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तीव्र, निष्पक्ष और पारदर्शी न्यायपालिका की ओर

  • 10 Oct 2025
  • 174 min read

यह एडिटोरियल 07/07/2025 को द हिंदू में प्रकाशित Calling out the criticism of the Indian judiciary लेख पर आधारित है। इस लेख के माध्यम से उस बढ़ते को सामने लाया गया है जिसमें भारत की न्यायपालिका को विकास में बाधा के रूप में देखा जा रहा है, जबकि वास्तविक समस्या विभिन्न संस्थाओं में मौजूद व्यवस्थागत खामियों में निहित है। साथ ही इसमें यह तर्क दिया गया है कि न्याय वितरण प्रणाली को देश के विकासात्मक लक्ष्यों के अनुरूप लाने के लिये समन्वित सुधारों की आवश्यकता है। 

प्रिलिम्स के लिये: भारत की न्यायपालिका, ई-कोर्ट मिशन, राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड, नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ, ADR तंत्र, मध्यस्थता अधिनियम, 2023, जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) अधिनियम, 2023, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा 

मेन्स के लिये: भारतीय न्यायपालिका में परिवर्तन लाने वाली प्रमुख प्रगति, भारतीय न्यायपालिका के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ।

भारत की न्यायपालिका देश की विकास यात्रा से जुड़ी चर्चाओं के केंद्र में तेज़ी से उभर रही है, जहाँ नीति-निर्माण के क्षेत्र में अनेक प्रभावशाली मत इसे विकास में एक प्रमुख बाधा के रूप में चिह्नित कर रहे हैं। यह आलोचना, जहाँ न्यायिक विलंब एवं प्रक्रियात्मक जटिलताओं जैसी वास्तविक समस्याओं को उजागर करती है, वहीं यह एक बड़े और आपस में जुड़े हुए संस्थागत संकट की अपूर्ण तस्वीर पेश करती है। न्यायालय उन सीमाओं के भीतर कार्य करता है जो मुख्यतः विधायी प्रारूप-निर्माण की गुणवत्ता, कार्यपालिका की मुकदमेबाज़ी की प्रवृत्ति और संसाधनों की पुरानी कमी से तय होती हैं, ये सभी ऐसे पहलू हैं जो न्यायपालिका के नियंत्रण से परे हैं। हालाँकि न्यायिक सुधार की आवश्यकता निर्विवाद है, वहीं इसका समाधान केवल न्यायपालिका में बदलाव से नहीं होगा, बल्कि वास्तव में इसके लिये विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका तीनों में समन्वित और व्यापक संस्थागत सुधार आवश्यक है। 

भारतीय न्यायपालिका में परिवर्तन लाने वाली प्रमुख प्रगतियाँ क्या हैं? 

  • ई-कोर्ट परियोजना के माध्यम से सशक्त डिजिटल परिवर्तन: ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना के तृतीय चरण का कार्यान्वयन गति, सुगम्यता और पारदर्शिता के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया में तेज़ी से बदलाव ला रहा है।  
    • यह पहल कागज़ रहित, डिजिटल रूप से सक्षम न्यायालय प्रणाली में परिवर्तन और न्यायिक प्रशासन को सुव्यवस्थित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
    • सरकार ने ई-कोर्ट चरण III (वर्ष 2023-2027) के लिये ₹7,210 करोड़ आवंटित किये हैं। 
      • अक्तूबर 2024 तक, भारतीय वर्चुअल न्यायालयों ने 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 6 करोड़ से अधिक ट्रैफिक चालान मामलों को निपटाया है तथा ऑनलाइन जुर्माने के रूप में ₹649.81 करोड़ से अधिक की राशि एकत्र की है। 
  • संवैधानिक पीठ की सुनवाई की लाइव-स्ट्रीमिंग: सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही, विशेष रूप से संवैधानिक मामलों से संबंधित कार्यवाही, को लाइव-स्ट्रीम करने का निर्णय, सच्ची न्यायिक पारदर्शिता एवं सार्वजनिक जाँच प्राप्त करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। 
    • इससे नागरिकों को न्यायलय-संबंधी कार्यप्रणाली देखने, प्रक्रिया को सरल बनाने और जवाबदेही बढ़ाने का अवसर मिलता है। 
    • लाइव स्ट्रीमिंग के नियम वर्ष 2022 में बनाए गए, जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय मार्च 2020 से जून 2024 तक 7.54 लाख से अधिक वर्चुअल सुनवाई करके न्याय तक खुली अभिगम्यता की सुविधा प्रदान करते हुए एक वैश्विक अग्रणी के रूप में उभरा। 
  • डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर और सूचना अभिगम्यता का विस्तार: राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) और सहायक सेवाओं के विकास ने सभी हितधारकों के लिये सूचना पहुँच में व्यापक सुधार किया है, जिससे वास्तविक काल में मामलों की स्थिति एवं निर्णय संबंधी डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो गया है। 
    • न्यायिक प्रशासन में डेटा-संचालित निर्णय लेने के लिये यह डिजिटल आधार महत्त्वपूर्ण है। 
    • NJDG 18,735 ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों को कवर करता है तथा 21.99 करोड़ से अधिक मामलों की स्थिति की जानकारी प्रदान करता है, साथ ही वादियों के लिये डिजिटल अंतराल को न्यूनतम करने के लिये 1,814 ई-सेवा केंद्रों की स्थापना भी करता है। 
  • संवैधानिक अधिकारों में सक्रिय न्यायिक सक्रियता: सर्वोच्च न्यायालय सशक्त न्यायिक सक्रियता की अपनी परंपरा को जारी रखे हुए है, जो सीमांत समूहों की रक्षा के लिये मूल अधिकारों की व्यापक व्याख्या करता है तथा विधायी या कार्यपालिका की निष्क्रियता के विरुद्ध लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखता है। 
    • यह सक्रिय भूमिका न्यायपालिका को संविधान के अंतिम संरक्षक के रूप में पुष्टि करती है। 
    • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ जैसे ऐतिहासिक फैसलों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अपराधमुक्त कर दिया तथा अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) का विस्तार करके सम्मान, स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को इसमें शामिल करना इस सक्रियता को दर्शाता है। 
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को प्राथमिकता देना: मध्यस्थता और पंचनिर्णय जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों (ADR) को बढ़ावा देने तथा इन्हें औपचारिक बनाने के लिये सुदृढ़ संस्थागत प्रयास किया जा रहा है, जो न्यायिक लंबित मामलों को कम करने एवं नागरिकों को विवादों के लिये तेज़, अधिक लागत प्रभावी समाधान प्रदान करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। 
    • यह रणनीति औपचारिक न्यायालय प्रणाली पर प्रबंधनीय मामलों का बोझ कम करती है। वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 जैसे विधायी संशोधनों ने वाणिज्यिक विवादों के लिये पूर्व-संस्था मध्यस्थता को अनिवार्य बना दिया, लोक अदालतों ने बड़ी संख्या में मामलों का निपटारा किया, जो वाणिज्यिक विवाद निपटान (ADR) को बढ़ाने के लिये एक ठोस प्रयास को दर्शाता है। 
  • मुकदमेबाज़ी को अपराधमुक्त करने और कम करने के विधायी उपाय: कार्यपालिका और विधायिका, न्यायपालिका की क्षमता संबंधी सीमाओं को स्वीकार करते हुए, गैर-गंभीर अपराधों एवं सरकार द्वारा संचालित मुकदमेबाज़ी से न्यायिक बोझ को कम करने के लिये प्रमुख कानूनी सुधारों में संलग्न हैं। 
    • दीर्घकालिक प्रणालीगत राहत के लिये यह अंतर-शाखा समन्वय आवश्यक है। 
    • जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) अधिनियम, 2023 ने 42 केंद्रीय कानूनों के 183 प्रावधानों को अपराधमुक्त कर दिया, जिसका सीधा उद्देश्य न्यायालयों में छोटे मामलों के प्रवाह को कम करना है।

भारतीय न्यायपालिका के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • लंबित मामलों की भारी संख्या और लंबित मामले: लंबित मामलों की विशाल संख्या सबसे स्पष्ट विफलता का प्रतिनिधित्व करती है, न्याय प्रदान करने में गंभीर रूप से विलंब करती है और अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन करती है। 
    • यह संरचनात्मक दबाव उस निरंतर मामलों की आवक से और भी बढ़ जाता है जो निस्तारण की गति से निरंतर अधिक रहती है। 
    • सभी न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें सितंबर 2025 तक सर्वोच्च न्यायालय में अब तक के सबसे अधिक 88,417 मामले शामिल हैं। 
      • इस विलंब के कारण विचाराधीन कैदियों की संख्या बढ़ रही है, जो जेल की कुल आबादी का 76% है। 
  • न्यायिक रिक्तियों की निरंतरता और न्यायाधीशों के बीच कम जनसंख्या अनुपात: सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की भारी कमी न्यायालयों की कार्यात्मक क्षमता को गंभीर रूप से सीमित कर देती है, जिससे लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है तथा कार्यरत न्यायाधीशों पर अत्यधिक कार्य का बोझ बढ़ रहा है। 
    • यह संरचनात्मक कमी सभी नागरिकों के लिये सुलभ न्याय के संवैधानिक लक्ष्य को कमज़ोर करती है। 
    • न्याय विभाग के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, भारत के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की कुल संख्या 1,114 है। 
      • वर्तमान में, केवल 769 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं, जिससे 345 पद, अर्थात् 30% से अधिक, रिक्त हैं। 
    • अधीनस्थ न्यायालयों में ही स्वीकृत पदों की संख्या 25,000 से अधिक होने के बावजूद लगभग 5,000 रिक्तियाँ हैं। 
  • नियुक्तियों में पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव: कॉलेजियम प्रणाली की अस्पष्टता और न्यायिक नियुक्तियों में विलंब, जवाबदेही, पक्षपात और योग्यता के बारे में गंभीर चिंताएँ उत्पन्न करती है, जिसके कारण 'अंकल जज सिंड्रोम' का लगातार आरोप लगता रहता है। 
    • चयन के लिये स्पष्ट और प्रकाशित मानदंडों का अभाव इस प्रक्रिया की सत्यनिष्ठा में जनता के विश्वास को कम करता है। 
    • वैधानिक अनुशासनात्मक तंत्र के अभाव का अर्थ है कि कदाचार के लिये 'आंतरिक प्रक्रिया' गोपनीय और गैर-बाध्यकारी है, जिसका प्रमाण यह है कि मार्च 2025 तक उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या मात्र 14.27% है, जो अपर्याप्त विविधता को दर्शाता है। 
  • अपर्याप्त न्यायिक अवसंरचना और प्रौद्योगिकी का अंगीकरण: निचली न्यायालयों में भौतिक और तकनीकी अवसंरचना गंभीर रूप से अपर्याप्त है, जिससे दक्षता में बाधा आ रही है तथा ई-फाइलिंग एवं वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग जैसी ई-कोर्ट्स की पहलों की पूर्ण उपयोगिता में बाधा आ रही है। 
    • यह कमी परिचालन संबंधी अड़चनें उत्पन्न करती है तथा न्यायिक प्रक्रिया को धीमा कर देती है। 
    • भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुसंधान और नियोजन केंद्र ने अपनी वर्ष 2023 की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला है कि किस प्रकार देश भर में न्यायाधीशों के लिये 4,200 न्यायालय कक्षों की भारी कमी है, जबकि कई ग्रामीण अदालतों में ई-कोर्ट्स परियोजनाएँ अभी भी अपर्याप्त कनेक्टिविटी एवं अपर्याप्त उपकरणों से जूझ रही हैं। 
  • सर्वोच्च न्यायालय में अति-केंद्रीकरण और चयनात्मकता: सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका, एक सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय और नियमित मामलों में अपील की अंतिम अदालत, दोनों के रूप में, कार्यभार के अति-केंद्रीकरण की ओर ले जाती है, जिससे अत्यावश्यक संवैधानिक मामलों की सुनवाई में गंभीर विलंब होता है। 
    • मामलों की कथित चयनात्मक सूची सर्वोच्च न्यायालय तक न्यायसंगत अभिगम्यता को लेकर चिंताओं को और बढ़ाती है। 
    • सितंबर 2025 में सर्वोच्च न्यायालय का लंबित मामला 88,417 मामलों के शिखर पर पहुँच गया, जिसमें अकेले अगस्त में संस्थागत दर 7,080 मामले थे, जिससे संविधान पीठ की सुनवाई का समय बहुत कम (मई 2025 तक, संविधान पीठ के 28 मुख्य और 265 संबद्ध मामले लंबित हैं) हो गया। 
  • सबसे बड़े वादकर्त्ता के रूप में सरकार: विभिन्न सरकारी निकायों द्वारा दायर की जाने वाली अत्यधिक वाद-प्रक्रियाएँ न्यायिक संसाधनों पर अत्यंत और प्रायः टाली जा सकने वाली, भारी बोझ उत्पन्न करती हैं। इस प्रवृत्ति के कारण न्यायालयों का महत्त्वपूर्ण समय और आर्थिक संसाधन सभी स्तरों पर व्यय हो जाते हैं। 
    • भारत में लगभग 50% मुकदमेबाज़ी के लिये सरकारी एजेंसियाँ ज़िम्मेदार हैं, जिनमें से कई मामले सार्वजनिक राजस्व को प्रभावित करते हैं और महत्त्वपूर्ण बुनियादी अवसंरचना परियोजनाओं को बाधित कर देते हैं। 
    • जन विश्वास अधिनियम, 2023 जैसे कानूनों में संशोधन करके प्रावधानों को अपराधमुक्त किया जाना इस बोझ को कम करने का प्रयास है। 

भारतीय न्यायपालिका को और सुदृढ़ बनाने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं? 

  • राष्ट्रीय न्यायिक इंफ्रास्ट्रक्चर प्राधिकरण का संस्थागतकरण: वैधानिक समर्थन से एक स्वतंत्र प्राधिकरण की स्थापना से सभी स्तरों पर न्यायिक अवसंरचना की समन्वित योजना, वित्तपोषण और रखरखाव सुनिश्चित हो सकता है। 
    • यह डिजिटल और फिज़िकल कोर्ट सुविधाओं का मानकीकरण करेगा, जिससे शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्राधिकारों के बीच समानता सुनिश्चित होगी। 
    • इस संस्थागत तंत्र को तदर्थ अनुदानों के बजाय जीवनचक्र-आधारित अवसंरचना प्रबंधन पर कार्य करना चाहिये। 
      • यह संस्था न्यायालयों की डिज़ाइन रूपरेखाओं में निर्माण-शिल्प, प्रौद्योगिकी तथा सुगम्यता के मानकों को समेकित कर सकेगी। 
      • ऐसी सशक्त संस्था अवसंरचना वित्तपोषण को राजनीतिक प्रभावों से मुक्त करेगी और दीर्घकालिक संस्थागत क्षमता-विकास को प्रोत्साहित करेगी। 
  • व्यापक न्यायिक संवर्ग और मानव संसाधन सुधार: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) का गठन, आवधिक निष्पादन अंकेक्षण के साथ, निचली न्यायपालिका में दक्षता, एक समान भर्ती मानकों और व्यावसायिकता को बढ़ा सकता है। 
    • प्रौद्योगिकी, अनुसंधान और न्यायालय प्रबंधन के लिये विशिष्ट सेवा ट्रैक पारंपरिक न्यायिक भूमिकाओं के पूरक होंगे। 
    • संरचित प्रशिक्षण मॉड्यूल के माध्यम से निरंतर न्यायिक शिक्षा जटिल, तकनीक-संचालित मामलों के लिये क्षमता उन्नयन कर सकती है। 
      • एक पारदर्शी मूल्यांकन और स्थानांतरण नीति जवाबदेही एवं प्रेरणा सुनिश्चित करेगी। यह समग्र मानव संसाधन पारिस्थितिकी तंत्र ज़मीनी स्तर से न्यायिक कार्यप्रणाली का आधुनिकीकरण कर सकता है। 
  • केस फ्लो को युक्तिसंगत बनाना और न्यायिक केस प्रबंधन प्रणालियों की शुरुआत: मुकदमेबाज़ी के प्रत्येक चरण के लिये निर्धारित समय-सीमा के साथ संरचित केस-फ्लो प्रबंधन को लागू करने से लंबित मामलों में भारी कमी आ सकती है। 
    • न्यायालयों को मामलों के स्वरूप और तात्कालिकता के आधार पर ‘विभेदीकृत प्रकरण-निपटान पद्धति’ अपनानी चाहिये, जिसमें मामले ‘त्वरित-निपटान’, ‘सामान्य’ तथा ‘जटिल’ श्रेणियों में वर्गीकृत किये जाएँ। 
    • AI-सहायता प्राप्त शेड्यूलिंग टूल्स का एकीकरण न्यायिक समय और समान कार्यभार का इष्टतम वितरण सुनिश्चित कर सकता है। 
      • केस निपटान मेट्रिक्स का नियमित प्रकाशन पारदर्शिता को बढ़ाएगा। यह कदम प्रक्रियात्मक निष्पक्षता से समझौता किये बिना दक्षता को संस्थागत बनाता है। 
  • पारदर्शिता और संस्थागत जवाबदेही के माध्यम से कॉलेजियम को सुदृढ़ करना: शॉर्टलिस्ट, मूल्यांकन मापदंडों और समय-सीमाओं को प्रकाशित करके नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शिता की ओर विकसित करना चाहिये। 
    • कॉलेजियम की सहायता के लिये एक स्वतंत्र सचिवालय की स्थापना से विलंब और व्यक्तिपरकता कम हो सकती है। 
    • सीमित कार्यकारी प्रतिनिधित्व वाले पुनर्गठित राष्ट्रीय न्यायिक आयोग वाला एक संकर मॉडल स्वायत्तता एवं जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है। 
      • आवधिक विविधता ऑडिट महिलाओं और सीमांत समुदायों का समावेश सुनिश्चित करेगा। यह सुधार न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए जनता के विश्वास को सुदृढ़ करेगा। 
  • मुकदमा-पूर्व समाधान पारिस्थितिकी तंत्र का संस्थागतकरण: ज़िलों में अनिवार्य, तकनीक-सक्षम मुक़दमा-पूर्व मध्यस्थता और सुलह प्लेटफॉर्म बनाने से गैर-गंभीर मामलों को छाँटा जा सकता है। 
    • ग्राम न्यायालयों में विधिक सहायता क्लीनिक, मध्यस्थता केंद्र और ऑनलाइन विवाद पोर्टल शामिल करने से शीघ्र समाधान तक अभिगम्यता का लोकतांत्रिकरण होगा। 
    • प्रशिक्षित सामुदायिक मध्यस्थ स्थानीय विवादों का मूल स्थान पर ही समाधान कर सकते हैं, जिससे औपचारिक न्यायालयों पर निर्भरता कम हो जाएगी। 
      • कम शुल्क और लागू करने योग्य निपटान प्रमाणपत्रों के माध्यम से समाधान को प्रोत्साहित करने से भागीदारी में सुधार होगा। यह दृष्टिकोण विवाद समाधान को एक बहु-स्तरीय पारिस्थितिकी तंत्र में बदल देता है।
  • विकेंद्रीकृत पीठों के माध्यम से न्यायिक संघवाद: सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय पीठों और उच्च न्यायालयों की सर्किट पीठों की स्थापना से दिल्ली में अभिगम्यता में सुधार हो सकता है तथा अति-केंद्रीकरण कम हो सकता है। 
    • ऐसा विकेंद्रीकरण संघीय संतुलन को सुनिश्चित करता है और मुकदमेबाज़ी का बोझ कम करता है। संवैधानिक, वाणिज्यिक और सामाजिक न्याय के मामलों के लिये विशेष पीठ न्यायिक विशेषज्ञता को अनुकूलित करेंगी। 
    • बेहतर भौगोलिक वितरण सर्वोच्च न्याय तक समान अभिगम्यता सुनिश्चित करता है। इससे सर्वोच्च न्यायालय के कार्यों का बोझ भी कम होगा और संवैधानिक न्याय पर ध्यान बढ़ेगा। 
  • रणनीतिक मुकदमेबाज़ी प्रबंधन और सरकारी विवाद समाधान प्रकोष्ठ: मंत्रालयों और सार्वजनिक उद्यमों के भीतर मुकदमेबाज़ी प्रबंधन इकाइयों को संस्थागत बनाने से दोहराव वाले एवं तुच्छ सरकारी मुकदमेबाज़ी को कम किया जा सकता है। 
    • अपील दायर करने से पहले पूर्व-मंजूरी तंत्र यह सुनिश्चित करेगा कि केवल नीति-महत्त्वपूर्ण मामले ही अदालतों तक पहुँचें। 
    • नियमित अंतर-विभागीय समन्वय बैठकें न्यायालयों के बाहर अंतर-एजेंसी विवादों को सुलझा सकती हैं। 
    • प्रौद्योगिकी डैशबोर्ड का उपयोग मामले की स्थिति और विलंब के लिये जवाबदेही पर नज़र रख सकता है। यह सक्रिय मुकदमेबाज़ी शासन सरकार को एक ‘बाध्यकारी मुकदमेबाज’ से एक ‘जिम्मेदार विवादकर्त्ता’ में बदल देगा। 
  • न्यायिक नैतिकता और जवाबदेही ढाँचे को मुख्यधारा में लाना: एक संहिताबद्ध न्यायिक मानक एवं जवाबदेही संहिता को अपनाने से आचरण में सत्यनिष्ठा और निरंतरता बढ़ सकती है। 
    • संपत्तियों की अनिवार्य घोषणा, न्यायिक कार्यवाही से अलग होने के मानदंड और हितों के टकराव संबंधी दिशानिर्देश जनता के विश्वास को मज़बूत कर सकते हैं। 
    • न्यायिक स्वतंत्रता को प्रभावित किये बिना कदाचार के आरोपों की जाँच के लिये एक स्वतंत्र न्यायिक नैतिकता आयोग का गठन किया जा सकता है। 
      • लिंग, विविधता और संवैधानिक नैतिकता पर समय-समय पर जागरूकता फैलाने से न्यायनिर्णयन को मानवीय बनाया जा सकेगा। संस्थागत नैतिकता न्यायिक विश्वसनीयता को मज़बूत करेगी। 
    • बैंगलोर सिद्धांत न्यायाधीशों के लिये छह मुख्य मूल्यों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है: स्वतंत्रता, निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा, औचित्य, समानता और क्षमता एवं परिश्रम। 
      • यह निष्पक्षता, जनता का विश्वास और न्याय के उचित प्रशासन को सुनिश्चित करने के लिये न्यायिक आचरण को विनियमित करने हेतु एक कार्यढाँचा प्रदान करता है। 
  • नागरिक-केंद्रित न्याय और कानूनी सशक्तीकरण को बढ़ावा देना: बहुभाषी डिजिटल पोर्टल, सरलीकृत न्यायालयी प्रक्रियाओं और कानूनी साक्षरता अभियानों के माध्यम से न्याय प्रदान करना अधिक सहभागी एवं उपयोगकर्त्ता-अनुकूल होना चाहिये। 
    • विधिक सहायता सेवाओं को तकनीक के साथ एकीकृत करने से सीमांत नागरिकों को व्यवस्था का प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सक्षम बनाया जा सकता है। 
    • न्यायालय संचार इकाइयों को वादियों को मामले की स्थिति और अगले कदमों के बारे में सुलभ जानकारी प्रदान करनी चाहिये। 
      • सेवा की गुणवत्ता पर नागरिक प्रतिक्रिया कार्यढाँचा भविष्य के सुधारों का मार्गदर्शन कर सकता है। यह सहभागी अभिविन्यास न्यायपालिका को एक सुलभ संस्था से समावेशी संस्था में परिवर्तित करेगा।

निष्कर्ष: 

भारतीय न्यायपालिका प्रौद्योगिकी, पारदर्शिता एवं दक्षता के समन्वय से ऐसे सुधार अपना रही है जिनका उद्देश्य न्याय-प्रदान करने वाली प्रणाली को और अधिक प्रभावी बनाना है। बुनियादी अवसंरचना, मानव संसाधनों तथा विकेंद्रित तंत्रों को सशक्त बनाकर प्रणालीगत चुनौतियों का प्रभावी समाधान किया जा सकता है। वास्तविक प्रगति के लिये न्याय की गति, निष्पक्षता तथा समावेशन के बीच संतुलन बनाये रखना अनिवार्य है। जैसा कि कहा गया है, “एक सशक्त न्यायपालिका केवल निर्णय ही नहीं देती, बल्कि एक राष्ट्र का विश्वास भी निर्मित करती है।” 

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका को बदलने वाले प्रमुख सुधारों का परीक्षण कीजिये तथा इसकी दक्षता, पारदर्शिता और सुगमता बढ़ाने के उपायों को प्रस्तावित कीजिये।

प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ) 

प्रश्न 1. भारतीय न्यायपालिका में बदलाव लाने वाली हालिया तकनीकी प्रगति क्या है? 
उत्तर: न्यायपालिका ने ई-कोर्ट परियोजना, वर्चुअल सुनवाई, संवैधानिक पीठों की लाइव-स्ट्रीमिंग और राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के माध्यम से डिजिटल परिवर्तन को अपनाया है, जिससे अभिगम्यता, पारदर्शिता एवं दक्षता में वृद्धि हुई है। 

प्रश्न 2. लाइव-स्ट्रीमिंग ने भारत में न्यायिक पारदर्शिता को किस प्रकार बेहतर बनाया है? 
उत्तर: संवैधानिक पीठ की सुनवाई की लाइव-स्ट्रीमिंग नागरिकों को न्यायालय की कार्यवाही देखने, न्यायिक प्रक्रिया को सरल बनाने एवं जवाबदेही को बढ़ावा देने का अवसर प्रदान करती है। 

प्रश्न 3. न्यायिक लंबित मामलों को कम करने में वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) की क्या भूमिका है? 
उत्तर: मध्यस्थता, पंचाट और लोक अदालतों जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र विवादों का तीव्र एवं लागत प्रभावी समाधान प्रदान करते हैं, जिससे औपचारिक अदालतों पर बोझ कम होता है। 

प्रश्न 4. आज भारतीय न्यायपालिका के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 
उत्तर: प्रमुख चुनौतियों में लंबित मामलों की भारी संख्या, न्यायिक रिक्तियों का लगातार बने रहना, न्यायाधीशों एवं जनसंख्या के बीच कम अनुपात, सर्वोच्च न्यायालय में अति-केंद्रीकरण, अपर्याप्त बुनियादी अवसंरचना और अत्यधिक सरकारी मुकदमेबाज़ी शामिल हैं। 

प्रश्न 5. भारत में न्यायिक रिक्तियाँ एक गंभीर मुद्दा क्यों हैं? 
उत्तर: उच्च न्यायालयों में 30% से अधिक पद और अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 5,000 पद रिक्त होने के कारण, सीमित जनशक्ति सीधे तौर पर मामलों के निपटारे में बाधा डालती है, न्याय में विलंब करती है तथा मौजूदा न्यायाधीशों पर अत्यधिक कार्यभार डालती है। 

प्रश्न 6. भारत सरकार ने विधायी सुधारों के माध्यम से मुकदमेबाज़ी को कम करने में किस प्रकार सहायता की है? 
उत्तर: जन विश्वास (संशोधन) अधिनियम, 2023 जैसे अधिनियमों ने कई छोटे अपराधों को अपराधमुक्त कर दिया है, जिससे टाले जा सकने वाले मामलों में कमी आई है तथा न्यायपालिका का कार्यभार कम हुआ है। 

प्रश्न 7. न्यायिक बुनियादी अवसंरचना और प्रौद्योगिकी अंगीकरण में कौन-से उपाय सुधार सकते हैं? 
उत्तर: राष्ट्रीय न्यायिक इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राधिकरण की स्थापना, न्यायालय सुविधाओं का उन्नयन और डिजिटल उपकरणों का मानकीकरण पूरे भारत में कुशल एवं न्यायसंगत न्यायिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित कर सकता है। 

प्रश्न 8. न्यायिक नियुक्तियों और जवाबदेही को किस प्रकार सुदृढ़ किया जा सकता है? 
उत्तर: कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता, शॉर्टलिस्ट का प्रकाशन, संरचित मूल्यांकन मानदंड, विविधता ऑडिट और एक मिश्रित राष्ट्रीय न्यायिक आयोग मॉडल योग्यता एवं जनता के विश्वास को बढ़ा सकते हैं। 

प्रश्न 9. मुकदमा-पूर्व समाधान तंत्र का क्या महत्त्व है? 
उत्तर: अनिवार्य मध्यस्थता, सुलह मंच और ज़मीनी स्तर पर ऑनलाइन विवाद समाधान, छोटे-मोटे मामलों को अदालतों में जाने से रोकते हैं, जिससे न्याय तीव्र एवं अधिक सुलभ हो जाता है। 

प्रश्न 10. भारत में नागरिक-केंद्रित न्याय को किस प्रकार बढ़ावा दिया जा सकता है? 
उत्तर: सरलीकृत प्रक्रियाएँ, बहुभाषी डिजिटल पोर्टल, कानूनी साक्षरता अभियान, विधिक सहायता एकीकरण और नागरिक प्रतिक्रिया तंत्र न्यायपालिका को अधिक समावेशी एवं सहभागी बना सकते हैं। 

 

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021) 

  1. भारत के राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर बैठने और कार्य करने हेतु बुलाया जा सकता है। 
  2. भारत में किसी भी उच्च न्यायालय को अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पास है। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1  

(b) केवल 2 

(c) 1 और 2 दोनों  

(d) न तो 1 और न ही 2  

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न 1. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) 

प्रश्न 2. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) 

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