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युवाओं में विवाह के प्रति बढ़ती अरुचि?

विवाह को परिवार का स्तंभ माना जाता है लेकिन धीरे-धीरे यह स्तंभ दरकने लगा है। पहले संयुक्त परिवार एकल परिवारों में बदले, फिर महिलाओं और पुरुषों ने अकेले ही बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाना शुरू कर दिया और अब तो बहुत सारे युवा शादी और बच्चों के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहते। उन्हें शादी अब सात जन्मों का पवित्र बंधन नहीं बल्कि उम्रकैद की सज़ा जैसी लगने लगी है। मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लिमेंटेशन द्वारा जारी एक रिपोर्ट से स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में अविवाहित युवाओं का अनुपात बढ़ रहा है। साल 2011 में अविवाहित युवाओं की संख्या 17.2 फीसदी थी जो 2019 में 23 फीसदी पहुँच गई। वहीं, 2011 में 20.8 फीसदी पुरुष ऐसे थे जो शादी नहीं करना चाहते थे, किंतु 2019 में ऐसे पुरुषों की संख्या 26.1 फीसदी हो गई। महिला आबादी के मामले में भी इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गई है। कभी शादी न करने की सोच रखने वाली महिलाएं 2011 में 13.5 फीसदी थीं, जो 2019 तक आते-आते 19.9 फीसदी हो गईं। एक तरह से देश के एक चौथाई से ज़्यादा युवा लड़के-लड़कियाँ शादी नहीं करना चाहते। यहाँ पर यह बताना भी ज़रूरी है कि राष्ट्रीय युवा नीति 2014 के अनुसार, 15 से 29 वर्ष की आयु वालों को युवा वर्ग की श्रेणी में रखा गया है।

सरकार की एक अन्य रिपोर्ट (2019) के अनुसार, शादी न करने वाले युवाओं की सबसे अधिक संख्या जम्मू और कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, और दिल्ली में दर्ज की गई है। वहीं, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में ऐसे युवाओं की संख्या सबसे कम है, जिन्होंने शादी नहीं की है।

ऐसे में भारत जैसे देश में जहां शादी को महिलाओं और पुरुषों, दोनों के लिए इतना ज़्यादा ज़रूरी माना जाता है कि किसी परिवार में अगर अविवाहित बेटे या बेटी हैं, तो वह दोस्तों, परिवारों और रिश्तेदारों के बीच चर्चा का विषय बन जाते हैं, यह स्थिति बेहद चिंताजनक है जिसके कारणों पर गौर किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

वर्तमान में जैसे-जैसे लड़कियों की शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है वैसे-वैसे वे शादी से विमुख होती जा रही हैं। इसका एक मुख्य कारण है कि शादी के बाद लड़कियों की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है। उनके पहनावे से लेकर उनकी पसंद के खाने तक, हर चीज़ में ससुराल और पति की मर्जी शामिल हो जाती है। सासू माँ चाहती हैं कि बहू उनके अनुसार रहे; उनके अनुसार कपड़े पहने; उनके अनुसार अपनी पसंद व नापसंद को तय करे। वहीं कुछ सासू माएं तो दोहरा व्यवहार अपनाती हैं। बेटे के कहने पर या दुनिया को देखते हुए वे बहू को यह इज़ाजत तो दे देती हैं कि वह सूट इत्यादि अपनी पसंद के कपड़े पहन सकती है, लेकिन उसके साथ में यह भी कह देती हैं कि बाहर गेट तक मत जाना या घर पर कोई मेहमान आए तो उसके सामने साड़ी पहनकर ही रहना।

साथ ही, कई बार बहू की नौकरी को लेकर भी ससुराल में खट-पट लगी रहती है। ससुराल वाले चाहते हैं कि बहू नौकरी तो करे लेकिन घर भी बिल्कुल वैसे ही संभाले जैसे बाकी गृहणियाँ संभालती हैं। इन सबके बीच अगर बहू औसत वेतन पर कोई प्राइवेट नौकरी कर रही है और ससुराल वाले आर्थिक रूप से पहले से ही समृद्ध हैं, तो वे यह दबाव बनाने लगते हैं कि तुम्हे कमाने की क्या ज़रूरत है, हमारे घर पर किसी चीज़ की कमी नहीं है; नौकरी छोड़ दो।

इसके इतर, शादी के एक समय बाद बहू पर बच्चे पैदा करने का दबाव अलग से थोपना शुरू कर दिया जाता है। उसके दिमाग में यह बात अच्छे से डाल दी जाती है कि 'बिना माँ बने कोई भी स्त्री पूर्ण नहीं होती'। और जब बच्चा हो जाता है तो बहू को हर पल ये एहसास कराया जाता है कि अब वो किसी की बहू, पत्नी या बेटी ही नहीं बल्कि एक माँ भी है, इसलिए अपने सपनों को पीछे छोड़कर सबसे पहले अपने बच्चे के बारे में सोचो। और ऐसे ही, समय के साथ धीरे-धीरे वह लड़की जो खुले आसमान में उड़ना चाहती थी; जो बड़े-बड़े सपने देखती थी; जो अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीना चाहती थी; अपनी ख्वाहिशों के महल को ढहा देती है और एक सामान्य सी गृहणी बनकर पति, सास, ससुर व बच्चों के लिए जीने लग जाती है।

दूसरी ओर, अगर बहू बच्चा नहीं चाहती है या किसी कारणवश उसके बच्चे नहीं हो रहे हैं, तो उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है; उसे अपराधी की तरह देखा जाता है। कई बार तो पति भी अपनी पत्नी को सिर्फ इसलिए छोड़ देता है कि वह माँ नहीं बनना चाहती या माँ नहीं बन सकती।

इसके अलावा, दहेज़ उत्पीड़न की समस्या भी चरम पर है। हर साल न जाने कितनी लड़कियों को दहेज के चलते अपनी जान गंवानी पड़ती है। एक लड़की ससुराल में उत्पीड़न सहने को और भी मज़बूर हो जाती है क्योंकि हमारे यहाँ शादी के समय ही लड़की को यह एहसास करा दिया जाता है कि अब तुम्हारा सर्वस्व ससुराल ही है। हमारी फिल्मों में भी इस मानसिकता को सही ठहराया जाता है। उसमें भी लड़की के लिए साफ संदेश दिया गया है कि-

फसलें जो काटी जाएँ उगती नहीं हैं
बेटियाँ जो ब्याही जाएँ मुड़ती नहीं हैं।

ऐसी तमाम तरह की समस्याएँ हैं जिनका शादी के बाद अधिकांश लड़कियों को सामना करना पड़ता है। ऐसे में, वे लड़कियां जो अपने घर-परिवार या आस-पास हर रोज़ रिश्तों को घुनता हुआ देख रही हैं, उनके मन में शादी को लेकर नकारात्मक छवि बन जाती है, और वे उस स्थिति से गुजरना नहीं चाहतीं। अब वह पढ़ाई-लिखाई करके अपने करियर को ऊंचे मुकाम तक ले जाने और अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने में यकीन रखती हैं। वे अब घड़ी की सुई की तरह किसी के इशारों पर चौबीसों घंटे घूमना नहीं चाहती हैं।

वहीं, लड़कों के संदर्भ में देखा जाए तो, लड़कों का शादी से मोहभंग होने के कई कारणों में से सबसे बड़ा कारण बेरोजगारी और कम आय वाली नौकरी का होना है। मैंने अक्सर लड़कों को यह कहते हुए सुना है कि 'शादी तो कर लेंगे लेकिन खिलाएंगे क्या; पत्नी और बच्चों के खर्चे कैसे संभालेंगे?' लगातार बढ़ रही बेरोज़गारी और मँहगाई के चलते कम आय वाले व्यक्ति का अपने परिवार का भरण-पोषण, बीमारी और बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला पाना बेहद मुश्किल हो रहा है, जिसके चलते अधिकांश युवा अब किसी की ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हैं।

हालाँकि ऐसा नहीं है कि सभी लड़के, जो शादी नहीं करना चाहते हैं वे आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। इसका एक अन्य कारण पत्नी और अन्य पारिवारिक सदस्यों के बीच तालमेल न बिठा पाना भी है। शादी के बाद, लड़का ही पत्नी और अपने अन्य परिवार वालों के बीच सेतु का कार्य करता है। जिसके चलते यदि किसी बात पर पत्नी व उसके (लड़के) परिवार वालों के बीच मनमुटाव हो जाता है तो लड़का ही बीच में घुन की तरह पिसता है। अगर लड़का अपनी पत्नी की तरफ बोले तो घरवाले उसे 'ज़ोरू का गुलाम' कहते हैं, और परिवार की तरफ बोले तो पत्नी नाराज़ हो जाती है। कई बार यह स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि लड़के आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं।

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016-2020 तक भारत में एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड केस में खराब शादी की वजह से 37 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या की। साफ ज़ाहिर है कि कई बार अच्छी आर्थिक स्थिति होने के बावजूद, घरेलू कलह के चलते युवाओं को मानसिक शांति नहीं मिल पाती है। जिसे देखते हुए आज के युवा लड़के-लड़कियाँ अपनी जिंदगी का सफर अकेले ही तय करने का निर्णय ले रहे हैं।

एक और पहलू जिस पर बहुत कम गौर किया जाता है, वो यह है कि अपने प्रेमी या प्रेमिका से विवाह का न होना। जी हां, सुनने में थोड़ी हैरानी होगी लेकिन भारतीय समाज में, जहाँ आज भी अरेंज मैरिज को प्राथमिकता दी जाती है; प्रेम विवाह करने वालों को परिवार और समाज का बहुत कम समर्थन मिलता है या न के बराबर मिलता है। कई बार तो प्रेम विवाह करने वाले लड़के या लड़कियों की उन्हीं के परिवार द्वारा हत्या तक कर दी जाती है। ऐसे में बहुत से लड़के-लड़कियाँ, जिन्हें यह लगता है कि घर और समाज द्वारा कभी भी उनके रिश्ते को स्वीकृति नहीं मिलेगी; किसी अनजान के साथ शादी करने की बजाय शादी न करने का फैसला कर लेते हैं।

दूसरी ओर ऐसे लड़के या लड़कियाँ, जो लंबे समय तक किसी रिश्ते में रहे हैं; शादी करने की योजना बनाते हैं लेकिन शादी से पहले ही उनके बीच अनबन हो जाती है और उनका रिश्ता टूट जाता है, ऐसी स्थिति में उनका रिश्तों से भरोसा उठ जाता है और उनके मन में विपरीत लिंग के प्रति एक धारणा बन जाती है कि सभी लड़के या सभी लड़कियाँ ऐसे ही होते हैं, जिसके चलते भविष्य में वो दोबारा अपनी जिंदगी में किसी को भी शामिल करने से डरने लगते हैं।

इसके अलावा, यह भी सच है कि आज के माहौल में पश्चिमी सभ्यता का असर बढ़ा है। जिसके चलते युवा शादी में बंधने की बजाए डेटिंग और लिव इन रिलेशनशिप को पसंद कर रहे हैं। वहीं कुछ युवाओं का मानना है कि आज के समय में अपनी भावनात्मक और शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए शादी करना ज़रूरी नहीं है।

सार रूप में कहें तो आज के समय में युवा लड़के-लड़कियाँ अपने अधिकारों को लेकर अधिक मुखर हो गए हैं। लड़कियों के अंदर भी अब पुराने जमाने की महिलाओं की तरह सहनशीलता नहीं है। अब वे इस भावना से मुक्त हो चुकी हैं कि ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है’। आज वे पति के बराबर कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं; उसकी तरह कमा रही हैं तो उसके बराबर सम्मान की भी उम्मीद करती हैं। जिसके चलते कई बार दोनों के अहं का टकराव हो जाता है और रिश्तों पर दरार पड़ने लग जाती है। वहीं, लड़के भी शादी के बाद अचानक से होने वाली रोक-टोक, पूछताछ और ज़िम्मेदारी के बोझ को झेल नहीं पाते हैं। इन सब कारणों के चलते समाज में विवाह विच्छेद के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। जो अन्य युवाओं, जो शादी के बंधन में नहीं बंधे हैं, के मन में शादी को लेकर संशय पैदा कर देते हैं।

यहाँ पर ये स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि सभी शादियाँ खराब ही नहीं होती हैं। एक गलत शादी अगर ज़िदगी को गर्त में ले जा सकती है तो एक सही जीवनसाथी का चुनाव हमारी ज़िंदगी को और ऊंचाईयों पर पहुंचा देता है। इसलिए ज़्यादा ज़रूरी यह सोचना नहीं है कि शादी करनी चाहिए या नहीं, बल्कि इस बात पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए कि आप जो भी रिश्ते बनाएं, उनमें आपको खुशी मिले; सुकून मिले। आप अपने बनाए रिश्तों में ईमानदार रहें। जब आप खुश रहेंगे तभी आपकी शादी भी सफल होगी। साथ ही, अपनी ज़िंदगी के सभी फैसलों में खुद भागीदार होना और उन फैसलों के परिणामों की ज़िम्मेदारी लेना भी आपका ही दायित्व है।

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

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