जैव विविधता और पर्यावरण
भारत में कार्बन क्रेडिट: उम्मीद और चुनौतियाँ
यह एडिटोरियल 14/08/2025 को द हिंदू बिज़नेस लाइन में प्रकाशित “Are carbon credits for people, planet or consultants?” पर आधारित है। इस लेख में कार्बन क्रेडिट बाज़ारों की जटिलताओं की समीक्षा की गई है, जो उत्सर्जन को कम करने में उनकी भूमिका और वास्तविक पर्यावरणीय लाभ सुनिश्चित करने की चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करता है।
प्रिलिम्स के लिये: कार्बन क्रेडिट (CC), क्योटो प्रोटोकॉल (1997), पेरिस समझौता (2015), ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन, कार्बन सीमा समायोजन तंत्र, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC), ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2022, कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना, ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE), प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार योजना
मेन्स के लिये: कार्बन क्रेडिट से संबंधित प्रमुख चिंताएँ, भारत में कार्बन बाज़ार की कार्यप्रणाली।
कार्बन क्रेडिट (CC) पर्यावरणीय उत्तरदायित्व और आर्थिक रणनीति के एक जटिल अंतर्संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालाँकि ये उत्सर्जन को कम करने और संवहनीयता को बढ़ावा देने का एक मार्ग प्रदान करते हैं, लेकिन इनके कार्यान्वयन में चुनौतियाँ हैं। अतिरंजित दावों से लेकर समुदायों के लिये असमान लाभों तक, कार्बन क्रेडिट का सफर जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में आशा, विरोधाभास और अवसर के बीच संतुलन को दर्शाता है। जैसे-जैसे भारत नेट-ज़ीरो की ओर अग्रसर हो रहा है, कार्बन क्रेडिट का भविष्य पर्यावरणीय न्याय और मार्केट इंटिग्रिटी, दोनों के लिये एक उपकरण के रूप में विकसित होना चाहिये।
कार्बन क्रेडिट और कार्बन बाज़ार क्या हैं?
कार्बन क्रेडिट
- परिचय: कार्बन क्रेडिट या कार्बन ऑफसेट, कार्बन उत्सर्जन में कमी या निष्कासन को संदर्भित करते हैं, जिसे कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य (tCO2e) के टन में मापा जाता है।
- कार्बन क्रेडिट की अवधारणा, जिसे क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 में प्रस्तुत किया गया था और पेरिस समझौते (2015) द्वारा सुदृढ़ किया गया है, का उद्देश्य कार्बन ट्रेडिंग के माध्यम से ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को कम करना है।
- प्रत्येक कार्बन क्रेडिट एक टन CO2 या उसके समतुल्य उत्सर्जन की अनुमति देता है।
- ये क्रेडिट उन परियोजनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं जो कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित या कम करती हैं और सत्यापित कार्बन मानक (VCS) एवं स्वर्ण मानक जैसे अंतर्राष्ट्रीय निकायों द्वारा प्रमाणित होते हैं।
- कार्बन क्रेडिट की अवधारणा, जिसे क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 में प्रस्तुत किया गया था और पेरिस समझौते (2015) द्वारा सुदृढ़ किया गया है, का उद्देश्य कार्बन ट्रेडिंग के माध्यम से ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को कम करना है।
कार्बन बाज़ार
- कार्बन बाज़ार: पेरिस समझौते के तहत, अनुच्छेद 6 देशों को उत्सर्जन-घटाने वाली परियोजनाओं से कार्बन क्रेडिट हस्तांतरित करके जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग करने की अनुमति देता है, जिसका उद्देश्य कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिये विश्वसनीय प्रणालियाँ बनाना और उत्सर्जन में कमी में पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।
- कार्बन बाज़ारों के प्रकार: अनिवार्य कार्बन बाज़ार, जिनका मूल्य $800 बिलियन है, वर्ष 2030 तक $1.88 ट्रिलियन तक पहुँचने की उम्मीद है, जबकि स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार, जिनका वर्तमान मूल्य $3 बिलियन है, उसी वर्ष तक बढ़कर $24 बिलियन हो जाने का अनुमान है।
- अनिवार्य कार्बन बाज़ार: क्योटो प्रोटोकॉल (1997) ने अनिवार्य कार्बन बाज़ारों की नींव रखी, जहाँ कंपनियों को कानूनी रूप से अपने ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को सीमित करना आवश्यक है।
- कंपनियों को 'कैप-एंड-ट्रेड' प्रणाली के तहत काम करने की अनुमति है, जहाँ उत्सर्जन पर एक सीमा निर्धारित की जाती है और संस्थाएँ इस सीमा के भीतर अपने उत्सर्जन की भरपाई के लिये कार्बन क्रेडिट (CC) खरीद सकती हैं।
- स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार: सामाजिक रूप से जागरूक कार्यों से प्रेरित होकर, बाद में विकसित हुए, जो कंपनियों या व्यक्तियों को स्वेच्छा से अपने उत्सर्जन की भरपाई करने के अवसर प्रदान करते हैं।
- यह प्रायः कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) पहलों के हिस्से के रूप में या पर्यावरणीय उत्तरदायित्व का प्रदर्शन करके बाज़ार में लाभ प्राप्त करने के लिये किया जाता है।
- अनिवार्य कार्बन बाज़ार: क्योटो प्रोटोकॉल (1997) ने अनिवार्य कार्बन बाज़ारों की नींव रखी, जहाँ कंपनियों को कानूनी रूप से अपने ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को सीमित करना आवश्यक है।
कार्बन क्रेडिट से संबंधित भारत की पहल क्या हैं?
- प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (PAT) योजना: यह ऊर्जा-प्रधान उद्योगों में ऊर्जा की खपत को कम करने के लिये एक नियामक योजना है, जो लागत प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये बाज़ार-आधारित तंत्र का उपयोग करती है।
- नवीकरणीय ऊर्जा प्रमाणपत्र (REC): यह तंत्र नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने और नवीकरणीय खरीद दायित्वों (RPO) के अनुपालन को सुगम बनाने के लिये एक बाज़ार-आधारित साधन है।
- हरित ऋण कार्यक्रम: यह एक नवोन्मेषी बाज़ार-आधारित तंत्र है जिसे विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तियों, समुदायों, निजी क्षेत्र के उद्योगों और कंपनियों जैसे विभिन्न हितधारकों द्वारा स्वैच्छिक पर्यावरणीय कार्यों को प्रोत्साहित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2022: यह केंद्र सरकार को कार्बन ट्रेडिंग योजना लागू करने और कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र जारी करने का अधिकार देता है। एक CC, वायुमंडल से एक टन CO₂ समतुल्य की कमी, बचाव या निष्कासन को दर्शाता है।
- कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS): CCTS एक बाज़ार-आधारित तंत्र है जिसे भारतीय कार्बन बाज़ार (ICM) के तहत कार्बन क्रेडिट को विनियमित करने और व्यापार करने के लिये शुरू किया गया है।
- CCTS का उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन का मूल्य निर्धारण करके और कार्बन ट्रेडिंग को सुगम बनाकर भारतीय अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करना है।
- CCTS, PAT का स्थान लेता है, जिससे ऊर्जा तीव्रता से हटकर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तीव्रता को कम करने और प्रति टन ग्रीनहाउस गैस समतुल्य उत्सर्जन की निगरानी पर ध्यान केंद्रित होता है।
- यह कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र (CCC) जारी करता है, जिनमें से प्रत्येक एक टन CO2 समतुल्य (tCO2e) कमी को दर्शाता है।
- ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) और भारतीय कार्बन बाज़ार के लिये राष्ट्रीय संचालन समिति (NSCICM) सहित कई सरकारी निकायों द्वारा प्रबंधित।
- राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC): भारत ने वर्ष 2023 में अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को एक घरेलू कार्बन बाज़ार की स्थापना को शामिल करने के लिये अद्यतन किया।
- निगरानी और सत्यापन: ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) और भारतीय कार्बन बाज़ार के लिये राष्ट्रीय संचालन समिति (NSCICM) कठोर निगरानी, रिपोर्टिंग एवं सत्यापन प्रक्रियाओं के माध्यम से कार्बन क्रेडिट की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिये जिम्मेदार हैं।
भारत में कार्बन बाज़ार के विकास से जुड़े अवसर और चुनौतियाँ क्या हैं?
- अवसर
- वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धता: भारत द्वारा कार्बन बाज़ार का विकास पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 45% की कमी (वर्ष 2005 के स्तर से) और वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करना है।
- यूरोपीय संघ के कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (CBAM) ने भारत को एक राष्ट्रीय कार्बन बाज़ार विकसित करने के लिये प्रेरित किया है, जिससे यह सुनिश्चित हुआ है कि उसके निर्यात अंतर्राष्ट्रीय कार्बन मानकों को पूरा करके, विशेष रूप से इस्पात एवं सीमेंट जैसे उच्च-उत्सर्जन क्षेत्रों में, प्रतिस्पर्द्धी बने रहें।
- स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को आगे बढ़ाना: कार्बन बाज़ार क्षेत्र-विशिष्ट उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य निर्धारित करके, उद्योगों को कम-कार्बन समाधान के अंगीकरण के लिये प्रोत्साहित करके और भारत को स्थायी प्रथाओं में अग्रणी बनाने तथा हरित निवेश आकर्षित करने की स्थिति में लाकर स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को प्रोत्साहित करता है।
- कार्बन क्रेडिट के माध्यम से आर्थिक विकास: भारत का कार्बन बाज़ार नए वित्तीय अवसर उत्पन्न करता है, जिससे उद्योगों को कार्बन क्रेडिट अर्जित करने और उन्हें बेचने का अवसर मिलता है, जिसका अनुमानित मूल्य 1.2 बिलियन डॉलर है, जिससे डीकार्बोनाइज़ेशन प्रयासों को समर्थन मिलता है तथा नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश को बढ़ावा मिलता है।
- चुनौतियाँ:
- प्रमुख उत्सर्जकों का सीमित दायरा और अपवर्जन: इस्पात और ताप विद्युत जैसे प्रमुख क्षेत्र, जो उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, CCTS से बाहर रखे गए हैं, जिससे समग्र CO2 उत्सर्जन से निपटने में इसकी प्रभावशीलता कम हो रही है।
- कमज़ोर उत्सर्जन न्यूनीकरण लक्ष्य: सीमेंट (दो वर्षों में 3.4% की कमी) जैसे कुछ क्षेत्रों के लिये उत्सर्जन न्यूनीकरण लक्ष्य दीर्घकालिक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिये अपर्याप्त माने जाते हैं, जिससे आवश्यक डीकार्बोनाइज़ेशन प्रयासों में संभावित रूप से विलंब हो सकता है।
- MSME के लिये चुनौतियाँ: MSME को उच्च अनुपालन लागत, अपर्याप्त वित्तीय सहायता और तकनीकी क्षमता की कमी का सामना करना पड़ता है, जिससे कार्बन बाज़ार में भागीदारी कठिन एवं अपवर्जित रह हो जाती है।
- MRV प्रणालियों की जटिलता और बाज़ार में अस्थिरता: MRV प्रणालियों की जटिलता और बाज़ार में अस्थिरता: भारत का कार्बन बाज़ार पुरानी मापन, रिपोर्टिंग और सत्यापन (MRV) प्रणालियों से जूझ रहा है, जिससे सटीक उत्सर्जन ट्रैकिंग में बाधा आ रही है और निवेशकों का विश्वास कम हो रहा है।
- अस्थिर उत्सर्जन लक्ष्यों और वित्तीय अटकलों से प्रेरित असंगत मूल्य संकेतों एवं बाज़ार में अस्थिरता के साथ, ये चुनौतियाँ उत्सर्जन न्यूनीकरण प्रौद्योगिकियों में दीर्घकालिक निवेश में बाधा डालती हैं।
- कमज़ोर निगरानी: भारत का स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार, जिसका मूल्य 500 मिलियन डॉलर है, न्यूनतम निगरानी से ग्रस्त है और इसका लगभग 90% मूल्य आपूर्ति शृंखला में ही नष्ट हो जाता है।
कार्बन क्रेडिट को लेकर क्या चिंताएँ हैं?
- कार्बन क्रेडिट व्यापार और जटिलता: कार्बन क्रेडिट (CC) व्यापार पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्रों को संख्याओं में सरल बना देता है। कार्बन क्रेडिट (CC) व्यापार पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र को संख्याओं में सरल बना देता है। भारत में, वानिकी परियोजनाएँ निर्वनीकरण का अनुमान लगाने के लिये उपग्रह डेटा का उपयोग करती हैं और कृषि परियोजनाएँ मृदा कार्बन का अनुमान लगाती हैं। लेकिन इन अनुमानों में बड़ी त्रुटियाँ होती हैं। वर्ष 2024 के नेचर पत्रिका के एक लेख से पता चला है कि कई कार्बन परियोजनाएँ परिणामों का अति-अनुमान लगाती हैं।
- कार्बन बाज़ारों में अतिरिक्तता: अतिरिक्तता का अर्थ है कि कार्बन ऑफसेट परियोजनाओं को ऐसे उत्सर्जन को कम करना चाहिये जो अन्यथा नहीं होते (जैसे: कोयले के स्थान पर पवन ऊर्जा फार्म)।
- हालाँकि, वर्ष 2024 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि लाखों कार्बन क्रेडिट संदिग्ध हैं, जिसका अर्थ है कि कई परियोजनाएँ वास्तव में उत्सर्जन में कमी नहीं करतीं, जिससे ग्रीनवाशिंग को बढ़ावा मिलता है।
- परियोजनाओं से सामुदायिक लाभ: भारत वनरोपण जैसी कार्बन ऑफसेट परियोजनाओं का एक प्रमुख आपूर्तिकर्त्ता है। लेकिन कई परियोजनाएँ स्थानीय समुदायों को लाभ नहीं पहुँचाती हैं। विश्व ग्रामीण मंच (2023) के एक अध्ययन से पता चला है कि केवल 0.3% जलवायु निधि ही उन तक पहुँच पाती है।
- इसके अलावा, वर्ष 2025 की नेचर रिपोर्ट में पाया गया कि भारत की आधी वानिकी परियोजनाएँ सामुदायिक अधिकारों से जुड़े मुद्दों के कारण विफल रहीं।
- स्थायित्व और जलवायु जोखिम: यदि वनाग्नि की घटनाएँ होती हैं या कृषि-प्रथाएँ बंद हो जाती हैं, तो कार्बन क्रेडिट स्थायी नहीं होते। उदाहरण के लिये, वर्ष 2021 में आए चक्रवात ताउते ने गुजरात के जंगलों को नष्ट कर दिया, जिससे कार्बन उत्सर्जन हुआ और क्रेडिट नष्ट हो गए। बफर सिस्टम 20% कार्बन क्रेडिट रखते हैं, लेकिन बड़ी जलवायु आपदाओं के दौरान ये प्रायः विफल हो जाते हैं।
- असमान अभिगम्यता: विकासशील देशों को कार्बन क्रेडिट उत्पादन में संलग्न होने के लिये आवश्यक संसाधनों या तकनीक तक पहुँचने में बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है, जिससे बाज़ार से लाभ उठाने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है तथा वैश्विक जलवायु असमानताएँ और बढ़ जाती हैं।
कार्बन क्रेडिट संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिये क्या कदम आवश्यक हैं?
- कार्बन क्रेडिट को एक पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी के रूप में पुनर्परिभाषित करना: कार्बन क्रेडिट को एक व्यापार योग्य वस्तु के बजाय पृथ्वी के प्रति एक कर्त्तव्य के रूप में देखा जाना चाहिये। जब कोयला संयंत्र जैसे उद्योग ये क्रेडिट खरीदते हैं, तो इससे नवीकरणीय ऊर्जा में उनके परिवर्तन में विलंब हो सकता है, जिससे ऐसी परियोजनाओं की दीर्घकालिक प्रभावशीलता कम हो जाती है।
- पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाएँ: कार्बन क्रेडिट परियोजनाओं की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिये निगरानी, रिपोर्टिंग और सत्यापन (MRV) प्रणालियों को मज़बूत करना महत्त्वपूर्ण है। रीयल-टाइम ट्रैकिंग एवं तृतीय-पक्ष सत्यापन, बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई आधार रेखाओं को उजागर करने तथा बाज़ार की पारदर्शिता में सुधार करने में सहायता कर सकते हैं।
- समुदायों के लिये निष्पक्ष बातचीत मंचों का समर्थन करना: C-GEM जैसे स्टार्ट-अप ऐसे मंच बना रहे हैं जो समुदायों को कार्बन क्रेडिट बाज़ारों में बेहतर शर्तों पर वार्ता करने में सहायता करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि अधिक निष्पक्ष समझौते हों तथा लाभ सीधे तौर पर शामिल लोगों तक पहुँचें।
- उच्च-प्रभाव वाली परियोजनाओं को प्राथमिकता देना: कार्बन क्रेडिट परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करें जो स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण उत्सर्जन में कमी प्रदर्शित करती हैं, जैसे कि HFC-23 उन्मूलन। कम सफलता दर या कम प्रभाव क्षमता वाली परियोजनाओं से बचाव आवश्यक है, जो कार्बन क्रेडिट प्रणाली की विश्वसनीयता को कमज़ोर कर सकती हैं।
- वैश्विक मानकों के साथ संरेखित करना और विनियमन को सुदृढ़ करना: कार्बन क्रेडिट प्रणालियों को पेरिस समझौते में उल्लिखित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ संरेखित किया जाना चाहिये। आगामी CCTS कड़े नियम लागू करने, जवाबदेही सुनिश्चित करने तथा अधिक मज़बूत बाज़ार प्रथाओं को लागू करने का अवसर प्रदान करता है।
निष्कर्ष
- यद्यपि कार्बन क्रेडिट जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक अभिनव तरीका प्रदान करते हैं, फिर भी इनमें जटिलताएँ एवं विरोधाभास हैं। यह प्रणाली प्रायः वास्तविक, सतत् पर्यावरणीय लाभ सुनिश्चित करने में विफल रहती है, जिसमें अति-अनुमान, ग्रीनवाशिंग और सामुदायिक भागीदारी की कमी जैसे मुद्दे शामिल हैं। कार्बन क्रेडिट के वास्तव में प्रभावी होने के लिये, उन्हें केवल प्रति-संतुलन से आगे बढ़कर ऐसे साधनों में विकसित होने की आवश्यकता है जो सार्थक परिवर्तन लाएँ, पर्यावरणीय संवहनीयता और सामाजिक न्याय दोनों को बढ़ावा दे सकें।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न. वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने की भारत की प्रतिबद्धता के आलोक में, भारत में कार्बन क्रेडिट प्रणालियों के संभावित लाभों और चुनौतियों का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न 1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2023)
कथन-I: ऐसी संभावना है कि कार्बन बाज़ार, जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक सबसे व्यापक साधन हो जाए।
कथन-II : कार्बन बाज़ार संसाधनों को प्राइवेट सेक्टर से राज्य को हस्तांतरित कर देते हैं।
उपर्युक्त कथनों के बारे में, निम्नलिखित में से कौन-सा एक सही है?
(a) कथन-I और कथन-II दोनों सही हैं तथा कथन-II, कथन-I की सही व्याख्या है।
(b) कथन-I और कथन-II दोनों सही हैं तथा कथन-II, कथन-I की सही व्याख्या नहीं है।
(c) कथन-I सही है किंतु कथन-II गलत है।
(d) कथन-I गलत है किंतु कथन-II सही है।
उत्तर: (b)
प्रश्न 2. कार्बन क्रेडिट की अवधारणा निम्नलिखित में से किससे उत्पन्न हुई? (2009)
(a) अर्थ समिट, रियो डी जेनेरियो
(b) क्योटो प्रोटोकॉल
(c) मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल
(d) G-8 शिखर सम्मेलन, हेइलिगेंडम
उत्तर: (b)