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अमृत लाल नागर: जन्मदिन विशेष

आगरा जिले के एक गुजराती परिवार में जन्मे अमृत लाल नागर, आर्थिक परिस्थितियों की वजह से मैट्रिक के आगे पढ़ाई न कर सके। हालाँकि इनको पढ़ाई से बहुत अनुराग था इसलिये इन्होंने स्वाध्याय के बूते ही साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। पढ़ाई के शौक के चलते ही इन्होंने हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला, मराठी और गुजराती भाषाओं का भी जरूरी ज्ञान प्राप्त कर लिया।

अमृत लाल नागर जिस समय स्वाध्याय के दम पर स्वयं को मांज रहे थे उसी समय वर्ष 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस निकल रहा था। इस जुलूस में अमृत लाल नागर भी शामिल हो गए। मगर जब भीड़ पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किया गया तो सब लोग भागने लगे। उनके पीछे से लोगों का हुजूम तेजी से आया और अमृत लाल नागर फँस गए। उन्हें लगा कि अब उनका दम घुट जाएगा और इस बीच उनके मन से एक पंक्ति फूटी-

"कब लौं लाठी खाया करें,

कब लौं कहौ जेल सहा करिये।"

तीन दिन बाद यही पंक्ति 'दैनिक आनंद' पत्रिका में छप गई। अखबार में अपना नाम देखकर अमृत लाल नागर इस खुमारी में डूब गए और खुद से ही कहने लगे कि अब मैं लेखक बन गया! इसके बाद वो मेघराज इंद्र नाम से कविताएँ लिखने लगे और तस्लीम लखनवी नाम से हास्य व्यंग्य रचने लगे।

अमृत लाल नागर हास्य-विनोदी स्वभाव के थे। एक बार वे और मशहूर हास्य व्यंग्यकार बेढब बनारसी अपने दोस्तों के साथ चाय पी रहे थे। इसी बीच अमृत लाल नागर ने कहा-

"जब मैं कराची शहर में सैर के लिए निकला तो लोगों ने मुझे घेर लिया। बड़ी बात ये नहीं है कि लोगों ने मुझे घेर लिया.. बड़ी बात ये है कि लोगों ने मुझे जवाहर लाल नेहरू समझ के घेर लिया।"

अमृत लाल नागर की इस बात को सुनकर उन्होंने भी बेढब बनारसी ने जवाब दिया-

"कल मेरे साथ तो इससे भी अजीबोगरीब बात हुई। जब मैं शहर की सैर के लिए निकला तो लोगों ने मुझे घेर लिया। बड़ी बात ये नहीं है कि लोगों ने मुझे घेर किया..बड़ी बात ये है कि लोगों ने मुझे मोतीलाल समझ के घेर लिया।"

मिजाज और तबियत से विनोदी प्रकृति के नागर साहब की साहित्यिक बिरादरी में ठीकठाक दोस्ती थी। उन्हें छायावाद के चतुष्टय कवियों में से एक जयशंकर प्रसाद का भी सानिध्य मिला। वो ये बात खुद ही स्वीकारते भी हैं कि साहित्यिक संस्कार और दुनियादारी के व्यावहारिक ज्ञान का सलीका उन्होंने प्रसाद जी से ही पाया। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से भी उनकी अच्छी दोस्ती थी। उन्होंने निराला को बहुत निकट से देखा था। इसीलिए उनपर एक लेख भी लिखा- गढ़ाकोला में पहली निराला जयंती। यह एक आंदोलन पर आधारित लेख था जिसमें निराला ने जमींदारों के विरुद्ध अत्याचार में भाग लिया था।

अगर अमृत लाल नागर के साहित्यिक संसार की बात करें तो सबसे पहले उनके द्वारा रचित उपन्यासों पर चर्चा करना लाज़िमी होगा। उनके द्वारा रचित ‘मानस का हंस’ उपन्यास को कालजयी साहित्यकार प्रेमचंद रचित उपन्यास ‘गोदान’ के समकक्ष माना जाता है। मानस का हंस, गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित पर आधारित है। इस उपन्यास की जादुई शब्दशक्ति और रोचक शैली पाठकों को बरबस ही अपनी ओर खींचती है-

"इस पतित की प्रार्थना स्वीकारें गुरु जी, अब अधिक कुछ न कहें। मेरे प्राण के भीतर कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं पा रहे हैं। आपके सत्य वचनों से मेरी विवशता पछाड़े खा रही है।"

इसके अलावा अमृत लाल नागर ने स्त्री विमर्श पर भी एक से बढ़कर एक रचनाएँ लिखीं। उन्होंने स्त्री शोषण से संबंधित अनेक समस्याओं, जैसे- दहेज प्रथा, यौन शोषण और बेमेल विवाह आदि पर खूब लिखा है। स्त्री समस्याओं को केंद्र में रखते हुए उन्होंने एक उपन्यास ‘अग्निगर्भा’ की रचना की है। इस उपन्यास की नायिका सीता पांडे पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भी समाज की अवहेलना झेलने को मजबूर है। नागर साहब इस उपन्यास में लिखते हैं-

"नारी युगों-युगों से प्रताड़ित रही है। कभी उसे चुराया गया तो कभी उसे बेचा गया। आज भी सूनी सड़कों पर नारी का अकेले निकलना कठिन है।"

उपन्यास के अतिरिक्त अमृत लाल नागर हास्य-व्यंग्य लेखन भी करते थे। वो स्वभाव से ही विनोदी किस्म के व्यक्ति थे इसलिए हास्य-व्यंग्य पर लिखी उनकी रचनाएँ बेहद रोचकता के साथ विभिन्न सामाजिक समस्याओं को उठाती थी। व्यंग्य विधा पर लिखी उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- ‘चकल्लस’, ‘नवाबी मसनद’, ‘सेंठ बांकेमल’, ‘कृपया दाएँ चलिए’, ‘हम फिदाए लखनऊ’ आदि। इनका कहानी संग्रह ‘चक्कलस’ आज भी प्रासंगिक जान पड़ता है। इसका एक अंश इस प्रकार है-

" मेम साहब ने कहा- आज बड़ा खर्चा हो गया तुम्हारी वजह से।"

"मेरी वजह से क्यों, ये साड़ी-ब्लाउज क्या मैं पहनूँगा"

"तुम नहीं पहनोगे मग़र खर्च तो तुम्हारे कारण ही हुआ।"

मेम साहब की आवाज में सख्ती आ गयी।

साहब ने दबी ठंडी खींचकर कहा- "जब तुम कहती हो तो अवश्य हुआ होगा। ये तुम्हारे सैंडिल शायद मेरी खोपड़ी के लिए खरीदे गए।"

अमृत लाल नागर साहित्य लेखन के अतिरिक्त रेडियो नाटककार भी थे और फिल्मों के लिये भी लिखते थे। वर्ष 1953 से 1956 के मध्य उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के लिए ड्रामा प्रोड्यूसर के तौर पर भी काम किया। उन्होंने कल्पना और कुँवारा बाप फिल्मों की पटकथा व संवाद लिखे थे। नागर साहब आधुनिकता और परंपरा के बीच की कड़ी थे। उनके बारे में महान आलोचक डॉ रामविलास शर्मा कहते है कि अमृत लाल नागर की सबसे बड़ी खासियत ये है कि उनके उपन्यास में मानक और गैर मानक; दोनों किस्म के शब्दों की बहुतायत है।

लेखन को वो शौकिया नहीं मानते थे बल्कि वो एक शानदार जिंदगी जीने के लिए लेखन कार्य करते थे। वर्ष 1984 में भी वो अपने प्रकाशक से 10 हजार रूपए प्रतिमाह रॉयल्टी लेते थे ताकि वो जो भी लेखन कार्य करें सिर्फ उसी के प्रकाशन के लिए करें। वो नए लेखकों को भी अक्सर समझाते थे कि एक किताब लिखकर रूक मत जाना... लिखने का विकल्प सिर्फ लिखना ही है और कुछ नहीं।

अमृत लाल नागर का सफल लेखकीय जीवन उन लोगों के लिये भी प्रेरणास्पद है जो अक्सर इस हताशा में जीते रहते हैं कि उन्हें पढ़ने के लिए उचित अवसर नहीं मिले वर्ना वो भी जिंदगी में कुछ बड़ा कर पाते! महज दसवीं तक की स्कूली पढ़ाई करने वाले नागर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर 57 पीएचडी हुईं।

आज अमृत लाल नागर का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की बहुत सारी बधाई…

संकर्षण शुक्ला

(संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।)

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