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जातिगत आरक्षण: कितना सही, कितना गलत?

पिछले वर्ष बिहार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े प्रकाशित किए और ऐसा करने वाला भारत का प्रथम राज्य बना। लगे हाथ, आंकड़ों के आधार पर राज्य सरकार ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की सीलिंग को बढ़ाकर 65% कर दिया। इंदिरा साहनी केस के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय 50% की सीमा को लांघ कर किए गए इस प्रावधान को "जिसकी जितनी जनसंख्या, उसकी उतनी भागीदारी" के सिद्धांत के अनुसार सामाजिक न्याय माना गया। राज्य ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि बिहार ने पूरे देश के सामने नज़ीर पेश की है और इसी तर्ज पर देश भर में जाति जनगणना की जानी चाहिए।

बिहार के अलावा अन्य राज्य भी आरक्षण के साथ प्रयोग कर रहे हैं। झारखंड में सरकारी और निजी तो हरियाणा और कर्नाटक में निजी क्षेत्रों में राज्य सरकारों ने आरक्षण लागू करने की कोशिश की। लेकिन सकारात्मक कार्रवाई से संबंधित उपर्युक्त सभी प्रयासों को न्यायालय में चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। बिहार और हरियाणा के आरक्षण को तो न्यायालय ने सिरे से नकार दिया। फिर भी, जातिगत जनगणना और आरक्षण को लेकर माहौल इतना गर्म बना हुआ है कि लगभग सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी कि आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी यह मामला अभी तक क्यों और कैसे प्रासंगिक बना हुआ है। साथ हीं यह भी जानना ज़रूरी है कि क्या इस प्रावधान से लक्षित वर्ग को उस स्तर का लाभ प्राप्त हुआ है जिसकी अपेक्षा बाबासाहेब अम्बेडकर ने की थी।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें, तो दलित वर्ग के लिए आरक्षण की शुरुआत ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त,1932 को सांप्रदायिक घोषणा के साथ की थी। इस प्रावधान ने तथाकथित "डिप्रेस्ड क्लासेज"(वर्तमान में शिड्यूल्ड कास्ट्स) के लिए पृथक निर्वाचन के द्वारा विधानमंडलों में सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया। लेकिन सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण यरवदा जेल में कैद गांधीजी को ब्रिटिश सरकार की यह हरकत इतनी नागवार गुजरी कि वो जेल के भीतर हीं आमरण अनशन पर बैठ गए। उनका मानना था कि हरिजनों को हिंदू धर्म से इतर एक अलग संप्रदाय का दर्जा और पृथक निर्वाचन की व्यवस्था न सिर्फ़ भारतीय समाज के लिए विभाजनकारी साबित होगी बल्कि इससे हरिजन हमेशा के लिए समाज की मुख्यधारा से दूर हो जाएंगे। गांधीजी की भावनाओं का सम्मान करते हुए अंततः अंबेडकर जी ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें हरिजन समाज को हिंदू धर्म के भीतर हीं विशेष वर्ग मानते हुए केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों में सीटों को आरक्षित किया गया था। हालांकि पूना समझौते को लेकर अनेक स्वतंत्रता सेनानियों और राजनीतिज्ञों ने सवाल खड़े करते हुए कहा कि इससे दलित वर्ग को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, साथ हीं यह भी आशंका प्रकट की गई कि इससे डिप्रेस्ड क्लासेज सदा के लिए मुख्यधारा से दूर हो सकते हैं।

आज़ादी के बाद, संविधान में समाज के कमज़ोर वर्गों, यथा - अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सार्वजनिक शिक्षा, रोज़गार, और विधायिका में सीटों को आरक्षित किया गया। बाद में, इस सूची में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का भी समावेश हुआ और लगभग इसी समय जातिगत आरक्षण की व्यवस्था ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर महत्ता प्राप्त की। दरअसल, OBC आरक्षण के विषय पर मंडल कमीशन की रिपोर्ट 1980 में हीं पूरी हो चुकी थी लेकिन सत्ताधारी दलों ने राजनीतिक लाभ के लिए इसे 1990 तक रोक कर रखा और उन्होंने इसे तब लागू किया जब उन्हें OBC वर्ग के वोटों की ज़रूरत थी। जातिगत आरक्षण को राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, वो अब तक नहीं रुका है। आज बात इतनी बढ़ गई है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों ने केंद्र से जातिगत जनगणना को संपन्न कराने और इस आधार पर इंदिरा साहनी केस द्वारा तय 50% आरक्षण की सीमा में बढ़ोतरी की मांग रखी है।

क्यों की जा रही है जातिगत आरक्षण की मांग?

राज्य और देश का विकास एक लंबी तथा कष्टसाध्य प्रक्रिया है। सभी नागरिकों को आवास, नि:शुल्क स्वास्थ्य और शिक्षा प्रदान करना, बुनियादी अवसंरचना का निर्माण, अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्रकों का विकास, रोज़गार सृजन, बेहतर आंतरिक पुलिसिंग और सीमाओं की सुरक्षा द्वारा नागरिकों का जीवन बेहतर बनाने के लिए - एक वृहद मौद्रिक कोष के साथ जनसेवकों की अथाह मेहनत भी ज़रूरी है। ज्यादातर लोकसेवक इस लंबे रास्ते को अख्तियार कर देश को नई ऊंचाईयां देने की जगह क्षणिक प्रयास से सत्ता में आना चाहते हैं। इसी सोच के मद्देनजर वे जनता के बीच जातिगत आधार पर विभाजन को बढ़ावा देते हैं जिससे उन्हें किसी जाति विशेष का वोट मिल जाए ताकि सत्ता में उनके प्रवेश का रास्ता प्रशस्त हो।

दूसरा, लगातार बढ़ती आबादी के कारण देश के संसाधन पहले से हीं अति शोषित हैं। ऊपर से, संसाधनों का यह विभाजन अत्यंत असमान है जिससे समाज में असंतुष्टि और खीझ पैदा हुई है। जहां ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि भारत की टॉप 10% जनसंख्या के पास देश का 77% धन है वहीं "द हिन्दू" अखबार के अनुसार देश में ब्रिटिश राज से भी अधिक असमानता मौजूद है। ऐसे हालातों ने जनता में असुरक्षा की भावना को पोषित किया है। हाशिए पर खड़े लोग किसी भी तरह अपने जीवन में सुधार चाहते हैं और आरक्षण उन्हें अपनी समस्याओं के समाधान के रूप में नजर आता है।

तीसरा, स्वतंत्रता के समय भारत की तथाकथित उच्च जातियों‌ से यह अपेक्षा की गई थी कि वे दलितों के कल्याण में महती भूमिका निभाएंगे पर अनेक कारणों से वे तथाकथित निम्न जातियों को भरोसे में लेने और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में असफल रहे हैं। वंचित समूहों को ऐसा लगता है कि उनकी जाति की वजह से उनकी सामाजिक स्थिति निम्न बनी हुई है। इसलिए वे आज भी सरकार से आरक्षण और अन्य जाति आधारित कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखने की उम्मीद रखते हैं।

चौथा, पिछड़ी जातियों के नेताओं ने भी इन वर्गों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। बिहार और उत्तर प्रदेश को देखें तो सामाजिक न्याय का वादा कर सत्ता में आने वाले दलित तथा बैकवर्ड क्लास के नेताओं ने परिवारवाद को बढ़ावा देने वाली, विभाजनकारी, और अल्पकालिक लाभ की हीं राजनीति की। उनके नेतृत्व में जनता की ज़िंदगी में जो सुधार अपेक्षित था, वह नहीं हो पाया।

पांचवां, दलित तथा बैकवर्ड क्लास के कल्याण के लिए जो योजनाएं बनाई गईं थीं, उसका लाभ इन वर्गों के एक विशेष धड़े तक हीं सीमित रहा है। 1 अगस्त, 2024 को ई• वी• चिनैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने आरक्षित वर्ग के भीतर उप-वर्गीकरण करने पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि आरक्षित वर्ग के भीतर आरक्षण का वितरण असमान रहा है अर्थात कुछ पिछड़े वर्ग आज भी इसका बेनिफिट लेने में समर्थ नहीं हैं। ओबीसी उप-वर्गीकरण पर गठित जी• रोहिणी समिति ने भी कहा था कि तमाम ओबीसी जातियों की 25% जातियों का प्रभुत्व इस वर्ग के लिए आरक्षित 97% नौकरियों पर बना हुआ है। इस वजह से कुछ जातियां अधिक तरक्की कर पाईं हैं और कुछ जातियां पिछड़ गईं हैं‌।

क्या हो सकती है आगे की राह?

सबसे पहले तो देश में पारदर्शी तरीके से जाति जनगणना कराई जानी चाहिए। इस जनगणना के अंतर्गत तमाम जातियों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति की स्पष्ट तस्वीर जनता के समक्ष रखी जानी चाहिए। निजी और सरकारी- दोनों हीं तरह के शिक्षण संस्थानों और रोजगार में सभी जातियों के प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाए जाने चाहिए।

दूसरा, इन‌ आंकड़ों के आधार पर सरकार तथा निजी क्षेत्रों द्वारा यह आकलन किया जाना चाहिए कि कौन-सा वर्ग विकास की दौड़ में पीछे छूट गया है और इन वर्गों के क्षमता-निर्माण, कौशल विकास और शैक्षणिक योग्यता में वृद्धि के लिए लक्षित कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।

तीसरा, आरक्षण का लाभ कॉलेज तथा रोजगार प्राप्त करने के उच्च स्तर पर प्राप्त होता है लेकिन बहुत से लोग प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक हीं पढ़ पाते हैं। ऐसे में, एकल्वय मॉडल रेसिडेंशियल स्कूल की तर्ज पर हर ब्लॉक में एक प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय चलाए जाने चाहिए। साथ हीं इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के जाल का भी प्रसारण होना चाहिए।

चौथा, वंचित जातियों के लिए चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी ग्राम-सभा के स्तर पर प्रसारित करने के लिए साप्ताहिक लाभार्थी जागरुकता कार्यक्रम चलाया जा सकता है। प्रशासनिक प्रभाग को भी इस विषय पर सेंसिटाइज़ किया जाना ज़रूरी है ताकि वह इस वर्ग को बोझ मानकर काम टालने की प्रवृत्ति का त्याग करें।

पांचवां, जिन जातियों की सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम है, उनके लिए मुफ़्त कोचिंग का संचालन होना चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार की "मुख्यमंत्री अभ्युदय योजना" और दिल्ली सरकार की "जय भीम योजना" इस दिशा में सराहनीय कदम है।

छठा, विधायिका द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के उप-वर्गीकरण के फैसले का सम्मान करते हुए इस संबंध में प्रासंगिक क़ानून का निर्माण किया जाना चाहिए। साथ हीं अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में क्रीमी लेयर पर जस्टिस बी• आर• गवई के विचारों पर विमर्श करना चाहिए।

स्वयं बाबासाहेब ने आरक्षण के प्रावधान के विषय में कहा था कि हर दस वर्ष पर इसकी समीक्षा होनी चाहिए और जिन वर्गों को इसका लाभ मिल गया है उन्हें दूसरों के हित में इसका त्याग कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि आरक्षण बैसाखी नहीं है जिसके सहारे ज़िंदगी काट दी जाए। बाबासाहब की बातों को धता बताते हुए राजनीतिक दलों ने इसका सहारा लेकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया जिससे स्वतंत्रता के 75 वर्ष से अधिक होने पर भी वंचित समूहों की स्थिति में खास सुधार नहीं आया। ऐसे में, यह समय की मांग है कि जातिगत आरक्षण के विषय में आगे की राह तय करने के लिए सभी हितधारकों द्वारा अपने पूर्वाग्रहों को पीछे छोड़, भविष्योन्मुखी नीति का निर्माण किया जाय जिससे "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास" का सपना पूरा हो सके।

  संजीव कौशिक  

(लेखक संजीव कौशिक टेलीविजन दुनिया के जाने-माने विश्लेषक और डिबेटर हैं। वरिष्ठ पत्रकार संजीव सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समेत विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर तर्कपूर्ण मुखरता से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं।)

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