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डेली न्यूज़

  • 19 May, 2025
  • 51 min read
भारतीय राजव्यवस्था

चुनावों में NOTA को शामिल किये जाने की अनिवार्यता

प्रिल्म्स के लिये:

जनहित याचिका (PIL), लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, NOTA, भारत का निर्वाचन आयोग, भारत का सर्वोच्च न्यायालय

मेन्स के लिये:

'निर्विरोध निर्वाचित होने' के परिणाम, NOTA से संबंधित महत्त्व और चुनौतियाँ, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, NOTA की प्रभावशीलता

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक सार्वजनिक हित याचिका (PIL) दायर की गई है, जिसमें सभी चुनावों में, यहाँ तक कि एकल उम्मीदवार वाले चुनावों में भी, NOTA (उपर्युक्त में से कोई नहीं) विकल्प को अनिवार्य करने की मांग की गई है।

भारतीय चुनावों में NOTA क्या है?

  • परिचय: इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) पर "उपर्युक्त में से कोई नहीं" (NOTA) विकल्प मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने की सुविधा प्रदान करता है, साथ ही उनके मत की गोपनीयता को बनाए रखता है।
  • महत्त्व: तकनीकी रूप से यह चुनाव परिणाम को प्रभावित नहीं करता है, अर्थात यदि NOTA को किसी भी उम्मीदवार से अधिक मत मिलते हैं तब भी सबसे अधिक मत पाने वाला उम्मीदवार विजेता होता है। किंतु यह नागरिकों को यह शक्ति देता है कि वे चुनावी प्रक्रिया से दूर रहे बिना अपने असंतोष को व्यक्त कर सकें।
  • पृष्ठभूमि: विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट (1999) में नकारात्मक मतदान की अवधारणा और 50%+1 मतदान प्रणाली पर विचार किया था, किंतु व्यावहारिक चुनौतियों के कारण इस विषय पर कोई अंतिम सिफारिश नहीं दी गई।
    • वर्ष 2004 में, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (PUCL) ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि निर्वाचनों का संचालन नियम, 1961 मतदाता गोपनीयता का उल्लंघन करते हैं क्योंकि वे मतदान न करने वालों की पहचान दर्ज करते हैं।
      • सितंबर 2013 में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को निर्देश दिया कि वह PUCL बनाम भारत संघ मामला, 2013 में दिये गए निर्देश के अनुसार NOTA (इनमें से कोई नहीं) विकल्प को लागू करे, ताकि मतदाताओं की पसंद की गोपनीयता की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
  • NOTA का उपयोग: NOTA लोकसभा, राज्य विधानसभा और पंचायत चुनावों में उपलब्ध है, हालाँकि यह सभी स्थानीय निकायों में समान रूप से लागू नहीं है।
    • इसका पहली बार उपयोग वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, मिज़ोरम, राजस्थान, दिल्ली और मध्य प्रदेश में हुआ था।
    • लोकसभा चुनावों में NOTA का मत प्रतिशत कम लेकिन स्थिर रहा है — 2014 में 1.1%, 2019 में 1.04% और वर्ष 2024 में भी लगभग समान रहा।
      • राज्य चुनावों में, बिहार ने सबसे अधिक 2.48% (2015) रिकॉर्ड किया, इसके बाद गुजरात 1.8% (2017) था।

नियम 49-O बनाम NOTA

  • निर्वाचनों का संचालन नियम, 1961 के नियम 49-O के अंतर्गत, मतदाताओं को मतदान केंद्र पर मतदान अधिकारी को सूचित करके औपचारिक रूप से मतदान से वंचित रहने की अनुमति थी।
    •  इसे "उपर्युक्त में से कोई नहीं" प्रकार के विकल्प के रूप में दर्ज किया गया था, लेकिन यह गुप्त नहीं था, क्योंकि मतदाता द्वारा सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के विकल्प को सार्वजनिक रूप से मतपत्र की गोपनीयता का उल्लंघन माना गया था।
  • NOTA विकल्प (वर्ष 2013 से) मतदाताओं को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) पर एक निर्दिष्ट बटन दबाकर गोपनीय रूप से सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने की अनुमति देता है, जिससे मतपत्र की गोपनीयता बनी रहती है और मतदाता बिना किसी भय या खुलासे के अपनी असहमति व्यक्त कर सकते हैं।

NOTA से संबंधित न्यायिक निर्णय क्या हैं?

  • लिली थॉमस बनाम अध्यक्ष, लोकसभा (1993) में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने माना कि मतदान के अधिकार में समर्थन या विरोध में अपनी इच्छा व्यक्त करने का अधिकार शामिल है।
    • इसका तात्पर्य यह भी है कि मतदाता को चुनाव में तटस्थ रहने का अधिकार है।
  • पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2013) में सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को EVM में नोटा बटन शामिल करने का निर्देश दिया था। 
    • न्यायालय ने इस तर्क पर ज़ोर दिया कि मतदाता गोपनीयता को बनाए रखा जाना चाहिये, चाहे व्यक्ति किसी उम्मीदवार को वोट दे या NOTA का विकल्प चुने, जिससे मतदाता सशक्त होगा और लोकतांत्रिक भागीदारी मज़बूत होगी।
  • शैलेश मनुभाई परमार बनाम भारतीय निर्वाचन आयोग, 2018 मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि NOTA विकल्प राज्यसभा (उच्च सदन) चुनावों के लिये अनुपयुक्त है, क्योंकि यह चुनावी प्रक्रिया को विकृत कर सकता है, भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता है और राजनीतिक दलबदल को प्रोत्साहित कर सकता है। 
    • परिणामस्वरूप, न्यायालय ने अप्रत्यक्ष चुनावों से NOTA को हटा दिया।

अन्य लोकतांत्रिक देशों में NOTA जैसी पहल

  • फिनलैंड, स्पेन, स्वीडन, फ्राँस, बेल्जियम, ग्रीस जैसे कई यूरोपीय देश मतदाताओं को NOTA के समान मत डालने की अनुमति देते हैं।
  • हालाँकि संयुक्त राज्य अमेरिका में मतपत्रों पर औपचारिक NOTA विकल्प नहीं है, फिर भी कुछ राज्य लिखित मतों की अनुमति देते हैं, जिससे मतदाता असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में “उपर्युक्त में से कोई नहीं” या कोई भी नाम लिख सकते हैं।
  • कोलंबिया, यूक्रेन, ब्राज़ील, बांग्लादेश जैसे अन्य देश भी मतदाताओं को NOTA पर मत डालने की अनुमति देते हैं।

सभी चुनावों में नोटा को अनिवार्य रूप से शामिल करने से संबंधित तर्क क्या हैं?

अनिवार्य NOTA विकल्प के पक्ष में तर्क

  • मतदाता विकल्प का विस्तार: NOTA मतदाताओं को सभी चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार देता है, जिससे उन्हें मतदान से वंचित किये बिना भी अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने की अनुमति मिलती है, जिससे मतदाता स्वायत्तता बढ़ती है।   
  • निर्विरोध चुनावों में मतदाता के विकल्प को बरकरार रखता है: NOTA यह सुनिश्चित करता है कि मतदाता एकल-उम्मीदवार चुनावों में भी असहमति व्यक्त कर सकें, जिससे लोकतांत्रिक विकल्प सुरक्षित रहता है।
  • राजनीतिक जवाबदेही बढ़ाना: NOTA की उपस्थिति राजनीतिक दलों को वोट खोने से बचने के लिये बेहतर, अधिक सक्षम और नैतिक उम्मीदवारों को नामांकित करने के लिये प्रोत्साहित करती है।
  • मतदाता असंतोष का संकेत: NOTA मतों की गणना निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों के लिये जनता में असंतोष के विषय में एक महत्त्वपूर्ण संकेतक के रूप में कार्य करती है, जिससे सुधारात्मक उपाय करने की आवश्यकता पड़ती है।
    • यह भविष्य में सुधारों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जैसे NOTA द्वारा एक सीमा पार करने पर अनिवार्य रूप से पुनः चुनाव कराना तथा मतदाता उपस्थिति और डाले गए मतों के आधार पर न्यूनतम जीतने की सीमा निर्धारित करना।

NOTA को अनिवार्य रूप से शामिल करने के विपक्ष में तर्क

  • दुर्लभ प्रयोग, कोई चुनावी प्रभाव नहीं:  NOTA का चुनाव परिणामों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि NOTA की गिनती की परवाह किये बिना सबसे अधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार जीत जाता है। 
    • वर्ष 1952 से अब तक केवल 9 लोकसभा उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं तथा वर्ष 1971 से अब तक केवल 6 उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं, जिससे ऐसे दुर्लभ परिदृश्यों के लिये नियम काफी हद तक निरर्थक हो गए हैं।
  • जाति आधारित पूर्वाग्रह: आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में, उच्च नोटा वोट कभी-कभी कुछ उम्मीदवारों के खिलाफ जातिगत पूर्वाग्रह को दर्शाते हैं, जो इसके इच्छित उद्देश्य को विकृत कर सकते हैं।
  • मतदाता उदासीनता और अविश्वास को बढ़ावा: अनिवार्य NOTA के कारण सभी उम्मीदवारों को बिना किसी सार्थक मूल्यांकन के आकस्मिक रूप से अस्वीकार किया जा सकता है, जिससे मतदाताओं की महत्त्वपूर्ण भागीदारी कम हो सकती है।
    • इसके अतिरिक्त, यदि NOTA को पर्याप्त वोट मिल जाते हैं, परंतु उसका कोई चुनावी परिणाम नहीं होता, तो इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया और निर्वाचित सरकार की वैधता में जनता का विश्वास खत्म हो सकता है।
  • प्रतिनिधि लोकतंत्र को कमज़ोर करता है: चूँकि NOTA जनादेश को प्रभावित नहीं करता है, इसलिये यह स्पष्ट मतदाता समर्थन सुनिश्चित न करके प्रतिनिधि लोकतंत्र के सिद्धांत को कमज़ोर कर सकता है।

आगे की राह 

  • विधायी कार्रवाई: उम्मीदवारों के लिये न्यूनतम मत सीमा लागू करें, अर्थात यदि NOTA को महत्त्वपूर्ण हिस्सा प्राप्त होता है (उदाहरण के लिये, 10% से अधिक), तो पुनः चुनाव अनिवार्य करें। 
    • महाराष्ट्र और हरियाणा राज्य निर्वाचन आयोगों ने नोटा को 'काल्पनिक उम्मीदवार' मानकर नए सिरे से चुनाव कराने तथा नोटा से कम वोट पाने वाले उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने की मिसाल कायम की है।
  • उम्मीदवार एवं वित्तीय जवाबदेही: नोटा से कम वोट पाने वाले उम्मीदवारों को पुनः चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिये तथा हारने वाले उम्मीदवारों वाले राजनीतिक दलों को पुनः चुनाव का खर्च वहन करना चाहिये। 
    • बार-बार मतदान को रोकने के लिये, ऐसे पुनः मतदानो में NOTA को निष्क्रिय किया जा सकता है।
  • मतदाता शिक्षा और जागरूकता: मतदाताओं को नोटा के उद्देश्य के बारे में सूचित करने के लिये व्यापक अभियान चलाएँ तथा यह सुनिश्चित करें कि इसका उपयोग केवल विरोध वोटों से परे ज़िम्मेदारीपूर्वक किया जाए।
  • चुनावी सुधारों के साथ पारदर्शिता और एकीकरण: निर्वाचन आयोग को नियमित रूप से नोटा मतदान के विस्तृत आँकड़े प्रकाशित करने चाहिये। 
    • नोटा सुधारों को व्यापक चुनावी सुधारों के साथ जोड़ा जाना चाहिये, जैसे राजनीति को अपराधमुक्त करना और लोकतांत्रिक जवाबदेही बढ़ाने के लिये पार्टी पारदर्शिता को बढ़ावा देना।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

Q. भारतीय चुनावों में नोटा के प्रभाव और चुनौतियों का मूल्यांकन कीजिये तथा इसकी प्रभावशीलता में सुधार के उपाय सुझाएँ।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रिलिम्स

प्रश्न . निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये :(2017)

  1. भारत का निर्वाचन आयोग पाँच-सदस्यीय निकाय है।
  2.  संघ का गृह मंत्रालय, आम चुनाव और उप-चुनावों दोनों के लिए चुनाव कार्यक्रम तय करता है।
  3.  निर्वाचन आयोग मान्यता-प्राप्त राजनीतिक दलों के विभाजन/विलय से संबंधित विवाद निपटाता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (d)


मेन्स

Q. आदर्श आचार संहिता के विकास के आलोक में भारत के निर्वाचन आयोग की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (2022)

Q. भारत में लोकतंत्र की गुणता को बढ़ाने के लिये भारत के चुनाव आयोग ने 2016 में चुनावी सुधारों का प्रस्ताव दिया है। सुझाए गए सुधार क्या हैं और लोकतंत्र को सफल बनाने में वे किस सीमा तक महत्त्वपूर्ण हैं? (2017)


सामाजिक न्याय

भारत में ज़हरीली शराब से होने वाली दुर्घटनाएँ

प्रिलिम्स के लिये:

मेथनॉल, इथेनॉल, भारतीय न्याय संहिता, भौगोलिक सूचना प्रणाली, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन

मेन्स के लिये:

नकली शराब का मानव शरीर पर प्रभाव, शराब प्रतिबंध के पक्ष और विपक्ष, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

पंजाब के अमृतसर ज़िले में एक बड़ी ज़हरीली शराब त्रासदी में 21 लोगों की मृत्यु हो गई और कई लोग अस्पताल में भर्ती हैं। यह घटना तब हुई जब लोगों ने ज़हरीली शराब पी थी जिसमें अत्यधिक ज़हरीला रसायन मेथनॉल होने का संदेह है।

नोट: हूच (Hooch) शब्द का प्रयोग सामान्यतः खराब गुणवत्ता वाली शराब के लिये किया जाता है, जो हूचिनो नामक अलास्का की एक मूल जनजाति से लिया गया है, जो बहुत ही तीक्ष्ण शराब बनाने के लिये जानी जाती थी।

  • इसका उत्पादन प्रायः अनियमित एवं अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में किया जाता है। कभी-कभी शराब में मेथनॉल (इथेनॉल के साथ एक औद्योगिक अल्कोहल) की उच्च मात्रा होती है, जो अत्यधिक विषैली होती है और इसका सेवन घातक हो सकता है।

मेथनॉल क्या है?

  • परिचय: मेथनॉल, जिसे मिथाइल अल्कोहल, वुड अल्कोहल या वुड स्पिरिट के नाम से भी जाना जाता है, सबसे सरल अल्कोहल अणु है, जिसका रासायनिक सूत्र CH₃OH होता है।
    • मेथनॉल एक रंगहीन, वाष्पशील द्रव है जिसमें हल्का मीठा और तीखा गंध होता है तथा यह जल के साथ पूरी तरह मिश्रित हो जाता है।
  • अनुप्रयोग: यह पेंट, वार्निश और प्लास्टिक में विलायक के रूप में कार्य करता है। यह फॉर्मेल्डिहाइड, एसिटिक एसिड और विभिन्न सुगंधित हाइड्रोकार्बन के उत्पादन में एक प्रमुख कच्चा माल है।
    • मेथनॉल एक एंटीफ्रीज एजेंट तथा ईंधन योजक के रूप में भी कार्य करता है, जो मोटर वाहन और विमानन ईंधन से जल को हटाने में सहायता करता है।
    • इसके अतिरिक्त, यह सतत् ऊर्जा अनुप्रयोगों में एक जैवनिम्नीकरणीय ऊर्जा संसाधन के रूप में प्रमुखता प्राप्त कर रहा है।
  • मानव शरीर पर प्रभाव: मेथनॉल मनुष्यों के लिये अत्यंत विषैला होता है, खासकर यदि इसे निगला जाए। यह यकृत में फॉर्मिक एसिड में टूटता है, जिससे चयापचय एसिडोसिस होता है और रक्त का pH स्तर कम हो जाता है।   
    • यह शरीर की कोशिकाओं में ऑक्सीजन के उपयोग को बाधित करता है, जिससे अंगों को नुकसान पहुँचता है। मेथनॉल ऑप्टिक नर्व को भी क्षतिग्रस्त कर सकता है, जिससे अंधापन हो सकता है, और मस्तिष्क में सूजन या रक्तस्राव हो सकता है, जो कोमा या मृत्यु का कारण बन सकता है।
  • नियामक ढाँचा: खाद्य सुरक्षा और मानक (मादक पेय पदार्थ) नियम, 2018 में शराबों में मेथनॉल की अधिकतम सीमा निर्धारित की गई है ताकि सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके।
    • मेथनॉल को खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात नियम, 1989 की अनुसूची I में शामिल किया गया है।
    • भारतीय मानक IS 517 मेथनॉल की गुणवत्ता निर्धारण के लिये विनिर्देश प्रदान करता है।

Methanol

भारत में अवैध शराब से होने वाली त्रासदियों के क्या कारण हैं?

  • आर्थिक असुरक्षा और गरीबी: आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लोग अक्सर सस्ती और स्थानीय रूप से बनी शराब (हुच) का सहारा लेते हैं क्योंकि वे लाइसेंस प्राप्त, गुणवत्ता वाली शराब खरीदने में सक्षम नहीं होते।
    • हुच की लागत लाइसेंस प्राप्त शराब की तुलना में काफी कम होती है क्योंकि इसमें उत्पाद शुल्क और करों से बचाव किया जाता है।
  • मेथनॉल का व्यापक दुरुपयोग: मेथनॉल एक सस्ता औद्योगिक रसायन है, जिसे अक्सर अवैध शराब में उसकी ताकत बढ़ाने के लिये मिलाया जाता है, जबकि यह अत्यधिक विषैला होता है। अवैध शराब बनाने वाले अक्सर मेथनॉल का उपयोग प्राणघातक हुच बनाने में करते हैं, जैसा कि कई सामूहिक विषाक्तता मामलों में देखा गया है।
    • विनियमन और प्रवर्तन का आभाव: उत्पाद शुल्क अधिनियम, 1944 और स्थानीय नियमों के बावजूद, प्रवर्तन अक्सर कमज़ोर रहता है, जिससे अवैध शराब निर्माण और वितरण को बढ़ावा मिलता है।
    • शराबबंदी वाले राज्यों (जैसे बिहार, गुजरात) में, अवैध शराब के नेटवर्क भूमिगत रूप से फैलते हैं और कमज़ोर प्रवर्तन का लाभ उठाते हैं।
    • मेथिल अल्कोहल को विष अधिनियम, 1919 में दी गई परिभाषा के अंतर्गत "विष" के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, जिससे कानूनी दायित्व की सीमा सीमित हो जाती है।
      • यह कानूनी अंतर ऐसे मामलों के अभियोजन को जटिल बना देता है और विधायी सुधार की आवश्यकता को उजागर करता है।
  • राजनीतिक और नौकरशाही गठजोड़: अवैध शराब के व्यापार में अक्सर राजनीतिक संरक्षण और नौकरशाही की संलिप्तता के आरोप लगाए जाते हैं।
    • राजनीतिक संबंध कभी-कभी अवैध शराब निर्माताओं को संरक्षण प्रदान करते हैं, जिससे कानून प्रवर्तन कार्रवाई में बाधा आती है। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के कारण तस्कर बिना पुलिस हस्तक्षेप के भय के कार्य करते हैं।
  • जागरूकता का आभाव और सामाजिक कलंक: ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में बिना नियंत्रण वाली शराब के सेवन के खतरों के प्रति जागरूकता का अभाव है।
  • शराब की लत से जुड़ा सामाजिक कलंक भी लोगों को विषाक्तता के लक्षण दिखने पर चिकित्सकीय सहायता लेने से रोकता है।
  • सामुदायिक रिपोर्टिंग तंत्र का अभाव: स्थानीय शराब माफियाओं के भय से समुदाय अवैध शराब उत्पादन की रिपोर्ट करने से बचते हैं।
  • अक्सर ऐसी कोई संरचित प्रणाली नहीं होती है जिसके माध्यम से अधिकारियों को गुमनाम रूप से अवैध शराब की तस्करी की गतिविधियों की सूचना दी जा सके।
  • आपूर्ति शृंखला निगरानी में खामियाँ: मेथनॉल जैसे कच्चे माल की डिजिटल ट्रैकिंग और निगरानी का अभाव, अनियंत्रित वितरण को बढ़ावा देता है।
  • वास्तविक समय ट्रैकिंग तंत्र के अभाव में अवैध शराब बनाने वाली फैक्ट्रियों की पहचान करना कठिन हो जाता है।
  • भारत में अवैध शराब त्रासदियों से संबंधित प्रमुख मामले:
    • मुंबई (वर्ष 2015): मालवानी में मेथनॉल विषाक्तता के कारण लगभग 100 लोगों की मृत्यु हुई।
    • पंजाब (वर्ष 2020): कई ज़िलों में मिलावटी शराब पीने से 100 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
    • बिहार (वर्ष 2022): शराबबंदी के बावजूद सारण में जहरीली शराब पीने से 40 लोगों की मृत्यु हुई।
    • तमिलनाडु (वर्ष 2024): तमिलनाडु के कल्लाकुरिची में एक अवैध शराब त्रासदी में 50 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।

अवैध शराब की रोकथाम के लिये कानूनी उपाय

  • आबकारी अधिनियम, 1944 शराब के उत्पादन और वितरण को नियंत्रित करता है, जिसमें अवैध निर्माण के लिये दंड का प्रावधान भी शामिल है।
  • बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में पूर्ण शराबबंदी है, फिर भी अवैध शराब की घटनाएँ अभी भी होती हैं।
  • भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 में अवैध शराब से संबंधित मौतों के लिये धारा 103 (हत्या) और 105 (गैर इरादतन हत्या) जैसी विशिष्ट धाराएँ शामिल हैं।
  • शराब का विनियमन भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची, विशेष रूप से राज्य सूची के अंतर्गत आता है, जो राज्यों को इसके उत्पादन, बिक्री और वितरण पर कानून बनाने का विशेष अधिकार देता है। इसलिये शराब से जुड़े कानून अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं।

अवैध शराब से होने वाली त्रासदियों को रोकने के लिये क्या उपाय आवश्यक हैं?

  • प्रभावी प्रवर्तन और निगरानी: ऑपरेशन मूनशाइन (कोच्चि, केरल में संचालित) जैसी पहल, आबकारी, पुलिस और वन विभागों द्वारा समन्वित छापेमारी एवं निगरानी की सफलता को दर्शाती है। 
  • मेथनॉल उत्पादन, बिक्री और परिवहन की निगरानी के लिये रसायन और उर्वरक मंत्रालय के तहत एक केंद्रीकृत मेथनॉल ट्रैकिंग पोर्टल लॉन्च किया जाना चाहिये।
  • मेथनॉल आपूर्ति शृंखलाओं का अपरिवर्तनीय खाता बनाने के लिये ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी का उपयोग करें, जिससे अवैध शराब उत्पादन को रोका जा सके।
  • अवैध शराब बनाने वाले स्थानों की पहचान के लिये GIS (भौगोलिक सूचना प्रणाली) मैपिंग और सीसीटीवी निगरानी जैसे डिजिटल उपकरणों का उपयोग करके प्रवर्तन प्रभावकारिता में सुधार किया जा सकता है।
  • जन जागरूकता अभियान: राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के अंतर्गत, संवेदनशील क्षेत्रों में नकली शराब और मेथनॉल विषाक्तता के खतरों के बारे में शिक्षित करने हेतु केंद्रित IEC (सूचना, शिक्षा और संचार) अभियान शुरू करना चाहिये।
    • पंचायतों, धार्मिक नेताओं तथा स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को शराब के सेवन को हतोत्साहित करने और अवैध शराब निर्माण की सूचना देने के लिये प्रेरित किया जा सकता है।
  • सस्ती, गुणवत्ता-नियंत्रित शराब तक पहुँच: कराधान को युक्तिसंगत बनाने के साथ सुरक्षित, विनियमित शराब की उपलब्धता सुनिश्चित करने से नकली शराब की मांग में कमी लाई जा सकती है।
  • सामाजिक-आर्थिक सहायता और वैकल्पिक आजीविका: अवैध शराब के उपभोग या उत्पादन पर आर्थिक निर्भरता को कम करने के क्रम में दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना (DDU-GKY) के तहत प्रभावित समुदायों को कौशल विकास कार्यक्रमों में एकीकृत करना चाहिये।
    • अवैध शराब के शिकार लोगों के बच्चों को शैक्षिक छात्रवृत्ति के साथ स्वास्थ्य बीमा प्रदान करना चाहिये।
  • पुलिस और आबकारी अधिकारियों की जवाबदेहिता: अवैध शराब के व्यापार पर अंकुश लगाने से संबंधित स्पष्ट मानदंडों के साथ पुलिस एवं आबकारी विभागों हेतु एक लेखा परीक्षा प्रणाली स्थापित की जानी चाहिये।
    • लापरवाह या दोषी पाए गए अधिकारियों के विरुद्ध कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिये।
  • अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देश और सर्वोत्तम प्रथाएँ: शराब के हानिकारक उपयोग को कम करने के क्रम में इसकी उपलब्धता को नियंत्रित करने, मूल्य निर्धारण नीतियों के माध्यम से मांग को कम करने तथा अवैध शराब उत्पादन को रोकने पर केंद्रित WHO की वैश्विक रणनीति (2010) का अनुसरण करना चाहिये।
    • सतत् विकास लक्ष्य संख्या (SDG) 3.5 मादक द्रव्यों के सेवन की रोकथाम एवं संबंधित उपचार को उन्नत करने पर केंद्रित है।

निष्कर्ष

भारत में बार-बार होने वाली शराब संबंधी त्रासदियाँ सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के साथ शासन विफलता की परिचायक हैं। अमृतसर की घटना से इसके सख्त विनियमन, जन जागरूकता, प्रवर्तन संबंधी जवाबदेही तथा सामुदायिक भागीदारी को शामिल करते हुए इस संदर्भ में एक समन्वित दृष्टिकोण को अपनाने की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है ताकि अवैध शराब के व्यापार को बढ़ावा देने वाले दुष्चक्र को तोड़ा जा सके।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: शराब से होने वाली दुर्घटनाओं में मेथनॉल विषाक्तता को एक प्रमुख लोक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखा जा रहा है। इसे हल करने के लिये कौन से निवारक तंत्र स्थापित किये जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित में से किसमें 'ट्राइक्लोसन' के विद्यमान होने की सर्वाधिक संभावना है, जिसके लंबे समय तक उच्च स्तर के प्रभावन में रहने को हानिकारक माना जाता है? (2021)

(A) खाद्य परिरक्षक
(B) फल पकाने वाले पदार्थ
(C) पुनः प्रयुक्त प्लास्टिक के पात्र
(D) प्रसाधन सामग्री

उत्तर: D


सामाजिक न्याय

दिव्यांगजनों का सशक्तीकरण

प्रिलिम्स के लिए:

दिव्यांगजनों के अधिकारों पर कन्वेंशन, मूल अधिकार, अनुच्छेद 41, भारतीय पुनर्वास परिषद, PM-DAKSH योजना

मेन्स के लिए:

भारत में दिव्यांगजनों के अधिकार और सशक्तीकरण, सामाजिक न्याय एवं समानता प्राप्त करने में सुगम्यता का महत्त्व

स्रोत: पी.आई.बी.

चर्चा में क्यों? 

केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के तहत दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग (DEPwD) ने वैश्विक सुगम्यता जागरूकता दिवस (GAAD) के अवसर पर समावेशी भारत शिखर सम्मेलन का आयोजन किया।

  • इस शिखर सम्मेलन के परिणामस्वरूप दिव्यांगजनों के समावेशन को बढ़ावा देने के क्रम में तीन समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए। इसकी प्रमुख पहलों में सार्वजनिक भवनों का ऑडिट करने के लिए 'सुगम्यता सूचकांक', समावेशी बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा देना तथा हैकथॉन एवं राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के माध्यम से जागरूकता बढ़ाना शामिल है।

नोट: GAAD की स्थापना वर्ष 2012 में जेनिसन असुनसियन (एक्सेसिबिलिटी प्रोफेशनल) तथा जो डेवॉन (वेब ​​डेवलपर) द्वारा की गई थी, यह दिवस प्रतिवर्ष मई के तीसरे गुरुवार को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य डेवलपर्स, डिज़ाइनरों तथा डिजिटल रचनाकारों को दिव्यांगजनों (PwDs) हेतु सुलभ वेबसाइट एवं डिजिटल सामग्री निर्मित करने हेतु प्रोत्साहित करना है।

समावेशी समाज हेतु सुगम्यता क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • समान अधिकार तथा भागीदारी सुनिश्चित करना: सुगम्यता से दिव्यांगजनों को उनके मूल मानवाधिकारों जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवा एवं सामाजिक भागीदारी तक पहुँच को प्रदान करने में सुलभता होती है।
  • पूर्ण समावेशन के क्रम में बाधाओं में कमी आना: दिव्यांगजनों को अक्सर शारीरिक और मनोवृत्ति संबंधी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 
    • सुगम्यता का उद्देश्य विविध आवश्यकताओं के अनुरूप उचित समायोजन प्रदान करके इन बाधाओं को दूर करना है तथा यह सुनिश्चित करना है कि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में शामिल हो सकें।
  • अंतर्राष्ट्रीय मानक फ्रेमवर्क: संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख दस्तावेज़ जैसे कि दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRPD), दिव्यांगजनों से संबंधित विश्व कार्य योजना तथा अवसरों की समानता पर मानक नियम के तहत सुगम्यता को एक अधिकार तथा दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने के साधन के रूप में महत्त्व दिया गया है। 
    • इन ढाँचों में सुलभ भौतिक वातावरण, सूचना, संचार, परिवहन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक सुलभ पहुँच शामिल है।
  • सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा: समावेशी समाज से गरीबी उन्मूलन एवं समान आर्थिक अवसरों के साथ समग्र सतत् विकास में योगदान मिलता है।

भारत में दिव्यांगजनों की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • भारत में दिव्यांगजन: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में दिव्यांगजनों की संख्या 2.68 करोड़ (कुल जनसंख्या का 2.21%) है।   
    • दिव्यांगता का प्रचलन महिलाओं की तुलना में पुरुषों में अधिक था, पुरुषों में यह दर 2.4% और महिलाओं में 1.9% थी। यह शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक था।
    • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (RPwD Act), 2016 के अनुसार, कुल 21 प्रकार की दिव्यांगताएँ शामिल की गई हैं, जिनमें चलने-फिरने में असमर्थता (Locomotor Disability),
      दृष्टिबाधिता, श्रवण बाधिता (Hearing Impairment), वाणी एवं भाषा की दिव्यांगता, बौद्धिक दिव्यांगता, एक से अधिक दिव्यांगता (Multiple Disabilities), मस्तिष्क पक्षाघात (Cerebral Palsy), बौनेपन की स्थिति (Dwarfism) आदि शामिल हैं।  
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • संविधान की प्रस्तावना: सभी नागरिकों को न्याय (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक), स्वतंत्रता (विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, उपासना की) तथा समानता (स्थिति और अवसर की) सुनिश्चित करती है।
    • मूल अधिकार (भाग III): संविधान छह मूल अधिकारों (समानता, स्वतंत्रता, शोषण से संरक्षण, धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार तथा संवैधानिक उपचार) की गारंटी देता है, जो दिव्यांगजनों सहित सभी नागरिकों पर लागू होते हैं, भले ही उनका स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो। 
    • राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (भाग IV): अनुच्छेद 41 में बेरोज़गारी, वृद्धावस्था, बीमारी और दिव्यांगता के मामलों में सार्वजनिक सहायता प्रदान करने का प्रावधान किया गया है।
      • यह राज्य को अपनी आर्थिक क्षमता के भीतर ज़रूरतमंद लोगों के लिये कार्य, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करने के लिये प्रभावी प्रावधान करने का अधिकार देता है।  
    • पंचायती राज और शहरी स्थानीय निकाय:
      • बारहवीं अनुसूची (अनुच्छेद 243-W की प्रविष्टि 9): "दिव्यांग और मानसिक रूप से मंद लोगों सहित समाज के कमज़ोर वर्गों के हितों की रक्षा करना।"   
      • ग्यारहवीं अनुसूची (अनुच्छेद 243-G की प्रविष्टि 26): ग्यारहवीं अनुसूची (अनुच्छेद 243-G की प्रविष्टि 26): दिव्यांग और मानसिक रूप से मंद लोगों के कल्याण सहित सामाजिक कल्याण भी शामिल है।”
  • नीतिगत रूपरेखा: दिव्यांगजन के लिये राष्ट्रीय नीति, 2006 का उद्देश्य समाज में दिव्यांगजनों के लिये समान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करना है।
    • भारत ने वर्ष 2008 में UNCRPD की पुष्टि की। कन्वेंशन के तहत अपने दायित्वों को पूरा करने के लिये, संसद ने RPwD अधिनियम 2016 (दिव्यांगजनों के लिये सम्मान, भेदभाव रहित व्यवहार और समान अवसर सुनिश्चित करने के लिये) अधिनियमित किया।
    • राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 ने ऑटिज्म, मस्तिष्क पक्षाघात, मानसिक मंदता और बहु- दिव्यांगताओं से ग्रस्त व्यक्तियों के कल्याण हेतु एक राष्ट्रीय निकाय की स्थापना की।
    • भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992 ने RCI को दिव्यांगता सेवाओं को विनियमित और निगरानी करने, प्रशिक्षण को मानकीकृत करने तथा योग्य पुनर्वास पेशेवरों का रजिस्टर बनाए रखने के लिये एक वैधानिक निकाय बनाया।
    • वर्ष 2015 में शुरू की गई दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (SIPDA) के कार्यान्वयन की योजना, कौशल विकास के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना के अंतर्गत 15-59 वर्ष आयु वर्ग के दिव्यांगजनों के लिये कौशल प्रशिक्षण पर केंद्रित है।
  • न्यायिक घोषणाएँ:  
    • राजीव रतूड़ी बनाम भारत संघ (2024) में, सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि दिव्यांगजनों के लिये सुगम्यता अनुच्छेद 21 के तहत एक संवैधानिक अनिवार्यता है, जो इसे जीवन, सम्मान और आवागमन की स्वतंत्रता के अधिकार से जोड़ती है।
      • इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि वास्तविक समानता सुनिश्चित करने और उन्हें हाशिये पर जाने से रोकने के लिये डिजिटल समावेशन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक बनाम ए.के. नायर एवं अन्य (2023) मामले  में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि दिव्यांगजन सशक्तीकरण अधिनियम, 2016 में समय-समय पर सरकार द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार दिव्यांगजनों के लिये पदोन्नति में आरक्षण का स्पष्ट प्रावधान है।

भारत में दिव्यांगजनों के सामने क्या चुनौतियाँ हैं?

  • दुर्गम भौतिक अवसंरचना: अधिकांश सार्वजनिक इमारतें, परिवहन प्रणालियाँ और शहरी अवसंरचना सार्वभौमिक डिज़ाइन मानदंडों के अनुरूप नहीं हैं। वर्ष 2018 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, केवल 3% इमारतें ही पूरी तरह से सुलभ थीं।
    • रैम्प, लिफ्ट या स्पर्शनीय पथ जैसी बुनियादी पहुँच सुविधाओं का अभाव दिव्यांगजनों को प्रभावी रूप से अलग-थलग कर देता है, जिससे उनकी गतिशीलता और स्वतंत्रता बाधित होती है।
  • शैक्षिक बहिष्करण : 76वें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के अनुसार, 7 वर्ष और उससे अधिक आयु के केवल 52.2% दिव्यांग व्यक्ति साक्षर हैं, जो समावेशी शिक्षा तक पहुँच न होना और सुलभ स्कूल सुविधाओं की कमी के कारण राष्ट्रीय औसत 80% से बहुत कम है।
  • रोज़गार संबंधी बाधाएँ और आर्थिक सीमांतीकरण: सामाजिक पूर्वाग्रह और नियोक्ता द्वारा उचित सुविधाएँ प्रदान करने में अनिच्छा के कारण दिव्यांगजन सार्थक रोज़गार प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। 
    • भारत में रोज़गार योग्य 1.3 करोड़ दिव्यांगजनों में से केवल 34 लाख को ही रोज़गार मिला हुआ है, जो प्रतिभा के पर्याप्त उपयोग न होने को दर्शाता है। 
    • इसके अतिरिक्त, कार्यस्थलों पर सुलभ बुनियादी ढाँचे और सहायक उपकरणों की कमी उनकी भागीदारी को सीमित कर रही है।
  • स्वास्थ्य सेवा की अनुपलब्धता: कोविड-19 के दौरान, दिव्यांगजनों को अत्यधिक जोखिम का सामना करना पड़ा तथा अपर्याप्त तैयारी के कारण आवश्यक सेवाओं तक उनकी पहुँच कम हो गई।
  • डिजिटल डिवाइड का विस्तार: लगभग 98% वेबसाइटें सुगम्यता मानकों के अनुरूप नहीं हैं, जिसके कारण दिव्यांगजन शिक्षा, बैंकिंग और शासन जैसी डिजिटल सेवाओं से वंचित रह जाते हैं।
    • प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान (PMGDISHA) जैसे कार्यक्रमों के बावजूद, डिजिटल कौशल विकास पहल में दिव्यांगों का प्रतिनिधित्व काफी कम है।
    • कई सहायक प्रौद्योगिकियाँ (जैसे, चेहरे की पहचान, ध्वनि आदेश) या तो अनुपलब्ध हैं या उनकी पहुँच बहुत कम है, जिससे विशेष रूप से एसिड हमले से बचे लोगों और दृष्टिबाधित व्यक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • कानूनी और नीतिगत ढाँचों का कमज़ोर कार्यान्वयन: सार्वजनिक निर्माण विभागों में कम जागरूकता और जवाबदेही के कारण सामंजस्यपूर्ण पहुँच दिशा-निर्देशों (वर्ष 2016 व वर्ष 2021) को भवन उप-नियमों में एकीकृत नहीं किया गया है।
  • विविध आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये लचीलापन: सुलभता सभी के लिये एक जैसी नहीं होती; इसका अर्थ है ऐसे वातावरण, सेवाएँ और प्रौद्योगिकियाँ डिज़ाइन करना जो लचीली हों एवं विभिन्न प्रकार की दिव्यांगताओं वाले व्यक्तियों के लिये उपयोगी हों, चाहे वे शारीरिक, संवेदी, संज्ञानात्मक या अन्य हों।

दिव्यांगजनों के लिये समावेशी और सुगम्य समाज सुनिश्चित करने हेतु  भारत क्या उपाय कर सकता है?

  • बाधा-मुक्त भौतिक अवसंरचना सुनिश्चित करना: स्कूलों, अस्पतालों और कार्यस्थलों में बाधा-मुक्त अवसंरचना सुनिश्चित करने हेतु सुगम्य भारत अभियान को पुनर्जीवित एवं विस्तारित करना।
    • दिव्यांगजनों की स्वतंत्र गतिशीलता के लिये परिवहन साधनों में सुगमता में सुधार करना। बधिरों और कम सुनने वाले व्यक्तियों के लिये सांकेतिक भाषा दुभाषियों की उपलब्धता बढ़ाना एवं सार्वजनिक प्रसारणों में कैप्शनिंग को बढ़ावा देना।
  • पर्याप्त सहयोग के साथ समावेशी शिक्षा: समग्र शिक्षा अभियान को सभी विद्यालयों में विशेष शिक्षकों की नियुक्ति सुनिश्चित करनी चाहिये। 
    • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 समावेशी शिक्षा की आवश्यकता को मान्यता देती है, लेकिन इसमें दिव्यांगता-विशेष ठोस रणनीतियों का अभाव है। इसके कार्यान्वयन में पाठ्यक्रम का अनुकूलन और प्रारंभिक पहचान को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • कोठारी आयोग (1966) की सिफारिशों ने लंबे समय से दिव्यांगजनों (PwD) के मुख्यधारा के विद्यालयों में एकीकरण पर बल दिया है, जिसे वित्तीय और शैक्षणिक समर्थन की आवश्यकता है।
  • समान रोज़गार के अवसर: अधिक समावेशिता सुनिश्चित करने हेतु, PM-दक्ष योजना को सुदृढ़ किया जा सकता है, जिसमें दिव्यांगजन कौशल विकास कार्यक्रम की पहुँच को ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों तक मोबाइल प्रशिक्षण इकाइयों और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों (NGO) के साथ साझेदारी के माध्यम से बढ़ाया जा सकता है।
    • दिव्यांगजन रोज़गार सेतु मंच को प्रधानमंत्री विश्वकर्मा जैसे राष्ट्रीय रोज़गार पोर्टलों के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये, ताकि नौकरी के उपयुक्त मिलान की प्रक्रिया को सहज और प्रभावी बनाया जा सके।
    • साथ ही, रीयल-टाइम नौकरी विश्लेषण, दिव्यांगजनों की भर्ती के लिये नियोक्ताओं को प्रोत्साहन, और समय-समय पर तृतीय-पक्ष ऑडिट के माध्यम से इस कार्यक्रम की पारदर्शिता, पहुँच और परिणामों में सुधार किया जा सकता है।
  • डिजिटल और वित्तीय सुगमता: भारतीय सरकारी वेबसाइटों के लिये दिशानिर्देश (GIGW 3.0) का पालन सुनिश्चित किया जाए।
    • सुलभ बैंकिंग सेवाओं (टॉकिंग ATM, ब्रेल विवरण) को अनिवार्य किया जाए और जन धन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (PMJJBY) तथा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) के अंतर्गत दिव्यांगजनों तक पहुँच सुनिश्चित की जाए।
  • सुलभ स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा: हेल्थ ID और आयुष्मान भारत डिजिटल प्लेटफॉर्म में दिव्यांगजन से संबंधित विशिष्ट आँकड़ों को शामिल किया जाना चाहिये तथा टेलीहेल्थ प्लेटफॉर्म को स्क्रीन रीडर के अनुकूल बनाया जाना चाहिये।
    • समग्र प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के तहत मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं (आशा) को ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगजनों की पहचान करने और सहायता प्रदान करने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
  • जागरूकता और व्यवहार परिवर्तन को बढ़ावा देना: सरकारी अधिकारियों, न्यायपालिका, पुलिस और स्वास्थ्य पेशेवरों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दिव्यांगता संवेदनशीलता शामिल करना चाहिये ताकि दिव्यांगजनों के प्रति सम्मानजनक और सूचित व्यवहार सुनिश्चित किया जा सके।

निष्कर्ष

दिव्यांगजनों के लिये समावेशी और सुलभ समाज बनाने के लिये अवसंरचना, शिक्षा, रोज़गार और डिजिटल पहुँच के क्षेत्रों में निरंतर प्रतिबद्धता आवश्यक है। मौजूदा योजनाओं को मज़बूत करना और कानूनी ढाँचे को प्रभावी रूप से लागू करना, दिव्यांगजनों को गरिमा और समान अवसरों के साथ जीवन जीने में सक्षम बनाएगा। सरकार, निजी क्षेत्र और समाज के सामूहिक प्रयास वास्तविक समावेशन और सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: सुगम्यता एक मूल अधिकार है और दिव्यांगजनों की गरिमा व सशक्तीकरण के लिये आवश्यक पूर्वशर्त है। इसे भारतीय समाज और शासन के संदर्भ में चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारत में विकलांग व्यक्तियों (persons with disabilities) की संख्या लाखों में है। वैधानिक स्तर पर उन्हें कौन-कौन से लाभ उपलब्ध हैं? (2011)

  1. सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में 18 वर्ष की आयु तक निःशुल्क शिक्षा।
  2. व्यवसाय स्थापित करने के लिये वरीयता से भूमि का आवंटन।
  3. सार्वजनिक भवनों में ढाल की उपलब्ध होना।

उपर्युक्त में से कौन-सा/कौन-से कथन सही है/हैं?

(a) केवल ।
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1,2 और 3

उत्तर: (d)


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