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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    यद्यपि संविधान के तहत सार्वजनिक सेवाओं के उपभोग में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव दंडनीय अपराध है, तथापि देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में दलित महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है। कारण सहित स्पष्ट कीजिये।

    21 Jun, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    प्रश्न-विच्छेद

    • संवैधानिक उपबंधों के बाद भी स्वास्थ्य क्षेत्र में दलित महिलाओं की चिंताजनक स्थिति को कारण सहित स्पष्ट करना है।

    हल करने का दृष्टिकोण

    • प्रभावी भूमिका में समानता के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अंतर्गत बताते हुए इसकी संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट करें।
    • तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में दलित महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधी चिंताजनक स्थिति को स्पष्ट करें तथा इसके कारणों को बताएँ।
    • प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें।

    भारत के संविधान में अनुच्छेद 14-18 के अंतर्गत समानता के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है। अनुच्छेद-15 जहाँ धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को समाप्त करता है, वहीं अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को निषिद्ध करता है। संविधान के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन दंडनीय अपराध है।परन्तु, विडंबना यह है कि इतना होने के बाद भी भारत में दलितों के विरुद्ध हिंसा चिंताजनक स्थिति में बनी हुई है।

    दलितों के विरुद्ध हिंसा भले ही बाहरी दुनिया के लिये भेदभाव का दिखता हुआ मुख्य बिंदु है लेकिन कई अन्य कारक भी हैं जो दलितों के साथ भेदभाव की वजह बनते हैं, और स्वास्थ्य उन्हीं में से एक कारक है। स्वास्थ्य संबंधी लगभग सभी मानकों में दलित महिलाओं का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से भी खराब रहा है। हालिया आँकड़ों के अनुसार, देश भर में  25-49 आयु वर्ग की जो महिलाएँ रक्ताल्पता की शिकार हैं उनमें से 55.9% महिलाएँ दलित समुदाय से हैं जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 53% है। जीवन प्रत्याशा के संदर्भ में, दलित महिलाओं की औसत आयु सवर्ण महिलाओं से 14.6 वर्षों कम है। पिछले पाँच वर्ष के आँकड़ों के अनुसार जहाँ दलित समुदाय की मात्र 52.2% महिलाओं को प्रसव के समय चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराई गई, वहीं 15-49 आयु वर्ग की दलित महिलाओं में प्रत्येक चार में से एक महिला को बॉडी मास इंडेक्स के अनुसार अल्प पोषित करार दिया गया है। उच्च जाति की महिलाओं के संदर्भ में यह अनुपात सर्वाधिक अनुकूल है।

    दलित जो देश की कुल जनसंख्या का 16.6% हैं, उनकी स्वास्थ्य असमानताएँ पूर्व और वर्तमान में उनके प्रति हो रहे भेदभावों का परिणाम हैं। इसके अंतर्गत सीमित शैक्षिक अवसर, उच्च स्वास्थ्य जोखिम वाले व्यवसायों को अपनाने की मजबूरी, भूमिहीनता एवं बेरोज़गारी तथा आवास जैसी मूलभूत सुविधाओं तक पहुँच में भेदभाव इस समस्या को और बढ़ा देता है।

    उदाहरण के तौर पर हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक ज़िले में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के नर्सिंग स्टाफ द्वारा कथित तौर पर एक दलित गर्भवती महिला को अस्पताल में भर्ती करने से मना कर दिया गया। भेदभाव का यह एकमात्र मामला नहीं है। दलितों को अस्पताल में प्रवेश न देने या उपचार न करने के कई मामले सामने आ चुके हैं, साथ ही बहुत से ऐसे भी सामने मामले आए हैं जिनमें उन्हें एडमिट तो कर लिया गया लेकिन उनके साथ उपचार में भेदभाव बरता गया।

    एनएफएचएस के आँकड़ों के अनुसार, दलित समुदाय की महिलाओं में से 70.4% को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, उन्हें अस्पताल जाने की इजाज़त न मिलना, स्वास्थ्य सुविधाओं की सुदूर अवस्थिति तथा धन की कमी जैसे कारणों को भी ज़िम्मेदार पाया गया।

    स्वास्थ्य क्षेत्र में दलित महिलाओं के साथ भेदभाव की इस स्थिति में सुधार लाने के लिये राज्य सरकारों को जहाँ मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कानून का कड़ाई से पालन के साथ-साथ उल्लंघन के लिये सख्त दंड का प्रावधान करना चाहिये, वहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में व्यापक सुधार भी करने होंगे। इसके साथ ही, एक सभ्य समाज के ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में हमें भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा क्योंकि दलितों को भी बराबरी के साथ सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है।

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