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प्रश्न :
प्रश्न. "प्रक्रियात्मक सत्यनिष्ठा सुशासन की आधारशिला है, फिर भी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जहाँ नियमों का सख्ती से पालन न्याय की भावना का उल्लंघन कर सकता है।” ऐसी परिस्थितियों में, क्या एक प्रशासनिक अधिकारी को प्रक्रियात्मक नियमों से हटकर वास्तविक (सार्थक) न्याय को प्राथमिकता देनी चाहिये? लोक प्रशासन से प्रासंगिक उदाहरणों के साथ चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
24 Jul, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रश्न के कथन को उचित ठहराने के लिये एक संदर्भ उद्धरण देकर उत्तर का परिचय दीजिये।
- प्रक्रियात्मक सत्यनिष्ठा बनाम न्याय की भावना के बीच नैतिक दुविधा पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- प्रक्रियात्मक सत्यनिष्ठा और मूल न्याय को बनाए रखने के पक्ष में तर्क दीजिये।
- अंततः संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए एक उद्धरण के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
प्लेटो ने तर्क दिया था कि "न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित अधिकार देना है।" शासन-प्रशासन में यह कथन प्रक्रियात्मक न्याय (नियमों और विधिसम्मत प्रक्रिया का पालन) तथा मूल न्याय (किसी कार्य की नैतिक और न्यायसंगत परिणति) के बीच एक अंतर्विरोध को जन्म देता है। जहाँ प्रक्रियात्मक अखंडता पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है, वहीं इसका अंधानुकरण कभी-कभी न्याय के नैतिक मर्म के विपरीत भी जा सकता है।
मुख्य भाग:
प्रक्रियात्मक सत्यनिष्ठा बनाम न्याय की भावना: लोक सेवा में एक नैतिक दुविधा
लोक सेवक कानूनों और नियमों के कार्यढाँचे के भीतर कार्य करते हैं, फिर भी वास्तविक दुनिया की परिस्थितियाँ प्रायः प्रक्रियात्मक अनुपालन की पर्याप्तता को चुनौती देती हैं। सख्त अनुपालन के कारण:
- ज़रूरतमंद लोग, कल्याणकारी योजनाओं से वंचित हो सकते हैं, उदाहरण के लिये दस्तावेज़ों की कमी के कारण।
- आपदाओं के दौरान जीवन रक्षक हस्तक्षेपों में विलंब हो सकता है।
- भूमि अधिग्रहण संबंधी मुद्दों के कारण हाशिये पर पड़े समुदायों का व्यवस्थित अपवर्जन हो सकता है।
इससे एक बुनियादी नैतिक दुविधा पैदा होती है: क्या एक लोक सेवक को ‘कानून के अक्षर’ का पालन करना चाहिये या ‘न्याय की भावना’ के पक्ष में कार्य करना चाहिये?
प्रक्रियात्मक अखंडता बनाए रखने के तर्क
Merit
Explanation
विधि का शासन
मनमानी को रोकता है और कानून के तहत समान व्यवहार सुनिश्चित करता है।
पूर्वानुमान्यता
मानकीकृत प्रक्रियाओं के माध्यम से संस्थानों में विश्वास का निर्माण करता है।
जवाबदेही
कानूनी अनुपालन अधिकारियों को व्यक्तिगत दायित्व से बचाता है।
शक्ति के दुरुपयोग पर रोक लगाता है
व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिये विवेकाधिकार के दुरुपयोग को रोकता है।
- उदाहरण: कदाचार के कारण UPSC द्वारा परीक्षा परिणाम रद्द करना, भले ही इससे कुछ निर्दोष उम्मीदवार प्रभावित हों, प्रणालीगत अखंडता सुनिश्चित करता है।
मूल न्याय को कायम रखने के तर्क (भले ही ये प्रक्रिया से हटकर हों)
चिंता
तर्क
नैतिक अनिवार्यता
जब नियमों के परिणाम अन्यायपूर्ण हो जाएँ, तो लोक सेवकों को नैतिक रूप से कार्य करना चाहिये।
सामाजिक न्याय
उन लोगों को शामिल करने में सहायता करता है जो बेज़ुबान और बहिष्कृत हैं और जो कठोर मानदंडों को पूरा नहीं कर सकते।
परिस्थितिजन्य आवश्यकता
आपातकाल में लालफीताशाही की नहीं, बल्कि त्वरित नैतिक निर्णय की आवश्यकता होती है।
संवैधानिक नैतिकता
गरिमा, समानता और करुणा को कायम रखने के लिये प्रायः नियमों से परे जाने की आवश्यकता होती है।
- उदाहरण: IAS जितेंद्र कुमार सोनी ने गरीब बच्चों को जूते उपलब्ध कराने के लिये ‘चरण पादुका अभियान’ शुरू किया। उनकी पहल ने सख्त नियमों के पालन पर गरिमा को प्राथमिकता देकर वास्तविक न्याय को कायम रखा।
- उदाहरण: ओल्गा टेलिस बनाम BMC (1985) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि फुटपाथ पर रहने वालों को पुनर्वास के बिना बेदखल करना आजीविका के अधिकार का उल्लंघन है, भले ही बेदखली कानूनी रूप से वैध थी, यह प्रक्रियात्मक शुद्धता पर वास्तविक न्याय के प्रभावी होने का एक उदाहरण है।
हालाँकि दोनों मूल्य आवश्यक हैं, लेकिन किसी का भी निरपेक्षता से पालन नहीं किया जा सकता। लोक सेवकों को चाहिये कि वे:
- उचित औचित्य के साथ विवेक का प्रयोग: अंकेक्षण सुनिश्चित करने के लिये किसी भी विचलन को कारणों और परिणामों के साथ दर्ज किया जाना चाहिये।
- आनुपातिकता सिद्धांत का पालन: बड़े अन्याय से बचने के लिये मामूली प्रक्रियात्मक विचलन को उचित ठहराया जा सकता है।
- नैतिक तर्क के उपकरण लागू करना:
- रॉल्सियन न्याय (सबसे अधिक वंचितों पर ध्यान केंद्रित करना)
- आचार संहिता और सत्यनिष्ठा
निष्कर्ष:
शासन को प्रक्रियात्मक सत्यनिष्ठा और नैतिक तर्क के दो स्तंभों पर आधारित होना चाहिये। नियम आवश्यक कार्यढाँचे हैं, लेकिन न्याय उनका अंतिम लक्ष्य है। जैसा कि अरस्तू ने कहा था, “कानून वह तर्क है जो इच्छा से मुक्त होता है, लेकिन न्याय के लिये प्रायः करुणा की आवश्यकता होती है।”
अतः एक लोक सेवक को विधिक व्यवस्था के भीतर एक नैतिक प्रतिनिधि बनना चाहिये, यह सुनिश्चित करते हुए कि किसी को भी केवल इसलिये न्याय से वंचित न किया जाए क्योंकि प्रक्रिया उनकी वास्तविकता के लिये अभिकल्पित नहीं की गई थी।
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