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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ‘‘यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल की है, इसके बावजूद महिलाओं और नारीवादी आंदोलन के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक रहा है।’’ महिला शिक्षा और महिला सशक्तीकरण की योजनाओं के अतिरिक्त कौन-से हस्तक्षेप इस परिवेश के परिवर्तन में सहायक हो सकते हैं?

    24 May, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय

    उत्तर :

    स्वतंत्र भारत में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में निरंतर सुधार हो रहा है। वर्तमान महिलाओं की साक्षरता दर बढ़कर 65.4 प्रतिशत हो गई है तथा पंचायत के स्तर पर निर्वाचित प्रतिनिधियों में लगभग आधी संख्या महिलाओं की है।

    पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण के कारण

    • समाजीकरण की प्रक्रिया में बच्चे पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण सीख जाते हैं, जिसमें एक पुरुष/पिता घर का मुखिया होता है।
    • समाज में मातृत्व को महिलाओं के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण विषय बना दिया जाता है, जो महिलाओं की गतिशीलता को सीमित करता है।
    • रूढ़िवादी दृष्टिकोण है कि महिलाएँ हिंसा, भेदभाव और अन्याय के प्रति संवेदनशील होती हैं।
    • बलात्कार, यौन उत्पीड़न, यौन शोषण, घरेलू हिंसा, बहु-विवाह, निकाह हलाला, ट्रिपल तलाक, कन्या भ्रूण हत्या, सती प्रथा, दहेज हत्या, कुपोषण, अल्पपोषण आदि महिलाओं को घर तक सीमित करके आर्थिक रूप से शोषित, सामाजिक रूप से वंचित और राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रखते हैं।
    • धर्म और धार्मिक संस्थाएँ पितृसत्तात्मक सामाजिक प्रथाओं को वैध बनाती हैं।

    महिलाओं की स्थिति में सुधार और पितृसत्तात्मक रवैये को समाप्त करने के लिये आवश्यक हस्तक्षेप

    • सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिये व्यवहार परिवर्तन कार्यक्रमों, रोल मॉडलिंग और भावनात्मक अपील पर ध्यान देना; जैसे- बेटियों के साथ सेल्फी लेना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान।
    • महिलाओं की सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा व्यवस्था अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक जीवन में अधिक संख्या में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देती है; जैसे- उत्तर प्रदेश का मिशन शक्ति, रोमियो स्क्वॉड।
    • पंचायत की तरह संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये आरक्षण। इस हेतु 108वें संविधान संशोधन विधेयक पर पुनर्विचार करना।
    • महिला विशिष्ट कानूनों; जैसे घरेलू हिंसा अधिनियम, मातृत्व लाभ अधिनियम, गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान-तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (PCPNDT) आदि में विधायी आधुनिकता का दृष्टिकोण रहा है, किंतु कई मौजूदा कानूनों को और अधिक लिंग तटस्थ बनाने की आवश्यकता है; जैसे- वैवाहिक बलात्कार।
    • पारिवारिक मूल्य के स्तर पर लैंगिक समानता की शुरुआत परिवार के अंदर माता-पिता, जीवनसाथी और भाई-बहनों के दृष्टिकोण में होनी चाहिये।
    • महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में दोष सिद्धि की दर NCRB की रिपोर्ट के अनुसार मात्र 26 प्रतिशत है। इस संबंध में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
    • सभी क्षेत्रों में महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिये संस्थागत स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है; जैसे- हाल में महिलाओं को NDA परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गई है।

    स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है, किंतु लैंगिक समानता में बाधा डालने वाले मुद्दों के समाधान के लिये अधिक मौलिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। नारीवादी आंदोलन का समर्थन करने के लिये शिक्षा और सशक्तीकरण योजनाओं के साथ अन्य उपायों को भी समाज में पूरी तरह से लागू करने की आवश्यकता है। हाल ही के वर्षों में महिलाओं द्वारा एक क्रमिक परिवर्तन का अनुभव किया गया है और वे अधिक स्वतंत्र और जागरूक हो गई हैं, जिसमें निरंतरता बनाए रखने की आवश्यकता है।

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