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प्रश्न :
1. न्याय सामाजिक संस्थाओं का सर्वोपरि मूल्य है।
2. "स्वतंत्रता, आवश्यकता की स्वीकृति है"
31 May, 2025 निबंध लेखन निबंधउत्तर :
1. न्याय सामाजिक संस्थाओं का सर्वोपरि मूल्य है।
- "न्याय सामाजिक संस्थाओं का पहला गुण है।" — जॉन रॉल्स
- "न्याय का गुण संयम में निहित होता है, जो बुद्धिमत्ता से नियंत्रित किया जाता है।" — अरस्तू
- "कहीं भी होने वाला अन्याय, हर जगह न्याय के लिये खतरा है।" — मार्टिन लूथर किंग जूनियर
- "प्रेम से दिया गया न्याय आत्म-समर्पण है, जबकि विधि द्वारा किया गया न्याय दंड है।" — महात्मा गांधी
न्याय के दार्शनिक और सैद्धांतिक आयाम
- न्याय का स्वरूप: न्याय का आशय समाज में लाभों और भारों के समान वितरण से है। प्लेटो से लेकर रॉल्स तक, न्याय के सिद्धांत आवश्यकता, अधिकारों और योगदान के आधार पर समान व्यवहार को महत्त्व देते हैं।
- रॉल्स का सिद्धांत दो मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है—सभी के लिये समान मौलिक स्वतंत्रताएँ और ऐसी असमानताएँ जो समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग के हित में व्यवस्थित हों। यह समान परिणाम नहीं, बल्कि व्यक्तिगत लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये समान अवसर सुनिश्चित करता है।
- सामाजिक अनुबंध सिद्धांत: जैसा कि लॉक और रूसो जैसे राजनीतिक दार्शनिकों ने प्रतिपादित किया— न्याय, सामाजिक अनुबंध सिद्धांत का अभिन्न हिस्सा है। इस सिद्धांत में व्यक्तियों को कुछ स्वतंत्रताओं को राज्य की सुरक्षा के बदले त्याग करना पड़ता है।
- सामाजिक संस्थाओं का यह कर्त्तव्य है कि वे इस अनुबंध का पालन करते हुए न्याय सुनिश्चित करें; इसमें विफल रहने पर उनकी वैधता पर प्रश्न उठता है तथा सामाजिक अशांति का जोखिम उत्पन्न होता है।
- भगवद् गीता: भारतीय दर्शन के संदर्भ में, न्याय ‘धर्म’ या धार्मिक मार्ग की अवधारणा के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।
- भगवद्गीता में व्यक्ति के स्वधर्म (व्यक्तिगत कर्त्तव्य) का पालन करने के कर्त्तव्य की बात कही गई है और ऐसा करके वह समाज के सामूहिक न्याय में योगदान देता है।
- इसलिये, भारतीय दर्शन में न्याय का तात्पर्य केवल व्यक्तिगत अधिकारों से नहीं है, बल्कि व्यापक समुदाय के कल्याण में योगदान से भी है।
- भगवद्गीता में व्यक्ति के स्वधर्म (व्यक्तिगत कर्त्तव्य) का पालन करने के कर्त्तव्य की बात कही गई है और ऐसा करके वह समाज के सामूहिक न्याय में योगदान देता है।
- भारतीय संविधान, जो अपनी प्रस्तावना में न्याय को एक मुख्य मूल्य के रूप में स्थापित करता है, का उद्देश्य अपने सभी नागरिकों के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना है।
- अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समानता), अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) जैसे अनुच्छेद न्याय के लिये एक मज़बूत कार्यढाँचा प्रदान करते हैं।
- न्याय की बौद्ध अवधारणा: बौद्ध दर्शन में न्याय केवल विधि या कानून तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सम्यक आचरण, सम्यक आजीविका और मानवीय संबंधों में निष्पक्षता से जुड़ा है।
- 'करुणा' की संकल्पना एक ऐसी न्याय प्रणाली की ओर संकेत करती है जो सहानुभूति और निष्पक्षता पर आधारित हो और जिसका अंतिम उद्देश्य दुःखों की समाप्ति हो।
- न्याय का गांधीवादी दर्शन: महात्मा गांधी की न्याय की धारणा सत्य और समानता में गहराई से निहित थी। उन्होंने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जहाँ व्यक्ति एक-दूसरे के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करें और राज्य निष्पक्षता के सिद्धांतों का पालन करे।
सामाजिक संस्थाओं में न्याय का महत्त्व
- न्यायपालिका की भूमिका: न्यायपालिका को समाज में प्रायः न्याय की संरक्षक माना जाता है। लोकतांत्रिक देशों में न्यायालय इस बात की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि देश के कानून न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप हों।
- शिक्षा प्रणाली की भूमिका: शिक्षा एक प्रमुख सामाजिक संस्था है जो न्याय के सिद्धांतों को मूर्त रूप देती है। यह ज्ञान और व्यक्तिगत विकास के लिये समान अवसर सुनिश्चित करती है।
- पुलिस तथा विधि प्रवर्तन की भूमिका: विधि प्रवर्तन ऐसी संस्था है जो विधि (कानून) और व्यवस्था बनाए रखकर न्याय को सुदृढ़ करती है। हालाँकि, न्याय की स्थापना तभी संभव है जब विधि प्रवर्तन निष्पक्ष ढंग से, किसी भी समूह के प्रति पक्षपात के बिना कार्य करे।
- पुलिस और समाज के बीच संबंध आपसी विश्वास, सम्मान तथा निष्पक्षता पर आधारित होने चाहिये।
न्याय के ऐतिहासिक और समकालीन उदाहरण
- ऐतिहासिक न्यायिक हस्तक्षेप: भारत में न्याय की खोज़ को ऐतिहासिक न्यायिक हस्तक्षेपों और प्रगतिशील विधानों ने आकार दिया है, जो आज भी निष्पक्षता एवं समानता के सिद्धांतों को बनाए रखने तथा इसे विस्तारित करने का कार्य कर रहे हैं।
- केशवानंद भारती केस (वर्ष 1973) ने 'मूल संरचना सिद्धांत' स्थापित किया, जिससे संविधान के मूल मूल्यों, जिनमें न्याय भी शामिल है, को संसदीय संशोधनों से संरक्षित किया गया।
- विशाखा दिशानिर्देश (वर्ष 1997) ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने हेतु एक रूपरेखा प्रदान की, जिससे लैंगिक न्याय को बढ़ावा मिला।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम (वर्ष 2009) 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिये नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है, जिससे समान शैक्षणिक अवसरों के माध्यम से सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाया गया।
- सामाजिक न्याय आंदोलन: डॉ. बी.आर. अंबेडकर जैसी हस्तियों के नेतृत्व में दलित अधिकार आंदोलन, इस आंदोलन ने अस्पृश्यता और जाति-आधारित भेदभाव के उन्मूलन के लिये लड़ाई लड़ी, जिसके परिणामस्वरूप सीमांत समुदायों के लिये न्याय के उद्देश्य से संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित हुई एवं सामाजिक सुधार हुए।
- महिला आरक्षण अधिनियम इस बात का प्रतीक है कि राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिये विधायिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं।
न्याय सुनिश्चित करने वाली समकालीन कल्याणकारी योजनाएँ:
- आयुष्मान भारत योजना (प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना: PM-JAY): यह योजना स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करती है, जिससे वंचित वर्गों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित कर सामाजिक एवं आर्थिक न्याय को बढ़ावा मिलता है।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE), 2009: यह अधिनियम 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है। इसका उद्देश्य शैक्षणिक अवसरों की समानता सुनिश्चित करना तथा सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को कम करना है।
- वन नेशन वन राशन कार्ड योजना: यह योजना विशेषकर प्रवासी श्रमिकों एवं हाशिये के समुदायों के लिये खाद्य सुरक्षा और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है। यह उन्हें देश के किसी भी भाग में रियायती दर पर खाद्यान्न प्राप्त करने में सक्षम बनाती है और प्रवास के कारण होने वाले अपवर्जन को रोकती है।
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019: यह अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को कानूनी मान्यता, भेदभाव से सुरक्षा तथा कल्याणकारी उपाय प्रदान करता है, जिससे इस वंचित समुदाय के लिये सामाजिक न्याय एवं समानता को सशक्त किया जाता है।
- अनुसूचित जनजातियाँ तथा अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006: यह अधिनियम जनजातीय समुदायों को भूमि अधिकार लौटाकर उनके साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की पूर्ति करता है तथा सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करता है।
वैश्विक उदाहरण:
- सत्य और सुलह आयोग (दक्षिण अफ्रीका): यह तंत्र रंगभेदी शासन के बाद स्थापित किया गया था, जिसका उद्देश्य अतीत के अन्यायों का समाधान करना तथा सुधारात्मक न्याय के माध्यम से राष्ट्रीय पुनरुत्थान को बढ़ावा देना था।
- मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (वर्ष 1948): यह उद्घोषणा न्याय, समानता और मानव गरिमा के वैश्विक मानकों को स्थापित करती है तथा विश्वभर के संवैधानिक ढाँचों को प्रभावित करती है।
निष्कर्ष
न्याय, सामाजिक संस्थाओं का पहला गुण है, जो किसी भी समाज के कामकाज़ और धारणीयता के लिये आवश्यक है। न्याय के अभाव में सामाजिक संस्थाएँ अपनी वैधता खो देती हैं और सामाजिक व्यवस्था बाधित हो जाती है। जब न्याय को सामाजिक संस्थाओं के केंद्र में स्थापित किया जाता है, तब समाज धारणीयता, समरसता और प्रगति सुनिश्चित करते हैं।
2. "स्वतंत्रता, आवश्यकता की स्वीकृति है।"
- "स्वतंत्रता का अर्थ है अपने प्रति उत्तरदायी होने की इच्छा।" — फ्रेडरिक नीत्शे
- "स्वतंत्रता का अर्थ है जिम्मेदारी; इसी कारण प्रायः अधिकांश लोग इससे भयभीत रहते हैं।" — जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
- "स्वतंत्रता इच्छा की स्वायत्तता है, जो स्वयं पर आरोपित नैतिक नियमों के अधीन होती है।" — इमैनुएल कांट
स्वतंत्रता के दार्शनिक और सैद्धांतिक आयाम
- स्वतंत्रता और जिम्मेदारी: सच्ची स्वतंत्रता का अर्थ केवल बंधनों या प्रतिबंधों से मुक्त होना नहीं है, बल्कि अपनी इच्छा को उत्तरदायित्व की भावना के साथ प्रयोग करना है।
- इस अर्थ में स्वतंत्रता का तात्पर्य ऐसे कार्यों के चयन से है जो नैतिक हों तथा उन चुनावों के परिणामों को स्वीकार करना भी आवश्यक हो।
- इमैनुएल कांट ने भी यह तर्क दिया कि वास्तविक स्वतंत्रता स्व-प्रणीत नैतिक नियमों के दायरे में होती है, जहाँ व्यक्ति अपने कार्यों के लिये उत्तरदायी होता है।
- अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से स्वतंत्रता: मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वतंत्रता व्यक्तिगत विकास और स्व-नियमन से निकटता से जुड़ी है।
- अस्तित्ववादी दर्शन का तर्क है स्वतंत्रता में अपने चुनावों की पूर्ण जिम्मेदारी स्वीकार करना शामिल है तथा यह स्वीकार करना भी शामिल है कि स्वतंत्रता मुक्तिदायक भी है और बोझिल भी।
- स्वतंत्रता के प्रयोग के लिये विश्व को प्रभावित करने की अपनी क्षमता को समझना आवश्यक है, साथ ही व्यक्तिगत शक्ति की सीमाओं को स्वीकार करना भी आवश्यक है।
- गीता की स्वतंत्रता की अवधारणा: भगवद गीता में कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि स्वतंत्रता अपने कर्त्तव्य से भागने में नहीं बल्कि अपने धर्म (नैतिक आवश्यकताओं) को समझने और उन्हें स्वीकार करने में निहित है।
- अर्जुन की दुविधा संकट के क्षण का प्रतिनिधित्व करती है, और कृष्ण का मार्गदर्शन यह सुझाता है कि सच्ची मुक्ति (मोक्ष) व्यक्ति की भूमिका और सार्वभौमिक व्यवस्था के अनुरूप कार्य करने से उत्पन्न होती है, न कि उत्तरदायित्व से बचने से।
- अद्वैत वेदांत: आदि शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत सिखाता है कि सच्ची स्वतंत्रता (मोक्ष) भौतिक इच्छाओं में लिप्त होने से नहीं, बल्कि भ्रम (माया) को पहचानने और वैराग्य एवं आत्म-ज्ञान की आवश्यकता को समझने से मिलती है।
- गांधीजी का स्वतंत्रता दर्शन: गांधीजी के लिये, सच्ची स्वतंत्रता अपने धर्म (कर्त्तव्य) के अनुसार कार्य करने की क्षमता थी, जो आत्म-अनुशासन और जिम्मेदारी में निहित थी।
- स्वराज की उनकी अवधारणा केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं था, बल्कि यह भी था कि व्यक्ति अपने कार्यों के प्रति जिम्मेदार बने और राष्ट्र के नैतिक एवं सामाजिक विकास में योगदान करे।
- उन्होंने माना कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता केवल उन्हीं जिम्मेदार कार्यों के माध्यम से संभव है जो समाज के कल्याण में सहायक हों।
- लोकतंत्र में स्वतंत्रता की भूमिका: लोकतंत्र का संचालन इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति उत्तरदायी चुनावों की आवश्यकता को समझें जो सामाजिक सद्भाव का समर्थन करें।
- एक वास्तविक स्वतंत्र समाज व्यक्तियों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, परंतु यह स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जानी चाहिये ताकि दूसरों के अधिकारों का सम्मान हो।
- पर्यावरण संरक्षण: पर्यावरणीय संरक्षण जिम्मेदार स्वतंत्रता का एक महत्त्वपूर्ण रूप है, क्योंकि संसाधनों का अंधाधुंध शोषण दीर्घकालिक पारिस्थितिक संतुलन को कमज़ोर करता है।
स्वतंत्रता पर ऐतिहासिक और समकालीन उदाहरण
- सामाजिक सुधार: 19वीं सदी के प्रारंभ में, भारतीय समाज सती प्रथा, बाल विवाह कठोर जाति व्यवस्था जैसे रूढ़िवादी प्रथाओं से गहराई से बंधा हुआ था। राजा राम मोहन राय ने समझा कि भारतीय समाज के लिये वास्तविक स्वतंत्रता सुधार में निहित है, जो परंपरा के विरुद्ध विद्रोह नहीं बल्कि उसकी सावधानीपूर्वक पुनर्व्याख्या है।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर और संविधान ने यह माना कि कानूनी-राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है जब तक सामाजिक एवं आर्थिक प्रतिबंधों को दूर न किया जाये।
- उनका संविधान निर्माण भारत की ऐतिहासिक आवश्यकताओं (जाति, पदानुक्रम, उत्पीड़न) की समझ पर आधारित था और स्वतंत्रता को उसी के अनुसार अभिकल्पित किया गया।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर और संविधान ने यह माना कि कानूनी-राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है जब तक सामाजिक एवं आर्थिक प्रतिबंधों को दूर न किया जाये।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: लोकतांत्रिक समाजों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मूल अधिकार है (अनुच्छेद 19), तथापि यह स्वतंत्रता दूसरों को हानि न पहुँचाने की जिम्मेदारी के साथ आती है, जैसा कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाई गई सीमाओं से स्पष्ट होता है।
- इस संदर्भ में आवश्यकता की स्वीकृति का अर्थ यह स्वीकार करना है कि स्वतंत्रता के प्रयोग से दूसरों के अधिकारों और सम्मान का उल्लंघन न हो।
- सूचना का अधिकार (RTI) आंदोलन: संस्थागत जवाबदेही की आवश्यकता को समझते हुए, नागरिकों ने लोकतांत्रिक उपायों (याचिका, सुनवाई, विधिक संरचना) का उपयोग कर आंदोलन किया जिससे RTI अधिनियम, 2005 अस्तित्व में आया।
- भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO): सीमित बजट और तकनीकी बाधाओं के कारण, भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को गंभीर संसाधन सीमाओं के तहत संचालित करना पड़ा। ISRO ने कम लागत और उच्च दक्षता के नवाचार की आवश्यकता को स्वीकार किया।
- मंगलयान (मंगल ऑर्बिटर मिशन) जैसे मिशन सफल रहे क्योंकि बाधाओं को स्वीकार किया गया और उन्हें डिजाइन सिद्धांतों में शामिल किया गया।
- कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR): उद्यमी नवाचार और जोखिम लेने के माध्यम से स्वतंत्रता का प्रयोग करते हैं।
- हालाँकि, इस स्वतंत्रता के साथ यह जिम्मेदारी भी आती है कि उनके कार्य समाज को हानि न पहुँचाएँ। उद्यमियों को अपने उत्पादों और सेवाओं के सामाजिक तथा पर्यावरणीय प्रभावों का विचार करना आवश्यक है, जैसा कि सामाजिक रूप से जिम्मेदार व्यवसायों एवं कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के उदय से स्पष्ट होता है।
निष्कर्ष
जब स्वतंत्रता को संरचनात्मक, ऐतिहासिक या संस्थागत आवश्यकताओं की समझ के साथ जोड़ा जाता है, तो वह सार्थक, धारणीय एवं नैतिक बनती है। सामाजिक सुधार हो, संवैधानिक रचना हो, जनतांत्रिक सक्रियता हो या वैज्ञानिक नवाचार, भारतीय इतिहास एवं समकालीन अनुभव इस गहन दार्शनिक सत्य को समृद्ध रूप से प्रदर्शित करते हैं।
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