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एलजीबीटीक्यू: सुनवाई अभी जारी है

"इतिहास को इनसे और इनके परिवारों से माफ़ी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों से भोगा है, उसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती"- जस्टिस इन्दु मल्होत्रा

नवंबर साल 2018 का वह ऐतिहासिक दिन था जब सुप्रीम कोर्ट ने LGBTQIA से जुड़ी धारा 377 को ग़ैरक़ानूनी करार दे दिया था । इस धारा में हर वह व्यक्ति जो प्रकृति से अलग महिला पुरुष या जानवरों से अप्राकृतिक संबंध रखता है उसे अपराधी मानते हुए दस साल की कैद और जुर्माना भरना होता था। एलजीबीटीक्यूआईए के मायने लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर , क्यू यानी क्वीर का ताल्लुक अजीब, अनूठे, विचित्र रिश्तों से हैं ,आई से इंटरसेक्स और ए से एसेक्सुअल। उस फ़ैसले के दौरान जस्टिस इंदू मल्होत्रा की संजीदा टिप्पणी आई थी। उन्होंने कहा था इतिहास को इनसे और इनके परिवारों से माफ़ी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों से भोगा, है उसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती है। उस फैसले के बाद इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने एक कार्टून प्रकाशित किया था, जिसमें LGBTQIA बिरादरी का सदस्य सुप्रीम कोर्ट की ओर देख कह रहा था कि यूं तो यह हाउस कहलाता है लेकिन आज मुझे घर-जैसा लग रहा है।

विक्टोरियन कानून की विदाई

दरअसल धारा 377 की विदाई ने इंसान के बुनियादी हक़ को तो बहाल किया ही , उसकी आज़ादी और सबकी बराबरी भी सुनिश्चित की है । प्रेम और निजता को सर्वोच्च माना है सर्वोच्च न्यायलय ने। हर मनुष्य को यह बुनियादी हक़ हासिल हो सका कि उसके निजी पल उसके अपने है और वहां वह कैसे ज़ाहिर होता है, उसमें किसी का कोई दखल नहीं होना चाहिए । कोई क़ानून महज़ इसलिए उसे सलाखों के पीछे डाल सकता था ,क्योंकि अचानक अनायास उसके निजी पलों का ब्यौरा सार्वजानिक हो जाता है। बेशक यह सोच असहज करनेवाली है लेकिन बरसों बरस तक यही सब होता रहा। ऐसे रुझान वाले अपमान ,अत्याचार और अवसाद की पीड़ा से जूझते रहे। कई बार जेलो में भर दिए गए। ऐसा केवल इसलिए क्योंकि वे समाज के निर्धारित किये गए मानकों से अलग रुझान रखते थे। बात हमारी सभ्यता और संस्कृति की करें तो उसने कभी भी यौन रुझानों के कारण किसी को दंड का भागीदार नहीं माना था। दरअसल हम खुद अपनी असलियत से परे इस विक्टोरियन कानून को 128 साल तक गले लगाए रहे थे । जानकर हैरानी हो सकती है कि ख़ुद अंग्रेज़ हुकूमत को अपने देश के कानून से भारत में इसे थोड़ा उदार बनाना पड़ा था। हमारे यहां सरकारें कोई भी रही हों, वे दुविधा में ही रहीं। उनके कई बयान हैं जो धारा 377 का समर्थन करते रहे थे लेकिन फिर इस सुप्रीम फैसले के बाद हुए उन्हें यह कहना पड़ा कि जो सुप्रीम कोर्ट कहेगा, हमें मान्य होगा।

चेहरे रंग कर होती थी अधिकारों की मांग

ऐसा नहीं है कि इससे पहले इस समुदाय ने अपनी बात ना रखी हो। वे अपने चेहरे की पीड़ा और तकलीफ़ को गहरे इंद्रधनुषी रंगों के पीछे छुपाते रहे और सड़कों पर आकर 'गे परेड' निकालते रहे। अंग्रज़ों के ज़माने के इस कानून को खुद अंग्रेज ही अपने देश में कब का ख़त्म कर चुके हैं और 2014 से तो सेम सेक्स में शादी को भी जायज़ मान रहे हैं।1967 से ही वहां समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर है। हमारे यहाँ LGBTQIA समुदाय के हक़ में पहली बार पूरी संवेदनशीलता के साथ 2009 में सोचा गया था जब दिल्ली हाई कोर्ट ने इन संबंधों को आपराधिक नहीं माना था। सर्वोच्च न्यायालय को यह ठीक नहीं लगा और दिसंबर 2013 में इसे पलट दिया गया। साथ ही यह भी कहा कि इसे संसद के ज़रिये ही हटाया जा सकता है। संसद इस मुद्दे अक्सर खुली बहस से बचती आई थी जबकि भारतीय संस्कृति में वात्स्यायन के शब्दों के आलावा खजुराहो के मूर्ति शिल्प में भी इसके खुले दर्शन होते हैं। कुछ धर्मों के हिसाब से भी यह कृत्य मान्य नहीं है बल्कि पाप है। बावजूद इसके दुनिया के कई देश जिनमें बेल्जियम, नीदरलैंड्स ,कनाडा, पुर्तगाल, स्पेन, न्यूज़ीलैण्ड, डेनमार्क अर्जेंटीना, स्वीडन शामिल हैं , समलैंगिकता यहां क्राइम नहीं है। दुनिया के कुल 90 देश LGBTQIA समुदाय के हक़ में हैं और अमेरिका ने तो सेना में इनकी भर्ती पर लगी रोक भी हटाई है। सच तो यही है कि इस दौर में मौलिक अधिकार और निजी स्वतंत्रता पर यूं वार नहीं किया जा सकता जिस तरह से धारा 377 करती रही थी ।

दिल्ली हाई कोर्ट ने पहली बार सोचा

इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट का जुलाई 2009 में आया वह एक लैंडमार्क जजमेंट था। तब दो जजों की पीठ ने कहा था कि दो वयस्क होमो सेक्सुअल व्यक्तियों के बीच के रिश्ते को अपराध कहना संविधान से मिले बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन है। यह केस एक एनजीओ नाज़ फाउंडेशन और दिल्ली सरकार के बीच था। वैज्ञानिक समुदाय लिंग यानी जेंडर को लैंगिक व्यवहार से अलग मानता है। बहरहाल बाद में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 को ख़त्म किया तब राजनैतिक दलों ने भी कोई मुखर होकर स्वागत नहीं किया था। यह 1860 में लागू हुई उपधारा थी। हटाने का फैसला पांच जजों की खंडपीठ का था। धारा के ख़ात्मे और एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों की बहाली के बारे में जस्टिस इंदू मल्होत्रा की टिप्पणी के बारे में ऊपर लिखा जा चूका है कि इतिहास को इनसे और इनके परिवारों से माफ़ी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों से भुगता है उसकी कोई भरपाई नहीं है। ऐसे ही कुछ संकेत बाद में मोहन भागवत की ओर से भी मिले जिसकी खूब चर्चा हुई। उनके विपरीत धारा के हटने पर संघ के अधिकारी अरुण कुमार ने कहा था- "समलैंगिक सम्बन्ध और विवाह प्रकृति से मेल नहीं खाते और न ही ये प्राकृतिक सम्बन्ध होते हैं। हम ऐसे संबंधों का समर्थन नहीं करते। परंपरागत रूप से भी भारत का समाज ऐसे संबंधों को मान्यता नहीं देता।" शायद यही भाव और उसकी वजह से लगातार एक संघर्ष भारतीय जनमानस में भी रहा जिसकी वैज्ञानिक व्याख्या करने की कोशिश भी बहुत कम हुई जबकि प्राचीन सभ्यता में ऐसी कोई असहजता नहीं देखी गई।

पौराणिक कथाओं में है उल्लेख

इससे इतर मोहन भागवत का बयान न केवल धारा के हटने का समर्थन करता है बल्कि एक पौराणिक कथा का भी उल्लेख करता है। मोहन भागवत ने कहा था -"हम चाहते हैं कि एलजीबीटीक्यू का अपना स्थान हो और उन्हें यह महसूस हो कि वे भी समाज का हिस्सा हैं। उन्हें भी जीने का हक है, इसलिए ज्यादा हो हल्ला किए बिना उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए। हमें उनके विचारों को बढ़ावा देना होगा।" यही नहीं, एक इंटरव्यू में उन्होंने महाभारत के चरित्रों के हवाले से एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों के प्रति अपना समर्थन जताते हुए उन्होंने कहा कि समलैंगिक समुदाय का ज़िक्र महाभारत जैसे ग्रंथों में भी आया है। महाबलशाली राजा जरासंध के दो शक्तिशाली सेनापति हंस और डिम्भक के बीच समलैंगिक संबंध थे। जब इन ताकतवर सेनापतियों को हराना मुश्किल हो गया, तो कृष्ण ने डिम्भक के मरने की अफ़वाह उड़ाई। यह सुनकर दुःख में उसके मित्र हंस ने नदी में डूबकर जान दे दी। फिर हंस की मौत का समाचार जब डिम्भक के पास पहुंचा, तो अपने मित्र के विरह में उसने भी नदी में कूदकर जान दे दी। वैसे यह सन्दर्भ अपने आप में यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या स्वयं कृष्ण इन संबंधों को ठीक नहीं मानते थे या उन्होंने केवल जरासंध की कमर तोड़ने के लिए यह रणनीति अपनाई। यह भी कहानी में है कि जरासंध को युद्ध में हराना पांडवों के लिए मुश्किल था इसलिए कृष्ण की सहायता से उसे छल से ही मारा जा सका। भीम के साथ उसका मल्ल्युद्ध 28 दिनों तक चला। हर बार उसका शरीर दो टुकड़े करने के बावजूद जुड़ जाता था। जब कृष्ण ने भीम को घास के तिनके के जरिये संकेत दिया कि "इसके दो टुकड़े कर अलग-अलग दिशाओं में फेंको!" उसके बाद ही जरासंध का अंत हुआ।

वे साथ रहना चाहते हैं

होमोसेक्सुएलिटी को लेकर देश के मेट्रो शहरों में 2008 से ही बड़े आंदोलन देखे गए थे । सड़कों पर 'गे परेड' का आयोजन भी हुआ जिसमें एलजीबीटीक्यू समुदाय के हज़ारों लोग रंग-बिरंगे नकाबों के साथ इसमें शामिल होते थे क्योंकि तब देश में यह अपराध था और वे जेल में डाल दिए जाते थे। बेशक "सेक्सुअल प्रेफरेन्स बेहद निजी और व्यक्तिगत है।" धारा 377 ज़रूर देश से ख़त्म हुई लेकिन ऐसे जोड़ो को शादी की अनुमति अभी नहीं मिली है। हो सकता है कि आगे ऐसा भी हो क्योंकि तब तमाम याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को लौटा दिया था और सरकार को जवाब देने के लिए कहा था। भले ही अपराध की यह धारा हटा दी गई हो लेकिन समाज अब भी इनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार ही करता है। ट्रांसजेंडर बच्चों के जन्म को छिपाया जाता है। यहाँ तक कि इनकी शादी भी जबर्दस्ती करा दी जाती है। यह उसके लिए बहुत ही पीड़ादायक अनुभव होता है। इससे अलग इस बिरादरी का जो हिस्सा आर्थिक तौर पर सक्षम है वह उन देशों का रुख कर रहा है जो इन्हे लेकर असहज नहीं है। कौन किसके साथ पार्टनर है, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे वहां जाकर शादियां भी कर रहे हैं। गुजराती अमेरिकन अमित शाह और तेलुगु मदिराजु 'गे कपल' की शादी की तस्वीरें 2019 में वायरल हो गईं थीं। बहरहाल वे साथ रहना चाहते हैं, किसी भी दूसरे सामान्य जोड़े की तरह। इधर भारत में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल एक अन्य मामले की सुनवाई में स्पष्ट कर दिया था कि समान लिंगियों में शादी के लिए एक विशेष कानून की आवश्यकता है। वर्तमान कानून ऐसा कोई विकल्प नहीं देता।

  वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा  

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका ,जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले लाडली मीडिया अवार्ड के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.)

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