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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ‘अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता’ के संदर्भ में भारत के पंचशील सिद्धांतों को सदैव सराहना मिली है किंतु इन आदर्शों के कारण विदेश नीति में आई कठोर यर्थाथवाद की कमी के कारण देश ने भारी कीमत भी चुकाई है। इस संबंध में अपना मत प्रकट करें।

    14 Jul, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    भारत की विदेश नीति इसके स्वतंत्रता संघर्ष के गांधीवादी मूल्यों पर आधारित है। यह गांधीवादी विचार ही ये जिन्होंने भारत की आजादी के आरंभिक दशकों में विदेश नीति का स्वर निश्चित किया। ‘पंचशील सिद्धांत’ भारतीय विदेश नीति की बहुत पहले की अवस्था से जुड़ा है। संभवतः नेहरू ने इसे नीति का मध्य बिंदु माना जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता की मशाल लिये खड़ा है। कुल लोग इन सिद्धांतों में ‘आदर्शवाद’ की प्रशंसा करते हैं तो अन्य इसके यथार्थवाद के लिये काफी निंदा भी करते हैं।

    पंचशील सिद्धांतों को इस दौर में भी राजनयिकता का उच्च ‘वाटर मार्क’ माना जाता है। पंचशील में राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व या राज्यों के बीच शासकीय संबंधों के लिये पाँच सिद्धांत हैं। इनका पहला औपचारिक कूटीकरण संधि के रूप में उस समय हुआ जब 1954 में चीन और भारत के मध्य समझौता हुआ। जिन पाँच सिद्धांतों का राज्यों को पालन करना है, वे निम्नलिखित हैं- 

    • सभी देशों द्वारा अन्य देशों के क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना।
    • दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
    • दूसरे देश पर आक्रमण न करना।
    • परस्पर सहयोग व लाभ को बढ़ावा देना।
    • शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना। 

    पंचशील इस आधार पर आश्रित था कि जो राज्य साम्राज्यवादी काल के बाद स्वतंत्र हो गए थे, वे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नई व सैद्धांतिक सोच विकसित करेंगे। नेहरू ने कहा था- "यदि ये सिद्धांत सभी देशों के आपसी संबंधों में शामिल हो जाते हैं तो निःसंदेह शायद ही कोई विवाद हो और कोई युद्ध हो।"

    परंतु, पंचशील भारत के लिये एक दुखद घटना के समान रह गया। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का परिणाम 1962 का युद्ध था। पंचशील समझौता 8 वर्षों के लिये निश्चित हुआ था (1954-1962) लेकिन जब यह समाप्त हुआ तब इसके नवीकरण के प्रावधान को उठाया ही नहीं गया।

    भारत की विदेश नीति में आदर्शवाद के आधिक्य के चलते कठोर यथार्थवाद में आई कमी से भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ी हैं। भारत की विदेश नीति की कुछ गलतियाँ निम्नलिखित रही-

    • 1948 में कश्मीर के मुद्दे को यू.एन. में ले जाना।
    • चीन के प्रति ‘भाई-भाई’ की नीति अपनाना।
    • नेपाल को पूर्णतः भारतीय संरक्षा प्रणाली में शामिल करने का अवसर खोना।
    • चीन के मुकाबले तिब्बत के स्वायत्त राज्य की स्थिति का समर्थन करने में असफलता।
    • आजादी के बाद गांधी जी के हठ से विवश हो पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपए देना जबकि वह कश्मीर पर आक्रमण कर चुका था।
    • 1972 में पाकिस्तान के 90000 सैनिक भारत के पास बंदी थे, इसके बदले पाकिस्तान से अपनी शर्तें न मनवा पाना आदि।

    अंततः यह कहना ही तर्कसंगत रहेगा कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में नीति तैयार करते समय राष्ट्रीय हितों केा प्राथमिकता देना ‘नैतिकता’ से भी अधिक जरूरी व यथार्थवादी विचार है। कठोर यथार्थवाद के आलोक में ही विदेश नीति का परिचालन उचित तरीके से किया जा सकता है, न कि महज भावनाओं और आदर्शों में बहकर।

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