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ट्रांसजेंडर्स- कमी वजूद में नहीं, समाज की सोच में है

ट्रांस समुदाय के लोग बेहद प्रतिभाशाली, मज़बूत ,बुद्धिमान, सृजनशील, सहृदय और इरादों के पक्के होते हैं। हमें होना ही पड़ता है। हम अधिकारों को चुन या छोड़ नहीं सकते ,बस उम्मीद करते हैं -ग्रेस डोलन सैंड्रीनो ,अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक कार्यकर्ता

कॉमेडियन वीर दास ने जब एक भारतीय ट्रांसजेंडर आलोक वी मेनन से न्यूयॉर्क में पूछा कि यहां आकर कैसा लगता है तब उनका जवाब था कि मैं इस शहर में दस साल पहले आया था और मैं हैरान रह गया था कि यहां मेरे जैसे कई हैं और कोई भी किसी को लगातार देख नहीं रहा ,घूर नहीं रहा। मेरे होने से किसी को कोई परेशानी नहीं है। यह मेरी सोच के लिए बहुत नया था कि मेरे वजूद से किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। अब तो लगता है जैसे मैं यहीं का हूं। दरअसल, इस जवाब से बहुत साफ़ हो जाता है कि यह समाज अपनी पहचान के साथ जीना चाहता है और वह सब करना चाहता है जो कोई भी दूसरा इंसान करता है। दूसरों को सामान्य या नॉर्मल कहना भी इनका अपमान करने जैसा ही होगा। ये कोई अलग नहीं बल्कि वैसे ही हैं जैसे कोई भी दूसरा जेंडर या लिंग। सच तो यह है कि किसी भी बच्चे को उसके लिंग ,जातीयता या दिव्यांगता की वजह से कभी कोई कमी नहीं होनी चाहिए। क्या वाकई हमारा समाज ऐसा कर पाने में सक्षम है?

किन्नर होना कोई दोष नहीं

ट्रांसजेंडर को आम बोलचाल मैं किन्नर या हिजड़ा कहा जाता है। ये समुदाय आज़ादी के बाद से ही जितने भेदभाव और पीड़ा का शिकार है उतना शायद कोई और नहीं होगा। केवल इसलिए क्योंकि उनका लिंग उन दो सामान्य लिंगों की तरह नहीं है जिन्हें समाज अपनी ओर से मान्यता देता आया है। दरअसल ,यह सोच ही बेहद संकीर्ण और सीमित है कि यदि आप औरत या मर्द नहीं हों या आप बच्चे पैदा नहीं कर सकते तो आप कुछ नहीं हो। आप अभिशप्त हो भीख मांगने के लिए ,सड़कों पर नाच-गा कर,बधाई देकर पैसे कमाने के लिए। कितना अजीब है समाज का यह रवैया कि जब भी लोगों के घरों में जब शुभ काम हों तब तो तुम जाकर बधाई गाओ लेकिन तुम्हारी तरक्की, शिक्षा के लिए उनके मन में कोई शुभकामना नहीं। नाच-गाने के बदले पैसे देने वालों में कुछ उनकी बद्दुआओं से डरते हैं तो कुछ ये कहते हुए देखे जाते हैं कि आखिर इनको भी ज़िंदा रहना है,यही इनकी रोज़ी-रोटी है। यह दया उन्हें कभी सम्मान का जीवन नहीं जीने देती। समाज इनके वजूद को खंडित स्वरुप में देखने की भूल करता आया है और अब भी कर रहा है। आखिर इन्हें इस तरह ही क्यों रोज़ी-रोटी कमानी है ? क्यों कोई संगठन, कोई संघ इस पर माथा जोड़ कर विचार नहीं करता? सामान्य स्कूल इन्हें प्रवेश नहीं देते और अगर किसी तरह प्रवेश हो भी जाता है तो सामान्य बच्चों को इस तरह के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है कि वे इन्हें कमतर ना आंके, अलग ना समझें। इनका मज़ाक ना बनाएं। यौन उत्पीड़न और हिंसा की वजह से ये बच्चे जबरदस्त मानसिक पीड़ा और अवसाद में आ जाते हैं और अक्सर स्कूल छोड़ देते हैं। कानूनी संस्थाएं भी कम संजीदा नज़र आती हैं। उन्हें इन बच्चों के मामले झूठे नज़र आते हैं ,उन पर कम भरोसा किया जाता है। सार्वजनिक स्थलों पर इनकी मौजूदगी अब भी सहज नहीं है। इन्हें कोई घर तक किराए से नहीं देता। कई बार तो समाज के डर से खुद माता-पिता भी बच्चों को नहीं अपनाते हैं। इस रुझान के लड़कों को लड़कियों के और लड़कियों को लड़कों के कपड़े पहनाने वाले बचपन के बाद बड़े होने पर स्थिति संभालना मुश्किल होता है और ऐसा सिर्फ समाज के अनुदार होने की वजह से होता है।

भारत में किन्नर समुदाय की वर्तमान स्थिति

-देश में 2011 के बाद से कोई जनगणना नहीं हुई है। 2011 के हिसाब से इनकी कुल आबादी 4. 87 लाख है। लगभग 28 प्रतिशत उत्तरप्रदेश में हैं। -इनमें भी 2019 के लोकसभा चुनावों में केवल 23 फ़ीसदी किन्नरों ने मतदान किया। सच्चाई यह भी है कि सामाजिक तिरस्कार की वजह से कई अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहते।

-2011 के ही हिसाब से देश में छह साल से कम उम्र के 54,854 बच्चे हैं।

-इनमें से 60 फ़ीसदी स्कूल जाने से वंचित हैं।

-92 प्रतिशत को कोई काम नहीं मिलता। जो योग्य हैं ,देश की तरक्की में योगदान दे सकते हैं ,उन्हें भी काम नहीं मिलता। कथित बहुसंख्यक यहाँ इन अल्पसंख्यकों के साथ कोई न्याय नहीं कर पाते जबकि ज़िन्दगी उनकी भी उतनी ही कीमती है।

-99 फीसदी को सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है।

-10 वीं पास करने वाले बच्चों में ज़रूर दशमलव 36 की वृद्धि हुई जबकि 12 वीं में यह आंकड़ा कम हुआ।

-जागरूकता की कमी की वजह से एचाईवी पोजिटिव होने के मामले समुदाय में ज़्यादा हैं। एड्स यहाँ आम बीमारी है।

-मानसिक बीमारियों के लिए भी जागरूकता नहीं है और इलाज भी दुर्लभ है।

-कानूनी तौर पर भी इनके साथ भेदभाव होता है। होमोसेक्सुअल संबंधों को मान्यता न मिलने की वजह से ना ये इन्शुरन्स के दावे कर पाते हैं और ना ही कोई क्लेम मिल पाता है। ग्रेच्युटी और उत्तराधिकार के दावे ले पाना भी मुश्किल ।

-देश में रोज़गार के हालात यूं भी अच्छे नहीं हैं एक-एक भर्ती पर लाखों अभ्यर्थी की सूरत में ट्रांस जेंडेर्स के लिए नौकरियां ना के बराबर हैं। 96 फीसदी के पास कोई काम नहीं है ,वे कम पैसों पर दोयम दर्जे के काम करने के लिए मजबूर हैं। बधाई गाना ,वैश्यावृत्ति और भिक्षा में धकेल दिए जाते हैं। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने इस समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव पर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है।

प्राचीन भारतीय समाज में किन्नर

यूं प्राचीन भारतीय शास्त्रों में ट्रांसजेंडर के वजूद और उन्हें महत्व देने के कई व्याख्यान उपलब्ध हैं। महाभारत में शिखंडी ऐसा ही किरदार है। राजा द्रुपद की तीसरी संतान शिखंडी को ढाल बनाकर ही भीष्म को मृत्यु शैया पर लिटाया जा सका था । भीष्म अपने वचन के पक्के थे। उन्होंने शिखंडी पर हमला नहीं किया और उनकी आड़ में छिपे अर्जुन ने फिर भीष्म पर आक्रमण कर दिया। महाभारत में ही एक साल के अज्ञातवास को बिताने के लिए अर्जुन ने बृहन्नला का रूप धरा था।अपने तेरह साल के वनवास में पांडवों और द्रोपदी को आखरी एक वर्ष छिप कर बिताना था और वह भी इस तरह कि कोई उन्हें पहचान न सके। कालांतर में राजमहलों के भीतर भी किन्नरों को काम और ज़िम्मेदारी देने का ज़िक्र है। वात्स्यायन द्वारा रचित काम शास्त्र में इनका ज़िक्र 'तृतीय प्रकृति' बतौर है। ज़ाहिर है प्राचीन भारत इन्हें समझने में कहीं आगे था। साथ ही वह इनकी वैज्ञानिक व्याख्या करना भी जानता था। अर्धनारीश्वर यानी शिव में पार्वती और पार्वती में ही शिव के दर्शन का नज़रिया भी इस बात की तस्दीक करता है कि स्त्री में पुरुष और पुरुष में ही स्त्री का अंश हो सकता है। यही वजह है कि कई किन्नर समुदाय,सर्वशक्तिमान के इस रूप की आराधना करते हैं ।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक

साल 2019 के नवंबर में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य उनके अधिकारों और सामाजिक सशक्तिकरण को सुनिश्चित करना था। विधेयक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जिसका लिंग जन्म के समय निर्दिष्ट लिंग से मेल नहीं खाता है। इसमें ट्रांस-पुरुष और ट्रांस-महिलाएं, इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति, लिंग-विषमता वाले व्यक्ति और किन्नर और हिजड़ा जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान वाले व्यक्ति शामिल हैं। इंटरसेक्स विविधताओं को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जो जन्म के समय पुरुष या महिला शरीर के मानक मानक से अपनी प्राथमिक यौन विशेषताओं, बाहरी जननांग, गुणसूत्रों या हार्मोन में भिन्नता दिखाता है। विधेयक के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं।

  • इस विधेयक में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक सशक्तीकरण के लिये एक कार्य प्रणाली उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है ।
  • हाशिये पर खड़े इस वर्ग के विरूद्ध लांछन, भेदभाव और दुर्व्यवहार कम होने और इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ना ।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति को समाज का उपयोगी सदस्य बनाना ।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सामाजिक बहिष्कार से लेकर भेदभाव, शिक्षा सुविधाओं की कमी, बेरोज़गारी, चिकित्सा सुविधाओं की कमी, जैसी समस्याओं को दूर करना ।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का सरंक्षण ) विधेयक, 2019 एक प्रगतिशील विधेयक कहा जाना चाहिए क्योंकि यह ट्रांसजेंडर समुदाय को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से सशक्त बनाने की बात रखता है ।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण ) विधेयक, 2019 का लक्ष्य

  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति को परिभाषित करना।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति के विरुद्ध भेदभाव को रोकना।
  • ऐसे व्यक्ति को उस रूप में मान्यता देने के लिये अधिकार प्रदान करना और खुद के अनुभव से लिंग पहचान का अधिकार देना।
  • पहचान-पत्र जारी करना।
  • यह सुनिश्चित करना कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति को किसी भी स्थापन में नियोजन, भर्ती, प्रमोशन और अन्य संबंधित मुद्दों के विषय में भेदभाव का सामना न करना पड़े।
  • प्रत्येक संस्था में शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना।
  • विधेयक के प्रावधानों का उल्लंघन करने के संबंध में दंड का सुनिश्चित करना।
  • विधेयक की आलोचना के बिंदु

हालांकि कुछ बिंदुओं को लेकर विधेयक की आलोचना भी हुई है।

-ट्रांसजेंडर की परिभाषा को लेकर एतराज़ किया गया कि यह व्यापक नहीं है और समुदाय की भिन्नता को परिभाषित नहीं करती है।

-विधेयक में कहा गया कि उन्हें कलेक्टर से एक प्रमाण पत्र लेना होगा जो उन्हें पहचान देगा। यह समुदाय को पहचान कम बल्कि उन पर ठप्पा लगाने जैसी कार्रवाई है। यहाँ यह भी स्पष्ट नहीं किया गया कि जो मेडिकल तौर-तरीकों से नहीं गुज़रना चाहते उनके लिए क्या विकल्प रहेगा।

-कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रांसजेंडर्स के खिलाफ होने वाले अपराधों को भी प्रभावी ढंग से स्पष्ट नहीं किया गया और ना ही उनके लिए कोई दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान है।

-समुदाय ने सदियों तक ऐतिहसिक भेदभाव झेला है। इसके बावजूद ना उन्हें शिक्षा और ना ही रोज़गार के लिए किसी आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

-हिंसा और भेदभाव से बचाने के लिए भी विधेयक में कोई संरक्षण नहीं दिया गया है।

ज़ाहिर है एक ऐसे विधेयक की आवश्यकता है जो ट्रांसजेंडर के अधिकारों और सरंक्षण को और प्रभावी ढंग से सम्बोधित करे। अधिकांश अपना लिंग बदलने की ख्वाहिश रखते हैं लेकिन यह सबके लिए आसान नहीं है। साल 2022 -23 में 105 ऐसी सर्जरी हुई हैं। वैसे केरल राज्य ने अवश्य सभी सरकारी संवादों में थर्ड जेंडर या अदर जेंडर के स्थान पर केवल ट्रांसजेंडर शब्द का प्रयोग किया जाने का प्रावधान किया है । बेशक देश में कई ट्रांसजेंडर ने अपनी पहचान के साथ अपने वजूद को बनाया है। शिव लक्ष्मी नारायण और नाज जोशी ऐसे ही नाम हैं। इनमें साहस है अपने समुदाय के कष्ट को शब्द देने का ,न्याय दिलाने का। ये बेहतरीन वक्ता हैं और समुदाय की तकलीफ़ को खूब समझते हैं। इनकी ज़िंदगियाँ आज किसी प्रेरणा से कम नहीं हैं। लक्ष्मी कहती हैं -"हम जैसे लोग आधे शिव और आधी शक्ति का रूप हैं।"

  वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा  

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नईदुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले लाडली मीडिया अवार्ड के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।)
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