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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रगतिवाद एवं छायावाद के मध्य के अंतर्संबंधों को स्पष्ट करते हुए प्रगतिवाद की संवेदनागत विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।

    10 Jun, 2021 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    छायावाद के कवि स्वयं ही 1930 के दशक में समझ चुके थे कि अब रोमानियत का युग समाप्त हो चुका है और हिंदी कविता का स्वाभाविक विकास किसानों, मजदूरों और वंचित वर्गों के साथ जुड़ने में ही है। छायावादी कवियों पर भी यह विचारधारा दबाव डाल रही थी, जो 1936 के आसपास की उनकी कविताओं में साफ देखी जा सकती है। उदाहरण स्वरूप पंत ने इस दौर में युगवाणी, युगांतर और ग्राम्या जैसी कविताएँ लिखी, जिनमें शहरी और अभिजात्य रुचिओं के विपरीत ग्रामीण और साधारण वर्ग के प्रति निष्ठा दिखती है-

    देख रहा हूँ आज विश्व को, मैं ग्रामीण नयन से,
    सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से। ( युगवाणी)
    तुम वाहन कर सको जन मन में मेरे विचार,
    वाणी मेरी, चाहिये तुम्हें क्या अलंकार?

    पंत की तरह निराला भी समाजवाद से प्रेरित नजर आते हैं उनकी भिक्षुक जैसी प्रसिद्ध कविताओं में गरीबों के प्रति करुणा का भाव दिखाई पड़ता है तो वह तोड़ती पत्थर जैसी कविताओं में करुणा के साथ-साथ आक्रामक तेवर भी नजर आते हैं- करती बार बार प्रहार/ सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकार। इसके अतिरिक्त बादल राग की इन पंक्तियों में तो लगता है कि वह क्रांति की घोषणा ही कर रहे हैं-

    जीर्ण बाहु है, शीर्ण शरीर
    तुझे बुलाता कृषक अधीर
    ए विप्लव के वीर।

    छायावाद के अन्य प्रमुख स्तंभ जैसे जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की कविताओं में अप्रत्यक्ष रूप से क्रमशः वर्ग संघर्ष की दबी हुई अनुगूंज व महिला स्वतंत्रता के स्वर के रूप में उल्लिखित है।

    विषमता की पीड़ा से व्यस्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान
    वर्गों की खाई बन फैली, कभी नहीं जो जुड़ने की।

    स्पष्ट है कि प्रगतिवाद छायावाद के विरोध में पैदा हुआ आंदोलन नहीं है। छायावादी विकसनशील आंदोलन था जो अपने प्रारंभिक चरण में रोमानी तेवर धारण करता था तो अंतिम चरण तक आते-आते समाज के वंचित वर्गों की चिंताओं से जुड़ने लगा था। प्रगतिवाद छायावाद के अंतिम दौर की कविताओं का सहज स्वाभाविक विकास है।

    प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ:

    • मार्क्सवाद में विश्वास: प्रगतिवादी चिंतन मार्क्सवादी विचारधारा से अभिप्रेरित है जो साम्यवाद के आदर्श को पूरा करने में विश्वास रखता है। मार्क्स के अनुसार, पूंजीवादी व्यवस्था हिंसक क्रांति के साथ समाप्त होगी जिसके परिणाम स्वरूप पहले समाजवादी तथा अंततः साम्यवादी व्यवस्था आएगी जिसमें कोई शोषक और शोषित नहीं होगा। एक अभी सोवियत रूस में क्रांति का परचम फैलाने वाली मजदूर सेना को आदर के भाव से देखते हैं-

    लाल क्रांति की लड़ने वाली, मजदूर सेना आम,
    उनको, उनके स्त्री पुरुषों को, मेरा लाल सलाम। (मुक्तिबोध)
    लाल रूस है ढाल साथियों, सब मजदूर किसानों की,
    लाल उसका दुश्मन साथी दुश्मन सब इंसानों का। (नरेंद्र शर्मा)

    • समाजवादी यथार्थवाद: प्रगतिवादी कवि यथार्थवाद में विश्वास रखते हैं, आदर्शवाद या आध्यात्मवाद में नहीं। इनका यथार्थवाद सामाजिक मान्यताओं पर आधारित है जिसके अनुसार मानव के यथार्थ को निर्धारित करने वाली सबसे ताकतवर शक्ति अर्थव्यवस्था या उत्पादन प्रणाली है। मार्क्स ने भी कहा था कि सारा चिंतन सारे संस्कृति पेट भरने के बाद ही अस्तित्व में आता है यही भाव इन कवियों का भी है-

    दाने आए घर के अंदर, कई दिनों के बाद,
    चमक उठी घर भर की आँखें, कई दिनों के बाद। ( नागार्जुन)

    • पूंजीवादी व्यवस्था से घृणा: प्रगतिवादी साहित्य के आक्रोश का केंद्र पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीवादी वर्ग है। मार्क्सवाद के अनुसार पूंजी पतियों द्वारा स्थापित उद्योगों में उत्पादन का संपूर्ण कार्य मजदूर करते हैं किंतु उससे पैदा होने वाला धन पूंजीपति हड़प लेते हैं। इस अधिशेष मूल्य को हस्तगत करके वे मजदूर का शोषण करते हैं-

    तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ,
    तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

    • शोषितों के प्रति सहानुभूति और आस्था: कविता में शोषण व अन्याय की चक्की में पिसते हुए मजदूर एवं किसान वर्गों के प्रति करुणा व आस्था का भाव है। कवियों को गहरा विश्वास है कि मजदूर और किसान बढ़कर वंचित लोग ही अंत का समाज की एक नियत बदलने की शक्ति रखते हैं-

    मैंने उसको जब जब देखा, लोहा देखा,
    लोहा जैसे तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा,
    मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा। ( केदारनाथ अग्रवाल)

    • सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन: प्रगतिवादी कवि सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते हैं। यह परिवर्तन हृदय परिवर्तन जैसी काल्पनिकता से नहीं, वरन वर्ग संघर्ष के माध्यम से ही होगा। यह परिवर्तन आमूलचूल होगा, “व्यवस्था में नहीं”, “व्यवस्था का” होगा:

    सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,
    मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
    दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो ,
    सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। ( दिनकर)

    प्रगतिवादियों की स्पष्ट धारणा है कि वर्ग संघर्ष में बीच का कोई रास्ता नहीं होता, जो शोषित वर्ग के पक्ष में नहीं है वह शोषक के पक्ष में माना जाएगा। तटस्था की चादर ओढ़ने वाले भी अंततः इतिहास में अपराधी ही माने जाएँगे-

    समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
    जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।

    • राजनीतिक चेतना: प्रगतिवादी कवि अन्य कवियों की तरह राजनीति से दूर नहीं भागते बल्कि राजनीति को यथार्थ की पहचान का प्रतीक और यथार्थ बदलने की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में देखते हैं। ये उदारवादी लोकतंत्र का अंध समर्थन करने के स्थान पर उसकी आंतरिक विसंगतियों का चित्रण करते हैं और बताते हैं कि तथाकथित लोकतंत्र वस्तुतः किस प्रकार शोषक वर्ग के हितों की सुरक्षा व वृद्धि करता है-

    “खादी ने मलमल से गुपचुप साँठगाँठ कर डाली है,
    बिरला-टाटा-डालमिया की तीसों दिन दिवाली है।”
    “लूटपाट के काले धन की करती है रखवाली,
    पता नहीं दिल्ली की देवी गोरी है या काली।”
    “ श्वेत श्याम रतनार अखिया निहार के,
    सिंडिकेट प्रभुओं की पग धूरि झार के,
    लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के,
    खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के,
    आए दिन बहार के।” (नागार्जुन)

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