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प्रिलिम्स फैक्ट्स

प्रारंभिक परीक्षा

इसरो का सबसे भारी प्रक्षेपण: ब्लूबर्ड ब्लॉक-2

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

इसरो ने अमेरिकी कंपनी AST स्पेसमोबाइल द्वारा निर्मित अपने अब तक के सबसे भारी उपग्रह ब्लूबर्ड ब्लॉक-2 (6,100 किलोग्राम) का प्रक्षेपण लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (LVM-3) रॉकेट के माध्यम से कर एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि दर्ज की, जिससे भारत की मज़बूत हेवी-लिफ्ट प्रक्षेपण क्षमता का प्रदर्शन हुआ।

सारांश

  • 6,100 किलोग्राम वज़न वाला ब्लूबर्ड ब्लॉक-2 इसरो द्वारा प्रक्षेपित अब तक का सबसे भारी पेलोड है, जिसे प्रत्यक्ष मोबाइल 4G/5G कनेक्टिविटी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से लो अर्थ ऑर्बिट (LEO: 160–2,000 कि.मी.) में स्थापित किया गया है।
  • C32 क्रायोजेनिक चरण, अर्द्ध-क्रायोजेनिक इंजनों तथा बूटस्ट्रैप री-इग्निशन जैसी LVM-3 में की गई उन्नतियाँ इसकी पेलोड वहन क्षमता को और अधिक सुदृढ़ बनाती हैं।

ब्लूबर्ड ब्लॉक-2 क्या है?

  • परिचय: ब्लूबर्ड ब्लॉक-2 इसरो द्वारा कक्षा में स्थापित किया गया अब तक का सबसे भारी पेलोड है, जिसने 5,700 किलोग्राम (वनवेब उपग्रह) के पूर्व रिकॉर्ड को पार कर लिया है।
  • उद्देश्य: यह उपग्रह प्रत्यक्ष मोबाइल कनेक्टिविटी प्रदान करेगा, जिससे विशेष ग्राउंड स्टेशनों की आवश्यकता के बिना सीधे मोबाइल फोनों पर 4G और 5G सेवाएँ उपलब्ध हो सकेंगी।
  • वाणिज्यिक महत्त्व: यह LVM-3 के माध्यम से इसरो का तीसरा वाणिज्यिक मिशन है, इससे पूर्व वर्ष 2022 और 2023 में दो वनवेब उपग्रह प्रक्षेपण किये गए थे।
    • स्पेसएक्स के फाल्कन-9 तथा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के एरियान-6 जैसे वैश्विक विकल्पों की उपस्थिति के बावजूद, LVM-3 कम लागत पर हेवी-लिफ्ट प्रक्षेपण में इसरो की क्षमता को सुदृढ़ रूप से रेखांकित करता है।

लो अर्थ ऑर्बिट (LEO)

  • परिचय: LEO पृथ्वी की सतह से लगभग 160 से 2,000 किमी की ऊँचाई तक फैली होती है, जहाँ उपग्रह लगभग हर 90-120 मिनट में एक परिक्रमा पूरी करते हैं।
  • LEO में उपग्रह: इस कक्षा में संचार, पृथ्वी अवलोकन, वैज्ञानिक मिशनों और नेविगेशन हेतु प्रयुक्त उपग्रह स्थित होते हैं।
  • कक्षा के प्रकार: जहाँ अधिकांश LEO उपग्रह वृत्ताकार कक्षाओं का अनुसरण करते हैं, वहीं कुछ उपग्रह दीर्घवृत्ताकार कक्षाओं में भी संचालित होते हैं।
  • विशेष दीर्घवृत्ताकार कक्षाएँ: मोल्निया और टुंड्रा कक्षाएँ उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों के ऊपर अधिक समय तक उपस्थिति प्रदान करती हैं तथा उन क्षेत्रों में संचार एवं अवलोकन के लिये उपयोग की जाती हैं, जहाँ भू-स्थिर कक्षा की कवरेज सीमित होती है।

LVM3 प्रक्षेपण यान क्या है?

  • परिचय: LVM3 इसरो का सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली हेवी-लिफ्ट प्रक्षेपण यान है, जिसमें तीन चरण होते हैं। यह रॉकेट भू-समकालिक स्थानांतरण कक्षा (GTO) में लगभग 4,000 किलोग्राम तक तथा LEO में लगभग 8,000 किलोग्राम तक का पेलोड ले जाने में सक्षम है।
    • इसे पहले जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल मार्क–III (GSLV Mk III) के नाम से जाना जाता था और इसका पहला प्रक्षेपण दिसंबर 2014 में हुआ था।
  • तीन चरण: 
    • प्रथम चरण: इसमें दो बड़े S200 ठोस रॉकेट बूस्टर उपयोग किये जाते हैं, जो ठोस प्रणोदक HTPB (हाइड्रॉक्सिल-टर्मिनेटेड पॉलीब्यूटाडाइन) से संचालित होते हैं।
    • द्वितीय चरण (कोर): यह द्रव ईंधन से संचालित चरण है, जिसमें दो विकास इंजन लगे होते हैं। इसमें UDMH (अनसिमेट्रिकल डाइमेथाइलहाइड्राज़ीन) और नाइट्रोजन टेट्रॉक्साइड का दहन किया जाता है।
    • तृतीय चरण (ऊपरी): इसमें C25 क्रायोजेनिक चरण का उपयोग होता है, जो CE20 इंजन से सुसज्जित है और द्रव हाइड्रोजन तथा द्रव ऑक्सीजन का दहन करता है।
  • उच्च दक्षता हेतु इंजन अनुकूलन:
    • क्रायोजेनिक चरण उन्नयन: इसरो अधिक थ्रस्ट और ईंधन क्षमता के लिये C32 क्रायोजेनिक चरण का विकास कर रहा है।
    • सेमी-क्रायोजेनिक इंजन विकास: इसरो केरोसीन और द्रव ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सेमी-क्रायोजेनिक इंजनों का विकास कर रहा है, जिससे LEO में पेलोड क्षमता 8,000 किलोग्राम से बढ़कर 10,000 किलोग्राम हो जाएगी।
    • बूटस्ट्रैप रीइग्निशन प्रौद्योगिकी: इसरो क्रायोजेनिक इंजनों के लिये बूटस्ट्रैप रीइग्निशन क्षमता विकसित कर रहा है, जिससे ऊपरी चरण को हीलियम जैसी बाह्य गैसों के बिना पुनः प्रज्वलित किया जा सकेगा। इससे ईंधन का भार कम होगा और बहु-कक्षा (मल्टी-ऑर्बिट) मिशनों के लिये पेलोड क्षमता में वृद्धि होगी।
  • भविष्य के मिशनों में भूमिका: मानव-सुरक्षा संबंधी अतिरिक्त पुनरावृत्त व्यवस्थाओं (Human-Safety Redundancies) के साथ संशोधित LVM-3 गगनयान मिशनों को समर्थन देगा और आगे चलकर भारत के प्रस्तावित अंतरिक्ष स्टेशन भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिये मॉड्यूलों का प्रक्षेपण भी करेगा। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. ब्लूबर्ड ब्लॉक-2 (BlueBird Block-2) क्या है?
ब्लूबर्ड ब्लॉक-2, AST SpaceMobile द्वारा विकसित 6,100 किलोग्राम वजनी एक वाणिज्यिक उपग्रह है, जो निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO: 160 किमी से 2,000 किमी.) में रहते हुए सीधे मोबाइल उपकरणों को 4G/5G कनेक्टिविटी प्रदान करता है।

2. लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) का क्या महत्त्व है?
लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में संचार, पृथ्वी अवलोकन और नौवहन (नेविगेशन) उपग्रह संचालित होते हैं, जो कम विलंबता (Low Latency) के साथ वैश्विक कनेक्टिविटी सुनिश्चित करते हैं।

3. LVM-3 रॉकेट के चरण क्या हैं?
LVM-3 के तीन चरण होते हैं: S200 ठोस ईंधन बूस्टर, L110 द्रव-ईंधन कोर चरण और C25 क्रायोजेनिक ऊपरी चरण, जो भारी पेलोड (heavy-lift) मिशनों के लिये अनुकूलित हैं।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रश्न. भारत के उपग्रह प्रमोचित करने वाले वाहनों के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)

  1. PSLV से वे उपग्रह प्रमोचित किये जाते हैं जो पृथ्वी संसाधनों के मॉनिटरन उपयोगी हैं जबकि GSLV को मुख्यतः संचार उपग्रहों को प्रमोचित करने के लिये अभिकल्पित किया गया है।
  2.   PSLV द्वारा प्रमोचित उपग्रह आकाश में एक ही स्थिति में स्थायी रूप से स्थिर रहते प्रतीत होते हैं जैसा कि पृथ्वी के एक विशिष्ट स्थान से देखा जाता है।
  3.   GSLV Mk III, एक चार स्टेज वाला प्रमोचन वाहन है, जिसमें प्रथम और तृतीय चरणों में ठोस रॉकेट मोटरों का तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरणों में द्रव रॉकेट इंजनों का प्रयोग होता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) 2 और 3
(c) 1 और 2
(d) केवल 3

उत्तर: (a)


प्रश्न. निम्नलिखित में से किन कार्यकलापों में भारतीय दूर संवेदन (IRS) उपग्रहों का प्रयोग किया जाता है?

1. फसल की उपज का आकलन

2. भौम जल (ग्राउंडवॉटर) संसाधनों का स्थान-निर्धारण

3. खनिज का अन्वेषण

4. दूरसंचार

5. यातायात अध्ययन

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये।

(a) केवल 1, 2 और 3

(b) केवल 4 और 5

(c) केवल 1 और 2

(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (a)


प्रारंभिक परीक्षा

माइक्रोमीटियोराइड्स और ऑर्बिटल डेब्रिस

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

माइक्रोमीटियोराइड्स और ऑर्बिटल डेब्रिस (MMOD) से उत्पन्न खतरे ने अंतरिक्ष मलबे द्वारा चीन के शेनझोउ-20 कैप्सूल को नुकसान पहुँचाए जाने के बाद पुन: ध्यान आकर्षित किया है। गगनयान सहित मानव अंतरिक्ष उड़ानों के विस्तार के साथ उच्च-वेग वाले मलबे से अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा अब अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है।

माइक्रोमीटियोराइड्स और ऑर्बिटल डेब्रिस (MMOD) क्या हैं?

  • परिचय: माइक्रोमीटियोरॉइड्स प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले अत्यंत सूक्ष्म कण होते हैं, जिनका आकार कुछ माइक्रोमीटर से लेकर लगभग 2 मिमी तक होता है। ये मुख्यतः क्षुद्रग्रहों की टक्करों और धूमकेतुओं से उत्पन्न होते हैं।
    • ये अत्यंत उच्च वेग (11–72 किमी/सेकंड) से गति करते हैं, जिससे कक्षीय गति पर धूल के आकार के कण भी इतनी गतिज ऊर्जा ले जाते हैं कि वे अंतरिक्ष यान के ऑनबोर्ड प्रणालियों को गंभीर या विनाशकारी क्षति पहुँचा सकते हैं।
    • वहीं ऑर्बिटल डेब्रिस/कक्षीय मलबा, जिसे स्पेस जंक भी कहा जाता है, पृथ्वी की कक्षा में मौजूद मानव-निर्मित वस्तुओं से बना होता है जो अब किसी उपयोग में नहीं हैं, जैसे निष्क्रिय उपग्रह, रॉकेट के टुकड़े, टक्करों से उत्पन्न मलबा तथा उपग्रह-रोधी परीक्षणों के अवशेष।
      • ये सामान्यतः लगभग 10 किमी/सेकंड की गति से चलते हैं और टकराव की स्थिति में गंभीर क्षति पहुँचाने में सक्षम होते हैं।
      • बढ़ता हुए मलबे का घनत्व केसलर सिंड्रोम (Kessler Syndrome) नामक एक अनियंत्रित टकराव शृंखला का खतरा बढ़ाता है, जो कुछ कक्षाओं को अनुपयोगी बना सकता है।
  • वितरण: कक्षीय मलबा मुख्यतः 200 किमी से 2,000 किमी की ऊँचाई के बीच स्थित निम्न पृथ्वी कक्षा (LEO) में केंद्रित है। LEO में लगभग 10 सेमी से बड़े 34,000 के आसपास ट्रैक योग्य मलबा पिंड तथा 1 मिमी से अधिक आकार के 128 मिलियन से भी अधिक मलबे के कण पाए जाते हैं।
    • माइक्रोमीटियोराइड्स (सूक्ष्म उल्कापिंड) पूरे अंतरिक्ष में मौजूद हैं, लेकिन पृथ्वी के निकट गुरुत्वाकर्षण के कारण उनकी घनता थोड़ी अधिक होती है। ये पृथ्वी की कक्षा में कार्यरत अंतरिक्ष यानों पर प्रतिवर्ष अरबों सूक्ष्म टकराव उत्पन्न करते हैं।
  • अंतरिक्ष मलबे (Space Debris) प्रबंधन हेतु वैश्विक तंत्र: 
    • आउटर स्पेस ट्रिटी 1967 (भारत इसका हस्ताक्षरकर्त्ता है): इस संधि का अनुच्छेद VI राज्यों को सभी राष्ट्रीय अंतरिक्ष गतिविधियों के लिये ज़िम्मेदार बनाता है, जिसमें निजी गतिविधियाँ भी शामिल हैं, लेकिन इसके पालन के लिये सख्त कार्यान्वयन तंत्र नहीं है।
    • अंतर्राष्ट्रीय जिम्मेदारी पर संधि 1972 (भारत इसका हस्ताक्षरकर्त्ता है): यह पृथ्वी पर अंतरिक्ष वस्तुओं के नुकसान के लिये पूर्ण ज़िम्मेदारी निर्धारित करता है, जिसमें लापरवाही का कोई प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन प्रवर्तन क्षमता अप्रभावी है।
    • स्वैच्छिक UN दिशा-निर्देश (Deorbiting Guidelines): UN के स्वैच्छिक दिशा-निर्देश (Deorbiting Guidelines) उपग्रहों को 25 वर्षों के भीतर कक्षा से बाहर करने की अनुशंसा करते हैं, लेकिन केवल लगभग 30% उपग्रह इस सलाह का पालन करते हैं।
    • इंटर-एजेंसी स्पेस डेब्री कोऑर्डिनेशन कमिटी (IADC): यह NASA, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और ISRO जैसी एजेंसियों को एक साथ लाकर तकनीकी मानक विकसित करती है।
  • भारत के अंतरिक्ष मलबा न्यूनीकरण उपाय: भारत ने डेब्रिस फ्री स्पेस मिशन्स (DFSM) पहल शुरू की है, जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक सभी भारतीय अंतरिक्ष कार्यकर्त्ताओं (सार्वजनिक और निजी) के लिये शून्य-मलबा अंतरिक्ष मिशन प्राप्त करना है।

गगनयान क्रू की MMOD से सुरक्षा

  • गगनयान मिशन एक स्वतंत्र मानव अंतरिक्ष उड़ान है, जिसमें आपात परिस्थितियों में अंतरिक्ष स्टेशन से डॉकिंग का विकल्प नहीं है, इसलिये यान के भीतर सुरक्षा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • चूँकि मिशन की अवधि एक सप्ताह से कम है, इसलिये बड़े, सूचीबद्ध अंतरिक्ष मलबे से उत्पन्न जोखिम अत्यंत कम हैं तथापि छोटे, उच्च-वेग वाले सूक्ष्म उल्कापिंडों तथा कक्षीय मलबे से सुरक्षा अभी भी आवश्यक है।
  • इसके अनुरूप, इसरो ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत MMOD (सूक्ष्म उल्कापिंड एवं कक्षीय मलबा) सुरक्षा मानकों को अपनाया है, जिनमें व्हिपल शील्ड (Whipple shields) जैसी निष्क्रिय सुरक्षा प्रणालियाँ सम्मिलित हैं, जिन्हें कड़े मानव-रेटिंग मानकों की पूर्ति हेतु डिज़ाइन किया गया है। इन शील्डों का सत्यापन उन्नत सिमुलेशन उपकरणों तथा DRDO की टर्मिनल बैलिस्टिक्स रिसर्च लेबोरेटरी में किये गए हाइपर-वेलोसिटी इम्पैक्ट परीक्षणों के माध्यम से किया जाता है, जहाँ प्रक्षेप्य 5 कि.मी. प्रति सेकंड तक की गति से दागे जाते हैं।
    • भौतिक (व्हिपल) शील्डिंग: उपग्रहों में व्हिपल शील्ड का उपयोग किया जाता है, जिसमें एक बाहरी बंपर परत तथा एक आंतरिक पश्च भित्ति होती है, जिनके बीच पर्याप्त दूरी रखी जाती है।
    • बंपर आने वाले मलबे को विखंडित कर देता है, जिससे पश्च भित्ति तक पहुँचने से पहले ही उसकी ऊर्जा विस्तृत क्षेत्र में फैल जाती है।
      • यह विखंडन एवं प्रसार प्रभाव ऊर्जा को कम कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप पश्च भित्ति बिना विफल हुए आघात को अवशोषित कर लेती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. सूक्ष्म उल्कापिंड एवं कक्षीय मलबा (MMOD) क्या है?
सूक्ष्म उल्कापिंड प्राकृतिक रूप से उत्पन्न उच्च-वेग वाले अंतरिक्ष कण होते हैं, जबकि कक्षीय मलबा पृथ्वी की कक्षा में स्थित निष्क्रिय मानव-निर्मित वस्तुओं, जैसे उपग्रहों और रॉकेट अवशेषों से संबंधित होता है।

2. मलबे का आकार छोटा होने के बावजूद MMOD को खतरनाक क्यों माना जाता है?
अत्यधिक उच्च वेगों (72 कि.मी. प्रति सेकंड तक) के कारण, मिलीमीटर आकार के कण भी अंतरिक्ष यान प्रणालियों को गंभीर या विनाशकारी क्षति पहुँचा सकते हैं।

3. केसलर सिंड्रोम क्या है?
यह टक्करों की एक शृंखला की स्थिति को संदर्भित करता है, जिसमें मलबे की आपसी टक्करों से और अधिक मलबा उत्पन्न होता है, जिससे कुछ कक्षाएँ संभावित रूप से अनुपयोगी हो सकती हैं।

4. अंतरिक्ष मलबे के प्रबंधन हेतु वैश्विक तंत्र कौन-से हैं?
इनमें बाह्य अंतरिक्ष संधि (1967), दायित्व अभिसमय (1972) तथा इंटर-एजेंसी स्पेस डेब्रिस कोऑर्डिनेशन कमेटी द्वारा जारी तकनीकी दिशा-निर्देश शामिल हैं, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र की बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर समिति द्वारा अपनाया गया है। हालाँकि ये अधिकांशतः बाध्यकारी नहीं हैं।


रैपिड फायर

CAPF में अग्निवीरों के लिये आरक्षण

स्रोत: द हिंदू

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPFs) के ग्रुप-C पदों में पूर्व अग्निवीरों के लिये  आरक्षण को 10% से बढ़ाकर 50% करने का निर्णय लिया है, जो अग्निपथ योजना के तहत एक महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलाव को दर्शाता है।

  • पूर्व अग्निवीरों को फिजिकल स्टैंडर्ड टेस्ट (PST) और फिजिकल एफिशिएंसी टेस्ट (PET) से छूट दी जाएगी। हालाँकि, उन्हें अन्य उम्मीदवारों की तरह लिखित परीक्षाओं में उपस्थित होना अनिवार्य होगा।

अग्निपथ योजना

  • परिचय: जून 2022 में शुरू की गई यह एक अल्पकालिक सैन्य भर्ती कार्यक्रम है। इस योजना के तहत भर्ती होने वाले जवानों को अग्निवीर कहा जाता है। इसका उद्देश्य युवा, सक्रिय और तकनीकी-केंद्रित बल बनाए रखना है तथा साथ ही रक्षा कर्मियों के व्यय को अनुकूलित करना है।
    • वर्ष 2022 की भर्ती के लिये आयु सीमा 17.5–23 वर्ष थी, जबकि उसके बाद की भर्तियों के लिये इसे 17.5–21 वर्ष रखा गया, जो योजना में युवा शामिल करने पर विशेष ज़ोर को दर्शाता है।
  • पात्रता शर्तें: आवेदक भारतीय नागरिक होने चाहिये और संबंधित सेवा की निर्धारित शैक्षणिक, शारीरिक तथा चिकित्सा मानकों को पूरा करना अनिवार्य है।
  • भर्ती का स्वरूप: अग्निवीरों को चार वर्ष की निश्चित अवधि के लिये भर्ती किया जाता है। वे सेना, वायुसेना और नौसेना में अधिकारी से नीचे (PBOR) के पद पर चार वर्षों के लिये भर्ती किये जाते हैं, जिसमें छह महीने का प्रशिक्षण शामिल है।
  • सेवा के बाद निकास और स्थायी भर्ती: प्रत्येक अग्निवीर बैच का अधिकतम 25% केवल प्रदर्शन के आधार पर नियमित कर्मियों में भर्ती किया जा सकता है, जिसमें चयन का कोई स्वतः अधिकार नहीं होता। शेष कर्मियों को सेवा के बाद रोज़गार में सहायता के लिये कौशल प्रमाणपत्र प्रदान किया जाता है।
  • वेतन संरचना और सेवा निधि लाभ: अग्निवीर चार वर्षों में मासिक 30,000–40,000 रुपये कमाते हैं। वे वेतन का 30% अग्निवीर कॉर्पस फंड में योगदान करते हैं, जिसे सरकार मिलाकर देती है। निकास पर उन्हें लगभग 11.71 लाख रुपये का कर-मुक्त सेवा निधि पैकेज प्राप्त होता है, लेकिन पेंशन या ग्रेच्युटी नहीं।
    • सेवा के दौरान 48 लाख रुपये का गैर-योगदान जीवन बीमा कवर भी प्रदान किया जाता है।

और पढ़ें: अग्निपथ योजना


रैपिड फायर

काशीवाज़ाकी-कारीवा परमाणु संयंत्र और फुकुशिमा आपदा

स्रोत: द हिंदू

फुकुशिमा आपदा के लगभग 15 वर्ष बाद, जापान काशीवाज़ाकी-कारीवा परमाणु संयंत्र को पुनः चालू करने की योजना बना रहा है, लेकिन इस कदम के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं, जिसमें फुकुशिमा के बचे हुए पीड़ितों ने नवीन परमाणु सुरक्षा जोखिमों के प्रति चेतावनी दी है।

  • आयातित जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के लिये (जो जापान की विद्युत उत्पादन का 60–70% हैं), जापान AI डेटा केंद्रों से बढ़ती ऊर्जा मांग और डीकार्बोनाइज़ेशन लक्ष्यों को पूरा करने हेतु वर्ष 2040 तक परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी को दोगुना करके 20% करने की योजना बना रहा है।
    • इसे टोक्यो इलेक्ट्रिक पावर कंपनी (TEPCO) द्वारा संचालित किया जाता है, जो फुकुशिमा दाइची संयंत्र के लिये भी ज़िम्मेदार ऑपरेटर है। 
  • काशीवाज़ाकी-कारीवा परमाणु संयंत्र: यह स्थापित क्षमता के आधार पर विश्व का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र है, जो टोक्यो के पास स्थित है। 
  • फुकुशिमा परमाणु आपदा (2011): वर्ष 2011 के भूकंप और सुनामी ने परमाणु संयंत्र में शीतलक प्रणाली को निष्क्रिय कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप तीन रिएक्टरों में कोर मेल्टडाउन हुआ और बड़े पैमाने पर विकिरण का उत्सर्जन हुआ। यह चेर्नोबिल (1986) के बाद का सबसे गंभीर परमाणु हादसा था, जिसके कारण व्यापक स्तर पर विस्थापन और दीर्घकालीन निषेध क्षेत्र बनाए गए।

नोट: वर्ष 2025 तक भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता लगभग 8.18 GW है और देश ने वर्ष 2047 तक 100 GW का दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित किया है। इस विस्तार को तेज़ करने के लिये, शांति अधिनियम, 2025 निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए परमाणु रिएक्टर विकास के द्वार खोलता है, जो निवेश जुटाने और दक्षता सुधारने के उद्देश्य से एक बड़ा नीतिगत बदलाव है।

और पढ़ें: भारत का परमाणु ऊर्जा रोडमैप


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