आपदा प्रबंधन
अमोनिया गैस का रिसाव
प्रिलिम्स के लिये:अमोनिया, बैटरी इलेक्ट्रिक वाहन, अमोनिया का ऊर्जा घनत्व, हैबर-बॉश प्रक्रम, हरित हाइड्रोजन/हरित अमोनिया नीति, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता, 2020, श्रम ब्यूरो, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, ILO अभिसमय। मेन्स के लिये:ईंधन के रूप में अमोनिया से संबंधित लाभ और चुनौतियाँ, भारत में व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य - विश्लेषण, चुनौतियाँ और उठाए जा सकने वाले कदम, भारत में श्रमिकों के संबंध में रूपरेखा, वर्तमान श्रम सुधारों से संबंधित ग्रे (Grey) क्षेत्र |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
मध्य प्रदेश के रतलाम में एक आइस फैक्ट्री में अमोनिया गैस के रिसाव से निवासियों की चिंताएँ बढ़ गई। ऐसी रासायनिक घटनाएँ भारत में औद्योगिक सुरक्षा और आपदा तैयारियों की आवर्ती चुनौतियों पर प्रकाश डालती हैं।
अमोनिया और इसके औद्योगिक अनुप्रयोग
- अमोनिया (NH₃) एक तीखी गंध वाली रंगहीन गैस है, जिसका व्यापक रूप से उद्योग में उपयोग किया जाता है और यह पर्यावरण और मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है।
- इसे उत्प्रेरक की उपस्थिति में उच्च तापमान और दबाव में हैबर-बॉश प्रक्रम (N₂ + 3H₂ → 2NH₃) द्वारा निर्मित किया जाता है:
- इसका सांद्रित रूप संक्षारक होता है और उच्च ताप पर जलने या विस्फोट का कारण बन सकता है। इसे संपीड़ित तरल के रूप में संग्रहित किया जाता है।
- यह जल में अत्यधिक घुलनशील है और जल के संपर्क में आने पर अमोनियम हाइड्रॉक्साइड बनाता है।
- इसमें ली-आयन बैटरियों की तुलना में 9 गुना अधिक ऊर्जा घनत्व है तथा संपीड़ित हाइड्रोजन की तुलना में 3 गुना अधिक है, जो इसे एक आशाजनक कार्बन-मुक्त ऊर्जा वाहक बनाता है।
- प्रमुख अनुप्रयोग:

औद्योगिक एवं रासायनिक आपदाएँ क्या हैं?
- औद्योगिक आपदा: औद्योगिक आपदा किसी औद्योगिक स्थल पर होने वाली एक महत्त्वपूर्ण दुर्घटना है जिसके परिणामस्वरूप व्यापक क्षति, चोट या मृत्यु होती है।
- यह विभिन्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है, जिनमें रासायनिक, यांत्रिक, सिविल या विद्युत प्रक्रियाएँ, साथ ही दुर्घटनाएँ, लापरवाही या अक्षमता शामिल हैं।
- प्रकार:
- रासायनिक आपदाएँ, विस्फोट, खनन आपदाएँ, फॉलिंग ऑब्जेक्ट, रेडियोलॉजिकल घटनाएँ।
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के अनुसार, भारत में पिछले दशक में 130 महत्त्वपूर्ण रासायनिक दुर्घटनाएँ हुईं, जिसके परिणामस्वरूप 259 मौतें हुईं और 563 लोग गंभीर रूप से घायल हुए।
- रासायनिक आपदा: रासायनिक आपदाएँ एक प्रकार की औद्योगिक आपदा है जिसमें खतरनाक रसायनों का आकस्मिक रिसाव होता है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर जनहानि होती है, दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षति होती है और सामाजिक-आर्थिक व्यवधान उत्पन्न होते हैं।
- ये औद्योगिक दुर्घटनाओं, रसायनों के अनुचित संचालन या भंडारण, या सुरक्षा प्रणालियों की विफलता के कारण हो सकते हैं।
- उल्लेखनीय उदाहरण:
- चेन्नई अमोनिया रिसाव (वर्ष 2024): चक्रवात मिचांग के दौरान क्षतिग्रस्त पाइपलाइन के कारण।
- विज़ाग गैस रिसाव (वर्ष 2020): LG पॉलिमर्स, विशाखापत्तनम में स्टाइरीन गैस रिसाव।
- भोपाल गैस त्रासदी (वर्ष 1984): यूनियन कार्बाइड से मिथाइल आइसोसाइनेट रिसाव के कारण बड़े पैमाने पर जनहानि हुई।
औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण और प्रभाव क्या हैं?
भारत में रासायनिक और औद्योगिक आपदाओं के विरुद्ध विधिक सुरक्षा उपाय क्या हैं?
- भोपाल गैस विभीषिका (दावा कार्यवाही) अधिनियम, 1985
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (EPA),1986
- राष्ट्रीय पर्यावरण अपील प्राधिकरण (NEAA) अधिनियम, 1997: पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये पर्यावरण मंजूरी पर अपील सुनने के लिये NEAA की स्थापना की गई।
- लोक दायित्व बीमा अधिनियम (PLIA), 1991: यह खतरनाक पदार्थों से निपटने वाले उद्योगों के लिये बीमा अनिवार्य करता है, जिससे औद्योगिक दुर्घटनाओं के पीड़ितों को तत्काल राहत सुनिश्चित होती है।
- खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन, हैंडलिंग और सीमा पार आवागमन) नियम, 1989: यह उद्योगों पर दुर्घटना-प्रवण क्षेत्रों की पहचान करने, निवारक उपाय करने तथा प्राधिकारियों को खतरों की सूचना देने का दायित्व डालता है।
- अतिरिक्त उपाय:
- रासायनिक आपदाओं पर NDMA दिशानिर्देश: ये रासायनिक आपदाओं के लिये आपदा जोखिम न्यूनीकरण, शमन और तैयारी के लिये एक व्यापक रोडमैप प्रदान करते हैं।
- कारखाना अधिनियम, 1948 में खतरनाक पदार्थों से निपटने सहित विनिर्माण इकाइयों में काम करने वाले श्रमिकों के लिये सुरक्षा प्रावधान शामिल हैं।
- कीटनाशक अधिनियम, 1968 मनुष्यों और पशुओं के लिये जोखिम को रोकने के लिये कीटनाशकों के आयात, निर्माण, बिक्री और उपयोग को नियंत्रित करता है।
रासायनिक और आपदाओं से संबंधित प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और सुरक्षा उपाय क्या हैं?
- आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु सेंडाइ फ्रेमवर्क 2015-2030
- औद्योगिक दुर्घटनाओं के सीमापारीय प्रभावों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (1992) ऐसे औद्योगिक दुर्घटनाओं की रोकथाम, तत्परता और उनके मोचन में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु एक विधिक ढाँचा प्रदान करता है, जिनका सीमापारीय प्रभाव हो सकता है।
- परिसंकटमय अपशिष्टों की सीमापारीय आवागमन और उनके निपटान के नियंत्रण पर बेसल अभिसमय (1989) के अंतर्गत परिसंकटमय अपशिष्टों की सीमापारीय आवाजाही को नियंत्रित किया जाता है और उनका पर्यावरण की दृष्टि से उचित निपटान सुनिश्चित किया जाता है।
- रॉटरडैम अभिसमय (2004) के अंतर्गत पूर्व सूचित सहमति (PIC) प्रक्रिया के माध्यम से परिसंकटमय रसायनों और कीटनाशकों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में साझा ज़िम्मेदारी को बढ़ावा दिया जाता है।
- वर्ष 2006 में अंगीकृत अंतर्राष्ट्रीय रसायन प्रबंधन हेतु रणनीतिक दृष्टिकोण (SAICM), विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में रासायनिक सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिये एक नीतिगत ढाँचा है।
- UNEP का रासायनिक दुर्घटना निवारण एवं तत्परता अनुकूलन ढाँचा (CAPP), 2006 में देशों, विशेष रूप से विकासशील देशों को रासायनिक दुर्घटनाओं की रोकथाम और तत्परता के लिये कार्यक्रम निर्माण में मदद करने हेतु एक अनुकूलि दृष्टिकोण शामिल किया गया है।
- रासायनिक सुरक्षा और जैव सुरक्षा पर OECD कार्यक्रम (1980 के दशक के मध्य) रसायनों, नैनो सामग्रियों, कीटनाशकों, जैवनाशियों और आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के उत्पादों के सुरक्षित उपयोग से संबंधित है।
औद्योगिक आपदा निवारण पर ILO की अनुशंसाएँ
पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये: औद्योगिक आपदा निवारण पर ILO की अनुशंसाएँ क्या हैं?
रासायनिक आपदाओं के प्रति सुभेद्यता को कम करने हेतु भारत क्या उपाय कर सकता है?
- जोखिम मानचित्रण और अनुक्षेत्र वर्गीकरण:
- सुभेद्य क्षेत्रों की पहचान करने के उद्देश्य से सभी प्रमुख दुर्घटना जोखिम (MAH) इकाइयों की GIS-आधारित खतरा मानचित्रण का संचालन किया जाना चाहिये और विशेष रूप से घनी आबादी वाले औद्योगिक क्षेत्रों में सुरक्षा बफर ज़ोन के निर्माण को अनिवार्य किया जाना चाहिये। यह SDG 11 (सतत् शहर और समुदाय) और SDG 3 (अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण) के साथ संरेखित है, जिससे अधिक सुरक्षित नगरीय नियोजन और स्वास्थ्य पर अल्प जोखिम सुनिश्चित होता है।
- संस्थागत एवं नीतिगत सुधार:
- आवधिक समीक्षा और वैश्विक मानकों के साथ संरेखण के माध्यम से NDMA के रासायनिक आपदा प्रबंधन दिशा-निर्देशों का सुदृढ़ीकरण किया जाना चाहिये।
- स्पष्ट मानक संचालन प्रक्रियाओं (SOP) और नियमित मॉक ड्रिल के साथ ज़िला और राज्य आपदा प्रबंधन योजनाओं में रासायनिक आपदा प्रतिक्रिया के प्रशिक्षण, नियोजन और एकीकरण के लिये राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर विशेष संस्थानों की स्थापना करना आवश्यक है।
- प्रभावी प्रवर्तन:
- कारखाना अधिनियम, EP अधिनियम, खतरनाक रासायनों के निर्माण, संग्रहण और आयात (MSIHC) नियमावली, 1989 तथा लोक दायित्व बीमा (PLI) अधिनियम जैसे कानूनों को लागू करने के साथ उल्लंघन के लिये कठोर दंड का प्रावधान करना चाहिये।
- पुलिस, अग्निशमन, SDRF/NDRF और स्वास्थ्य सेवाओं के साथ एकीकृत आपातकालीन प्रतिक्रिया केंद्रों (ERC) की उपस्थिति सुनिश्चित करनी चाहिये एवं ज़िला अधिकारियों की देखरेख में ऑफ-साइट आपातकालीन योजनाओं को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये।
- तकनीकी निगरानी:
- रासायनिक भंडारण, हैंडलिंग और परिवहन हेतु रियल टाइम निगरानी, पूर्व चेतावनी प्रणाली और निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिये।
- इसके साथ ही संभावित जोखिमों की शीघ्र पहचान के साथ इनका शमन सुनिश्चित करने के लिये जोखिम और परिचालन अध्ययन (HAZOP) तथा जोखिम विश्लेषण (HAZAN) को उद्योग-व्यापी स्तर पर अपनाना चाहिये।
- प्रोत्साहन समर्थन:
- सुरक्षा सुधारों को प्रोत्साहित करने के क्रम में बुनियादी ढाँचे को उन्नत करने तथा नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये कर छूट या सब्सिडी जैसी वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकती है।
व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता, 2020
- सुरक्षा ज़िम्मेदारियाँ: इसके तहत कार्यस्थल पर सुरक्षा सुनिश्चित करने के क्रम में नियोक्ताओं और कर्मचारियों के कर्त्तव्यों को रेखांकित किया गया है।
- उद्योग-विशिष्ट मानक: विभिन्न क्षेत्रों में अनुकूलित सुरक्षा मानदंडों को अनिवार्य बनाया गया है।
- श्रमिक कल्याण पर बल: कार्य के घंटे, स्वास्थ्य की स्थिति, छुट्टियों और अन्य कल्याणकारी उपायों का विनियमन सुनिश्चित किया गया है।
- संविदा श्रमिकों के लिये संरक्षण: संविदा और प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों को मान्यता देने के साथ उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया है।
- लिंग समावेशिता: इसके तहत महिलाओं को सभी प्रतिष्ठानों में सभी प्रकार के कार्यों में नियोजित करने में सक्षम बनाया गया है।
निष्कर्ष
भारत में रासायनिक और औद्योगिक दुर्घटनाओं से रासायनिक आपदा तैयारियों की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है। औद्योगिकीकरण के विस्तार के साथ भारत को संस्थागत सतर्कता, सामुदायिक जागरूकता एवं प्रौद्योगिकी-संचालित सुरक्षा उपायों को प्राथमिकता देनी चाहिये। जीवन, पर्यावरण की रक्षा और सतत् विकास सुनिश्चित करने के क्रम में "शून्य सहिष्णुता" की संस्कृति आवश्यक है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: भारत में औद्योगिक आपदाओं से अक्सर प्रशासन और सुरक्षा बुनियादी ढाँचे में अंतराल पर प्रकाश पड़ता है। हाल की घटनाओं के संदर्भ में एक व्यापक रासायनिक सुरक्षा ढाँचे की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. भारत में, क्यों कुछ परमाणु रिएक्टर “IAEA सुरक्षा उपायों” के अधीन रखे जाते हैं जबकि अन्य इस सुरक्षा के अधीन नहीं रखे जाते? (2020) (a) कुछ यूरेनियम का प्रयोग करते हैं और अन्य थोरियम का उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. ऊर्जा की बढ़ती हुई ज़रूरतों के परिप्रेक्ष में क्या भारत को अपने नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम का विस्तार करना जारी रखना चाहिये? नाभिकीय ऊर्जा से संबंधित तथ्यों और भयों की विवेचना कीजिये। (2018) |


भारतीय इतिहास
अंबेडकर और गांधी: वैचारिक समानताएँ और मतभेद
प्रिलिम्स के लिये:डॉ. बी.आर. अंबेडकर, भारतीय संविधान, भारतीय रिज़र्व बैंक, प्रारूप समिति, साम्यवाद, बौद्ध धर्म, कार्ल मार्क्स, गोलमेज़ सम्मेलन, पूना समझौता, प्रारूप समिति, बौद्ध धर्म, भारत रत्न मेन्स के लिये:महात्मा गांधी और बी.आर. अंबेडकर के बीच समानताएँ और अंतर, भारत के संविधान पर गांधी और अंबेडकर का प्रभाव, डॉ. भीम राव अंबेडकर का योगदान, वर्तमान समय में अंबेडकर की प्रासंगिकता |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
भारत द्वारा डॉ. बी.आर. अंबेडकर की 135वीं जयंती पर उनकी विरासत का पुर्नलोकन करने के साथ जाति, लोकतंत्र और समाज सुधार पर उनके विचारों पर पुनर्विचार करने से समावेशी और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिये बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है।
- दलितों के उत्थान की आवश्यकता के संबंध में उनका दृष्टिकोण सामान्यतः महात्मा गांधी के दृष्टिकोण से मेल खाता था, फिर भी उनके उपागम में स्पष्ट भिन्नता थी।
अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच वैचारिक समाभिरूपता के प्रमुख क्षेत्र क्या हैं?
- हिंसक क्रांति और साम्यवाद की अस्वीकृति:
- अंबेडकर और गांधी दोनों ने वर्ग संघर्ष और हिंसा पर साम्यवाद के केंद्र का विरोध किया।
- गांधीजी ने अहिंसा और नैतिक अनुनय पर ज़ोर देते हुए "बोल्शेविज़्म" की हिंसक पद्धतियों की आलोचना की।
- इसी प्रकार, अंबेडकर ने प्रगति के लिये "सरल मार्ग" तलाशने के लिये साम्यवाद की निंदा की तथा न्याय और समानता के लिये निरंतर, अहिंसक संघर्ष की आवश्यकता पर बल दिया।
- अंबेडकर ने बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स (1956) में मार्क्सवाद के बल प्रयोग के बजाय बुद्ध के करुणा और नैतिक प्रगति के संदेश को प्राथमिकता दी, जबकि गांधी ने अहिंसा को सर्वोच्च सिद्धांत सिद्ध करते हुए स्पष्ट किया, "शांति का कोई दूसरा रास्ता नहीं है, इसका एकमात्र रास्ता शांति ही है।"
- गांधीजी ने इस विचार पर बल दिया कि साधन को साध्य के अनुरूप होना चाहिये, तथा उन्होंने इस विचार को अस्वीकार किया कि "साध्य साधन को उचित ठहराता है।"
- अंबेडकर और गांधी दोनों ने वर्ग संघर्ष और हिंसा पर साम्यवाद के केंद्र का विरोध किया।
- मानव गरिमा और सामाजिक न्याय का समर्थन:
- गांधी और अंबेडकर दोनों का लक्ष्य सम्मान और करुणा पर आधारित न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करना था, यद्यपि इसकी प्राप्ति के उपागम अलग-अलग थे।
- गांधीजी ने सर्वोदय (सभी का उत्थान) पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि अंबेडकर ने बहुजन हिताय (बहुसंख्यकों का कल्याण) पर ज़ोर दिया।
- गांधी और अंबेडकर दोनों का लक्ष्य सम्मान और करुणा पर आधारित न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करना था, यद्यपि इसकी प्राप्ति के उपागम अलग-अलग थे।
- सार्वजनिक जीवन में नैतिकता की भूमिका:
- गांधी और अंबेडकर दोनों ने सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के महत्त्व पर बल दिया। गांधी की राजनीति नैतिक आदर्शवाद पर आधारित थी, जबकि अंबेडकर, एक तर्कणावादी होने के बावजूद शासन में नैतिकता की भूमिका को स्वीकार करते थे।
- दोनों के अनुसार चरित्र और नैतिकता सामुदायिक सेवा और नेतृत्व के लिये आवश्यक हैं।
- गांधी और अंबेडकर दोनों ने सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के महत्त्व पर बल दिया। गांधी की राजनीति नैतिक आदर्शवाद पर आधारित थी, जबकि अंबेडकर, एक तर्कणावादी होने के बावजूद शासन में नैतिकता की भूमिका को स्वीकार करते थे।
- नैतिक राजनीति:
- शुरुआत में अंबेडकर ने गांधी की नैतिक राजनीति की आलोचना की तथा उन्हें “खोखला” और “बेईमान” कहा। हालाँकि, बाद में अंबेडकर ने व्यक्तिगत नैतिकता के महत्त्व को पहचानने के साथ आत्म-उन्नयन एवं अहिंसा के क्रम में बुद्ध को उद्धृत किया, जो गांधी के स्वराज के दृष्टिकोण के अनुरूप था।
गांधी और अंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेद क्या थे?
- जाति और वर्ण व्यवस्था:
- अंबेडकर ने जाति के पूर्ण उन्मूलन का आह्वान किया एवं जाति उत्पीड़न को वैध बनाने के लिये मनुस्मृति जैसे हिंदू ग्रंथों की कड़ी आलोचना की। "जाति का संहार" (1936) में उन्होंने हिंदू सामाजिक व्यवस्था को "भयावहता का वास्तविक कक्ष" बताया।
- गांधी ने जाति व्यवस्था के कारण होने वाली सामाजिक क्षति को स्वीकार किया, लेकिन मनुस्मृति को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया क्योंकि वे जाति व्यवस्था को वास्तविक हिंदू धर्म का विरूपण मानते थे तथा मनुस्मृति को मूल्यवान एवं त्रुटिपूर्ण दोनों पहलुओं वाला ग्रंथ मानते थे।
- गांधी ने अस्पृश्यता का विरोध किया और शुरूआत में वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया लेकिन बाद में हरिजन (वर्ष 1936) में जाति उन्मूलन की वकालत करते हुए कहा कि "जाति को खत्म करना होगा।"
- उन्होंने दलितों के लिये हरिजन शब्द दिया, जिसे अंबेडकर ने संरक्षणवादी कहकर अस्वीकार कर दिया।
- अंबेडकर ने जाति के पूर्ण उन्मूलन का आह्वान किया एवं जाति उत्पीड़न को वैध बनाने के लिये मनुस्मृति जैसे हिंदू ग्रंथों की कड़ी आलोचना की। "जाति का संहार" (1936) में उन्होंने हिंदू सामाजिक व्यवस्था को "भयावहता का वास्तविक कक्ष" बताया।
- दलितों के लिये पृथक निर्वाचक मंडल:
- अंबेडकर ने दलित वर्गों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व तथा अधिकारों को सुरक्षित करने के लिये पृथक निर्वाचक मंडल का समर्थन किया।
- गांधी ने इसका विरोध किया, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे हिंदू समाज विभाजित हो जाएगा। उनके आमरण अनशन के कारण पूना पैक्ट (वर्ष 1932) हुआ, जिसके तहत पृथक निर्वाचक मंडल की जगह संयुक्त निर्वाचक मंडल में दलितों के लिये आरक्षित सीटें तय की गईं।
- "कॉन्ग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिये क्या किया" में डॉ. अंबेडकर ने दलितों के समक्ष विद्यमान संरचनात्मक असमानताओं को दूर करने में विफल रहने के लिये गांधी और कॉन्ग्रेस की आलोचना की।
- उन्होंने तर्क दिया कि नैतिक सुधारों पर गांधी के बल से दलितों की मुक्ति सुनिश्चित करने के क्रम में विधिक तथा राजनीतिक उपायों की आवश्यकता को नजरअंदाज किया गया।
- धर्म और सामाजिक सुधार:
- अंबेडकर ने हिंदू धर्म को स्वाभाविक रूप से भेदभावपूर्ण माना और स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व की वकालत करते हुए वर्ष 1956 में बौद्ध धर्म अपनाया।
- गांधी ने धर्म को एक नैतिक मार्गदर्शक के रूप में माना तथा सर्वधर्म समभाव (सभी धर्मों के लिये समान सम्मान) का समर्थन किया, लेकिन कुछ हिंदू परंपराओं (जैसे वर्ण व्यवस्था, दलितों के लिये हरिजन शब्द और मनुस्मृति) के प्रति उनके समर्थन की अंबेडकर जैसे सुधारकों ने आलोचना की।
- जहाँ गांधी, अरबिंदो और टैगोर ने हिंदू धर्म से प्रेरणा ली, वहीं अंबेडकर के विचार बौद्ध धर्म में निहित थे।
- नवयान बौद्ध धर्म की स्थापना वर्ष 1956 में अंबेडकर द्वारा भारत में एक दलित बौद्ध आंदोलन के रूप में की गई थी।
- सामाजिक परिवर्तन के साधन:
- अंबेडकर ने विधिक और संवैधानिक तरीकों से सामाजिक सुधारों की वकालत की तथा इस बात पर बल दिया कि वास्तविक राजनीतिक स्वतंत्रता केवल सामाजिक समानता एवं न्याय स्थापित करने के बाद ही प्राप्त की जा सकती है।
- गांधी ने सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में व्यक्तिगत नैतिकता, अहिंसा एवं आध्यात्मिक जागृति पर बल दिया।
- राज्य और संविधान की भूमिका:
- अंबेडकर ने ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिये राज्य के नेतृत्व वाली सकारात्मक कार्रवाई का समर्थन किया तथा इस बात पर बल दिया कि "लोकतंत्र सरकार का एक रूप नहीं है, बल्कि सामाजिक संगठन का एक रूप है।"
- गांधीजी ने ग्राम स्वराज और न्यूनतम राज्य हस्तक्षेप की वकालत की तथा नौकरशाही शासन की तुलना में सामुदायिक आत्मनिर्भरता और नैतिक विकास पर बल दिया।
- आर्थिक मॉडल:
- अंबेडकर ने राज्य समाजवाद, नियोजित विकास और भूमि सुधार तथा समान मज़दूरी जैसे आर्थिक अधिकारों की वकालत की। उन्होंने स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज मेमोरेंडम (वर्ष 1947) में प्रमुख उद्योगों पर राज्य के स्वामित्व का प्रस्ताव रखा।
- गांधी: ट्रस्टीशिप सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार धनी लोग सार्वजनिक संपत्ति के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं। पश्चिमी उद्योगवाद की तुलना में लघु उद्योगों और स्वदेशी को प्राथमिकता दी।
और पढ़ें: डॉ. बी.आर. अंबेडकर डॉ. बी.आर. अंबेडकर कौन थे?, डॉ . बी.आर. अंबेडकर के योगदान क्या हैं?
महात्मा गांधी: प्रमुख गांधीवादी विचारधाराएँ क्या हैं और आज के संदर्भ में उनकी भूमिका क्या है?
डॉ. बी.आर. अंबेडकर को सरकार की श्रद्धांजलि
- भारत रत्न (वर्ष 1990): राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान के लिये मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- अंबेडकर सर्किट (पंचतीर्थ): उनके जीवन से जुड़े पाँच प्रमुख स्थलों का विकास- महू (जन्मस्थान), लंदन (शिक्षा भूमि), नागपुर (दीक्षा भूमि), मुंबई (चैत्य भूमि), और दिल्ली (महापरिनिर्वाण भूमि)।
- भीम ऐप: डिजिटल भुगतान और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिये उनके नाम पर लॉन्च किया गया।
- डॉ. अंबेडकर उत्कृष्टता केंद्र (DACE): अनुसूचित जाति के छात्रों को निशुल्क UPSC कोचिंग प्रदान करने के लिये 31 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थापित किये गए।
- ASIIM योजना: अंबेडकर सामाजिक नवाचार और इनक्यूबेशन मिशन (ASIIM) स्टार्टअप फंडिंग के माध्यम से SC युवा उद्यमियों को समर्थन देता है।
- राष्ट्रीय स्मारक: संकल्प भूमि (वडोदरा) और सतारा में उनके स्कूल जैसे स्थलों को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा देने का प्रस्ताव किया गया।
- संविधान दिवस (26 नवंबर ): भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में उनकी विरासत को सम्मानित करने के लिये वर्ष 2015 से मनाया जाता है।
- अंबेडकर जयंती: उनकी जयंती, 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती के रूप में मनाया जाता है, जो सामाजिक न्याय, दलित अधिकारों और भारतीय संविधान में उनके योगदान का सम्मान करने के लिये एक राष्ट्रीय अवकाश है।
निष्कर्ष
गांधी और अंबेडकर, नियमों में भिन्नता के बावजूद, एक न्यायपूर्ण और समावेशी भारत के निर्माण का लक्ष्य रखते थे। साधनों में मौलिक मतभेद बने रहे: गांधीजी नैतिक अपील के माध्यम से सुधार चाहते थे, जबकि अंबेडकर राज्य-नेतृत्व वाली सोशल इंजीनियरिंग की वकालत करते थे। साथ में, उनकी विरासत आज जाति, असमानता और लोकतांत्रिक मूल्यों को संबोधित करने के लिये एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: गांधी और अंबेडकर की विचारधाराएँ अलग-अलग थीं, लेकिन सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता समान थी। उनके दृष्टिकोणों की तुलना कीजिये और भारत के संवैधानिक और सामाजिक दृष्टिकोण पर उनके प्रभाव का आकलन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न: निम्नलिखित में से किन दलों की स्थापना डॉ० भीमराव अंबेडकर ने की थी?
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये : (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न: अपसारी उपागमों और रणनीतियों के होने के बावजूद, महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर का दलितों की बेहतरी का एक समान लक्ष्य था। स्पष्ट कीजिये। (2015) |


भारतीय राजव्यवस्था
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षित विधेयकों पर राष्ट्रपति के निर्णय हेतु समय-सीमा का निर्धारण
प्रिलिम्स के लिये:भारत का सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 201, अनुच्छेद 143, राष्ट्रपति, राज्यपाल मेन्स के लिये:भारतीय संघवाद में राष्ट्रपति और राज्यपालों की भूमिका, राज्य विधेयकों और राष्ट्रपति की स्वीकृति के संबंध में संवैधानिक प्रावधान, राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल, 2023 में पहली बार संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने हेतु राष्ट्रपति के लिये 3 तीन माह की समय-सीमा का निर्धारण किया।
राज्य विधेयकों के संबंध में राष्ट्रपति की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या है?
- अनुच्छेद 201: इसमें कहा गया है कि "जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित किया जाता है, तो राष्ट्रपति या तो विधेयक पर अनुमति देगा या उस पर अनुमति नहीं देगा।"
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिये कोई विशिष्ट समयसीमा नहीं दी गई है और इस तरह की देरी से विधायी प्रक्रियाओं में बाधा आ सकती है जिससे राज्य विधेयक "अनिश्चितकालीन तक स्थगित" हो सकते हैं।
- इसके द्वारा इस बात पर बल दिया गया कि निष्क्रियता सत्ता के प्रयोग में मनमानी न करने के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन है।
- समय-सीमा: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति अनिश्चितकाल तक विलंब करके "पूर्ण वीटो" का प्रयोग नहीं कर सकते। उन्हें तीन माह के अंदर निर्णय लेना होगा और किसी भी प्रकार के विलंब के बारे में उचित कारणों सहित राज्य को सूचित करना होगा।
- स्वीकृति रोकने का निर्णय ठोस एवं विशिष्ट आधारों पर होना चाहिये, यह निर्णय मनमाने ढंग से नहीं लिया जा सकता।
- यदि राष्ट्रपति निर्धारित समय-सीमा में कार्यवाही नहीं करते, तो राज्य निर्णय के लिये रिट याचिका दायर कर सकते हैं और कोर्ट से परमादेश (Mandamus) की मांग कर सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 143 के अंतर्गत, यदि राज्यपाल किसी विधेयक को असंवैधानिकता के आधार पर आरक्षित करते हैं, तो राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेनी चाहिये।
- हालाँकि यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेना अत्यधिक प्रभावशाली माना जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल, यदि किसी राज्य विधेयक को पुनः पारित कर दिया जाये, तो उसे स्वीकृति देना अनिवार्य होता है। परंतु राष्ट्रपति पर ऐसा कोई संवैधानिक बंधन नहीं है, जैसा कि अनुच्छेद 201 के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है।
- इसका कारण यह है कि अनुच्छेद 201 केवल अपवादात्मक परिस्थितियों में लागू होता है, जब किसी राज्य विधान का राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव पड़ सकता है।
- संदर्भ: सर्वोच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में जारी कार्यालय ज्ञापनों (Office Memorandums) का उल्लेख किया, जिसमें राष्ट्रपति के पास आरक्षित राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने हेतु तीन माह की समयसीमा निर्धारित की गई थी।
- न्यायालय ने सरकारिया आयोग (वर्ष 1988) और पुंछी आयोग (वर्ष 2010) की सिफारिशों का भी हवाला दिया, जिनमें दोनों ने आरक्षित विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लिये जाने की सिफारिश की थी।
राज्य विधेयक पारित करने में राज्यपाल की क्या भूमिका है?
और पढ़ें... राज्य विधेयकों में राज्यपालों की भूमिका
राष्ट्रपति और राज्यपाल के बीच संवैधानिक और कार्यात्मक अंतर क्या हैं?
कार्यक्षेत्र |
राष्ट्रपति |
राज्यपाल |
विधायी शक्तियाँ |
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अध्यादेश बनाने की शक्ति |
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क्षमादान की शक्ति |
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आपातकालीन शक्तियाँ |
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राजनयिक और सैन्य भूमिकाएँ |
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विवेकाधीन शक्तियाँ |
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राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्णय क्या हैं?
राष्ट्रपति:
- एस.आर.बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति शासन न्यायिक समीक्षा के अधीन है और इसे मनमाने ढंग से नहीं लागू किया जा सकता है।
- केहर सिंह बनाम भारत संघ (1988): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति न्यायपालिका से स्वतंत्र है।
- हालाँकि, प्रक्रियागत निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये इसकी समीक्षा की जा सकती है, जिसमें निर्णय के गुण-दोष के स्थान पर संवैधानिक सिद्धांतों और प्रक्रियागत आवश्यकताओं के पालन पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।
- केहर सिंह बनाम भारत संघ (1988): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति न्यायपालिका से स्वतंत्र है।
- आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अध्यादेश की आवश्यकता के संबंध में राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से मुक्त नहीं है और उसे चुनौती दी जा सकती है।
- इसने यह भी निर्णय दिया कि अध्यादेश भी संसद के अधिनियम के समान ही संवैधानिक सीमाओं के अधीन है तथा यह किसी भी मूल अधिकार या संविधान के अन्य प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकता।
राज्यपाल:
- एस.आर.बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति शासन के लिये राज्यपाल की सिफारिश न्यायिक समीक्षा के अधीन है और इसे मनमाने ढंग से लागू नहीं किया जा सकता।
- शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974): सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिये, सिवाय उन परिस्थितियों के जहाँ संविधान राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा करता है।
- रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006): सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा के विघटन को असंवैधानिक घोषित किया तथा इस बात पर बल दिया कि राज्यपाल की शक्तियाँ निरपेक्ष नहीं हैं तथा उनका प्रयोग संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप ही किया जाना चाहिये।
- इस निर्णय ने कार्यकारी कार्यों की निगरानी में न्यायिक समीक्षा के महत्त्व को पुनः रेखांकित किया।
निष्कर्ष
अनुच्छेद 201 पर सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या राष्ट्रपति के लिये राज्य विधेयकों पर कार्रवाई करने हेतु तीन माह की स्पष्ट समयसीमा निर्धारित करती है, जिससे जवाबदेही बढ़ेगी और मनमाने विलंब की रोकथाम होगी। इस निर्णय से राज्यों को अनुचित विलंब पर आक्षेप करने का प्राधिकार प्रदान कर संघीय शासन का सुदृढ़ीकरण होगा। इससे विधायी प्रक्रिया में कार्यपालिका की शक्तियों के दुरुपयोग के खिलाफ पारदर्शिता और सुरक्षा सुनिश्चित होगी।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. राज्य विधेयकों में राष्ट्रपति की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के महत्त्व की विवेचना कीजिये। यह निर्णय गैर-स्वेच्छाचारिता के संवैधानिक सिद्धांत के साथ किस प्रकार सुमेलित होती है? |
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UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. प्निम्नलिखित में से कौन-सी किसी राज्य के राज्यपाल को दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ हैं? (2014)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) प्रश्न. निम्नलिखित में कौन-सी लोकसभा की अनन्य शक्ति(याँ) है/हैं? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग के लिये आवश्यक शर्तों की चर्चा कीजिये। राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों को विधायिका के समक्ष रखे बिना पुन: प्रख्यापित करने की वैधता पर चर्चा कीजिये। (2022) प्रश्न. यद्यपि परिसंघीय सिद्धांत हमारे संविधान में प्रबल है और वह सिद्धांत संविधान के आधारिक अभिलक्षणों में से एक है, परंतु यह भी इतना ही सत्य है कि भारतीय संविधान के अधीन परिसंघवाद (फैडरलिज्म) सशक्त केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है। यह एक ऐसा लक्षण है जो प्रबल परिसंघवाद की संकल्पना के विरोध में है। चर्चा कीजिये। (2014) |

