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ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    दलबदल विरोधी कानून का नेक मकसद सरकारों में स्थिरता लाना है। हालाँकि इसे कभी-कभी लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध भी कहा जाता है। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    28 Sep, 2021 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण

    • दलबदल विरोधी कानून का मुख्य उद्देश्य लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • दल-बदल विरोधी कानून के कार्यान्वयन से उभरने वाले मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
    • कानून की प्रभावोत्पादकता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिये कुछ उपाय सुझाइये।

    परिचय

    दसवीं अनुसूची - जिसे दल-बदल विरोधी अधिनियम के रूप में जाना जाता है, को वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से पारित किया गया तथा यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता का प्रावधान निर्धारित करती है।

    हालाँकि कुछ मामलों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा और मणिपुर में राजनीतिक दलबदल से लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट देखी गई है।

    दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित मुद्दे:

    • प्रतिनिधि लोकतंत्र को कमज़ोर करना: दलबदल विरोधी कानून के लागू होने के पश्चात् सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना होता है।
      • यह उन्हें किसी भी मुद्दे पर अपने निर्णय के अनुरूप वोट देने की स्वतंत्रता नहीं देता है जिससे प्रतिनिधि लोकतंत्र कमज़ोर होता है।
    • विधायिका को कमज़ोर करना: एक निर्वाचित विधायक या सांसद की मुख्य भूमिका नीति, विधेयक/बिल और बजट की जाँच करना और निर्णय लेना है।
      • इसके विपरीत सांसद किसी भी वोट का समर्थन या विरोध करने के लिये पार्टी के समर्थन में सिर्फ एक संख्या बनकर रह जाता है।
    • संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना: संसदीय रूप में सरकार प्रश्नों और प्रस्तावों के माध्यम से प्रतिदिन जवाबदेह होती है और उसे किसी भी समय लोकसभा के अधिकांश सदस्यों का समर्थन खो देने पर हटाया जा सकता है।
    • अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका: कई उदाहरणों में अध्यक्ष (आमतौर पर सत्ताधारी दल से) ने अयोग्यता पर निर्णय लेने में देरी की है।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को रोकने की कोशिश की है कि अध्यक्ष (स्पीकर) को तीन महीने में मामले का फैसला करना है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि अगर स्पीकर ऐसा नहीं करता है तो क्या होगा।
    • विभाजन की कोई मान्यता नहीं: 91वें संवैधानिक संशोधन 2004 के कारण दल-बदल विरोधी कानून ने दल-बदल विरोधी शासन को एक अपवाद बनाया।
      • इसके अनुसार यदि किसी दल के दो-तिहाई सदस्य 'विलय' के लिये सहमत हों तो इसे दल-बदल नहीं माना जाएगा।
      • हालाँकि यह संशोधन एक विधायक दल में 'विभाजन' को मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके बजाय 'विलय' को मान्यता देता है।

    आगे की राह:

    • अंतर-पार्टी लोकतंत्र को मज़बूत करना: यद्यपि सरकार की स्थिरता एक मुद्दा है जो कि लोगों के अपने दलों से अलग होने के कारण है, इसके लिये पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा।
    • राजनीतिक दलों को विनियमित करना: भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले कानून की प्रबल आवश्यकता है। इस तरह के कानून में राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाया जाना चाहिये, साथ ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मज़बूत करना चाहिये।
    • निर्णायक शक्तियों से अध्यक्ष को राहत देना: सदन के अध्यक्ष का दल-बदल के मामले में अंतिम प्राधिकारी होना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को प्रभावित करता है।
      • इस संदर्भ में इस शक्ति को उच्च न्यायपालिका या चुनाव आयोग (दूसरी एआरसी रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित) को हस्तांतरित करने से दल-बदल के खतरे को रोका जा सकता है।
    • दल-बदल विरोधी कानून के दायरे को सीमित करना: प्रतिनिधि लोकतंत्र को दल-बदल विरोधी कानून के हानिकारक प्रभाव से बचाने के लिये कानून का दायरा केवल उन कानूनों तक सीमित किया जा सकता है, जहाँ सरकार की हार से विश्वास की हानि हो सकती है।

    निष्कर्ष

    भारत में दलबदल का खतरा कई मुद्दों में से एक है जो भारत में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये समग्र चुनावी सुधार करने की आवश्यकता है।

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