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भारत में उपभोक्ता अधिकारों की स्थिति

वर्तमान समय बाज़ार का समय है। यूरोप व अमरीका बाज़ारवादी अवधारणा को पोषित करने वाली शक्तियों के रूप में देखे जाते रहे हैं। पूरे विश्व के बाज़ार पर जिसका अधिक प्रभुत्व है वह आज अधिक शक्तिशाली है। सामान्य उपभोक्ता कई बार बाज़ार की चालाकियाँ समझ नहीं पाता है। बाज़ार में उपभोक्ता के तौर पर वह कई बार ठगा जाता है लेकिन उसका कोई भी हल उसके पास नहीं रहता। भारत में सामाजिक शैक्षणिक स्थितियाँ अभी यूरोप या अमेरिकी देशों जैसी नहीं हैं। यहाँ का सामान्य उपभोक्ता तो बहुत जागरूक है नहीं तो अशिक्षित उपभोक्ता के जागरूक होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में जागरूकता का अभाव दिखाई देता है। लेकिन जब जागरूक उपभोक्ताओं के साथ कुछ गड़बड़ी होती है तो उनका असंतोष नज़र आता है।

भारत में बाज़ार का बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र का होने के कारण समस्या बढ़ी है। विक्रेता कई बार व्यावसायिक गतिविधियों के संचालन में अनुचित व्यवहार करते हैं जिससे वे अधिकाधिक लाभ अर्जित कर सकें। इस प्रकार बाज़ार में उपभोक्ता के साथ हो रहे शोषण को दूर करने की ज़िम्मेदारी भी सामने आई। व्यावसायिक खेमेबाजियों ने उपभोक्ताओं को जब एकदम नज़रंदाज़ किया तो १९६० के दशक में उपभोक्ताओं की समस्याओं को एक स्वरूप मिलने लगा। खाद्य पदार्थों की अत्यधिक कमी, इस कमी का कारण बड़े-बड़े धन्ना सेठों का एकजुट होकर जमाख़ोरी करना, जमाख़ोरी से अभाव के कारण पदार्थों के मूल्यों में भारी बढ़ोत्तरी व उनकी कालाबाज़ारी जैसी घटनाएँ देखने को मिलीं। इस वजह से खाद्य पदार्थों में मिलावट एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आई। इन सबको देखते हुए १९६० के दशक में व्यवस्थित रूप में उपभोक्ता आंदोलन की शुरुआत देखने को मिलती है। आंदोलन शुरू करने के लिए विषय की पहचान बहुत ज़रूरी है। जब यह पहचान मुकम्मल हो गयी तो आंदोलन का रूप भी विस्तृत होता गया। १९७० के दशक में उपभोक्ता संस्थाएँ उपभोक्ता के अधिकारों को लेकर और अधिक जागरूक हुईं और जगह-जगह जागरूकता कार्यक्रम के रूप में चित्र प्रदर्शनी आदि का आयोजन करने लगीं। ये समस्या तो अभी केवल खाद्य पदार्थों के स्तर पर ही दिखाई दी लेकिन बाद में इसके दायरे में विस्तार होना तय था। चूँकि १९६०-७० के दशक में हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित ही थी, इसलिए समस्याएँ उसी से जुड़ी हुई ज़्यादा थीं। बाद में औद्योगिक क्षेत्र व सेवा क्षेत्र में विकास से इन क्षेत्रों में भी उपभोक्ताओं की समस्याएँ बढ़ने लगीं। इसलिए उपभोक्ताओं की समस्याओं पर नए तरीक़े से विचार करने की भी ज़रूरत पड़ने लगी। वर्तमान समय में उपभोक्ताओं के लिए कार्य करने वाले दलों व संस्थाओं में भारी वृद्धि हुई है जो उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध होकर लड़ते हैं।

इस तरह की समस्याएँ केवल भारत में ही नहीं हो रही थीं। ये विश्व स्तर पर मौजूद थीं, इसलिए १९८५ में संयुक्त राष्ट्र ने उपभोक्ता के हितों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देशों को अपनाया। इसने देशों में उपभोक्ता हितों के लिए बने दलों व समूहों को और प्रखर आवाज़ दी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह उपभोक्ता आंदोलन का एक बड़ा आधार बना। वर्तमान समय में उपभोक्ता इंटरनेशनल १०० से भी अधिक देशों में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज किए हुए है। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न देशों में इससे सम्बंधित क़ानून बने। भारत में भी १९८६ में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम बना जिसे हम COPRA के नाम से जानते हैं। २४ दिसम्बर १९८६ को इसे राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत किया गया। इस स्वीकरण के बाद से ही २४ दिसम्बर को उपभोक्ता संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है। अभी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम २०१९ आया और इसे २० जुलाई २०२० से लागू कर दिया गया है। इसकी कुछ विशेषताएँ हैं, जिसे जान लेना आवश्यक है। ये अग्रलिखित ६ अधिकारों की गारंटी उपभोक्ताओं को प्रदान करता है। सबसे पहला अधिकार उपभोक्ता को अपने उत्पाद को चुनने का अधिकार है। इस बात को लेकर कोई भी विवाद न हो, किसी उत्पाद को चुन लेने के लिए किसी क़िस्म का कोई दबाव उपभोक्ताओं पर नहीं बनाया जाना चाहिए। दूसरा, ऐसे सभी उत्पाद जो किसी भी प्रकार से नुक़सान पहुँचाते हैं, उन सभी प्रकार के उत्पादों से सुरक्षित होने का सभी उपभोक्ताओं को अधिकार है। तीसरा, एक महत्वपूर्ण विषय है जिसमें सभी उत्पादों व उनकी गुणवत्ता के बारे में सूचित किए जाने का अधिकार उपभोक्ता के पास है। चौथा, उपभोक्ता के हितों से सम्बंधित किसी भी प्रकार के निर्णय व निर्धारण की प्रक्रिया को सुने जाने का अधिकार उसे प्राप्त है। पाँचवा, जब भी किसी उपभोक्ता के अधिकारों से कोई छेड़खानी हो, उसका अतिक्रमण किया जाए तो उसके निवारण का अधिकार है। छठां, उपभोक्ता से जुड़ा हुआ अधिकार है। यदि इन मूलभूत मुद्दों पर उपभोक्ताओं के साथ कोई भी दिक़्क़त होती है तो उपभोक्ता अब अपनी आवाज को और मज़बूती से रख सकेगा।

इन सबके साथ-साथ कुछ अन्य महत्वपूर्ण बदलाव उपभोक्ताओं के हित में हुए हैं। उसमें महत्वपूर्ण है केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (सीसीपीए) को और सशक्त बनाना। इससे असुरक्षित वस्तुओं को वापस लेने के लिए दबाव, भ्रामक विज्ञापनों को वापस लेने के अधिकार के साथ इनके निर्माताओं पर जुर्माना लगाने जैसे प्रावधान शामिल हैं। इसके साथ-साथ उपभोक्ताओं के किसी विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया को और अधिक सरलीकृत किए जाने पर ज़ोर दिया गया है। इसमें शिकायत के बाद निश्चित अवधि में निपटारा, उपभोक्ता आयोग तक पहुँच को सरल बनाया जाना, ई-फ़ाइलिंग व सुनाई के लिए वीडियो कॉन्फ़्रेन्स जैसे सुविधाओं पर ज़ोर देने पर बल है।

उपभोक्ताओं की शिकायतों के बाद मामला जब न्यायिक प्रणाली में चला जाता है तो उपभोक्ता का समय व धन दोनों अधिक लगते हैं। इससे बचने के लिए मध्यस्थता केंद्रों की बड़ी भूमिका है। इस हेतु वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र पर बहुत ज़ोर है। यदि शुरुआत में मामले को दोनों पक्ष की सहमति से समाप्त किया जा सकता है तो उस पर ज़ोर देने की कोशिश की गयी है। साथ ही मध्यस्थता प्रकोष्ठों को उपभोक्ता आयोग से जोड़कर त्वरित कार्य करने पर ज़ोर है। इस प्रक्रिया में एक बात उल्लेखनीय है कि यदि मध्यस्थता प्रकोष्ठ से कोई निपटारा किया गया है तो उसके विरुद्ध कोई भी अपील नहीं की जाएगी। भारत में उत्पाद से संबंधित नियमों को भी दुरुस्त किया गया है। यदि किसी उत्पाद या सेवा में कोई दोष पाया जाता है तो उसके नुक़सान की भरपाई सेवा प्रदान करने वाले या उत्पाद विक्रेता पर होगी। इस तरह इन अधिकारों के माध्यम से सामान्य उपभोक्ता को और अधिक अधिकार देकर व्यवसायिक मनमानियों को नियंत्रित करने की कोशिश की गयी है।

आज भारत में बहुत सी वस्तुओं को ख़रीदते समय उत्पाद पर लिखे आई॰ एस॰ आई॰, एफ़॰ एस॰ एस॰ ए॰ आई॰, एगमार्क या हॉलमार्क के निशान उसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित करने वाले मानक हैं। यदि कोई उत्पाद बिना इसके हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि उसकी गुणवत्ता ठीक नहीं है। टेलिविज़न पर उपभोक्ता जागरूकता के लिए इस तरह के बहुत से प्रचार ‘जागो ग्राहक जागो’ शृंखला के अंतर्गत दिखाए जाते रहें हैं। भिन्न-भिन्न श्रेणियों के उत्पादों हेतु भिन्न-भिन्न मानक तैयार किए गए हैं। इसी तरह लीगल मेट्रोलॉजी अधिनयम २००९ व उपभोक्ता कल्याण कोश आदि का गठन भी उपभोक्ताओं के हितों को मज़बूत करने वाला फ़ैसला है।

भारत में शैक्षणिक स्थितियाँ अभी बहुत बेहतर नहीं है।एक बड़ा तबका केवल साक्षर है, उसके पास अधिकार या कर्तव्य की विशेष समझ नहीं है। वर्तमान दौर तकनीकी का दौर है। यह बड़ी तेज़ गति से आगे बढ़ रहा है। स्मार्ट फ़ोन आज एक सहज उपकरण के रूप में उपलब्ध है। वह वित्तीय लेन-देन के लिए बहुत आसानी से उपयोग किया जाता है। इसमें कम पढ़े-लिखे लोगों को तमाम तरह से लगातार ठगे जाने की शिकायतें आज आम हैं लेकिन इस हेतु अभी कठोर नियम का अभाव, इसकी निगरानी व रुपए को वापस पाने की स्थितियाँ अभी बहुत कम है। समय के साथ उपभोक्ता के तौर-तरीक़ों में आए बदलावों को ध्यान में रखते हुए साक्षर-निरक्षर, जागरूक-ग़ैरजागरूक का फ़र्क़ मिटाते हुए उनके हितों के लिए अभी कार्य किया जाना शेष है। जागरूक व्यक्ति तो आज अनेक अधिकारों को जान रहा है, उस तरह व्यवहार कर रहा है लेकिन जो जागरूक नहीं है उसे और अधिक जागरूक करने की आवश्यकता है।

  अनुराग सिंह  

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालयदिल्ली विश्वविद्यालय 

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