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भारत में पुलिस सुधार

  • 03 Dec 2025
  • 81 min read

प्रिलिम्स के लिये: पुलिस, भारत में पुलिस व्यवस्था की स्थिति रिपोर्ट, 2025, जनमैत्री, मानवाधिकार, सर्वोच्च न्यायालय, NATGRID, नागरिक चार्टर, प्रकाश सिंह मामले ने दिए गए दिशा-निर्देश।  

मेन्स के लिये: भारत में पुलिस बलों के समक्ष आने वाली प्राथमिक चुनौतियाँ, पुलिस सुधारों के लिये प्रमुख सिफारिशें, भारत में पुलिसिंग की प्रभावशीलता में सुधार के लिये आवश्यक रणनीतियाँ।

स्रोत: IE

चर्चा में क्यों?

रायपुर में 'विकसित भारत: सुरक्षा आयाम' विषय पर आयोजित पुलिस महानिदेशकों/महानिरीक्षकों के 60वें अखिल भारतीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने पुलिस की व्यावसायिकता, संवेदनशीलता और जवाबदेही को बढ़ाकर पुलिस के बारे में जनता की धारणा में सुधार लाने की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया।

भारत में पुलिस बलों के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • 1861 के पुलिस अधिनियम की औपनिवेशिक विरासत: पुलिस प्रणाली अभी भी पुरातन औपनिवेशिक कानून के अधीन कार्य करती है, जिसके कारण बल का अत्यधिक प्रयोग होता है, विशेष रूप से ऑंसू गैस, रबर की गोलियॉं और लाठीचार्ज । 
  • सार्वजनिक धारणा और विश्वास की कमी: कई हाशिये पर रहने वाले समुदाय, जैसे दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक, ऐतिहासिक भेदभाव और क्रूरता के कारण पुलिस से डरते हैं। 
    • विश्वास का यह क्षरण सामुदायिक खुफिया जानकारी और अपराध रोकथाम को कमज़ोर करता है, जिससे जनमैत्री (केरल) और मोहल्ला समिति (महाराष्ट्र) जैसे सफल आउटरीच मॉडल आदर्श के बजाय दुर्लभ अपवाद बन जाते हैं।
  • अत्यधिक पुलिस कार्यभार:   भारत में पुलिस कर्मियों की भारी कमी है, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक कार्यभार और अप्रभावी कानून प्रवर्तन है। 
    • संयुक्त राष्ट्र के प्रति 100,000 लोगों पर 222 अधिकारियों के मानक के विपरीत, भारत में यह आँकड़ा केवल 154.84 है, जो वैश्विक मानकों से काफी कम है।
    • लगभग 24% अधिकारी प्रतिदिन 16 घंटे से अधिक कार्य करते हैं, 44% 12 घंटे से अधिक कार्य करते हैं, जबकि औसत कार्यदिवस 14 घंटे का होता है। 
      • कई लोग बिना पर्याप्त आराम या उचित पारिश्रमिक के कई कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हैं - जिनमें कानून प्रवर्तन और चुनाव कार्य भी शामिल हैं।
  • खराब बुनियादी ढाँचा और प्रौद्योगिकी: कई पुलिस कर्मियों के पास आधुनिक जाँच, फॉरेंसिक और साइबर अपराध में पर्याप्त प्रशिक्षण का अभाव है, जिसके कारण खराब जाँच, गलत तरीके से की गई गिरफ्तारियाँ और बढ़ते मामले लंबित हैं।
    • यह समस्या फॉरेंसिक वैज्ञानिकों की भारी कमी के कारण और भी जटिल हो गई है- भारत में प्रति 100,000 लोगों पर केवल 0.33 वैज्ञानिक हैं, जबकि कई अन्य देशों में यह संख्या 20 से 50 है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: स्थानांतरण, निलंबन और पदोन्नति पर राजनीतिक कार्यपालिका का नियंत्रण पुलिस की परिचालन स्वायत्तता को कमज़ोर करता है, जिससे निष्पक्ष कानून प्रवर्तन के बजाय  पक्षपातपूर्ण उपयोग को बढ़ावा मिलता है।
    • वर्ष 2019 के एक अध्ययन में पाया गया कि प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े मामलों की जाँच करते समय 72% पुलिस अधिकारियों को राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा।

भारत में पुलिस सुधार से संबंधित प्रमुख समिति/आयोग कौन से हैं?

समिति/आयोग/निर्णय

प्रस्तावित प्रमुख सुधार

गोर समिति (1971)

पेशेवर, सेवा-उन्मुख पुलिस व्यवस्था की ओर बदलाव। प्रशिक्षण में मानवाधिकारों और नैतिकता पर ज़ोर दिया गया ।

राष्ट्रीय पुलिस आयोग (NPC) (1977-1981)

जाँच को कानून और व्यवस्था से अलग करना, वरिष्ठ अधिकारियों के लिये निश्चित कार्यकाल सुनिश्चित करना तथा वर्ष 1861 अधिनियम के स्थान पर एक नए मॉडल पुलिस अधिनियम का मसौदा तैयार करना।

रिबेरो समिति (1998) और पद्मनाभैया समिति (2000)

पहले की सिफारिशों को सुदृढ़ किया गया, स्वतंत्र निरीक्षण निकायों, आधुनिक प्रशिक्षण और सामुदायिक पुलिसिंग का समर्थन किया गया।

मलिमथ समिति (2003)

फॉरेंसिक तथा जाँच क्षमताओं को और सुदृढ़ करना, संघीय अपराधों के लिये एक समर्पित केंद्रीय कानून प्रवर्तन एजेंसी की स्थापना करना तथा एक प्रभावी साक्षी संरक्षण योजना प्रस्तावित करना।

सर्वोच्च न्यायालय (प्रकाश सिंह निर्णय) (2006)

7 निर्देश जारी किये गए:

  1. राज्य सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए,
  2. पुलिस महानिदेशक (DGP) के लिये न्यूनतम दो वर्ष का निश्चित कार्यकाल सुनिश्चित किया जाए,
  3. SP एवं SHO के लिये भी दो वर्ष का निर्धारित कार्यकाल तय किया जाए,
  4. जाँच कार्यों और कानून-व्यवस्था (L&O) को अलग-अलग किया जाए,
  5. पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना की जाए,
  6. राज्य व ज़िला स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किये जाऍं,
  7. केंद्र स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की स्थापना की जाए।

मॉडल पुलिस अधिनियम (2006) और NHRC सिफारिशें (2021)

पुलिस स्वायत्तता, जवाबदेही और निगरानी के विनियमन पर ज़ोर देना।

स्मार्ट पुलिसिंग पहल (2015)

पूर्वानुमानित पुलिसिंग के लिये प्रौद्योगिकी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और डेटा विश्लेषण का लाभ उठाना। सामुदायिक सहभागिता पर ध्यान केंद्रित करना।

पुलिस बलों की आधुनिकीकरण (MPF) योजना 

हथियारों, संचार प्रणालियों, फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं तथा साइबर अपराध से जुड़े बुनियादी ढाँचे का आधुनिकीकरण करना।

भारत में पुलिस व्यवस्था की प्रभावशीलता में सुधार के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • न्यायालय के निर्देशों को पूर्णतः लागू करना: नीति निर्धारित करने और दुरुपयोग को रोकने के लिये बहुमत वाले गैर-राजनीतिक सदस्यों के साथ स्वतंत्र राज्य सुरक्षा आयोग (SSC) का गठन करके सर्वोच्च न्यायालय के 7 निर्देशों (2006) को पूर्णतः लागू करना।
    • राज्य और ज़िला स्तर पर प्रभावी पुलिस शिकायत प्राधिकरण (PCA) की स्थापना करना, जिसके पास स्वतंत्र रूप से कदाचार की जाँच करने के लिये वैधानिक शक्तियाँ हों।
  • आंतरिक जवाबदेही को मज़बूत करना: आंतरिक जवाबदेही बढ़ाने के लिये पुलिस स्थापना बोर्डों (स्थानांतरण/पोस्टिंग हेतु) को मज़बूत किया जाना चाहिये और प्रदर्शन का मूल्यांकन केवल अपराध दर के बजाय सार्वजनिक संतुष्टि, अपराध रोकथाम और जाँच की गुणवत्ता जैसे उद्देश्य मानदंडों के आधार पर होना चाहिये।
  • कार्यात्मक विशेषज्ञता: सभी पुलिस थानों में जाँच शाखा को कानून एवं व्यवस्था से अलग करना ताकि विशेषज्ञ जासूसों को सक्षम बनाया जा सके और दोषसिद्धि दर में सुधार किया जा सके। देश भर में साइबर अपराध इकाइयों और फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं का उन्नयन करना और आतंकवाद-रोधी अभियानों के लिये सुरक्षा एजेंसियों के डेटाबेस को जोड़ने हेतु एक राष्ट्रव्यापी NATGRID लागू करना।
  • सामुदायिक पुलिसिंग को संस्थागत बनाना: सहयोगात्मक समस्या समाधान, खुफिया जानकारी एकत्र करने और हाशिये पर पड़े समुदायों के साथ विश्वास निर्माण के लिये संरचित पुलिस-पब्लिक साझेदारी स्थापित करना। 
  • नए युग की चुनौतियों का समाधान: पद्मनाभैया समिति की सिफारिशों के अनुसार:
    • अखिल भारतीय समन्वय के साथ वित्तीय धोखाधड़ी, साइबर आतंकवाद, संगठित अपराध और मादक पदार्थों के लिये विशेष इकाइयाँ बनाएँ और 
    • राज्य पुलिस, केंद्रीय एजेंसियों और खुफिया ब्यूरो के बीच अंतर-एजेंसी डेटा-साझाकरण और संयुक्त संचालन प्रोटोकॉल सुनिश्चित करना ।
  • नए युग की चुनौतियों से निपटने हेतु पद्मनाभैया समिति की सिफारिशों के अनुरूप:
    • अखिल भारतीय समन्वय के साथ वित्तीय धोखाधड़ी, साइबर आतंकवाद, संगठित अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी के लिये विशेष इकाइयों का गठन किया जाए। 
    • राज्य पुलिस, केंद्रीय एजेंसियों और खुफिया ब्यूरो के बीच अंतर-एजेंसी डेटा साझा करने और संयुक्त अभियानों के लिये सुव्यवस्थित संचालन प्रोटोकॉल सुनिश्चित किये जाऍं।

निष्कर्ष:

भारत में पुलिस सुधार के लिये औपनिवेशिक ढाँचों से आगे बढ़ना आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय  के प्रकाश सिंह मामले में दिये गए निर्देशों  का पूर्ण क्रियान्वयन, कार्यात्मक स्वायत्तता, तकनीकी आधुनिकीकरण तथा समुदाय-केंद्रित सेवा की ओर बदलाव—ये सभी ‘विकसित भारत’ के लिये पुलिस को एक पेशेवर, जवाबदेह और विश्वसनीय संस्था में बदलने हेतु अनिवार्य हैं।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में समकालीन पुलिस व्यवस्था पर वर्ष 1861 के औपनिवेशिक पुलिस अधिनियम के प्रभाव पर चर्चा कीजिये। इस विरासत को संबोधित करने के लिये कौन-से प्रमुख न्यायिक निर्देश जारी किये गए हैं?

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. पुलिस सुधारों के लिये सर्वोच्च न्यायालय के प्रकाश सिंह मामले में दिये गए निर्देशों (2006) का क्या महत्त्व है?
इसने पुलिस की स्वायत्तता, जवाबदेही सुनिश्चित करने और राजनीतिक हस्तक्षेप को कम करने के लिये राज्य सुरक्षा आयोग और पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने सहित सात बाध्यकारी निर्देश जारी किये।

2. भारत में पुलिस कर्मियों की कमी की तुलना वैश्विक मानकों से किस प्रकार की जाती है?
भारत में प्रति 100,000 लोगों पर लगभग 155 पुलिस अधिकारी हैं, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुशंसित मानक 222 से काफी कम है, जिसके कारण कानून प्रवर्तन पर अत्यधिक बोझ बढ़ रहा है तथा कानून प्रवर्तन कमज़ोर हो रहा है।

3. भारत में आधुनिक पुलिस सुधारों को किन समितियों ने प्रभावित किया?
प्रमुख समितियों में गोर समिति (1971), राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977-1981), रिबेरो (1998), पद्मनाभैया (2000) और मलिमथ (2002-03) शामिल हैं।

सारांश:

  • भारत की पुलिस आज भी औपनिवेशिक काल के 1861 के अधिनियम से बँधी हुई है, जिसके कारण राजनीतिक हस्तक्षेप को बढ़ावा मिलता है तथा उसकी स्वायत्तता कमज़ोर होती है।
  • स्टाफ की कमी और पुराना बुनियादी ढाँचा जाँच प्रक्रियाओं को बाधित करता है तथा कर्मियों पर अत्यधिक कार्यभार डालता है।
  • इसके साथ-साथ ऐतिहासिक पक्षपात गहरे जन-अविश्वास को जन्म देता है, विशेषकर हाशिये पर पड़े समुदायों के बीच।
  • महत्त्वपूर्ण रूप से प्रकाश सिंह सुधारों (2006) जैसे सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश आज तक प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाए हैं।
  • वास्तविक परिवर्तन के लिये आधुनिक तकनीक, विशेष इकाइयों की स्थापना तथा सेवा-केंद्रित और समुदाय-आधारित पुलिसिंग मॉडल की ओर अभिमुख होना अनिवार्य है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

मेन्स:

प्रश्न: मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014)

प्रश्न. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)

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