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प्रश्न :
1. "बुराई के साथ असहयोग करना, अच्छाई के साथ सहयोग करने से अधिक आवश्यक कर्त्तव्य है।"
17 May, 2025 निबंध लेखन निबंध
2. "दुनिया शिक्षित बेकार लोगों से भरी पड़ी है।"उत्तर :
अपने निबंध को समृद्ध करने के लिए उद्धरण:
- “बुराई के साथ असहयोग करना भी उतना ही बड़ा कर्तव्य है जितना अच्छाई के साथ सहयोग करना” - 〜 महात्मा गांधी
- "बुराई की जीत के लिये केवल इतना ही काफी है कि अच्छे लोग कुछ न करें।" 〜 एडमंड बर्क
- "कहीं भी हो रहा अन्याय, हर जगह न्याय के लिये खतरा है।" 〜 मार्टिन लूथर किंग जूनियर
सैद्धांतिक और दार्शनिक आयाम:
- नैतिक उत्तरदायित्व: अच्छाई के साथ सहयोग का तात्पर्य है— न्याय और धर्म की सक्रिय स्थापना में भागीदारी, जबकि बुराई के साथ असहयोग का अर्थ है—अनैतिकता और अन्याय का प्रतिरोध करना। ये दोनों ही कार्य एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिये अनिवार्य नैतिक दायित्व हैं।
- गांधीवादी 'सत्याग्रह' का दर्शन: महात्मा गांधी का 'असहयोग' केवल निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं था, बल्कि यह एक नैतिक संकल्प था। यह सत्य (Truth) और अहिंसा (Non-violence) के सिद्धांतों पर आधारित था, जो इस बात पर बल देता था कि अन्यायपूर्ण कानूनों या व्यवस्थाओं का पालन करने से इनकार करना अर्थात् असहयोग एक शक्तिशाली नैतिक रुख है, जिसमें सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा की जाती है।
- कांट का नैतिक दर्शन: इमैनुएल कांट के 'श्रेणीबद्ध अनिवार्यता' (Categorical Imperative) के अनुसार, व्यक्ति को ऐसे नैतिक नियमों के अनुसार आचरण करना चाहिये जो सार्वभौमिक रूप से लागू किये जा सकें। इस दृष्टिकोण से यदि कोई व्यक्ति बुराई का समर्थन करता है, तो वह उस अनैतिकता को सार्वभौमिक बना देता है, जो नैतिक रूप से स्वीकार्य नहीं है।
- सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत: सामाजिक अनुबंध का तात्पर्य है कि प्रत्येक नागरिक का यह उत्तरदायित्व है कि वह सामाजिक भलाई (Common Good) की रक्षा करे। इसमें अन्याय और बुराई का प्रतिरोध— चाहे वह सक्रिय हो या निष्क्रिय (असहयोग के माध्यम से) शामिल है।
- धार्मिक दृष्टिकोण: बौद्ध धर्म जैसी कई धार्मिक परंपराएँ यह सिखाती हैं कि व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह बुराई का त्याग करे और सदाचार का समर्थन करे। यह दृष्टिकोण केवल व्यक्तिगत अंतरात्मा की बात नहीं करता, बल्कि सामाजिक नैतिकता की सामूहिक चेतना को भी रेखांकित करता है।
- उदाहरण के लिये बुद्ध ने 'कुशल' (सद्कर्म) और 'अकुशल' (दुष्कर्म) कर्मों के सिद्धांत का उपदेश दिया और अनुयायियों को 'सम्यक वाणी', 'सम्यक कर्म' तथा 'सम्यक आजीविका' जो आर्य अष्टांगिक मार्ग के अंग हैं, के विकास हेतु प्रेरित किया।
ऐतिहासिक एवं नीतिगत उदाहरण:
- भारत का स्वतंत्रता संग्राम: महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाया गया असहयोग आंदोलन (वर्ष 1920-22) औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध जन-सहभागिता से पूर्ण असहयोग का एक अग्रणी उदाहरण था। यह इस सिद्धांत पर आधारित था कि अन्याय और अत्याचार से असहयोग करना, उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि न्याय और स्वतंत्रता से सहयोग करना।
- अमेरिका का सिविल राइट्स आंदोलन: अफ्रीकी-अमेरिकियों द्वारा भेदभावपूर्ण कानूनों के विरुद्ध केवल बहिष्कार और धरना प्रदर्शन जैसे कदम उठाना, समान अधिकारों के लिये उनकी सक्रिय मांग के समान ही महत्त्वपूर्ण था।
- डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर द्वारा प्रेरित और नेतृत्व किये गए प्रतिरोध के इन अहिंसक कृत्यों ने आंदोलन की नैतिक शक्ति को मूर्त रूप दिया।
समकालीन उदाहरण:
- राजनयिक असहयोग: पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को समर्थन दिये जाने के विरोध में भारत ने एक दशक तक SAARC शिखर सम्मेलन का बहिष्कार कर राजनयिक स्तर पर असहयोग का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया।
- नैतिक असहयोग और व्हिसलब्लोअर: अशोक खेमका जैसे व्यक्तियों ने सरकारी और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े होकर यह दर्शाया कि अनैतिक कार्यों से असहयोग करना समाज में नैतिकता एवं जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु अनिवार्य है।
- बहिष्कार आंदोलन: अनैतिक कार्यों (पर्यावरण को नुकसान पहुँचाना, मानवाधिकारों का उल्लंघन) में लिप्त कंपनियों का बहिष्कार बुराई के साथ सामूहिक स्तर पर अनैतिकता से असहयोग को प्रदर्शित करता है।
- सोशल मीडिया सक्रियता: #MeToo जैसे अभियान जहाँ यौन उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, वहीं Black Lives Matter आंदोलन शोषणकारी व्यवस्थाओं से असहयोग का आह्वान करता है।
निष्कर्ष:
सकारात्मक कार्यों में सहयोग जितना आवश्यक है, अन्याय और अनैतिकता से असहयोग भी उतना ही अपरिहार्य है। जैसा कि गांधीजी ने कहा था — "अन्याय के समक्ष मौन रहना या उसमें सहयोग करना, नैतिकता और मानवता के मूलभूत सिद्धांतों के साथ विश्वासघात है।"
सद्भावना के साथ सक्रिय सहयोग और दृढ़ असहयोग के संतुलन से ही एक न्यायपूर्ण और करुणामय समाज की स्थापना संभव है।
2.अपने निबंध को समृद्ध करने के लिये उद्धरण:
- "मूल्यविहीन शिक्षा, चाहे जितनी उपयोगी क्यों न हो, मनुष्य को केवल एक चतुर शैतान बना देती है।" 〜 सी.एस. लुईस
- "शिक्षा का उद्देश्य गहन विचार और समालोचनात्मक सोच को विकसित करना है। बुद्धिमत्ता के साथ चरित्र का समावेश ही सच्ची शिक्षा का लक्ष्य है।” 〜 मार्टिन लूथर किंग जूनियर।
- “ज्ञान में किया गया निवेश सबसे अधिक लाभ देता है।” 〜 बेंजामिन फ्रैंकलिन
सैद्धांतिक और दार्शनिक आयाम:
- शिक्षित परित्यक्त एवं विवेक की आवश्यकता: ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ व्यक्ति ने औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त की है, परंतु नैतिक बोध, आलोचनात्मक चिंतन अथवा सामाजिक उत्तरदायित्व का अभाव उसमें स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। ऐसे व्यक्तियों की शिक्षा समाज के लिये उपयोगी होने के बजाय हानिकर बन जाती है — यह 'शिक्षित भ्रांतता' (Educated Dereliction) की स्थिति है।
- इसका कारण यह है कि शिक्षा केवल ज्ञान या कौशल प्राप्त करने तक सीमित रह जाती है, जबकि 'विवेक' उस ज्ञान का न्यायसंगत और नैतिक उपयोग सुनिश्चित करता है।
- शिक्षा के बावजूद 'विवेक' का अभाव भटकाव की ओर ले जाता है।
- इसका कारण यह है कि शिक्षा केवल ज्ञान या कौशल प्राप्त करने तक सीमित रह जाती है, जबकि 'विवेक' उस ज्ञान का न्यायसंगत और नैतिक उपयोग सुनिश्चित करता है।
- मानव पूंजी सिद्धांत की आलोचना: मानव पूंजी सिद्धांत यह मानता है कि शिक्षा में निवेश से उत्पादकता और आर्थिक विकास बढ़ता है। किंतु जब शिक्षा केवल सूचनाओं की भरमार या डिग्री अर्जन तक सीमित रह जाए तथा उसमें मूल्यबोध, भावनात्मक बुद्धिमत्ता या नैतिक प्रशिक्षण का अभाव हो, तब यह सिद्धांत अपूर्ण एवं हानिप्रद प्रतीत होता है। ऐसे में शिक्षित व्यक्ति नैतिक संकटों के समाधान हेतु तैयार नहीं होता और न ही वह समाज के प्रति कोई सार्थक योगदान दे पाता है।
- शिक्षा-दर्शन (जॉन ड्यूई): शिक्षा अनुभवात्मक और समग्र होनी चाहिए, जिसमें न केवल बुद्धि बल्कि सहानुभूति और नागरिक भावना को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। असफलता शिक्षित अवनति की ओर ले जाती है। जॉन ड्यूई के अनुसार शिक्षा एक अनुभवात्मक, समग्र और सामाजिक प्रक्रिया होनी चाहिये, जिसमें बौद्धिक विकास के साथ-साथ सहानुभूति, नागरिकता-बोध एवं नैतिकता का भी समावेश हो। यदि शिक्षा केवल अकादमिक सफलता या रोज़गारोन्मुखी बनकर रह जाए, तो वह 'शिक्षित भ्रांतों' का निर्माण करती है।
- भारतीय दृष्टिकोण: प्राचीन भारतीय ग्रंथ जैसे भगवद्गीता और उपनिषद इस तथ्य पर बल देते हैं कि सच्चा ज्ञान केवल 'अध्ययन' से नहीं, बल्कि आत्मबोध, कर्त्तव्यपालन और नैतिक जीवन से प्राप्त होता है। 'विद्या' तभी सार्थक है जब वह व्यक्ति के भीतर आत्मसंयम, धर्मबोध और लोककल्याण की भावना जागृत करे।
- सुकरात की समालोचना: सुकरात ने आत्म-ज्ञान और सद्गुण के बिना केवल तथ्यों के संचय की आलोचना की और चेतावनी देते हुए यह कहा था कि जब तक ज्ञान व्यक्ति को आत्मचिंतन एवं नैतिक उत्थान की ओर प्रेरित न करे, तब तक वह अधूरा और व्यर्थ है। शिक्षा का उद्देश्य ‘केवल जानना’ नहीं, बल्कि ‘बेहतर मनुष्य बनना’ होना चाहिये।
- शिक्षित भ्रांतता के कारण:
- शिक्षा का व्यावसायीकरण: आज शिक्षा एक 'उद्योग' के रूप में बदल चुकी है, जहाँ रोज़गार प्राप्ति और अंक-संचय प्रमुख उद्देश्य बन चुके हैं। नैतिकता, सामाजिक उत्तरदायित्व और समग्र विकास जैसे आयाम पाठ्यक्रम से बाहर होते जा रहे हैं। इस प्रवृत्ति से ऐसे स्नातक तैयार हो रहे हैं जिनके पास 'कौशल' तो है, परंतु 'संवेदनशीलता' या ‘विवेक’ नहीं।
- वास्तविक समस्याओं से विच्छिन्नता: जब शिक्षा केवल सैद्धांतिक हो जाए और जीवन, समाज या पर्यावरण की समस्याओं से उसका कोई संबंध न हो, तब वह न केवल नीरस हो जाती है, बल्कि व्यक्ति को संवेदनशून्य भी बना देती है। शिक्षा को यदि केवल आर्थिक उन्नयन का साधन मान लिया जाए, तो उसका उद्देश्य आत्मविकास या लोकहित नहीं रह जाता।
ऐतिहासिक एवं नीतिगत उदाहरण:
- भारत में औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था: मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने ऐसे शिक्षित कर्मचारी और लिपिक तैयार किये जो समालोचनात्मक चिंतन या सामाजिक सुधार की क्षमता से वंचित थे। इस प्रणाली ने ऐसे 'शिक्षित परंतु दिशाहीन' वर्ग को जन्म दिया जो उपनिवेशवादी शासन का उपागम बन गया।
- शिक्षा के तीव्र प्रसार के बावजूद यदि शिक्षाशास्त्र, नैतिकता एवं सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित सुधार न किये जाएँ, तो ऐसे स्नातक उत्पन्न होते हैं जो सामाजिक चुनौतियों का सामना करने में अक्षम होते हैं।
- विश्व के अनेक ऐसे देश उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं जहाँ साक्षरता दर तो उच्च है, परंतु नवाचार, सामाजिक प्रगति एवं नागरिक उत्तरदायित्व में अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। इससे स्पष्ट होता है कि मात्र शिक्षा प्राप्त करना, प्रभावी और नैतिक नागरिकता की गारंटी नहीं है।
- कॉर्पोरेट घोटाले: धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के उदाहरण नैतिक आधारहीन शिक्षा को दर्शाते हैं। कई स्नातक बेरोज़गार या कम रोज़गार वाले रह जाते हैं, जो शिक्षा और बाज़ार या सामाजिक जरूरतों के बीच असंतुलन को उजागर करता है।
- सोशल मीडिया पर गलत सूचना: आज के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया पर भ्रामक सूचना का प्रसार कभी-कभी शिक्षित व्यक्तियों द्वारा ही किया जाता है, जो समालोचनात्मक सोच की कमी को उजागर करता है।
- कई देशों में ऐसे नेतृत्वकर्त्ता भी देखे जाते हैं जो शिक्षित तो हैं, परंतु नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट हैं।
निष्कर्ष:
शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्रियाँ प्राप्त करना नहीं, बल्कि ऐसा विवेक विकसित करना होना चाहिये जो समाज के व्यापक हित में कार्य करे। जब तक शिक्षा प्रणाली नागरिकों एवं नेतृत्व को नैतिक, समावेशी और विवेकशील बनाने में सक्षम नहीं होती, तब तक किसी भी समाज की प्रगति अधूरी रहेगी। इसलिये शिक्षा और सामाजिक चेतना के बीच के अंतराल को दूर करना आज की एक नितांत आवश्यकता है।
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