उल्लंघन पर दंड और क्षतिपूर्ति के स्पष्ट प्रावधान होने चाहिये। नदी बेसिन स्तर पर प्रबंधन, योजना निर्माण और कार्यान्वयन के लिये एक संरचित संस्थागत व्यवस्था स्थापित की जाए। वर्तमान जल संबंधी अधिनियमों,जैसे–जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 को समेकित कर एक समग्र कानून तैयार किया जा सकता है, जो नीति, प्रशासन और न्यायिक प्रक्रियाओं को एकीकृत एवं पारदर्शी बनाएगा।
  • स्थानीय समुदायों को अधिकार देना
    • ग्राम सभाओं, पंचायतों और वन समितियों को नदियों की निगरानी एवं संरक्षण में भागीदार बनाकर विकेंद्रीकृत शासन को बल दिया जा सकता है। ‘नदी मित्र’ और ‘जल सहेली’ जैसी स्थानीय पहलों को कानूनी मान्यता देकर प्रशासनिक बोझ कम किया जा सकता है, साथ ही समुदायों में पर्यावरणीय चेतना और उत्तरदायित्व की भावना विकसित की जा सकती है। 
  • संरक्षक निकायों का गठन 
    • प्रत्येक प्रमुख नदी के लिये एक स्वतंत्र संरक्षक प्राधिकरण की स्थापना की जा सकती है, जिसमें पर्यावरण विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्त्ता, विधिक प्रतिनिधि और स्थानीय नागरिकों को शामिल किया जाए। ये निकाय नदी से संबंधित निगरानी, शिकायत निवारण, संरक्षणात्मक निर्णयन और उनके क्रियान्वयन में पूर्ण अधिकार से संपन्न हों। 
  • जन-भागीदारी और तकनीकी उपयोग
    • नदी संरक्षण को सामाजिक आंदोलन बनाने के लिये व्यापक जन-जागरूकता अभियान, जल साक्षरता कार्यक्रम और विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में शिक्षण अभियान चलाए जाने चाहिये। आधुनिक तकनीकों (जैसे–GIS, रिमोट सेंसिंग और रियल-टाइम सेंसर डेटा) का उपयोग कर नदी जल गुणवत्ता और प्रवाह की निगरानी की जा सकती है। 

आलोचनात्मक मूल्यांकन

  • क्या विधिक व्यक्तित्व ही अंतिम समाधान है?
    • यह एक सशक्त प्रतीकात्मक और कानूनी उपाय है, लेकिन समग्र समाधान नहीं। यदि इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन न हो तो यह महज़ एक कानूनी घोषणा बनकर रह सकता है। ‘अधिकार’ दिये जाने से दायित्व का पालन सुनिश्चित नहीं होता। संरक्षक की निष्क्रियता या भ्रष्टाचार से प्रणाली विफल हो सकती है।
  • अन्य व्यावहारिक विकल्प भी महत्त्वपूर्ण 
    • नदी पुनरुज्जीवन परियोजनाएँ आवश्यक हैं। सतत् जल प्रबंधन और ईको-हाइड्रोलॉजिकल दृष्टिकोण पर बल दिया जाना चाहिये। जल उपयोग दक्षता, रेन वाटर हार्वेस्टिंग, आवश्यक बांध नियंत्रण जैसी रणनीतियाँ भी ज़रूरी हैं। स्थानीय स्तर पर 'नदी पंचायत' या 'जल अदालतों' की भूमिका सबल की जा सकती है। नदियों के लिये केवल अधिकार नहीं, बल्कि प्रणालीगत पुनर्रचना भी आवश्यक है।
  • अधिकारों की अवधारणा को ‘प्रकृति’ पर लागू करना – एक दार्शनिक बहस
    • अधिकार पारंपरिक रूप से मानवों या उनकी संस्थाओं से संबद्ध रहे हैं। इस प्रसंग में यह नैसर्गिक प्रश्न मौजूद है कि क्या प्रकृति को अधिकार देना संभव और तर्कसंगत है? कुछ विद्वानों का मानना है कि इससे न्याय की मानवीय परिभाषा बदल जाएगी। हालाँकि, आधुनिक पारिस्थितिकी विज्ञान और दीर्घकालिक नैतिकता इस अवधारणा का समर्थन करते हैं, क्योंकि इससे     ‘ईको-सेंट्रिक’ दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलता है।। 
  • सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक विविधता – बाधा या अवसर?
    • विविध धार्मिक विश्वासों में नदियों का दैवी स्वरूप एक अवसर है जो विधिक व्यक्तित्व के साथ-साथ इनके सम्मान की वृद्धि कर सकता है। लेकिन विविधता के कारण एकरूप नीतियाँ लागू करना कठिन सिद्ध हो सकता है। आम लोगों को नदियों के अधिकारों की कानूनी प्रकृति का बोध कराने के लिये संवेदनशील संवाद आवश्यक होगा। 
  • संतुलन की आवश्यकता
    • नदियों को विधिक व्यक्तित्व सौंपना एक प्रगतिशील एवं नैतिक पहल हो सकती है, लेकिन इसके साथ शासन, शिक्षा एवं विज्ञान का तालमेल आवश्यक है। नीति, संवैधानिकता और व्यावहारिकता के बीच संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा।

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