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डेली न्यूज़

  • 13 Feb, 2021
  • 66 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ब्रेंट क्रूड आयल की कीमत एक साल के बाद 60 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल के स्तर को पार कर गई है। ब्रेंट क्रूड आयल की कीमत में वृद्धि तेल उत्पादक देशों द्वारा उत्पादन में कटौती और कोविड-19 का टीका आने के बाद वैश्विक मांग में सुधार की उम्मीद के कारण देखी गई है।

  • इतिहास में पहली बार वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (West Texas Intermediate- WTE) क्रूड आयल की कीमत अप्रैल 2020 में 40.32 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल पहुँच गई थी।
  • WTI और ब्रेंट कच्चे तेल की कीमतों में बदलाव से अन्य प्रकार के कच्चे तेलों की कीमतें भी प्रभावित होती हैं।

प्रमुख बिंदु

 तेल का मूल्य निर्धारण:

  • सामान्यतः पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन (OPEC) एक तेल उत्पादक संघ के रूप में कच्चे तेल का मूल्य निर्धारित करता है।
    • सऊदी अरब के हाथ में OPEC का नेतृत्व है जो विश्व में कच्चे तेल का सबसे बड़ा निर्यातक (वैश्विक मांग का 10% निर्यात करता है) है।
    • OPEC के 13 देश (ईरान, इराक, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, अल्जीरिया, लीबिया, नाइजीरिया, गैबॉन, इक्वेटोरियल गिनी, कांगो गणराज्य, अंगोला और वेनेज़ुएला) सदस्य हैं।
  • OPEC तेल उत्पादन में वृद्धि करके कीमतों में कमी और उत्पादन में कटौती करके कीमतों में बढ़ोतरी कर सकता है।
  • तेल का मूल्य निर्धारण मुख्य रूप से स्वास्थ्य प्रतियोगिता के बजाय तेल निर्यातक देशों के बीच साझेदारी पर निर्भर करता है।
  • तेल उत्पादन में कटौती या तेल के कुएँ पूरी तरह से बंद करना एक कठिन निर्णय है, क्योंकि इसे फिर से शुरू करना बेहद महँगा और जटिल है।
    • यदि कोई देश उत्पादन में कटौती करता है और दूसरा देश इस प्रकार की कटौती नहीं करता है तो उसे बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी खोनी पड़ सकती है।
  • OPEC तेल की वैश्विक कीमत और आपूर्ति के बीच संतुलन बनाए रखने के लिये OPEC+ के रूप में रूस के साथ काम कर रहा है।
    • OPEC और अन्य देश जो शीर्ष तेल-निर्यातक हैं, के गठबंधन को  OPEC+ के नाम से जाना जाता है।

वर्तमान में मूल्य वृद्धि का कारण:

  • सीमित आपूर्ति:
    • प्रमुख तेल उत्पादक देशों द्वारा कोविड-19 महामारी के कारण मांग में भारी गिरावट के चलते तेल उत्पादन में कटौती कर दी गई थी।
      • फरवरी और मार्च 2020 में  तेल आपूर्ति में OPEC और इसके सहयोगी देशों द्वारा कटौती के बाद सऊदी अरब ने कटौती करने का वादा किया था।
    • तेल की कीमत में बढ़ोतरी करने के लिये OPEC और रूस (OPEC+) ने जनवरी 2021 की शुरुआत में तेल उत्पादन में कटौती करने पर सहमति व्यक्त की।
  • मांग में बढ़ोतरी:
    • अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में कोविड-19 के टीके का निर्माण और लॉकडाउन के बाद उपभोग में बढ़ोतरी के चलते सुधार हुआ है।

भारत पर प्रभाव:

  • चालू खाता घाटा: देश के आयात बिल में तेल की कीमतों में वृद्धि से बढ़ोतरी होगी, जिससे चालू खाता घाटा (Current Account Deficit) और बढ़ जाएगा।
    • तेल बिल में प्रतिवर्ष कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की बढ़ोतरी से लगभग 1.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वृद्धि होती है।
    • भारत अपनी कच्चे तेल की ज़रूरतों का 80% हिस्सा आयात करता है और भारत में जनवरी 2021 से कच्चे तेल की कीमत 54.8 डॉलर प्रति बैरल हो गई है।
  • मुद्रास्फीति: कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि (जो पिछले कुछ महीनों से बढ़ रही है) मुद्रास्फीति को बढ़ा सकती है।
    • इस मुद्रास्फीति के कारण मौद्रिक नीति समिति (Monetary Policy Committee) को नीतिगत दरों का निर्धारण करने में कठिनाई होगी।
    • भारत सरकार ने वर्ष 2020 में कमज़ोर आर्थिक गतिविधियों के बीच अपने राजस्व को बढ़ाने के लिये पेट्रोल और डीज़ल पर क्रमशः 13 और 11 रुपए प्रति लीटर उत्पाद  शुल्क (Excise Duty) लगा दिया था।
  • राजकोषीय स्थिति: तेल की कीमतें ऐसे ही बढ़ती रहीं तो सरकार को पेट्रोलियम और डीज़ल पर करों में कटौती करने के लिये मजबूर होना पड़ेगा, जिससे राजस्व का नुकसान हो सकता है। अतः राजकोषीय संतुलन (Fiscal Balance) बिगड़ सकता है।
    • भारत पिछले दो वर्षों में कम आर्थिक वृद्धि के कारण कर राजस्व की कमी के चलते अनिश्चित वित्तीय स्थिति में है।
    • राजस्व में कमी से केंद्र के विभाजन योग्य कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा और राज्य सरकारों को माल तथा सेवा कर (GST) ढाँचे के तहत राजस्व कमी के लिये दिया जाने वाला मुआवज़ा प्रभावित होगा।
  • सकारात्मक परिणाम: भारत को तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से लाभ भी हो सकता है।
    • भारतीय तेल और गैस कंपनियों के मूल्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। सरकार को भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड में विनिवेश (Disinvestment) से अधिक राशि प्राप्त हो सकती है।
    • भारतीयों द्वारा फारस की खाड़ी से भेजी जाने वाली धनराशि बढ़ सकती है।

ब्रेंट और WTI के बीच अंतर

उत्पत्ति:

  • ब्रेंट क्रूड आयल का उत्पादन उत्तरी सागर में शेटलैंड द्वीप (Shetland Islands) और नॉर्वे के बीच तेल क्षेत्रों में होता है।
  • वेस्ट क्रूड इंटरमीडिएट (WTI) ऑयल क्षेत्र मुख्यत: अमेरिका (टेक्सास, लुइसियाना और नॉर्थ डकोटा)  में अवस्थित है। 

लाइट एंड स्वीट:

  • ब्रेंट क्रूड आयल और WTI दोनों ही हल्के और स्वीट (Light and Sweet) होते हैं, लेकिन ब्रेंट में API भार थोड़ा अधिक होता है।
    • अमेरिकी पेट्रोलियम संस्थान (API) कच्चे तेल या परिष्कृत उत्पादों के घनत्व का एक संकेतक है।
  • ब्रेंट (0.37%) की तुलना में डब्ल्यूटीआई में कम सल्फर सामग्री (0.24%) होने के कारण इसे तुलनात्मक रूप में "मीठा" कहा जाता है।

बेंचमार्क मूल्य:

  • OPEC द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला ब्रेंट क्रूड आयल मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बेंचमार्क मूल्य (Benchmark Price) है, जबकि अमेरिकी तेल कीमतों के लिये WTI क्रूड आयल मूल्य एक बेंचमार्क है।
  • भारत मुख्य रूप से क्रूड आयल OPEC देशों से आयात करता है, अतः भारत में तेल की कीमतों के लिये ब्रेंट बेंचमार्क है।

शिपिंग लागत:

  • शिपिंग की लागत आमतौर पर ब्रेंट क्रूड आयल के लिये कम होती है, क्योंकि इसका उत्पादन समुद्र के पास होता है, जिससे इसे कार्गो जहाज़ों में तुरंत लादा जा सकता है।
  • WTI कच्चे तेल का शिपिंग का मूल्य अधिक होता है क्योंकि इसका उत्पादन भूमि वाले क्षेत्रों में होता है, जहाँ भंडारण की सुविधा सीमित है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

भारतीय कानून और इंटरनेट सामग्री का अवरोधन: केंद्र बनाम ट्विटर

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत सरकार ने किसानों के विरोध प्रदर्शन पर कथित रूप से उत्तेजक सामग्री और गलत सूचना के प्रसार में शामिल एक हज़ार से अधिक खातों को अवरुद्ध/ब्लॉक करने के अपने आदेश का पालन न करने के लिये ट्विटर (माइक्रो-ब्लॉगिंग वेबसाइट) को फटकार लगाई।

Centre-vs-Twitter

प्रमुख बिंदु:  

वर्तमान मुद्दा: 

  • केंद्र सरकार ने माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर को नोटिस जारी किया है क्योंकि ट्विटर ने हाल ही में  250 से अधिक ऐसे खातों को बहाल किया है जिन्हें पूर्व में सरकार की 'कानूनी मांग' पर  निलंबित कर दिया गया था।
  • सरकार की मांग है कि ट्विटर 31 जनवरी, 2021 को जारी किये गए आदेश का पालन करे, जिसमें ट्विटर को कुछ खातों और एक विवादास्पद हैशटैग को ब्लॉक करने के लिये कहा गया था, जो सार्वजनिक व्यवस्था को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकते थे। साथ ही इस हैशटैग में कथित रूप से विरोध प्रदर्शनों के बारे में गलत सूचना को बढ़ावा देने के लिये किसानों के आसन्न 'नरसंहार' की बात की गई थी।
  • ट्विटर ने स्वयं ही इन खातों और ट्वीट्स को बहाल कर दिया और बाद में इस निर्णय को वापस लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि ये खाते और ट्वीट्स इसकी नीति का उल्लंघन नहीं करते।

इंटरनेट सेवाओं/सामग्री को ब्लॉक करने से संबंधित कानून:

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000:
    • भारत में समय-समय पर संशोधित सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम, 2000, कंप्यूटर संसाधनों के उपयोग से संबंधित सभी गतिविधियों को नियंत्रित करता है।
    • इसमें उन सभी बिचौलियों/मध्यस्थों को शामिल किया गया है जो कंप्यूटर संसाधनों और इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के उपयोग में भूमिका निभाते हैं।
    • मध्यस्थों की भूमिका वर्ष 2011 में इस उद्देश्य के लिये बनाए गए अलग-अलग नियमों [सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशा-निर्देश) नियम, 2011] में स्पष्ट की गई है।
  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69: 
    • यह केंद्र और राज्य सरकारों को "किसी भी कंप्यूटर संसाधन में निर्मित, प्रेषित, प्राप्त या संग्रहीत" किसी भी सूचना को इंटरसेप्ट, मॉनीटर या डिक्रिप्ट करने के लिये निर्देश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।
    • जिन आधारों पर इन शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है, वे हैं:
      • भारत की संप्रभुता या अखंडता के हित में भारत की रक्षा और राज्य की सुरक्षा के लिये।
      • विदेशी राज्यों (देशों) के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध।
      • सार्वजनिक  व्यवस्था या उपरोक्त में से किसी से संबंधित संज्ञेय अपराध  किये जाने से जुड़े उकसावे को रोकने में।
      • किसी अपराध की जाँच के लिये।
  • इंटरनेट वेबसाइट्स को ब्लॉक करने की प्रक्रिया:
    •  धारा 69A केंद्र सरकार को उपरोक्त लिखित समान कारणों और आधारों के लिये  किसी भी कंप्यूटर संसाधन पर उत्पन्न, प्रसारित, प्राप्त या संग्रहीत या होस्ट की गई किसी भी जानकारी की जनता तक पहुँच को अवरुद्ध करने के लिये सरकार की किसी भी एजेंसी या किसी मध्यस्थ को निर्देश देने का अधिकार प्रदान करती है।
    • पहुँच को अवरुद्ध करने का कोई भी अनुरोध लिखित रूप में दिये गए कारणों पर आधारित होना चाहिये।

आईटी अधिनियम 2000 के अनुसार मध्यस्थ:

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 2 (1) (W) के तहत मध्यस्थ को परिभाषित किया गया है।
  • 'मध्यस्थ' की परिभाषा के तहत सर्च इंजन, ऑनलाइन भुगतान और नीलामी साइट, ऑनलाइन बाज़ार और साइबर कैफे के अलावा दूरसंचार सेवा, नेटवर्क सेवा, इंटरनेट सेवा तथा वेब होस्टिंग प्रदाताओं को शामिल किया गया है।
  • इसमें उन व्यक्तियों/संस्थाओं को शामिल किया गया है, जो किसी अन्य व्यक्ति के लिये (या उसके स्थान पर) इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्राप्त, संग्रहीत या प्रसारित करते हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इस परिभाषा के तहत आते हैं।

कानून के तहत मध्यस्थों का दायित्व:

  • मध्यस्थों को एक निर्धारित अवधि के लिये केंद्र द्वारा निर्दिष्ट तरीके और प्रारूप में निर्दिष्ट जानकारी को संरक्षित करना तथा बनाए रखना आवश्यक होता है।
    • इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर जुर्माने के अलावा तीन वर्ष तक के कारावास का दंड दिया जा सकता है।
  • जब निगरानी के लिये कोई निर्देश जारी किया जाता है, तो मध्यस्थ और कंप्यूटर संसाधन के प्रभारी किसी भी व्यक्ति को संबंधित संसाधन तक पहुँच प्रदान करने हेतु कानून प्रवर्तन एजेंसी को तकनीकी सहायता उपलब्ध करानी चाहिये।
    • इस तरह की सहायता न उपलब्ध कराने की स्थिति में जुर्माने के अलावा सात वर्ष तक के कारावास का दंड दिया जा सकता है।
    • सरकार के लिखित अनुरोध पर जनता तक पहुँच को अवरुद्ध/ब्लॉक करने के दिशा-निर्देश का पालन न करने की स्थिति में ज़ुर्माने के अलावा सात वर्ष तक के कारावास का दंड दिया जा सकता है।

मध्यस्थ की जवाबदेही:

  • आईटी अधिनियम 2000 की धारा 79 यह स्पष्ट करती है कि "एक मध्यस्थ उसके द्वारा होस्ट  या उपलब्ध कराई जाने वाली किसी तीसरे पक्ष की जानकारी, डेटा, या संचार लिंक के लिये उत्तरदायी नहीं होगा"।
    • तृतीय पक्ष की जानकारी से आशय एक नेटवर्क सेवा प्रदाता द्वारा मध्यस्थ के रूप में उसकी क्षमता से संबंधित किसी जानकारी से है।
  • यह मध्यस्थों (जैसे इंटरनेट और डेटा सेवा प्रदाताओं और  वेबसाइट होस्टिंग करने वालों) को उन सामग्री के लिये उत्तरदायी होने से बचाता है जो उपयोगकर्त्ता द्वारा पोस्ट या जेनरेट की जाती है।
  • धारा 79 के माध्यम से "नोटिस और हटाए जाने" (Notice and Take Down) के प्रावधान की अवधारणा को लागू किया गया है। 
    • इसके अनुसार, यदि कोई मध्यस्थ उसके द्वारा नियंत्रित कंप्यूटर संसाधन में उपस्थित या उससे जुड़े किसी डेटा, सूचना या संचार लिंक का प्रयोग एक गैर-कानूनी कार्य किये जाने की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने या सूचित किये जाने के बाद भी ऐसे लिंक को  शीघ्रता से अक्षम करने या उस सामग्री तक पहुँच हटाने में विफल होता है तो उस स्थिति में वह मध्यस्थ अपनी प्रतिरक्षा खो देगा।

 आईटी अधिनियम 2000 में मध्यस्थों की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख:

  • श्रेया सिंघल बनाम भारतीय संघ (2015) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए कहा है कि मध्यस्थों को केवल इस तथ्य की वास्तविक जानकारी प्राप्त होने के बाद कार्य करना चाहिये कि किसी अदालत द्वारा उन्हें शीघ्रता से कुछ सामग्री हटाने या उसे अक्षम करने के लिये आदेश दिया गया है।

मध्यस्थों द्वारा अधिनियम का अनुपालन किये जाने का कारण:

  • अंतर्राष्ट्रीय अनिवार्यताएँ:
    • अधिकांश देशों ने कुछ परिस्थितियों में कानून और व्यवस्था से जुड़े अधिकारियों के साथ  इंटरनेट सेवा प्रदाताओं या वेब होस्टिंग सेवा प्रदाताओं और अन्य बिचौलियों द्वारा सहयोग को अनिवार्य बनाने वाले कानून बनाए गए हैं।
  • साइबर अपराध से निपटने हेतु:
    • वर्तमान में साइबर अपराध और  कंप्यूटर संसाधनों से संबंधित अन्य कई अपराधों से लड़ने की प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी सेवा प्रदाता कंपनियों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच सहयोग को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
    • ऐसे अपराधों में हैकिंग, डिजिटल प्रतिरूपण और डेटा की चोरी शामिल होती है।
  • इंटरनेट के दुरुपयोग को रोकने हेतु:
    • इंटरनेट के दुरुपयोग की संभावनाओं ने कानून प्रवर्तन अधिकारियों को इसके दुष्प्रभावों को रोकने हेतु इंटरनेट पर अधिक नियंत्रण के लिये प्रेरित किया है।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर लैंसेट काउंटडाउन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'द लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज' (The Lancet Countdown on Health and Climate Change) के नए शोध में ग्लोबल वार्मिंग को ‘2 डिग्री सेल्सियस’ तक सीमित करने के पेरिस समझौते के अनुरूप जलवायु योजनाओं- राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDC) को अपनाने से होने वाले स्वास्थ्य लाभों पर प्रकाश डाला गया है।

  • ‘द लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज’ का प्रकाशन वार्षिक तौर पर किया जाता है,  यह एक अंतर्राष्ट्रीय और बहु-विषयक सहयोग है, जो मुख्य तौर पर जलवायु परिवर्तन की बढ़ती स्वास्थ्य प्रोफाइल की निगरानी करता है और साथ ही यह पेरिस समझौते के तहत विश्व भर में सरकारों द्वारा की गई प्रतिबद्धताओं के अनुपालन का स्वतंत्र मूल्यांकन भी प्रदान करता है।
  • अध्ययन में बताया गया है कि विश्व की आबादी का 50% और उत्सर्जन का 70%  का प्रतिनिधित्व ब्राज़ील, चीन, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, यूके और अमेरिका द्वारा किया जाता है।

प्रमुख बिंदु 

शोध के मुख्य बिंदु:

  • शोध के तीन प्रमुख पहलू: इस शोध के तहत  जिन तीन पहलुओं पर प्रमुखता से ध्यान केंद्रित किया गया है उनमें वर्तमान कार्यप्रणाली को जारी रखना, पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु प्रयासों में वृद्धि तथा स्वास्थ्य को जलवायु परिवर्तन शमन हेतु किये जा रहे प्रयासों के केंद्र में रखना शामिल हैं।
    • स्वास्थ्य को NDC के केंद्र में रखने से महत्त्वकांक्षाओं और स्वास्थ्य सह-लाभों को बढ़ाने का अवसर मिल सकता है।
  • वर्ष 2040 तक पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा कर लाखों लोगों की जान बचाई जा सकती है।
    • पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त कर और स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने वाली नीतियों को अपनाने से बेहतर आहार के कारण 6.4 मिलियन लोगों की मृत्यु  हो सकती है। स्वच्छ हवा के परिणामस्वरूप 1.6 मिलियन तथा नौ देशों में प्रतिवर्ष व्यायाम के चलते 2.1 मिलियन लोगों के जीवन में वृद्धि होती है।
  • अध्ययन से प्राप्त संकेतों से पता चलता है कि यदि भारत पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन करने में सफल रहता है तो यह स्वच्छ हवा के परिणामस्वरूप 4.3 लाख लोगों को और बेहतर आहार के चलते 17.41 लाख लोगों को बचाने में सक्षम होगा।

पेरिस समझौता: 

  • पेरिस समझौता के बारे में:
    • यह पहला वैश्विक रूप से बाध्यकारी वैश्विक जलवायु परिवर्तन समझौता है।
    • जिसे दिसंबर 2015 में पेरिस जलवायु सम्मेलन (Paris climate conference- COP21) में अपनाया गया था।
  •  उद्देश्य:
    • पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से  नीचे लाना तथा इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना।
  • दीर्घकालीन लक्ष्य: 
    • शुद्ध शून्य उत्सर्जन हेतु एक दीर्घकालिक वैश्विक लक्ष्य। देशों ने वैश्विक उत्सर्जन को जल्द-से-जल्द चरम स्तर से नीचे लाने के प्रयास का वादा किया है। 
    • महत्त्वपूर्ण रूप से वैश्विक देशों द्वारा इस सदी के उत्तरार्द्ध में ग्रीनहाउस गैसों के स्रोत और मानवजनित उत्सर्जन के मध्य संतुलन स्थापित  करने का संकल्प लिया गया।
  • क्रिया विधि: 
    • सम्मेलन शुरू होने से पहले 180 से अधिक देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती या अंकुश लगाने हेतु राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान (INDCs) के माध्यम से अपनी प्रतिबद्धता प्रस्तुत की ।
    • INDC को समझौते के तहत मान्यता प्रदान की गई थी, लेकिन यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।
  • अनुदान: 
    • यह निर्धारित करता है कि विकसित देश शमन  (Mitigation) और अनुकूलन (Adaptation) दोनों के संबंध में विकासशील देशों की सहायता हेतु वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराएंगे। अन्य देशों को स्वेच्छा से इस प्रकार का समर्थन प्रदान करने या जारी रखने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।

लक्ष्य को प्राप्त करने में समस्याएँ:

  • कार्यान्वयन की धीमी गति: 
    • वर्ष 2025-2030 तक उत्सर्जन को कम करने के लिये अपने राष्ट्रीय योगदान को अद्यतन करने हेतु अधिकांश देशों की गति धीमी रही है, हालांकि कई देशों द्वारा हाल के दिनों में शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा की गई है।
  • साख: 
    • राष्ट्रों की योजनाएंँ और नीतियाँ दीर्घकालिक शून्य लक्ष्यों को पूरा करने हेतु पर्याप्त रूप से विश्वसनीय नहीं हैं:
      • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) 1.5 डिग्री सेल्सियस रिपोर्ट ने इस बात का संकेत दिया है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त करने तथा इसे इस सीमा के भीतर  रखने के लिये वैश्विक CO2 उत्सर्जन को वर्ष 2030 तक 45% कम करके वर्ष 2010 के स्तर पर लाना होगा , लेकिन वर्तमान राष्ट्रीय योगदान इस कमी को ट्रैक करने के लिये नहीं है।
      • वर्ष 2020 में पेरिस समझौते से संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा स्वयं को अलग कर लेना इस समझौते की सार्वभौमिकता में कमी लाता  है जो जलवायु सहयोग में राज्यों के विश्वास को कम करता है। हालांँकि अमेरिका ने हाल ही में समझौते  को फिर से शुरू करने की प्रक्रिया शुरू की है।
  • जवाबदेही: 
    • दीर्घकालिक शुद्ध शून्य लक्ष्यों और अल्पकालिक राष्ट्रीय योगदान हेतु किसी भी प्रकार की कोई सीमित या जवाबदेही निर्धारित नहीं की गई है।
    • पारदर्शिता ढांँचे में किसी भी प्रकार के ठोस समीक्षा कार्य  (Robust Review Function) को शामिल नहीं किया गया है। अनुपालन समिति का कार्य बाध्यकारी प्रक्रियात्मक दायित्वों की एक छोटी सूची के साथ अनुपालन सुनिश्चित करने तक सीमित है।
  • निष्पक्षता:
    • निष्पक्षता और न्याय दोनों मुद्दे पीढ़ियों के मध्य अपरिहार्य हैं।
    • नेट शून्य लक्ष्य (Net Zero Targets) और नेट शून्य (Net Zero) को प्राप्त करने हेतु अपनाए गए विकल्पों की निष्पक्षता की जाँच करने हेतु किसी भी प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है कि राज्यों द्वारा अन्य राज्यों की तुलना में कितना उत्सर्जन किया जा रहा है या उन्हें कितना उत्सर्जन करना चाहिये।

भारतीय परिदृश्य

भारत द्वारा वर्तमान उत्सर्जन:

  • संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वास्तव में वैश्विक औसत से 60% कम है।
  • वर्ष 2019 में देश में उत्सर्जन 1.4% बढ़ा है, जो पिछले एक दशक में प्रतिवर्ष 3.3% के औसत से काफी कम है।

भारत द्वारा वर्ष  2030 तक INDC के लक्ष्यों को  प्राप्त करना:

  • उत्सर्जन तीव्रता को जीडीपी के लगभग एक-तिहाई तक कम करना।
  • बिजली की कुल स्थापित क्षमता का 40% गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त करना।
  • 2030 तक भारत द्वारा वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के अतिरिक्त कार्बन सिंक (वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने का एक साधन) के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की गई।

उत्सर्जन को नियंत्रण  करने हेतु भारत द्वारा उठाए गए उपाय:

  • भारत स्टेज (बीएस) VI मानक: ये वायु प्रदूषण की निगरानी हेतु सरकार द्वारा जारी उत्सर्जन नियंत्रण मानक हैं।
  • राष्ट्रीय सौर मिशन: भारत की ऊर्जा सुरक्षा चुनौती को संबोधित करते हुए पारिस्थितिक रूप से स्थायी विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से यह भारत सरकार और राज्य सरकारों की एक बड़ी पहल है।
  • राष्ट्रीय पवन-सौर संकर नीति 2018: इस नीति का मुख्य उद्देश्य पवन और सौर संसाधनों, बुनियादी ढांँचे और भूमि के इष्टतम और कुशल उपयोग के लिये बड़े ग्रिड से जुड़े पवन-सौर फोटोवोल्टिक (पीवी) संकर प्रणालियों को बढ़ावा देने हेतु एक रूपरेखा प्रदान करना है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

श्रम पर संसदीय स्थायी समिति द्वारा मनरेगा की प्रशंसा

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा और कल्याण के उपाय’ संबंधी अपनी रिपोर्ट में श्रम पर संसदीय स्थायी समिति ने अंतर-राज्य प्रवासी मज़दूरों समेत सभी ग्रामीण अकुशल श्रमिकों को स्थायी आजीविका प्रदान करने के लिये ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS) की प्रशंसा की है।

प्रमुख बिंदु

स्थायी समिति का अवलोकन

  • मनरेगा
    • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 के तहत विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण कल्याणकारी प्रावधान किये गए हैं।
    • मनरेगा के अतिरिक्त अकुशल श्रमिकों को ‘स्थायी आजीविका’ प्रदान करने के लिये कोई ‘बेहतर योजना’ नहीं हो सकती है।
    • 7 करोड़ से अधिक परिवार (10.43 करोड़ व्यक्ति) पहले ही इस योजना का लाभ प्राप्त कर चुके हैं और चालू वित्त वर्ष के दौरान फरवरी 2021 तक कुल 330 करोड़ मानव दिवस सृजित किये गए हैं।
  • प्रवासी श्रमिक
    • महामारी के दौरान 1.08 करोड़ प्रवासी श्रमिक अपने गृह राज्य वापस लौटे हैं।
    • प्रवासी श्रमिकों की संख्या पर विश्वसनीय और प्रामाणिक डेटा की अनुपलब्धता के कारण महामारी के प्रकोप के बाद उनके गृह राज्यों में वापस जाने से उनके राहत और पुनर्वास उपायों पर प्रभाव पड़ा है।
    • सरकार द्वारा महामारी के दौरान कई सराहनीय पहलों (जैसे- प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना) की शुरुआत की गई, जिनका उद्देश्य प्रवासी श्रमिकों को लाभ पहुँचाना है।
      • हालाँकि फँसे हुए प्रवासी मज़दूरों को राहत सामग्री के वितरण के लिये कोई विशिष्ट दिशा-निर्देश नहीं जारी किये गए। 
      • सोशल ऑडिट की कोई व्यवस्था नही की गई है। 

स्थायी समिति के सुझाव

  • तात्कालिक राहत
    • कोरोना वायरस महामारी, उसके कारण उत्पन्न चुनौतियों और स्वास्थ्य प्रणाली में मौजूद खामियों को जल्द-से-जल्द दूर किया जाना चाहिये, ताकि भविष्य में ऐसी किसी भी परिस्थिति से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये तैयारियों को मज़बूती के साथ किया जा सके।
  • तत्परता के लिये विश्वसनीय डेटाबेस की आवश्यकता
    • असंगठित श्रमिकों का विश्वसनीय डेटाबेस विशेष रूप से प्रवासी मज़दूरों से संबंधित डेटाबेस राहत संकट के समय राहत पैकेजों के वितरण की व्यवस्था को सुगम बनाने में महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
      • दिसंबर 2020 में सरकार ने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से संबंधित श्रमिकों सहित प्रवासी श्रमिकों का एक डेटाबेस बनाने का निर्णय लिया था।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS)

  • यह विश्व में सबसे बड़े रोज़गार गारंटी कार्यक्रमों में से एक है।

लॉन्च 

  • इसे 2 फरवरी, 2006 को लॉन्च किया गया था।
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम को 23 अगस्त, 2005 को पारित किया गया था।

उद्देश्य

  • योजना का प्राथमिक उद्देश्य प्रत्येक वित्तीय वर्ष में ग्रामीण परिवार के ऐसे वयस्क सदस्यों को सार्वजनिक अकुशल कार्य के लिये 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देना है।

कार्य का कानूनी अधिकार

  • पूर्व की रोज़गार गारंटी योजनाओं के विपरीत इस अधिनियम का उद्देश्य अधिकार आधारित ढाँचे के माध्यम से गरीबी जैसे गंभीर विषयों को संबोधित करना है।
  • इसमें कम-से-कम एक-तिहाई महिला लाभार्थी होना अनिवार्य है।
  • न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948 के तहत राज्य में खेतिहर मज़दूरों के लिये निर्दिष्ट वैधानिक न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार, मजदूरी का भुगतान किया जाना चाहिये।

मांग-संचालित योजना

  • मनरेगा के डिज़ाइन का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा किसी भी ग्रामीण वयस्क को मांग के 15 दिनों के भीतर काम पाने की कानूनी रूप से समर्थित गारंटी प्रदान करना है, इसमें विफल रहने पर 'बेरोज़गारी भत्ता' दिये जाने का भी प्रावधान है। 
  • यह मांग-संचालित योजना श्रमिकों के आत्म-चयन को सक्षम बनाती है।

विकेंद्रित नियोजन

  • कार्यों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में पंचायती राज संस्थानों (PRI) को महत्त्वपूर्ण भूमिका देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया गया है।
  • यह अधिनियम ग्राम सभाओं को उन कार्यों की सिफारिश करने के लिये बाध्य करता है जिन्हें किया जाना शेष है, साथ ही कम-से-कम 50% कार्यों को उनके द्वारा निष्पादित किया जाना अनिवार्य है।

SDGs

आगे की राह

  • महामारी ने विकेंद्रीकृत शासन के महत्त्व को प्रदर्शित किया है।
    • कार्यों को मंज़ूरी, मांग के अनुसार काम देने और समय पर भुगतान सुनिश्चित करने के लिये ग्राम पंचायतों को पर्याप्त संसाधन, शक्ति व उत्तरदायित्त्व प्रदान किया जाने की आवश्यकता है। 
  • सामाजिक ऑडिट प्रदर्शन की जवाबदेही तय करता है, विशेष तौर पर तात्कालिक हितधारकों के प्रति। इसलिये ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी नीतियों और उपायों के बारे में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

भारत में बंधुआ मज़दूरी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मध्य प्रदेश के गुना ज़िला प्रशासन द्वारा पंद्रह बंधुआ मज़दूरों को रिहा कराया गया। इन मज़दूरों के साथ उनके नियोक्ता या मालिक द्वारा अमानवीय व्यवहार किये जाने और उन्हें यातनाएँ देने की शिकायतें मिल रही थीं।

प्रमुख बिंदु:

बंधुआ मज़दूरी:

  • यह एक प्रथा है जिसमें नियोक्ता द्वारा श्रमिकों को उच्च-ब्याज दर पर ऋण दिया जाता है तथा श्रमिक द्वारा लिये गए कर्ज़ का भुगतान करने हेतु उससे कम मज़दूरी पर कार्य कराया जाता है।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बंधुआ मज़दूरी को प्रचलित बाज़ार मज़दूरी (Market Wages) और न्यूनतम कानूनी मज़दूरी (Legal Minimum Wages) से कम दर पर मज़दूरी का भुगतान करने के रूप में परिभाषित किया गया है।
  •  ऐतिहासिक रूप से बंधुआ मज़दूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी थी जहांँ आर्थिक रूप से वंचित समुदाय, किसान ज़मींदारों के यहाँ कार्य  करने के लिये बाध्य थे।
  • असंगठित उद्योगों जैसे- ईंट के भट्टे, पत्थर खदान, कोयला खनन, कृषि श्रम, घरेलू नौकर, सर्कस और यौन दासता इत्यादि में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बंधुआ मज़दूरी विद्यमान है।

अंतर्राष्ट्रीय दायित्व:

  • भारत मज़दूर श्रम, मानव तस्करी और बाल श्रम को समाप्त करने के सतत् विकास लक्ष्य (लक्ष्य 8.7) के तहत वर्ष 2030 तक आधुनिक दासता को समाप्त करने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • भारत द्वारा ‘एबोलिशन ऑफ फोर्स्ड लेबर कन्वेंशन’-1957 (नं. 105) की पुष्टि की गई है।
  • भारत ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स (Global Slavery Index) में अपनी रैंक (वर्ष 2018 में 167 देशों में 53 वांँ) में सुधार करने हेतु प्रतिबद्ध है।

संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 23 ज़बरन श्रम पर प्रतिबंध लगाता है।
  • अनुच्छेद 24 कारखानों आदि में बच्चों के रोज़गार (चौदह वर्ष से कम आयु) को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद 39 श्रमिक पुरुषों और महिलाओं के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के उद्देश्य से  राज्य को निर्देश देता है कि राज्य इस बात को सुनिश्चित करे  कि बच्चों की मासूम उम्र के साथ किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार न किया जाए और नागरिकों को उनकी आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये आयु या क्षमता के विरुद्ध जाकर कार्य करने को मजबूर नहीं किया जाए। 

संबंधित विधान:

  • बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976:
    • यह अधिनियम संपूर्ण देश में लागू है जिसे संबंधित राज्य सरकारों द्वारा लागू किया गया है।
    • यह ज़िला स्तर पर सतर्कता समितियों (Vigilance Committees) के रूप में  एक संस्थागत तंत्र (Institutional Mechanism) का प्रावधान करता है।
      • इस अधिनियम के प्रावधानों को ठीक से लागू करने हेतु सतर्कता समितियांँ ज़िला मजिस्ट्रेट (District Magistrate- DM) को सलाह देती हैं ।
    • राज्य सरकारें/संघ राज्य क्षेत्र, इस अधिनियम के तहत अपराधों की सुनवाई हेतु कार्यकारी मजिस्ट्रेट को प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियांँ प्रदान कर सकते हैं।
  • बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास हेतु केंद्रीय क्षेत्र योजना (2016):
    • इसके तहत बंधुआ मज़दूरी से बचाए गए लोगों को उनकी आजीविका के लिये गैर-वित्तीय सहायता के साथ 3 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।

बंधुआ मज़दूरी के कारण:

  • श्रमिकों और नियोक्ताओं के मध्य जागरूकता का अभाव।
  •  सज़ा की दर कम होना ।
  • बंधुआ मज़दूरी के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रह।
  • बंधुआ श्रमिकों के मध्य प्रवासी प्रकृति।
  • बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 का कमज़ोर कार्यान्वयन।
  • ज़बरन श्रम हेतु उचित सज़ा (IPC- गैरकानूनी अनिवार्य श्रम की धारा 374) के  प्रावधान का अभाव।
  • राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर सरकारों के मध्य उचित समन्वय का अभाव।

बंधुआ मज़दूरी को समाप्त करने के लिये आवश्यक उपाय:

  • बंधुआ मज़दूरों की सूचना देने और उनकी पहचान करने के लिये जनता को जानकारी प्रदान करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय अभियान का आयोजन किया जाना चहिये।
  •  महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा आंशिक रूप से समर्थित राष्ट्रीय बाल हॉटलाइन को लोकप्रिय बनाया जाना। तस्करी ड़ितों हेतु एक राष्ट्रीय हेल्पलाइन मौजूद है, जो ऑपरेशन रेड अलर्ट के तहत संचालित है।
  • बचाए गए पीड़ितों को फिर से बंधुआ मज़दूरी में शामिल होने से रोकने के लिये उनका उचित पुनर्वास करना।
    • उत्पादक और आय उत्पन्न करने वाली योजनाओं को पहले से ही तैयार किया जाना चाहिये अन्यथा वे अपनी रिहाई के बाद फिर से बंधुआ श्रम प्रणाली में फँस जाएंगे।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

सक्षम पोर्टल और समुद्री शैवाल मिशन: TIFAC

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रौद्योगिकी सूचना, पूर्वानुमान और मूल्यांकन परिषद (Technology Information, Forecasting and Assessment Council- TIFAC) ने दो नई प्रौद्योगिकी पहलों- सक्षम (Saksham) नाम से एक जॉब पोर्टल तथा समुद्री शैवाल की व्यावसायिक खेती एवं इसके प्रसंस्करण के लिये समुद्री शैवाल मिशन (Seaweed Mission) का शुभारंभ किया है।

  • TIFAC का गठन फरवरी 1988 में 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग' के तहत एक स्वायत्त निकाय के रूप में किया गया। यह भारत में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का आकलन करने और महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में भविष्य के तकनीकी विकास की दिशा निर्धारित करने का कार्य करता है।

प्रमुख बिंदु

सक्षम पोर्टल:

  • पोर्टल के विषय में: 
    • सक्षम (श्रमिक शक्ति मंच) पोर्टल देश भर में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) तथा अन्य उद्योगों की ज़रूरतों एवं श्रमिकों के कौशल को एक साझा मंच प्रदान करता है। यह एक अखिल भारतीय पोर्टल है।
    • इस पोर्टल के माध्यम से 10 लाख ब्लू कॉलर नौकरियों का सृजन किया जाएगा।
  • विशेषताएँ:
    • उच्च प्रौद्योगिकी: यह अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों में श्रमिकों को उनके कौशल के हिसाब से उद्योगों में संभावित रोज़गार के अवसरों की जानकारी देता है। इसके लिये एलगारिथम (कलन विधि) और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) का इस्तेमाल किया गया है। इसमें श्रमिकों के कौशल प्रशिक्षण का विश्लेषण करने की सुविधा भी है।
    • ऑटोमेटिक अपडेट: विभिन्न व्हाट्सएप और अन्य लिंक के माध्यम से श्रमिक और उद्योगों (विशेषकर एमएसएमई) से संबंधित डेटा/जानकारी को ऑटोमेटिक रूप से अपडेट (Automatic Updation) किया जा रहा है।
  • लाभ: 
    • यह पोर्टल श्रमिकों और उनके कौशल के बारे में सीधे MSME एवं अन्य नियोक्ताओं को जानकारी देने में भी मदद करेगा।
      • यह पोर्टल श्रमिकों को समीपवर्ती MSME में नौकरी का अवसर प्रदान कर उनके प्रवासन को कम करेगा।
    •  यह उद्योगों में श्रमिकों की ज़रूरतों के लिये बिचौलियों और ठेकेदारों पर निर्भरता को खत्म करेगा।

अन्य संबंधित पहलें:

समुद्री शैवाल मिशन:

  • पृष्ठभूमि:
    • समुद्री शैवाल का वैश्विक उत्पादन 32 मिलियन टन है जिसका मूल्य लगभग 12 अरब अमेरिकी डॉलर है। कुल वैश्विक उत्पादन का 57 प्रतिशत हिस्सा चीन, 28 प्रतिशत इंडो​नेशिया इसके बाद दक्षिण कोरिया और भारत द्वारा 0.01-0.02 प्रतिशत का उत्पादन किया जाता है। 
    • समुद्री शैवालों की खेती के अनेक लाभों के बावजूद भारत में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के समान व्यावसायिक खेती उपयुक्त पैमाने पर नहीं की जाती है।
  • मिशन के बारे में:
    • इसे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की दिशा में समुद्री शैवाल की व्यावसायिक खेती और मूल्य संवर्द्धन के लिये शुरू किया गया है।
    • इस मिशन में निम्नलिखित गतिविधियाँ शामिल हैं:
      • आर्थिक रूप से फायदेमंद समुद्री शैवाल की खेती के लिये भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में एक हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में मॉडल फार्म की स्थापना करना।
      • देश में आर्थिक रूप से फायदेमंद समुद्री शैवाल की बड़े पैमाने पर खेती के लिये बीज की आपूर्ति हेतु समुद्री शैवाल नर्सरी की स्थापना करना।
      • उपभोक्ता के खान पान की आदतों के अनुरूप खाद्य समुद्री शैवाल के लिये प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियों की स्थापना करना।
      • समुद्री शैवाल के विकास से जुड़ी मूल्य शृंखला, आपूर्ति शृंखला विकास, देश में समुद्री परियोजनाओं के पर्यावणीय, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों जैसी गतिविधियों से संबधित आँकड़ों का संग्रह करना।
  • लाभ: समुद्री शैवाल की खेती भारत में 10 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र या भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) के 5% हिस्से में की जाए तो:
    • पाँच करोड़ लोगों को रोज़गार मिल सकता है।
    • एक नया समुद्री शैवाल उद्योग स्थापित हो सकता है।
    • यह राष्ट्रीय जीडीपी में बड़ा योगदान कर सकता है।
    • समुद्री उत्पादों में वृद्धि कर सकता है।
    • शैवालों की जल क्षेत्रों में अनावश्यक भरमार को कम कर सकता है।
    • लाखों टन कार्बन डाइआक्साइड (CO2) को अवशो​षित कर सकता है।
    • जैव ईंधन का 6.6 अरब टन उत्पादन कर सकता है।

समुद्री शैवाल

समुद्री शैवाल के विषय में: 

  • ये  शैवाल जड़, तना और पत्तियों रहित बिना फूल वाले होते हैं, जो समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
  • समुद्री शैवाल पानी के नीचे जंगलों का निर्माण करते हैं, जिन्हें केल्प फारेस्ट (Kelp Forest) कहा जाता है। ये जंगल मछली, घोंघे आदि के लिये नर्सरी का कार्य करते हैं।
  • समुद्री शैवाल की अनेक प्रजातियाँ हैं जैसे- ग्रेसिलिरिया एडुलिस, ग्रेसिलिरिया क्रैसा, ग्रेसिलिरिया वेरुकोसा, सरगस्सुम एसपीपी और टर्बिनारिया एसपीपी आदि।

अवस्थिति: 

  • समुद्री शैवाल ज़्यादातर अंतर-ज्वारीय क्षेत्र (Intertidal Zone) और उथले तथा गहरे समुद्री पानी में पाए जाते हैं, इसके अलावा ये ज्वारनदमुख (Estuary) एवं बैकवाटर (Backwater) में भी पाए जाते हैं।
  • दक्षिण मन्नार की खाड़ी (Gulf of Mannar) में चट्टानी अंतर-ज्वारीय क्षेत्र और निचले अंतर-ज्वारीय क्षेत्रों में कई समुद्री प्रजातियों की समृद्ध आबादी है।

पारिस्थितिक महत्त्व:

  • जैव संकेतक: समुद्र में कृषि, उद्योग, मत्स्य पालन और घरों से जाने वाला कचरा असंतुलन शैवाल प्रस्फुटन, समुद्री रासायनिक क्षति आदि का कारण बनता है। समुद्री शैवाल अतिरिक्त पोषक तत्त्वों को अवशोषित करते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करते हैं।
  • आयरन सीक्वेस्टर: जलीय जीव आयरन पर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर बहुत अधिक निर्भर रहते हैं। जब इस खनिज की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ जाती है तो समुद्री शैवाल इसका अवशोषण करके समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान से बचा लेते हैं। समुद्री शैवालों द्वारा समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में पाए जाने वाले अधिकांश भारी धातुओं को अवशोषित कर लिया जाता है।
  • ऑक्सीजन और पोषक तत्त्वों का पूर्तिकर्त्ता: समुद्री शैवाल प्रकाश संश्लेषण और समुद्री जल में मौजूद पोषक तत्त्वों के माध्यम से भोजन प्राप्त करते हैं। ये अपने शरीर के हर हिस्से से ऑक्सीजन छोड़ते हैं। ये अन्य समुद्री जीवों को भी जैविक पोषक तत्त्वों की आपूर्ति करते हैं।

जलवायु परिवर्तन के शमन में भूमिका:

  • समुद्री शैवालों की जलवायु परिवर्तन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कुल समुद्र के सिर्फ 9% हिस्से में मौजूद शैवाल से प्रतिवर्ष लगभग 53 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण किया जा सकता है। इसलिये समुद्री शैवाल की खेती कार्बन के अवशोषण के लिये 'समुद्री वनीकरण' के रूप में की जा सकती है।

अन्य उपयोगिताएँ:

  • इनका उपयोग उर्वरकों के रूप में और जलीय कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये किया जा सकता है।
  • समुद्री शैवाल को मवेशियों को खिलाकर इनसे होने वाले मीथेन उत्सर्जन को कम कर सकते हैं।
  • इन्हें तट बाँधों के रूप में समुद्र तट के कटाव से निपटने के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • इनका उपयोग टूथपेस्ट, सौंदर्य प्रसाधन, पेंट आदि तैयार करने में एक घटक के रूप में किया जाता है।

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय राजनीति

दिव्यांगता और लिपिक की सुविधा: SC

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने केंद्र सरकार को लिखित परीक्षाओं में दिव्यांग व्यक्तियों को लिपिक (Scribe) की सुविधा प्रदान करने से संबंधित विनियमन और दिशा-निर्देश तैयार करने का आदेश दिया है।

  • इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि दिव्यांग व्यक्ति भी सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और उन्हें सार्वजनिक रोज़गार एवं शिक्षा में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के समान लाभ दिया जाना चाहिये। 
  • लिपिक (Scribe) वह व्यक्ति होता है, जो लिखित परीक्षा के दौरान दिव्यांग छात्र द्वारा दिये जाने वाले जवाबों को लिखता है।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • सर्वप्रथम ‘राइटर्स कैंप’ नामक बीमारी से पीड़ित एक छात्र ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की थी, ज्ञात हो कि यह एक ऐसी पुरानी न्यूरोलॉजिकल बीमारी है, जिसके कारण लिखने में अत्यधिक कठिनाई होती है।
  • संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा सिविल सेवा परीक्षा-2018 में उस छात्र को इस आधार पर ‘लिपिक’ की सुविधा उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया गया था कि वह बेंचमार्क ‘विकलांगता’ की परिभाषा में नहीं आता।

न्यायालय का निर्णय

  • लिपिक की सुविधा
    • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत निर्धारित ‘बेंचमार्क विकलांगता’ के अलावा अन्य तरह की विकलांगताओं से प्रभावित लोगों को भी ‘लिपिक’ की सुविधा दी जानी चाहिये।
      • बेंचमार्क विकलांगता का अर्थ है दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत मान्यता प्राप्त किसी भी प्रकार की विकलांगता के कारण कम-से-कम 40 प्रतिशत प्रभावित होने से है। 
  • सरकार को निर्देश
    • न्यायालय ने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (MoSJE) को व्यापक दिशा-निर्देश जारी करते हुए दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 2(s) के तहत निर्धारित परिभाषा के अधीन यह सुनिश्चित करने को कहा है कि किसी भी प्रकार की विकलांगता से प्रभावित उम्मीदवार को ‘लिपिक’ की सुविधा प्रदान करने संबंधी नीतिगत ढाँचे को जल्द-से-जल्द विकसित किया जाए, ताकि दिव्यांग उम्मीदवारों को किसी भी प्रकार की चुनौती का सामना न करना पड़े।
      • मंत्रालय को निर्देश दिया गया है कि इस संबंध में प्रकिया निर्धारित करते समय यह सुनिश्चित करने के लिये उपयुक्त मानदंड निर्धारित किये जाएँ कि सभी उम्मीदवार सक्षम चिकित्सा प्राधिकार द्वारा विधिवत प्रमाणित हों, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ‘लिपिक’ सुविधा का लाभ केवल योग्य लाभार्थी ही प्राप्त कर सकें।
      • अधिनियम के धारा 2(s) के तहत ‘दिव्यांग व्यक्तियों’ को परिभाषित किया गया है। इसका आशय लंबे समय तक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अक्षमता से प्रभावित व्यक्ति से है, यह अक्षमता उसे समाज में पूर्ण और प्रभावी भागीदारी करने से रोकती हो।
  • अधिनियम में सन्निहित ‘तर्कसंगत भागीदारी’ का सिद्धांत राज्य और निजी पक्षों को एक प्रकार का सकारात्मक दायित्व प्रदान करता है, ताकि वे विकलांग व्यक्तियों को समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त सहायता प्रदान करें।
  • वर्ष 2016 के अधिनियम के तहत ‘विकलांग व्यक्तियों’ की एक अधिक समावेशी परिभाषा प्रस्तुत की गई है, जो कि विकलांगता के चिकित्सा मॉडल से विकलांगता के सामाजिक मॉडल की ओर परिवर्तन का प्रतीक है।

राइटर्स कैंप

  • ‘राइटर्स कैंप’ एक विशिष्ट प्रकार का फोकल डिस्टोनिया है, जो किसी की उँगलियों, हाथ या बाँह की कलाई को प्रभावित करता है।
  • फोकल डिस्टोनिया एक न्यूरोलॉजिकल विकार है। इसके तहत मस्तिष्क मांसपेशियों को गलत सूचना भेजता है, जिससे मांसपेशियों में अनैच्छिक और अत्यधिक संकुचन होता है। मस्तिष्क द्वारा भेजे जाने वाले ये सिग्नल हाथों को विषम मुद्राओं में मोड़ सकते हैं।
  • राइटर्स कैंप को एक कार्य-विशिष्ट डिस्टोनिया के रूप में जाना जाता है। यह एक व्यक्ति को केवल तभी प्रभावित करता है, जब वह लेखन या टाइपिंग जैसी विशेष गतिविधि करता है।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016

परिभाषा

  • इस अधिनियम के तहत विकलांगता को एक विकसित और गतिशील अवधारणा के आधार पर परिभाषित किया गया है।
  • बेंचमार्क विकलांगता, अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त किसी भी प्रकार की विकलांगता से कम-से-कम 40 प्रतिशत प्रभावित होने से है।

प्रकार

  • अधिनियम के तहत विकलांगों के प्रकार 7 से बढ़ाकर 21 कर दिये गए हैं।
  • इस अधिनियम के दायरे में मानसिक बीमारी; ऑटिज़्म; स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर; सेरेब्रल पाल्सी; मस्कुलर डिस्ट्रॉफी; क्रोनिक न्यूरोलॉजिकल विकार; भाषा संबंधी विकार; थैलेसीमिया; हीमोफिलिया; सिकल सेल डिज़ीज़; मल्टीपल डिसएबिलिटी जैसे- डेथ ब्लाइंडनेस; एसिड अटैक पीड़ित और पार्किंसन्स रोग आदि शामिल हैं। ये सभी पूर्व के अधिनियम में शामिल नहीं थे।
  • इसके अलावा सरकार को किसी अन्य श्रेणी की विकलांगता को सूचित करने का अधिकार दिया गया है।

आरक्षण

  • इसके तहत सरकारी नौकरियों में विकलांग लोगों के लिये आरक्षण को 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 4 प्रतिशत और उच्च शिक्षा संस्थानों में 3 प्रतिशत से 5 प्रतिशत कर दिया गया है। 

शिक्षा

  • बेंचमार्क विकलांगता से पीड़ित 6 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिये निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई है। सरकार द्वारा वित्तपोषित शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थानों को दिव्यांग बच्चों को समावेशी शिक्षा प्रदान करनी होगी।

अभिगम्यता

  • सुगम्य भारत अभियान के तहत निर्धारित समयसीमा में सार्वजनिक भवनों में दिव्यांगजनों की पहुँच सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया है।

नियामक निकाय

  • विकलांग व्यक्तियों के लिये मुख्य आयुक्त और राज्य आयुक्त नियामक निकायों और शिकायत निवारण एजेंसियों के रूप में कार्य करेंगे, साथ ही वे अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी पर भी ध्यान देंगे। 

विशेष निधि

  • विकलांग व्यक्तियों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये एक अलग राष्ट्रीय और राज्य कोष बनाया जाएगा।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

राष्ट्रीय कोयला सूचकांक

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कोयला मंत्रालय (Ministry of Coal) ने राष्ट्रीय कोयला सूचकांक (National Coal Index) का उपयोग करके राजस्व हिस्सेदारी के आधार पर कोयला खानों की वाणिज्यिक नीलामी शुरू की है।

  • NCI को जून 2020 में जारी किया गया था।

प्रमुख बिंदु 

सूचकांक के विषय में:

  • यह एक मूल्य सूचकांक है जो किसी विशेष माह में निर्धारित आधार वर्ष के सापेक्ष कोयले के मूल्य स्तर में परिवर्तन को दर्शाता है।
    • वित्तीय वर्ष 2017-18 NCI का आधार वर्ष है।

संकलन:

  • NCI तैयार करने के लिये कोयले के सभी बिक्री चैनलों से कोयले की कीमतें, जिनमें आयात भी शामिल है, को ध्यान में रखा गया है।
  • नीलाम किये गए कोयला ब्लॉकों से उत्पादित प्रति टन कोयले से प्राप्त राजस्व की मात्रा का निर्धारण NCI का उपयोग करके परिभाषित फार्मूला के माध्यम से किया जाएगा।

उप-सूचकांक: NCI पाँच उप-सूचकांकों के समूह से बना है:

  • नॉन कोकिंग कोल के लिये तीन और कोकिंग कोल के लिये दो।
  • इस सूचकांक में तीन उप-सूचकांकों को नॉन-कोकिंग कोयले से और दो उप-सूचकांकों को कोकिंग कोल से संयुक्त किया जाता है।
  • इस प्रकार नॉन-कोकिंग और कोकिंग कोल के लिये सूचकांक अलग-अलग हैं।
    • उपर्युक्त उप-सूचकांक का खदान से संबंधित कोयले के ग्रेड के अनुसार उपयोग किया जाता है।

कोयला

  • कोयला सबसे प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाला जीवाश्म ईंधन है जो भारत की ऊर्जा ज़रूरत का 55% हिस्सा पूरा करता है।
  • उपयोग के आधार पर कोयले को दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है:
  • कोकिंग कोल:
    • इस कोयला को हवा की अनुपस्थिति में 600 डिग्री सेल्सियस से ऊपर गरम करने पर जो संश्लेषित पदार्थ बनता है उसे कोक (Coke) कहा जाता है ।
      • कोक को स्टील के उत्पादन के लिये स्टील प्लांट्स में लौह अयस्क और चूना पत्थर के साथ आग की भट्टी में रखा जाता है।
    • कोकिंग कोल में राख का प्रतिशत कम होता है।
    • उपयोग:
      • इसका उपयोग मुख्य रूप से स्टील बनाने और धातुकर्म उद्योगों में किया जाता है।
      • इसे हार्ड कोक (Hard Coke) निर्माण में भी उपयोग किया जाता है।
  • नॉन कोकिंग कोल:
    • इनमें कोकिंग कोल का गुण नहीं होता है।
    • उपयोग:
      • इस कोयले का उपयोग बिजली पैदा करने के लिये थर्मल पावर प्लांट में किया जाता है, इसलिये इसे स्टीम कोल या थर्मल कोल के नाम से भी जाना जाता है।
      • इसका उपयोग सीमेंट, उर्वरक, ग्लास, चीनी मिट्टी, कागज़, रासायनिक पदार्थ और ईंट निर्माण तथा गर्मी उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिये भी किया जाता है ।
  • कोयले को भी चार भागों में बाटा गया है: एंथ्रासाइट, बिटुमिनस, लिग्नाइट और पीट कोयला। इनका वर्गीकरण इनमें मौजूद कार्बन के प्रकार और मात्रा पर निर्भर करता है।

स्रोत: पी.आई.बी.


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