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प्रश्न :
प्रश्न: जैन धर्म ने स्याद्वाद (सापेक्ष कथनपद्धति का सिद्धांत) और अनेकान्तवाद (अनेक दृष्टिकोणों का सिद्धांत) पर बल दिया। बहुलतावादी समाज में लोकतांत्रिक विमर्श और सहिष्णुता को सुदृढ़ करने में इनकी प्रासंगिकता का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)
28 Aug, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- जैन दर्शन के स्याद्वाद और अनेकांतवाद को संक्षेप में बताते हुए उत्तर दीजिये।
- लोकतांत्रिक विमर्श को सुदृढ़ करने तथा बहुलतावादी समाज में सहिष्णुता को विकसित करने में इनकी प्रासंगिकता स्पष्ट कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
जैन दर्शन, स्याद्वाद (सशर्त सत्य: सभी दृष्टिकोण संदर्भ-बद्ध हैं) और अनेकांतवाद (अपरिग्रह: यथार्थ के अनेक पक्ष होते हैं) के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि हमें बौद्धिक विनम्रता रखनी चाहिये तथा विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मान करना चाहिये।
- ये सिद्धांत बहुलतावादी समाज में लोकतांत्रिक विमर्श और सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने के लिये एक दृढ़ दार्शनिक आधार प्रदान करते हैं।
मुख्य भाग:
लोकतांत्रिक विमर्श को सुदृढ़ बनाने में प्रासंगिकता:
- संवाद और विचार-विमर्श को प्रोत्साहित करना
- अनेकांतवाद विविध दृष्टिकोणों की स्वीकृति को बढ़ावा देता है, जो संसदीय बहसों, संघीय वार्ताओं और नीतिगत विचार-विमर्श का आधार है।
- उदाहरण: समान नागरिक संहिता, कृषि कानूनों या पर्यावरण नीति पर बहस के लिये बहु-दृष्टिकोणीय विचार-विमर्श की आवश्यकता होती है।
- ध्रुवीकरण और हठधर्मिता पर अंकुश
- स्याद्वाद सर्वथा-निश्चयात्मक दावों को संयमित करता है तथा सामंजस्य को प्रोत्साहित करता है। वैचारिक ध्रुवीकरण के युग में यह सुनने की प्रवृत्ति और भिन्नताओं के प्रति सम्मान की संस्कृति का पोषण करता है।
- यह 'मेरी ही राह – अन्य कोई नहीं' जैसे संकुचित दृष्टिकोण को चुनौती देता है तथा जटिल विषयों जैसे: आर्थिक नीतियाँ, सामाजिक सुधार या राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति अधिक सूक्ष्म एवं बहुपक्षीय समझ विकसित करता है।
- आम सहमति निर्माण को बढ़ावा
- विभिन्न दृष्टिकोणों की वैधता को स्वीकार करने से निर्णय-प्रक्रिया में परस्पर-विरोधी हितों के बीच संतुलन संभव हो पाता है।
- उदाहरण: GST सुधारों में सहकारी संघवाद के माध्यम से विविध प्रांतीय हितों में सामंजस्य स्थापित किया गया।
- अल्पसंख्यकों की आवाज़ और समावेशिता सुनिश्चित करना
- अनेकांतवाद समाज में बहुलता को सुनिश्चित करते हुए उपेक्षित स्वरूपों के प्रति सम्मान की भावना जागृत करता है, जिससे बहुलतावादी समाज का निर्माण सुनिश्चित होता है।
- उदाहरण: सकारात्मक कार्रवाई नीतियों का समर्थन 'योग्यता के निषेध' के रूप में नहीं, अपितु 'सामाजिक यथार्थ की स्वीकृति' के रूप में किया जाता है।
बहुलतावादी समाज में सहिष्णुता को मज़बूत करने में प्रासंगिकता
- सांस्कृतिक और धार्मिक सद्भाव
- विभिन्न धर्मों और दर्शनों को सत्य की आंशिक अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करने की प्रेरणा देता है।
- उदाहरण: भारत का धर्मनिरपेक्षता का मॉडल निषेध पर आधारित नहीं है, बल्कि 'सर्वधर्मसमभाव' (सभी धर्मों के प्रति समान आदर) पर आधारित है।
- विविधता के बीच सामाजिक एकता
- निरंकुशता को अस्वीकार करके और बहुलता को अपनाकर भारत की भाषा, जाति एवं जातीयता की विविधता को प्रबंधित करने में सहायता करता है।
- सहानुभूति और विनम्रता को बढ़ावा देना:
- अपने ही दृष्टिकोण को आंशिक रूप से सही मानने का भाव व्यक्ति में विनम्रता और सहानुभूति उत्पन्न करता है।
- यह एक कार्यशील बहुलतावादी समाज के लिये अत्यंत आवश्यक गुण है। इससे व्यक्ति दूसरों के दृष्टिकोण से संसार को देख पाता है और उनके संघर्षों तथा विश्वासों की वैधता को स्वीकार करता है।
सीमाएँ और चुनौतियाँ
- सापेक्षतावाद का जोखिम: अनेक दृष्टिकोणों पर अत्यधिक बल देना नैतिक या आध्यात्मिक सापेक्षतावाद (Relativism) को जन्म दे सकता है, जिससे न्याय, अधिकार या शासन के ठोस सिद्धांत कमज़ोर पड़ सकते हैं।
- निर्णय लेने में अक्षमता: प्रत्येक दृष्टिकोण (स्याद्वाद) का अति-विश्लेषण नीति-निर्माण की गति धीमी कर सकता है अथवा आपात स्थितियों में निर्णय लेने की क्षमता को बाधित कर सकता है।
निष्कर्ष
“समाज की वास्तविक शक्ति विचारों की एकरूपता में नहीं, बल्कि विविध दृष्टिकोणों के सामंजस्य में निहित होती है।”
जैन दर्शन के 'अनेकांतवाद' और 'स्याद्वाद' बौद्धिक विनम्रता, उदारता एवं सहिष्णुता के सिद्धांतों को व्यक्त करते हैं, जो भारत के लोकतंत्र तथा बहुलतावाद की भावना के साथ गहराई से जुड़े हैं। यद्यपि ये दृढ़ संवैधानिक प्रतिबद्धताओं का स्थान नहीं ले सकते, फिर भी ये एक बहुलतावादी समाज में संवाद, समावेशिता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिये एक दार्शनिक आधार प्रदान करते हैं।
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