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प्रश्न :
प्रश्न. क्या नैतिक सापेक्षवाद जैसे विचार को भारत जैसे बहुसांस्कृतिक समाज में शासन का एक वैध दृष्टिकोण माना जा सकता है? नीति-निर्माण पर इसके प्रभावों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
26 Jun, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- नैतिक सापेक्षवाद के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- भारत में नैतिक सापेक्षवाद की वैधता के पक्ष में तर्क दीजिये।
- भारत के संदर्भ में नैतिक सापेक्षवाद की सीमाओं पर प्रकाश डालिये।
- एक उद्धरण के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक समाज में, नैतिक सापेक्षवाद, जहाँ नैतिक मानकों को सांस्कृतिक संदर्भों द्वारा आकार दिया जाता है, शासन के लिये अवसर और चुनौतियाँ दोनों प्रदान करता है।
- यद्यपि यह विविध सांस्कृतिक प्रथाओं को समायोजित करने में सहायक है, लेकिन यह सार्वभौमिक नीतियों के निर्माण को जटिल भी बना सकता है।
- उदाहरण के लिये समान नागरिक संहिता (UCC) पर बहस सांस्कृतिक विविधता के सम्मान और एकीकृत विधिक संरचना की आवश्यकता के बीच तनाव को दर्शाती है।
मुख्य भाग:
भारत में नैतिक सापेक्षवाद की वैधता के पक्ष में तर्क:
- सांस्कृतिक विविधता के प्रति सम्मान: नैतिक सापेक्षवाद यह सुनिश्चित करता है कि शासन विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं के प्रति संवेदनशील हो।
- यह मान्यता कि नैतिकता समाज के अनुसार भिन्न होती है, नीति-निर्माण को इस दिशा में सक्षम बनाती है कि वह विविध परंपराओं का सम्मान कर सके।
- भारत सरकार की धार्मिक परिधानों के प्रति सहिष्णु नीति इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार नैतिक सापेक्षवाद सांस्कृतिक विविधता के अनुकूल वातावरण बनाने में सहायक होता है।
- सामाजिक सौहार्द्र को बढ़ावा: जब समुदायों को अपनी विशिष्ट नैतिक व्यवस्थाओं को बनाये रखने की अनुमति दी जाती है, तो इससे सामाजिक सौहार्द्र की रक्षा होती है।
- यह एकल मूल्य प्रणाली को लागू होने से रोकता है जिसे कुछ समूहों द्वारा दमनकारी माना जा सकता है।
- भारत में आरक्षण व्यवस्था इसका एक उदाहरण है, जो अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों जैसी सामाजिक-ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को मान्यता देते हुए उन्हें समान अवसर देने के लिये सकारात्मक कार्रवाई की व्यवस्था करती है।
- नीति निर्माण में लचीलापन: नैतिक सापेक्षवाद अधिक लचीली नीतियों की अनुमति देता है, जो विविध समुदायों की आवश्यकताओं और मूल्यों के अनुकूल हो सकती हैं तथा सभी के लिये एक ही दृष्टिकोण अपनाने से बचती हैं।
- PESA अधिनियम (पंचायतों का अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) स्थानीय जनजातीय लोगों को स्वशासन की अनुमति देता है, जनजातीय समुदायों के सांस्कृतिक लोकाचार का सम्मान करता है तथा उन्हें अपने मामलों का प्रबंधन करने में सक्षम बनाता है।
- समुदायों की स्वायत्तता और संप्रभुता की मान्यता: नैतिक सापेक्षवाद इस विचार का समर्थन करता है कि प्रत्येक समुदाय को अपने नैतिक मानकों को निर्धारित करने और बाह्य हस्तक्षेप के बिना उनके अनुसार जीवन जीने का अधिकार है।
- उदाहरण: भारत में धार्मिक स्वतंत्रता संविधान में निहित है (अनुच्छेद 25-28), जो व्यक्तियों और समुदायों को सरकारी हस्तक्षेप के बिना अपने धर्म का पालन करने की अनुमति देता है।
- सहिष्णुता और सह-अस्तित्व को प्रोत्साहन: नैतिक सापेक्षवाद, जब लागू किया जाता है, तो यह विभिन्न समूहों के बीच सहिष्णुता को प्रोत्साहित करता है, क्योंकि यह मान्यता है कि कोई भी संस्कृति या विश्वास प्रणाली स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ नहीं है।
- उदाहरण: भारत में सांप्रदायिक सद्भाव के प्रयास, जैसे कि अंतर-धार्मिक संवाद एवं गांधीजी का अहिंसा का दर्शन, विभिन्न नैतिक और धार्मिक विश्वासों वाले समुदायों के बीच समझ व सहिष्णुता पर केंद्रित हैं।
भारत के संदर्भ में नैतिक सापेक्षवाद की सीमाएँ:
- सर्वत्र मानवाधिकारों का क्षरण: नैतिक सापेक्षवाद तब टकराव उत्पन्न कर सकता है जब सांस्कृतिक प्रथाएँ बुनियादी स्वतंत्रताओं या समानता का उल्लंघन करें।
- कुछ प्रथाओं जैसे ‘महिला जननांग विकृति’ (FGM) या बाल विवाह के मामलों में, यदि नीतियाँ सांस्कृतिक सापेक्षवाद पर आधारित हों, तो ये हानिकारक परंपराएँ बने रहने का मार्ग पा सकती हैं, हालाँकि वे मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
- राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता में बाधाएँ: नैतिक सापेक्षवाद विभिन्न समूहों की अलग-अलग आवश्यकताओं के आधार पर नीतियाँ बनाकर पहचान-आधारित राजनीति को बढ़ावा दे सकता है, जिससे सामाजिक विभाजन और तनाव बढ़ते हैं।
- उदाहरण के लिये, हरियाणा में जाट समुदाय जैसे अनेक समुदायों द्वारा आरक्षण की बढ़ती माँगों ने विरोध और अशांति को जन्म दिया है।
- समानता और न्याय का ह्रास: नैतिक सापेक्षवाद, 'सांस्कृतिक सम्मान' के नाम पर, उन हानिकारक प्रथाओं को बनाये रख सकता है जो असमानता को बढ़ावा देती हैं।
- यदि कोई सांस्कृतिक परंपरा महिलाओं, बच्चों या वंचित समूहों के साथ भेदभाव करती है, तो सापेक्षवादी दृष्टिकोण के कारण न्याय एवं समानता की दिशा में सार्थक सुधार बाधित हो सकते हैं।
- कुछ समुदायों में अब भी प्रचलित पितृसत्तात्मक प्रथाएँ जैसे महिलाओं की शिक्षा या कार्य में भागीदारी पर प्रतिबंध सांस्कृतिक परंपराओं के नाम पर नैतिक सापेक्षवाद द्वारा अनजाने में संरक्षण पा सकती हैं।
निष्कर्ष
जैसा कि गांधीजी ने ठीक ही कहा है, "एक राष्ट्र की संस्कृति उसके लोगों के हृदयों और आत्मा में निवास करती है।"
यह कथन सांस्कृतिक विविधता के प्रति सम्मान और सार्वभौमिक मानवाधिकारों की रक्षा की आवश्यकता को उजागर करता है। शासन-प्रणाली में संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है, जिससे नीतियाँ सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हुए मूलभूत स्वतंत्रताओं की भी रक्षा करें। तीन P: संरक्षण (Protection), सामनुपातिकता (Proportionality) और सहभागिता (Participation) — इन नैतिक सिद्धांतों का पालन करके भारत न केवल 'विविधता में एकता' को सुदृढ़ कर सकता है, बल्कि न्याय एवं समानता को भी बढ़ावा दे सकता है।To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
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