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ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    “गठबंधन सरकारों के दौर में राज्यपाल की भूमिका केंद्र के एक एजेंट के रूप में ज्यादा परिलक्षित होती है।” समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।

    23 Jun, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण

    • प्रभावी भूमिका में राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट करें।
    • तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में प्रश्नगत कथन को स्पष्ट करते हुए राज्यपाल की भूमिका का मूल्यांकन करें।
    • प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें।

    भारत का संविधान संघात्मक है, इसमें संघ तथा राज्यों के शासन के संबंध में प्रावधान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 153-156, 161,163, 164 (1) तथा 213(1) में राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों को उपबंधित किया गया है।

    संघीय व्यवस्था में राज्यपाल राज्य और कार्यपालिका के औपचारिक प्रमुख के रूप में काम करता है, विशेषकर तब, जब राजनीतिक उथल-पुथल होती है। ऐसी स्थिति में जहाँ दो या अधिक दल सरकार बनाने का दावा पेश कर रहे हों, राज्यपाल को कानूनी एवं संवैधानिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए निर्णय करना होता है। परंतु वर्तमान में राज्यपाल पद की प्रवृत्ति में व्यापक भिन्नता देखी गई है। इसकी नज़ीर कर्नाटक विधानसभा चुनावों में देखी गई। 

    कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। केंद्र में सत्ताधारी दल भाजपा 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी, तो कांग्रेस दूसरे और जेडीएस तीसरे स्थान पर रहीं। पर्याप्त संख्या बल न होने के बावजूद भी भाजपा ने राज्यपाल से मुलाक़ात कर सरकार बनाने का दावा पेश किया, जबकि कांग्रेस के समर्थन के बाद जेडीएस ने भी पर्याप्त संख्या बल का दावा करते हुए गठबंधन सरकार बनाने के लिये राज्यपाल से मुलाक़ात की। परंतु, राज्यपाल द्वारा सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को सरकार बनाने की अनुमति दी गई। इसके अतिरिक्त, ऐसा भी कई बार कई राज्यों में (अभी कुछ समय पूर्व मणिपुर, मेघालय और गोवा में राज्य सरकारों के गठन में) देखा गया है कि केंद्रीय सत्ताधारी दल के राज्य में दूसरे या तीसरे स्थान पर आने के बावजूद राज्यपाल द्वारा गठबंधन सरकारों को मान्यता दी गई।

    उपर्युक्त उदाहरणों के माध्यम से देखा जाए तो राज्यपाल की भूमिका यहाँ राज्य के संवैधानिक प्रमुख से अधिक केंद्र के एजेंट के रूप में परिलक्षित होती है। परंतु राज्यपाल का यह निर्णय उसके स्वविवेक पर निर्भर होता है। ध्यातव्य है कि अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात् राज्यपाल स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद् का सुझाव लेने के लिये बाध्य नहीं होगा।  राज्यपाल की इन विवेकाधीन शक्तियों पर न्यायालय भी प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। परंतु 1994 के बोम्मई जजमेंट में न्यायालय ने कहा कि “किसी भी राज्य सरकार का बहुमत परीक्षण राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये तथा राज्य सरकारों को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।”

    केंद्र-राज्यों के संबंधों पर अब तक तीन आयोग और दो समितियाँ गठित की जा चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद भी राज्यपाल का पद विवाद से बाहर नहीं आ पाया है। 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग, 1969 में राजमन्नार समिति, 1970 में भगवान सहाय समिति, 1988 में सरकारिया आयोग तथा 2011 में पुंछी आयोग ने राज्यपालों की भूमिका को लेकर कई प्रकार की सिफारिशें दी थीं, इनमें राज्यपाल की नियुक्ति मुख्यमंत्री के परामर्श से, स्वविवेकाधीन प्रयोग की जाने वाली शक्तियों के बारे में पर्याप्त स्पष्टीकरण, किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में राज्यपाल द्वारा विधानसभा का अधिवेशन बुलाना तथा अधिवेशन में बहुमत से चुने गए व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करना आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं।

    आज, जबकि राज्यों के राजभवन चुनावों में हारे हुए या चुनाव लड़ने के अयोग्य बुजुर्ग व्यक्तियों के लिये आरामग़ाह बन गए हैं, ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि राज्यपाल की भूमिका पर बहस होनी चाहिये क्योंकि यह एक संवैधानिक पद है और इस पद पर आसीन व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी राजनीतिक निष्ठाओं को भूलकर निष्पक्ष ढंग से काम करे।

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