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भारत में सिंचाई

वैश्विक स्तर पर आंकड़ों को देखें तो जल का सर्वाधिक उपयोग कृषि के क्षेत्र में किया जाता है, उसके बाद इसकी सबसे ज्यादा खपत औद्योगिक क्षेत्र में होती है तथा तीसरे स्थान पर सर्वाधिक उपयोग घरेलू आवश्यकताओं के लिये किया जाता है।

भारत की स्वतंत्रता के बाद कृषि क्षेत्र के विकास को ध्यान में रखते हुए सिंचाई के क्षेत्र में भी काफी काम किया गया। 1951 में भारत में कुल सिंचित क्षेत्र 22.6 मिलियन हेक्टेयर था जो कि अब लगभग 68.4 मिलियन हेक्टेयर हो चुका है। भारत निर्माण कार्यक्रम के तहत भी सिंचाई पर पर्याप्त बल दिया गया।

भारत में सिंचाई सुविधाओं की आवश्यकता:

1- भारत के अधिकांश हिस्सों में ऊष्ण जलवायु पाई जाती है जिससे अत्यधिक वाष्पोत्सर्जन होता है। इससे पानी की अधिक खपत होती है।
2- भारत के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा में असमानता पाई जाती है, जहाँ एक तरफ मेघालय में 1000 सेमी से अधिक वर्षा होती है तो वहीं लद्दाख में 25 सेमी से भी कम वर्षा होती है। इन कारणों से भी सिंचाई सुविधाओं का विकास आवश्यक हो जाता है, विशेषकर कम वर्षा वाले क्षेत्रों में।
3- भारत में अधिकांश वर्षा एक विशेष मौसम में ही होती है, शेष समय की फसलों को भी सिंचाई का लाभ मिले इसलिये भी इन सुविधाओं का महत्त्व बढ़ जाता है।
4- भारत की कुछ मिट्टियों में पानी की अधिक खपत होती है, जैसी रेतीली मिट्टी में। सिंचाई सुविधाओं के विकास से इनमें उत्पन्न होने वाली फसलों को भी पर्याप्त पानी उपलब्ध करवाया जा सकता है।

भारत में सिंचाई के महत्त्व को देखते हुए 2 जुलाई 2015 के दिन प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को स्वीकृति दी गई। इसका उद्देश्य सिंचाई सुविधाओं को प्रभावशाली बनाते हुए हर खेत तक किसी न किसी माध्यम से सिंचाई सुविधाओं को पहुंचाना है। इस योजना को 2026 तक के लिये बढ़ाया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर इस योजना की निगरानी 'अंतर मंत्रालई राष्ट्रीय संचालन समिति' द्वारा की जाती है। वहीं जिला स्तर पर जिला समिति द्वारा की जाती है। इस योजना में कृषि, जल संशाधन तथा ग्रामीण विकास मंत्रालय शामिल हैं। इसमें कृषि मंत्रालय सूक्ष्म सिंचाई की सुविधाओं के विकास में संलग्न है तथा ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास वर्षा जल संरक्षण से जुड़ी सुविधाओं के विकास का दायित्व है। इसके साथ ही जल संशाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय को जल वितरण प्रणालियों के विकास का दायित्व सौंपा गया है।

सिंचाई परियोजनाओं के प्रकार:

इनमें लघु सिंचाई परियोजनाएँ, मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ एवं वृहद सिंचाई परियोजनाएँ शामिल हैं।

लघु सिंचाई परियोजनाओं में 2000 हेक्टेयर से कम क्षेत्र शामिल होता है, इसमें तालाब, नलकूप, सूक्ष्म सिंचाई इत्यादि साधन शामिल होते हैं। आधे से अधिक (लगभग 62%) सिंचाई देश में इन्हीं माध्यमों से होती है। जून 2010 में राष्ट्रीय लघु/सूक्ष्म सिंचाई मिशन की शुरुआत की गई।

मध्यम सिंचाई परियोजनाओं में नहर सिंचाई प्रमुख माध्यम है और इसमें 2000 से 10 हजार हेक्टेयर तक का क्षेत्र शामिल होता है।

वृहद सिंचाई परियोजनाओं में 10 हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रों की सिंचाई होती है। इसमें बड़े बांधों का निर्माण भी शामिल है।

कई कारणों से बृहद सिंचाई परियोजनाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं मानी जा सकती। इनकी प्रमुख समस्याओं में उचित रखरखाव में कमी, वित्तीय समस्याएँ, गाद जम जाना, जल रिसाव, अति सिंचाई, विस्थापन, पुनर्वास, पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव इत्यादि हैं। सरकार इन समस्याओं को दूर करने के प्रयास कर रही है।

सिंचाई के प्रमुख स्रोत:

इन स्रोतों में प्रमुख रूप से नलकूप, तालाब, नहर, नदियाँ इत्यादि शामिल हैं। नलकूप सिंचाई का सबसे प्रमुख स्रोत माना जाता है, हरित क्रांति को सफल बनाने में भी इसकी प्रमुख भूमिका है। हालाँकि इससे भूजल स्तर में काफी गिरावट भी देखने को मिली है। तालाब सिंचाई मुख्य रूप से पूर्वी व दक्षिण भारत में प्रचलित है। तामिलनाडु के लगभग 19 प्रतिशत भाग में तालाब सिंचाई ही प्रचलित है। नहर से देश के लगभग 26 भाग में सिंचाई होती है। भारत में विश्व का सबसे बड़ा नहर तंत्र भी है।

सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं सिंचाई प्रणाली: किसी भी स्थान पर सिंचाई प्रणालियों का चयन मृदा, उच्चावच, पानी की उपलब्धता, फसल की आवश्यकता इत्यादि आधारों पर तय होता है। भारत में मुख्यत: चार प्रणालियाँ अपनाई जाती हैं। इसमें सतही सिंचाई, उप सतही सिंचाई, टपकन सिंचाई तथा फुहार सिंचाई शामिल है। सतही सिंचाई में जलप्लावित तथा सीमाबद्ध सिंचाई शामिल है, उप सतही सिंचाई में फसलों के जड़ वाले क्षेत्र में छिद्रयुक्त पाइपों के सहारे जल पहुँचाया जाता है। इससे कम पानी में सिंचाई हो जाती है पर यह लागत और रखरखाव के कारण अधिक लोकप्रिय नहीं है। फुहार सिंचाई में पाइपों से पानी खेत तक जाता है तथा उसके बाद बारिश की तरह फसलों पर छिड़काव किया जाता है। इससे पानी की बर्बादी कम होती है तथा मृदा अपरदन भी नहीं होता है। हालाँकि तेज हवा इसे प्रभावित करती है तथा इसकी लागत इतनी उच्च होती है कि आम किसान इसे लगवा नहीं पाता है। टपकन सिंचाई में प्लास्टिक के पाइप्स द्वारा फसलों की जड़ वाले क्षेत्र के पास पानी पहुँचाया जाता है। यह इजराइल, अमेरिका, स्पेन जैसे देशों में भी काफी लोकप्रिय तरीका है तथा प्रचलित है। इसमें मृदा अपरदन की भी दिक्कत नहीं होती है साथ ही उर्वरकों की भी बचत हो जाती है। अन्य प्रमुख सिंचाई प्रणालियों में सीढ़ीनुमा सिंचाई भी शामिल है। सीढ़ीनुमा सिंचाई मुख्य रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित है जहाँ समतल भूमि का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त फर्टिगेशन भी एक तरीका है जिसमें उर्वरक को जल में मिश्रित करके पौधे तक पहुँचाया जाता है।

दक्ष सिंचाई के लिए कुछ प्रमुख सुझाव:

1- सूक्ष्म सिंचाई पर बल दिया जाए और खरपतवार नियंत्रण पर काम किया जाए।
2- सिंचाई से पहले ही खेतों को समतल बनाया जाए, नालियों और क्यारियों का निर्माण हो तथा नियमित रूप से इनकी साफ-सफाई की जाती रहे।
3- प्रत्येक फसल की सिंचाई में पानी की उतनी ही मात्रा का प्रयोग किया जाए जितनी मात्रा का सुझाव कृषि वैज्ञानिकों/विशेषज्ञों द्वारा सुझाया जाए।

भारत एक कृषि प्रधान देश है और सिंचाई कृषि की आधारभूत आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र पर प्राथमिकता से ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि हर खेत तक पानी पहुँचाने का सपना साकार हो सके और कृषि उपज बढ़ाने, खाद्य सुरक्षा का दायरा बढ़ाने और गरीबी में कमी लाने में सहायता मिल सके।

  अमित सिंह  

अमित सिंह उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले से हैं। उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की है। वर्तमान में वे दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं।

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