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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    भारत में श्रमिक आंदोलनों के उदय में औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के परस्पर विरोधी तत्त्वों ने किस प्रकार अपनी भूमिका निभाई एवं आरंभिक राष्ट्रवादियों की इस पर क्या प्रतिक्रिया हुई? (250 शब्द)

    16 Apr, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाज

    उत्तर :

    प्रश्न विच्छेद

    ♦ श्रमिक आंदोलन के उदय में औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के परस्पर विरोधी तत्त्वों को दिखाना है।

    ♦ श्रमिक आंदोलनों के संदर्भ में आरंभिक राष्ट्रवादियों की प्रतिक्रिया को बताना है।

    हल करने का दृष्टिकोण

    ♦ भूमिका लिखें।

    ♦ श्रमिक आंदोलनों के उदय में औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के परस्पर विरोधी तत्त्वों को दिखाना है।

    ♦ आरंभिक राष्ट्रवादियों की श्रमिक आंदोलनों के संदर्भ में प्रतिक्रिया बतानी है।

    ♦ संक्षेप में आगे के श्रमिक आंदोलनों एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के संबंधों को बताते हुए उत्तर समाप्त करें।


    उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में आधुनिक उद्योग धंधों की स्थापना तथा रेलवे, कपास एवं जूट उद्योगों और चाय बगानों आदि के विकास के कारण आधुनिक श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। औपनिवेशिक तथा पूंजीवादी शोषण के विरोधी तत्त्वों ने श्रमिक आंदोलनों के उदय में भूमिका निभाई तथा इस पर भारतीय राष्ट्रवादियों की प्रतिक्रिया समय के अनुसार अलग-अलग रही।

    श्रमिक आंदोलनों के उदय में औपनिविशिक शोषण के अंर्तगत उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासक तथा विदेशी पूंजीपतियों को शामिल किया जा सकता है। इन तत्त्वों की उपस्थिति ने पूंजीवादी शोषण एवं कठिनाइयों, जैसे- कम मज़दूरी, कार्य के लंबे घंटे तथा कारखानों में आधारभूत सुविधाओं का अभाव आदि को और अधिक बढ़ा दिया।

    उपनिवेशवादी शासकों की मदद से विदेशी पूंजीपतियों ने कानून के माध्यम से, विशेषकर बागान मालिकों ने मज़दूरों को कैद करने, सज़ा देने और काम छोड़कर जाने से रोकने के अधिकार प्राप्त कर लिये थे। यहीं कारण है कि मज़दूर वर्ग की पहली संगठित हड़ताल वाली ब्रिटिश स्वामित्व एवं प्रबंधन रेलों में हुई। उदाहरण के लिये ग्रेट इंडिया पेनिन्सुलर रेलवे में हड़ताल। इसे लगभग सभी राष्ट्रवादी अखबारों ने पूर्ण समर्थन दिया।

    वहीं भारतीय पूंजीपति स्वामित्व वाले कारखानों में भी श्रमिकों की स्थिति दयनीय थी। यहाँ पर भी काम के घंटों, कम मज़दूरी एवं आधारभूत सुविधाओं को लेकर समस्या व्याप्त थी। इस संदर्भ में सरकार ने 1881 एवं 1891 में कारखाना अधिनियम बनाया। लेकिन इसका उद्देश्य ब्रिटिश उत्पादकों के हितों की रक्षा करना था क्योंकि:

    ब्रिटिश उत्पादकों की भारतीय उत्पादकों से प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा था।

    भारत में ब्रिटिश उत्पादकों का बाज़ार सिकुड़ता जा रहा था।

    इसलिये आरंभिक राष्ट्रवादियों ने इन कारखाना अधिनियमों का विरोध किया क्योंकि उनका मानना था कि:

    भारतीय उद्योग अभी शैशवास्था में है, इसलिये श्रम कानूनों का इस पर विपरीत असर पड़ेगा।

    श्रम कानूनों से भारतीय उत्पादकों की बाज़ार में बढ़ी हुई प्रतिस्पर्द्धा कम हो जाएगी।

    इस तरह से यह एक विरोधाभासी स्थिति थी क्योंकि श्रम कानूनों से श्रमिक वर्ग एवं विदेशी पूंजीपतियों को फायदा था वहीं, इससे भारतीय उत्पादकों का नुकसान हो रहा था। इससे भारतीय सूती कपड़ा मिलों में होने वाली श्रमिक हड़तालों को भारतीय राष्ट्रवादियों का समर्थन नहीं मिला।

    अत: श्रमिक आंदोलनों के प्रति आरंभिक राष्ट्रवादियों की प्रतिक्रिया भी विरोधाभाषों से भरी थी। एक ओर वे ब्रिटिश स्वामित्व वाले कारखानों एवं उद्योगों में होने वाले श्रमिक आंदोलनों का समर्थन करते थे तो वहीं, भारतीय स्वामित्व वाले कारखानों में होने वाली हड़तालों के प्रति निष्क्रिय रहे।

    प्रारंभिक राष्ट्रवादियों का मानना था कि वर्गीय आधार पर आंदोलनों के समर्थन से राष्ट्रीय आंदोलन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। वे नहीं चाहते थे कि भारतीय जनता भीतर से किसी भी तरह विभाजित हो। भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के दूसरे अधिवेशन में कॉन्ग्रेस को केवल उन्हीं मुद्दों तक सीमित रहने को कहा गया जिनमें पूरे राष्ट्र की भागीदारी हो तथा जो विभिन्न वर्गों का पारस्परिक समायोजन करता हो।

    यद्यपि आगे चलकर स्वदेशी आंदोलन तथा रूस की साम्यवादी क्रांति की सफलता के बाद 1920 में आल इंडिया ट्रेड यूनियन की स्थापना से मज़दूर आंदोलनों की मुखरता बढ़ती गई। कॉन्ग्रेस में वामपंथी धारा के विकास के बाद श्रमिक आंदोलन अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष का एक हिस्सा बन गया।

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