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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

अंतरिक्ष में नया परमाणु क्षेत्र

प्रिलिम्स के लिये: लूनर फिशन सतह शक्ति परियोजना, छोटा परमाणु रिएक्टर, वोयेजर अंतरिक्ष यान, मंगल, मीथेन, रेडियोधर्मी पदार्थ, बाह्य अंतरिक्ष संधि, बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति (COPUOS), IAEA, 1972 दायित्व सम्मेलन  

मेन्स के लिये: अंतरिक्ष के लिये विभिन्न परमाणु प्रौद्योगिकियाँ, उनकी आवश्यकता, संबंधित चुनौतियाँ और उन्हें नियंत्रित करने हेतु कानूनी ढाँचा, अंतरिक्ष में ज़िम्मेदार परमाणु भविष्य सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक कदम।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने लूनर फिशन सतह शक्ति परियोजना के तहत एक महत्त्वाकांक्षी योजना की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत 2030 के शुरुआती दशक तक चंद्रमा पर एक छोटा परमाणु रिएक्टर स्थापित किया जाएगा।

  • यह पहल नासा की आर्टेमिस बेस कैंप रणनीति का हिस्सा है और पृथ्वी से बाहर रहने वाले आवासों के लिये परमाणु ऊर्जा के बड़े पैमाने पर उपयोग की शुरुआत को चिह्नित करती है। यदि इसे कार्यान्वित किया गया तो यह पृथ्वी की कक्षा के बाहर पहला स्थायी परमाणु ऊर्जा स्रोत बन जाएगा।

परमाणु प्रौद्योगिकियाँ अंतरिक्ष अन्वेषण के भविष्य को कैसे आकार देती है?

  • विकसित हो रहे रेडियोआइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (RTGs): ये क्षय हो रहे प्लूटोनियम-238 से उत्पन्न उष्मा को बिजली में परिवर्तित हैं, लेकिन केवल कुछ सैकड़ों वाट बिजली उत्पन्न करते हैं—जो उपकरणों के लिये पर्याप्त है, मानव बेस के लिये नहीं। वर्तमान में इसका उपयोग (उदाहरणतः वोयेजर अंतरिक्ष यान पर) हो रहा है।
  • कॉम्पैक्ट फिशन रिएक्टर: आकार में यह एक शिपिंग कंटेनर के बराबर होता है, और यह 10 से 100 किलोवाट तक बिजली उत्पन्न कर सकता है, जो आवासीय क्षेत्रों और प्रारंभिक औद्योगिक इकाइयों को ऊर्जा प्रदान करने में सक्षम है।
  • न्यूक्लियर थर्मल प्रोपल्शन (NTP): न्यूक्लियर थर्मल प्रोपल्शन (जैसे कि अमेरिकी DRACO प्रोग्राम, जिसकी टेस्टिंग वर्ष 2026 तक होने की योजना है) प्रोपेलेंट को गर्म करके थ्रस्ट उत्पन्न करता है, जिससे मंगल ग्रह की यात्रा के समय को महीनों तक कम किया जा सकता है।
  • न्यूक्लियर इलेक्ट्रिक प्रोपल्शन (NEP): यह रिएक्टर की बिजली का उपयोग करके प्रोपेलेंट को आयनीकृत करता है और वर्षों तक स्थिर, कुशल थ्रस्ट प्रदान करता है, जो गहरे अंतरिक्ष के प्रोब और माल ढुलाई के लिये उपयुक्त है।

अंतरिक्ष आधारित कार्यों हेतु न्यूक्लियर पावर की आवश्यकता क्यों है?

  • सौर ऊर्जा की सीमाएँ: चंद्रमा की रात का समय लगभग 14 पृथ्वी दिवसों के बराबर होता है और तापमान –170°C से भी नीचे गिर जाता है, जिससे विशाल बैटरी सिस्टम की आवश्यकता के कारण सौर ऊर्जा अस्थिर और अविश्वसनीय हो जाती है।
    • मंगल ग्रह पर लंबे समय तक चलने वाले धूल भरे तूफान सौर ऊर्जा की क्षमता को कम कर देते हैं। NASA द्वारा विकसित KRUSTY सिस्टम 10 किलोवाट तक निरंतर और विश्वसनीय ऊर्जा उपलब्ध कराता है।
  • विश्वसनीय ऊर्जा की समस्या: मानव बेस 24 घंटे, 7 दिन, 365 दिन काम करना चाहिये, जिसके लिये जीवन समर्थन, आवासीय हीटिंग, संचार और ईंधन उत्पादन व निर्माण जैसी वैज्ञानिक तथा औद्योगिक गतिविधियों के लिये भरोसेमंद ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
    • एक न्यूक्लियर रिएक्टर लगातार और पूर्वानुमेय बेस-लोड बिजली प्रदान करता है, जो सूर्य की रोशनी या मौसम से प्रभावित नहीं होता।
  • स्थानीय स्वतंत्रता की चुनौती: न्यूक्लियर ऊर्जा की सहायता से मिशन किसी भी स्थान पर संचालित किये जा सकते हैं, जैसे पानी की बर्फ वाले स्थायी छायादार गड्ढे, सूर्य-प्रचुर क्षेत्रों के बाहर विभिन्न क्षेत्रों की खोज और पूरे ग्रह में बेस या रोबोटिक स्टेशन स्थापित करना, बिना सूर्य की रोशनी पर निर्भर हुए।
  • स्केलेबिलिटी समस्या: एक छोटी टीम सौर ऊर्जा और बैटरियों के सहारे काम चला सकती है, लेकिन बड़ी टीमों को इन-सीटू रिसोर्स यूटिलाइज़ेशन (ISRU) संयंत्रों, कृषि तथा औद्योगिक परियोजनाओं के लिये मेगावाट-स्तर की ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऐसे उच्च ऊर्जा मांगों को बाह्य-स्थलीय (Extraterrestrial) वातावरण में पूरा करने में सक्षम और स्केल-अप हो सकने वाली एकमात्र सिद्ध तकनीक परमाणु विखंडन (Nuclear Fission) है।
  • मिशन आर्किटेक्चर समस्या: कई मंगल मिशन योजनाओं में सतह पर ईंधन उत्पादन की आवश्यकता होती है, लेकिन जल-बर्फ (वाटर आइस) को खंडित कर हाइड्रोजन निकालना और गैसों की अभिक्रिया से मीथेन बनाना जैसी प्रक्रियाएँ अत्यधिक ऊर्जा-गहन होती हैं। एक विश्वसनीय परमाणु रिएक्टर इस ‘मंगल गैस स्टेशन’ को ऊर्जा प्रदान कर सकता है, जिससे मिशन अधिक सुरक्षित बनते हैं और पृथ्वी से ले जाए जाने वाले ईंधन की मात्रा कम हो जाती है।

अंतरिक्ष में परमाणु ऊर्जा के उपयोग का वर्तमान कानूनी ढाँचा

  • आउटर स्पेस संधि (OST) 1967: आउटर स्पेस संधि (OST) 1967 के अनुच्छेद IV में देशों को पृथ्वी की कक्षा, चंद्रमा या बाह्य अंतरिक्ष के किसी भी हिस्से में परमाणु हथियार या किसी भी प्रकार के व्यापक विनाश के हथियार तैनात करने से प्रतिबंधित किया गया है।
    • हालाँकि, यह शांतिपूर्ण अंतरिक्ष अन्वेषण हेतु परमाणु-चालित उपकरणों के उपयोग की अनुमति प्रदान करता है।
  • अंतरिक्ष में परमाणु ऊर्जा स्रोतों के उपयोग से संबंधित सिद्धांत, 1992: वर्ष 1992 में अपनाई गई संयुक्त राष्ट्र की यह संधि अंतरिक्ष में परमाणु ऊर्जा के सुरक्षित उपयोग को सुनिश्चित करती है और सार्वजनिक सुरक्षा मूल्यांकन (Public Safety Assessments) अनिवार्य करती है। रेडियोआइसोटोप जनरेटरों का उपयोग अंतरग्रहीय मिशनों के लिये किया जा सकता है या उपयोग के बाद उन्हें पृथ्वी की उच्च कक्षा में संग्रहीत किया जा सकता है तथा उनके उचित निस्तारण का प्रावधान भी अनिवार्य है।

अंतरिक्ष में परमाणु ऊर्जा के उपयोग में कानूनी और पर्यावरणीय चुनौतियाँ क्या हैं?

  • अप्रत्यावर्ती पर्यावरणीय प्रदूषण: निम्नस्तरीय रिएक्टर होने के कारण चंद्रमा या मंगल जैसी अछूती बाह्य-स्थलीय वातावरण में स्थायी प्रदूषण हो सकता है, जिससे रेडियोधर्मी पदार्थ फैल सकते हैं। यह सौर मंडल के इतिहास के विशिष्ट वैज्ञानिक रिकॉर्ड को नष्ट कर सकता है और भविष्य में जीवन योग्य होने की संभावना को प्रभावित कर सकता है।
  • सुरक्षा क्षेत्र दुविधा: सुरक्षा के दृष्टिकोण से तर्कसंगत होते हुए भी परमाणु स्थलों के चारों ओर निषेध क्षेत्र (Exclusion Zones) बनाना कानूनी संघर्ष उत्पन्न करता है। बिना नियमन वाले क्षेत्र एक राष्ट्र को वास्तव में संसाधन-समृद्ध क्षेत्रों पर नियंत्रण की अनुमति दे सकते हैं, जो आउटर स्पेस संधि के तहत राष्ट्रीय अधिग्रहण पर प्रतिबंध का उल्लंघन है और अन्य देशों की पहुँच को अवरुद्ध करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष तक बढ़ना: अंतरिक्ष में परमाणु घटनाएँ सीमाओं के पार प्रभाव डाल सकती हैं, जैसे कि रेडियोधर्मी मलबा/अपशिष्ट या हथियार के रूप में संभावित उपयोग का संदेह, जो कूटनीतिक विश्वास को नुकसान पहुँचा सकता है, आरोपों को उत्पन्न कर सकता है और प्रतिशोधी कदमों को प्रोत्साहित कर सकता है, जिससे अन्वेषण सहयोग संदेह और संघर्ष में परिवर्तित हो सकता है।
  • अविनियमित और जोखिमपूर्ण परीक्षण: यदि सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सुरक्षा मानक नहीं हैं तो राज्य या निजी संस्थाएँ सशक्त रिएक्टरों या प्रोपल्शन सिस्टम के प्रयोगात्मक परीक्षण कर सकती हैं। इससे सुरक्षा प्रोटोकॉल में ‘नीचे की ओर प्रतिस्पर्द्धा’ (Race to the Bottom) उत्पन्न हो सकती है और दुर्घटनाओं की संभावना बढ़ जाती है, जो सभी अंतरिक्ष-यात्रा करने वाले देशों के लिये खतरा बन सकती हैं।

ज़िम्मेदार अंतरिक्ष परमाणु ढाँचे का नेतृत्व करने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • मुख्य कानूनी ढाँचे को सुदृढ़ करना: संयुक्त राष्ट्र की आउटर स्पेस के शांतिपूर्ण उपयोग पर समिति (COPUOS) को 1992 के सिद्धांतों का आधुनिकीकरण करना चाहिये, ताकि इसके दायरे में परमाणु थर्मल और इलेक्ट्रिक प्रोपल्शन शामिल हो और डिज़ाइन, परिचालन सुरक्षा, ईंधन की स्थिरता और जीवन समाप्ति पर निस्तारण के लिये बाध्यकारी सुरक्षा मानक स्थापित किये जा सकें।
  • बहुपक्षीय निगरानी और पारदर्शिता: एक अंतर्राष्ट्रीय तकनीकी परामर्श निकाय (जैसे IAEA के समान एक अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष परमाणु सुरक्षा समूह) का गठन किया जाना चाहिये, जो अंतरिक्ष में सभी परमाणु प्रणालियों के लिये डिज़ाइन प्रमाणित करे और सुरक्षा प्रोटोकॉल के पालन की जाँच सुनिश्चित करे।
  • महत्त्वपूर्ण परिदृश्यों के लिये विशिष्ट प्रोटोकॉल: आकाशीय पिंडों पर अस्थायी, गैर-भेदभावपूर्ण सुरक्षा क्षेत्रों के लिये नियम स्थापित करें जो संप्रभुता दावों को रोकें। अंतरिक्ष में परमाणु घटनाओं के लिये दायित्व अभिसमय, 1972 को अपडेट करें, जिसमें पार-सीमांत दुर्घटनाओं के लिये स्पष्ट ज़िम्मेदारी और आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल शामिल हों।
  • पूर्व-सक्रिय मानक-निर्माण को बढ़ावा देना: अमेरिका, रूस, चीन जैसी प्रमुख अंतरिक्ष शक्तियों और भारत जैसे उभरते देशों को वार्ता का नेतृत्व करना चाहिये, यह दिखाने के लिये कि सुरक्षा एक साझा प्राथमिकता है।
    • मुख्य उपयोगकर्त्ताओं के लिये नियामक स्पष्टता सुनिश्चित करने हेतु नियम-निर्माण में वाणिज्यिक अंतरिक्ष कंपनियों को शामिल करें।
  • नैतिक और कानूनी मानक: तकनीकी उन्नति इस तरह कानूनी और नैतिक ढाँचे द्वारा निर्देशित हो कि दीर्घकालिक पर्यावरणीय या भू-राजनीतिक परिणाम वाली दुर्घटनाओं से बचा जा सके।

निष्कर्ष

अंतरिक्ष में परमाणु रिएक्टरों का उपयोग चंद्र और मंगल मिशनों में स्थायी तथा व्यापक ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने का साधन है, जिससे जीवन समर्थन, औद्योगिक संचालन और प्रणोदन तकनीकों को सक्षम बनाया जा सकता है। हालाँकि, मज़बूत कानूनी ढाँचे और बहुपक्षीय निगरानी के बिना, प्रदूषण, संघर्ष तथा असुरक्षित परीक्षण के जोखिम अंतरिक्ष अन्वेषण को कमज़ोर कर सकते हैं, जिससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं विनियमन आवश्यक हो जाता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. चंद्रमा पर परमाणु फिशन रिएक्टरों की तैनाती का रणनीतिक और तकनीकी महत्त्व की चर्चा कीजिये। इसके साथ जुड़ी पर्यावरणीय और कानूनी चुनौतियों का वर्णन कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. लूनर फिशन सर्फेस पावर प्रोजेक्ट क्या है?
यह एक अमेरिकी पहल है, जिसके तहत वर्ष 2030 के शुरुआती दशक तक चंद्रमा पर एक छोटा परमाणु रिएक्टर तैनात किया जाएगा, ताकि चंद्र अभियान के संचालन हेतु निरंतर और विश्वसनीय ऊर्जा उपलब्ध हो सके।

2. अंतरिक्ष में प्रयोग होने वाली मुख्य परमाणु तकनीकें कौन‑सी हैं?
कम ऊर्जा वाले उपकरणों के लिये RTG, आवास और बेस कैंप के लिये कॉम्पैक्ट फिशन रिएक्टर्स, स्पेसक्राफ्ट थ्रस्ट के लिये न्यूक्लियर थर्मल प्रोपल्शन (NTP) और न्यूक्लियर इलेक्ट्रिक प्रोपल्शन (NEP)।

3. अंतरिक्ष में परमाणु ऊर्जा उपयोग हेतु प्रमुख कानूनी दिशा-निर्देश क्या हैं?
वर्ष 1992 के संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांत और आउटर स्पेस संधि शांतिपूर्ण परमाणु उपयोग की अनुमति देते हैं, लेकिन आधुनिक प्रणालियों जैसे प्रोपल्शन रिएक्टरों के लिये बाध्यकारी सुरक्षा मानक नहीं प्रदान करते।

सारांश

  • सौर ऊर्जा चंद्र एवं मंगल पर सतत संचालन के लिये पर्याप्त नहीं है, इसलिये विश्वसनीय और बड़े पैमाने पर ऊर्जा के लिये कॉम्पैक्ट फिशन रिएक्टर आवश्यक हैं।
  • वर्ष 1967 का आउटर स्पेस संधि परमाणु ऊर्जा की अनुमति देता है, लेकिन यह कानून पुराना है और इसमें बाध्यकारी सुरक्षा मानक, दायित्व नियम तथा दुर्घटना प्रोटोकॉल नहीं हैं।
  • मुख्य जोखिम हैं: रेडियोधर्मी प्रदूषण, क्षेत्रीय ‘सुरक्षा क्षेत्र’ और किसी घटना से अंतर्राष्ट्रीय विवाद।
  • बाध्यकारी नियम, एक वैश्विक निगरानी निकाय और स्पष्ट सुरक्षा क्षेत्रों के निर्माण के लिये तत्काल अंतर्राष्ट्रीय शासन की आवश्यकता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रिलिम्स 

प्रश्न. भारत में, क्यों कुछ परमाणु रिएक्टर ‘‘आई.ए.ई.ए. सुरक्षा उपायों’’ के अधीन रखे जाते हैं, जबकि अन्य इस सुरक्षा के अधीन नहीं रखे जाते? (2020)

(a) कुछ यूरेनियम का प्रयोग करते हैं और अन्य थोरियम का

(b) कुछ आयातित यूरेनियम का प्रयोग करते हैं और अन्य घरेलू आपूर्ति का

(c) कुछ विदेशी उद्यमों द्वारा संचालित होते हैं और अन्य घरेलू उद्यमों द्वारा

(d) कुछ सरकारी स्वामित्व वाले होते हैं और अन्य निजी स्वामित्व वाले

उत्तर: (b) 


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)

  1. परमाणु सुरक्षा शिखर-सम्मेलन, संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में आवधिक रूप से किये जाते हैं।
  2. विखंडनीय सामग्रियों पर अंतर्राष्ट्रीय पैनल अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण का एक अंग है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1  

(b) केवल 2   

(c) 1 और 2 दोनों

(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (d)


मेन्स 

प्रश्न. ऊर्जा की बढ़ती हुई ज़रूरतों के परिप्रेक्ष्य में क्या भारत को अपने नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम का विस्तार करना जारी रखना चाहिये ? नाभिकीय ऊर्जा से संबंधित तथ्यों एवं भयों की विवेचना कीजिये। (2018)

प्रश्न. भारत में नाभिकीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी की संवृद्धि और विकास का विवरण प्रस्तुत कीजिये। भारत में तीव्र प्रजनक रिएक्टर कार्यक्रम का क्या लाभ है? (2017)


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

भारत में बायोरेमेडिएशन

प्रिलिम्स के लिये: बायोरेमेडिएशन, जैव प्रौद्योगिकी, सिंथेटिक बायोलॉजी, बायोसेंसिंग

मेन्स के लिये: बायोरेमेडिएशन की आवश्यकता, पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट 

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

भारत बायोरेमेडिएशन पर पुनर्विचार कर रहा है, क्योंकि सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट, कीटनाशक, प्लास्टिक और तेल फैलाव से होने वाला प्रदूषण देश की मृदा, जल तथा वायु पर निरंतर दबाव डाल रहा है। पारंपरिक सफाई तकनीकें महॅंगी और अस्थिर साबित होने के कारण, बायोरेमेडिएशन एक आशाजनक तथा विज्ञान-संलग्न विकल्प के रूप में उभर रहा है।

बायोरेमेडिएशन क्या है?

  • परिचय: बायोरेमेडिएशन जीवित जीवों (बैक्टीरिया, कवक, शैवाल या पौधे) का उपयोग करके विषैले प्रदूषकों को अपघटित करने या निष्प्रभावी करने की प्रक्रिया है।
    • ये जीव तेल, कीटनाशक, प्लास्टिक और भारी धातुओं जैसे संदूषकों को जल, कार्बन डाइऑक्साइड या कार्बनिक अम्ल जैसे हानिरहित उत्पादों में परिवर्तित कर देते हैं।
    • यह रासायनिक या यांत्रिक सफाई तकनीकों की तुलना में एक लागत-प्रभावी और पर्यावरण-अनुकूल विधि है।
  • प्रकार:
    • इन सीटू बायोरेमेडिएशन (In situ bioremediation): उपचार सीधे संदूषित स्थल पर किया जाता है।
      • उदाहरण: समुद्र में तेल फैलने पर तेल को विघटित करने वाले बैक्टीरिया प्रविष्ट कराए जाते हैं। 
    • एक्स सीटू बायोरेमेडिएशन (Ex situ bioremediation): संदूषित मृदा या जल को निकाला या पंप किया जाता है, नियंत्रित स्थान पर उपचारित किया जाता है और सफाई के बाद पुनः उसी स्थान पर रखा जाता है।
  • बायोरेमेडिएशन में प्रगति: आधुनिक बायोरेमेडिएशन पारंपरिक माइक्रोबायोलॉजी को जैव प्रौद्योगिकी और सिंथेटिक बायोलॉजी के साथ जोड़ता है।
    • आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) सूक्ष्मजीव अब प्लास्टिक और तेल अवशेष जैसे सघन रसायनों को विघटित करने के लिये डिज़ाइन किये जा रहे हैं।
    • सिंथेटिक बायोलॉजी ‘बायोसेंसिंग’ जीवों को सक्षम बनाती है, जो विषाक्त पदार्थों का पता लगाते ही रंग बदलते हैं, जिससे प्रारंभिक संदूषण चेतावनी मिलती है।
    • नई जैव प्रौद्योगिकियाँ उपयोगी जैव अणुओं की पहचान करने और उन्हें नियंत्रित परिस्थितियों में पुन: उत्पन्न करने में सहायता करती हैं, जिससे उनका उपयोग सीवेज संयंत्रों या कृषि क्षेत्रों जैसे स्थानों में किया जा सकता है।
    • नैनोमटेरियल्स और माइक्रोब–नैनोकॉम्पोजिट सिस्टम प्रदूषकों के त्वरित निष्कर्षण में उपयोगी साबित होते हैं।
  • भारत में बायोरेमेडिएशन की स्थिति: भारत में बायोरेमेडिएशन का विस्तार हो रहा है, लेकिन यह अधिकांशतः पायलट चरणों में ही है।
    • जीव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) अपने स्वच्छ प्रौद्योगिकी कार्यक्रम के माध्यम से परियोजनाओं का समर्थन करता है।
    • IIT ने तेल फैलाव के लिये कॉटन-आधारित नैनोकॉम्पोजिट विकसित किये हैं और प्रदूषण-अपघटनकारी बैक्टीरिया की पहचान की है।
    • इकोनिर्मल बायोटेक (Econirmal Biotech) जैसी स्टार्टअप अब मृदा और अपशिष्ट जल उपचार के लिये सूक्ष्मजीवों के फॉर्मूले प्रदान कर रही हैं।

Bioremediation

भारत को बायोरेमेडिएशन की आवश्यकता क्यों है?

  • गंभीर प्रदूषण: तीव्र औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण गंगा और यमुना जैसी नदियाँ निरंतर प्रदूषित हो रही हैं, जो प्रतिदिन हज़ारों लीटर अप्रशोधित सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट से प्रदूषित होती हैं।
  • विभिन्न प्रकार के संदूषक: व्यापक तेल रिसाव, कीटनाशक अवशेष और भारी धातु प्रदूषण पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचाते हैं, भूजल को प्रदूषित करते हैं तथा दीर्घकालिक सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम बढ़ाते हैं।
  • पारंपरिक सफाई की सीमाएँ: यांत्रिक और रासायनिक सफाई महॅंगी, ऊर्जा-सघन और प्राय: द्वितीयक प्रदूषण उत्पन्न करती है।
    • बायोरेमेडिएशन एक लागत-प्रभावी, स्थायी और विकेंद्रीकृत समाधान प्रदान करता है, जो एक ऐसे देश में महत्त्वपूर्ण है जहाँ पर्यावरणीय पुनर्स्थापन हेतु संसाधन सीमित हैं।
  • भारत की समृद्ध जैवविविधता का लाभ: देशीय सूक्ष्मजीव प्रजातियाँ, जो उच्च तापमान, लवणता, अम्लता और विविध पारिस्थितिक परिस्थितियों के अनुकूल हैं, निरंतर विदेशी प्रजातियों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करती हैं तथा पुनर्प्राप्ति की दक्षता बढ़ाती हैं।
  • बड़े पैमाने पर प्रदूषण के लिये उपयुक्त: भारत में संदूषित क्षेत्रों का विस्तार है, जैसे कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) द्वारा पहचाने गए 300 से अधिक प्रदूषित नदी खंड, जहाँ जैविक सफाई पारंपरिक तरीकों की तुलना में कहीं अधिक व्यवहार्य है।
  • भारत की तकनीकी कमियाँ: बड़े पैमाने पर इसे अपनाना तकनीकी सीमाओं जैसे स्थल-विशेष सूक्ष्मजीव ज्ञान की कमी और जटिल प्रकार के प्रदूषक, साथ ही एकरूप राष्ट्रीय मानकों के अभाव जैसी नियामक चुनौतियों के कारण बाधित होता है।

बायोरेमेडिएशन में अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ

  • जापान: अपने शहरी अपशिष्ट प्रबंधन रणनीति के तहत सूक्ष्मजीव-आधारित और पौध-आधारित प्रणालियों का उपयोग करता है।
  • यूरोपीय संघ: तेल फैलाव की सफाई और खनन-प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्वास के लिये अंतर-देशीय बायोरेमेडिएशन परियोजनाओं को वित्तपोषित करता है।
  • चीन: अपनी मृदा प्रदूषण नियंत्रण कानूनों के तहत बायोरेमेडिएशन को प्राथमिकता देता है और संदूषित औद्योगिक स्थलों को पुनर्स्थापित करने के लिये आनुवंशिक रूप से उन्नत बैक्टीरिया का उपयोग करता है।

भारत के लिये बायोरेमेडिएशन के अवसर और जोखिम क्या हैं?

              अवसर

                  जोखिम

प्रदूषित नदियों, झीलों और दलदलों को पुनर्स्थापित करने में मदद करता है।

जैविक रूप से संशोधित जीवों (GMO) के उत्सर्जन से अनपेक्षित पारिस्थितिक प्रभाव पड़ सकते हैं।

प्रदूषित भूमि और औद्योगिक स्थलों की पुनःउपयोग की सुविधा प्रदान करता है।

अपर्याप्त परीक्षण या कमज़ोर रोकथाम प्रदूषण की समस्याओं को और बढ़ा सकता है।

बायोटेक्नोलॉजी, पर्यावरण परामर्श और अपशिष्ट प्रबंधन में रोज़गार सृजित करता है।

सार्वजनिक जागरूकता की कमी नए तकनीकों के प्रतिरोध या दुरुपयोग का कारण बन सकती है।

स्वच्छ भारत, नमामि गंगे और राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम जैसी राष्ट्रीय पहलों का समर्थन करता है, जिससे दीर्घकालिक पारिस्थितिक पुनर्स्थापन सुनिश्चित होता है।

कमज़ोर निगरानी प्रणाली और मज़बूत जैव-सुरक्षा दिशा-निर्देशों तथा प्रमाणन प्रणालियों की अनुपस्थिति सुरक्षा और प्रभावकारिता को सीमित कर सकती है।

भारत, बायोरिमेडिएशन को प्रभावी ढंग से कैसे बढ़ा सकता है?

  • DBT, CPCB और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के सुझावों के साथ बायोरिमेडिएशन और बायोमाइनिंग प्रोटोकॉल तथा सूक्ष्मजीव अनुप्रयोगों के लिये राष्ट्रीय दिशा-निर्देश विकसित करना।
    • बायोमाइनिंग वह प्रक्रिया है जिसमें आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण धातुओं को चट्टानी अयस्क या खदान के अपशिष्ट से निकालने के लिये सूक्ष्मजीवों का उपयोग किया जाता है।
  • विश्वविद्यालयों, उद्योगों और स्थानीय संस्थाओं को जोड़ते हुए क्षेत्रीय बायोरिमेडिएशन हब स्थापित करना।
  • DBT–BIRAC के माध्यम से स्टार्टअप और सामुदायिक परियोजनाओं का समर्थन करना।
  • जैव-संशोधित जीवों (GM जीव) के लिये जैव-सुरक्षा मानदंडों को मज़बूत करना, क्षेत्रीय स्तर के कर्मियों हेतु प्रमाणन और प्रशिक्षण का विस्तार करना, बायोसेंसर तथा डिजिटल डैशबोर्ड के माध्यम से वास्तविक समय निगरानी अपनाकर बायोरिमेडिएशन की प्रगति को ट्रैक करना।
  • सूक्ष्मजीव आधारित समाधानों के बारे में विश्वास और जागरूकता बढ़ाने के लिये सार्वजनिक सहभागिता में सुधार करना।

निष्कर्ष

बायोरिमेडिएशन भारत को प्रदूषित पारिस्थितिक तंत्रों को पुनर्स्थापित करने का एक सतत और किफायती मार्ग प्रदान करता है, साथ ही यह SDG 6 (स्वच्छ जल) और SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) को भी समर्थन देता है। मज़बूत मानकों, कुशल मानव संसाधन और सार्वजनिक विश्वास के साथ यह दीर्घकालिक पर्यावरणीय पुनर्प्राप्ति का एक मुख्य स्तंभ बन सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न.  बायोरिमेडिएशन पारंपरिक तरीकों की तुलना में सुधार लागत और पर्यावरणीय प्रभाव को कम कर सकता है। चर्चा कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. बायोरेमेडिएशन क्या है?
बायोरिमेडिएशन जीवित जीवों (सूक्ष्मजीव, कवक, शैवाल, पौधे) का उपयोग करके प्रदूषकों जैसे तेल, कीटनाशक, प्लास्टिक और भारी धातुओं को हानिरहित पदार्थों में तोड़ने या निष्क्रिय करने की प्रक्रिया है।

2. बायोरिमेडिएशन ‘नमामि गंगे’ जैसे राष्ट्रीय अभियानों का समर्थन कैसे करता है?
बायोरिमेडिएशन नदी के स्वास्थ्य को बहाल करने हेतु ‘नमामि गंगे’ और स्वच्छ भारत के तहत किये जाने वाले बुनियादी ढाँचे के सुधारों के साथ-साथ सीवेज और जैविक प्रदूषण के लिये विकेंद्रीकृत, कम लागत वाला उपचार प्रदान करता है।

3. बायोरिमेडिएशन के मुख्य जोखिम क्या हैं?
जोखिमों में जैविक रूप से संशोधित जीवों से अनपेक्षित पारिस्थितिक प्रभाव, अपर्याप्त परीक्षण, कमज़ोर रोकथाम और कमज़ोर निगरानी शामिल है, जिसके लिये सख्त जैव-सुरक्षा दिशा-निर्देशों तथा प्रमाणन की आवश्यकता होती है।

सारांश 

  • बायोरिमेडिएशन प्रदूषकों को सुरक्षित रूप से तोड़ने के लिये सूक्ष्मजीवों और जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करता है और पारंपरिक सफाई विधियों की तुलना में यह एक सस्ता और पर्यावरण-मित्र विकल्प प्रदान करता है।
  • भारत को इसकी आवश्यकता इसलिये है क्योंकि नदियों, मिट्टी और भूजल में गंभीर प्रदूषण है, CPCB द्वारा 300 से अधिक प्रदूषित क्षेत्रों की पहचान की गई है और औद्योगिक अपशिष्ट लगातार बढ़ रहा है।
  • भारत के प्रयास DBT, IITs और स्टार्टअप्स के माध्यम से बढ़ रहे हैं। हालाँकि तकनीकी अंतर और राष्ट्रीय मानकों की कमी के कारण अपनाने की गति धीमी है।
  • बायोरिमेडिएशन को बढ़ाने और स्वच्छ भारत तथा ‘नमामि गंगे’ जैसी अभियानों का समर्थन करने के लिये मज़बूत जैव-सुरक्षा नियम, क्षेत्रीय हब तथा सार्वजनिक जागरूकता आवश्यक है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रीलिम्स

प्रश्न. प्रदूषण की समस्याओं का समाधान करने के संदर्भ में जैवोपचारण (बायोरेमीडिएशन) तकनीक के कौन-सा/से लाभ है/हैं ? (2017)

  1. यह प्रकृति में घटित होने वाली जैवनिम्नीकरण प्रक्रिया का ही संवर्द्धन कर प्रदूषण को स्वच्छ करने की तकनीक है। 
  2. कैडमियम और लेड जैसी भारी धातुओं से युक्त किसी भी संदूषक को सूक्ष्मजीवों के प्रयोग से जैवोपचारण द्वारा सहज और पूरी तरह उपचारित किया जा सकता है। 
  3. जैवोपचारण के लिये विशेषतः अभिकल्पित सूक्ष्मजीवों को सृजित करने हेतु आनुवंशिक इंजीनियरी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) का उपयोग किया जा सकता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये :

(a) केवल 1 

(b) केवल 2 और 3

(c) केवल 1 और 3 

(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मुख्य परीक्षा

इंडियन मैरीटाइम डॉक्ट्रिन 2025

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

नौसेना प्रमुख ने इंडियन मैरीटाइम डॉक्ट्रिन 2025 को भारत के नौसेना दिवस पर जारी किया, इसे भारत की दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टि और समुद्री प्राथमिकताओं के अनुरूप तैयार किया गया।

नोट: भारतीय नौसेना दिवस प्रतिवर्ष 4 दिसंबर को मनाया जाता है, ताकि वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान ऑपरेशन ट्राइडेंट में भारतीय नौसेना के प्रयासों और भूमिका का सम्मान किया जा सके।

  • ऑपरेशन ट्राइडेंट के तहत, भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर अचानक हमला किया, जिससे पाकिस्तान के समुद्री संचालन का केंद्र ठप्प हो गया।
  • यह हमला तीन विद्युत-क्लास मिसाइल नौकाओं INS निपट, निर्घट और वीर द्वारा किया गया, जिनका समर्थन कोर्वेट नौकाओं INS किल्टन, INS कच्छल तथा फ्लीट टैंकर INS पोषक ने किया।
  • भारतीय नौसेना दिवस 2025 की थीम एक विकसित और समृद्ध भारत के लिये समुद्र की सुरक्षा करने वाले एक युद्ध-तैयार, एकजुट, विश्वसनीय एवं आत्मनिर्भर बल के रूप में भारतीय नौसेना की समुद्री उत्कृष्टता है।

इंडियन मैरीटाइम डॉक्ट्रिन 2025 क्या है?

  • परिचय: इंडियन मैरीटाइम डॉक्ट्रिन 2025 नौसेना का सर्वोच्च मार्गदर्शन दस्तावेज़ है, जो यह निर्धारित करता है कि भारत पूरी समुद्री संघर्ष स्पेक्ट्रम में कैसे योजना बनाता है, तैयारी करता है और संचालन करता है।
    • यह नौसेना के रणनीतिक सिद्धांतों, भूमिकाओं, बल के उपयोग, क्षमता विकास और उभरती समुद्री चुनौतियों के प्रति उसके दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।
    • पहली बार वर्ष 2004 में जारी किया गया और वर्ष 2009 एवं 2015 में अपडेट किया गया, वर्ष 2025 का संस्करण पिछले दशक में भारत के समुद्री परिवेश तथा रणनीतिक दृष्टिकोण में आए बड़े परिवर्तनों को दर्शाता है।
  • वर्ष 2025 संस्करण की प्रमुख विशेषताएँ: औपचारिक रूप से ‘नो-वार, नो-पीस’ को एक विशिष्ट संचालनात्मक श्रेणी के रूप में मान्यता दी गई है, जो शांति और संघर्ष के बीच के ग्रे ज़ोन को महत्त्वपूर्ण स्थल के रूप में मान्यता देता है, जहाँ आधुनिक समुद्री प्रतिस्पर्द्धा तेज़ी से होती है।
    • डॉक्ट्रिन थिएटराइज़ेशन का समर्थन करने के लिये तीनों सेनाओं के बीच संयुक्त कार्यक्षमता और इंटरऑपरेबिलिटी को प्राथमिकता देती है।
    • ग्रे-ज़ोन, हाइब्रिड और इर्रेगुलर वारफेयर तथा बहु-क्षेत्रीय खतरों से प्रशिक्षण को एकीकृत करती है।
    • डॉक्ट्रिन अंतरिक्ष, साइबर और संज्ञानात्मक वारफेयर जैसे उभरते क्षेत्रों पर ज़ोर देती है।
    • नियंत्रित प्रणालियों, स्वायत्त प्लेटफार्मों और उन्नत प्रौद्योगिकियों को अपनाने को बढ़ावा देता है।
  • महत्त्व: यह सिद्धांत एक समुद्री-सजग राष्ट्र को प्रोत्साहित करता है, जो महासागरों के रणनीतिक महत्त्व को समझता है और विकसित भारत 2047 के लिये समुद्री शक्ति को एक प्रमुख स्तंभ के रूप में स्थापित करता है। 
    • यह सिद्धांत प्रमुख राष्ट्रीय पहलों जैसे सागरमाला, पीएम गति शक्ति, मरीन इंडिया विजन 2030, मरीन अमृत काल विजन 2047 और महासागर के साथ सुमेलित है और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भारत की अधिक सक्रिय समुद्री भूमिका की ओर बदलाव को दर्शाता है।
    • यह दस्तावेज़ त्रि-सेवा संयुक्त सिद्धांतों (विशेष बल, एयरबोर्न/हेलिबोर्न और बहु-क्षेत्रीय संचालन) का भी समर्थन करता है, ताकि अंतरसंचालन क्षमता और समेकित संचालन को मज़बूत किया जा सके।
    • यह एक संगठित समुद्री रणनीति पर जोर देता है जो आर्थिक विकास, अवसंरचना विस्तार और ब्लू इकोनॉमी के विकास का समर्थन करती है।

भारतीय नौसेना का इतिहास

  • प्राचीन समुद्री परंपरा: भारत की समुद्री परंपरा 4,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है, जिसमें हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल जैसी प्राचीन सभ्यताएँ अफ्रीका, अरब और मेसोपोटामिया के साथ व्यापक समुद्री व्यापार में संलग्न थीं।
    • ईसा पूर्व चौथी शताब्दी तक, भारत में उन्नत नदी और समुद्री नौवहन की तकनीक विकसित हो चुकी थी; “नाविगेशन” शब्द संस्कृत के नवगति से उत्पन्न हुआ है।
    • भारतीय व्यापारी, साथ ही हिंदू और बौद्ध विद्वान, पहले शताब्दी ईस्वी तक संस्कृति को दक्षिण-पूर्व एशिया तक ले गए, जिससे उस क्षेत्र का धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य आकार लेने लगा।
  • मध्यकालीन समुद्री शक्ति: मध्यकालीन भारतीय शक्तियों, जिनमें चोल, ज़मोरिन और मराठा (मगध नौसेना) शामिल थे, ने मजबूत नौसेनाएँ विकसित की। 
    • कान्होजी आंग्रे के नेतृत्व में मराठा नौसेना ने भारत के पश्चिमी तट पर यूरोपीय शक्तियों को चुनौती दी।
  • यूरोपीय नौसैनिक प्रभुत्व: यूरोपीय आगमन वर्ष 1498 में वास्को डी गामा के साथ शुरू हुआ, जिसने शक्तिशाली नौसेनाओं (पुर्तगाली, डच, ब्रिटिश, फ्राँसीसी) को जन्म दिया, जिन्होंने अंततः भारतीय जल क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित किया।
  • आधुनिक भारतीय नौसेना का उदय: आधुनिक भारतीय नौसेना की जड़ें ब्रिटिश शासन के दौरान स्थापित रॉयल इंडियन नेवी (आरआईएन) में देखने को मिलती हैं।
    • भारत को गणतंत्र का दर्जा मिलने के बाद नौसेना से "रॉयल" उपसर्ग हटा दिया गया और इसका नाम बदलकर भारतीय नौसेना कर दिया गया।
  • नेतृत्व और आदर्श वाक्य: भारतीय नौसेना का नेतृत्व भारत के राष्ट्रपति करते हैं, जो इसके सर्वोच्च कमांडर के रूप में कार्य करते हैं।
    • इसका आदर्श वाक्य है "सम् नो वरुणः", जिसका अर्थ है जल के देवता वरुण हमारे लिये शुभ हों।
  • भूमिका और क्षमताएँ: आज, भारतीय नौसेना एक बहुआयामी समुद्री शक्ति है, जो समुद्री सुरक्षा, शक्ति प्रक्षेपण और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के हितों की रक्षा पर ध्यान केंद्रित करती है।
    • मार्कोस (मरीन कमांडो) नौसेना के विशेष बल हैं, जिन्हें एम्फिवीअस वॉरफेयर, आतंकवाद-रोधी, विशेष टोही, बंधक बचाव और असममित अभियानों के लिये प्रशिक्षित किया जाता है
  • संचालन: स्वतंत्रता के बाद, नौसेना ने अपनी क्षमताओं का विस्तार किया और 1961 में गोवा के मुक्तिकरण, 1971 के भारत-पाक युद्ध (ऑपरेशन ट्राइडेंट और ऑपरेशन पाइथन) सहित विभिन्न संघर्षों में प्रमुख भूमिका निभाई। इसके अलावा, यह आधुनिक समुद्री सुरक्षा अभियानों में भी सक्रिय है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय समुद्री सिद्धांत 2025 प्लेटफ़ॉर्म-केंद्रित से रणनीति-संचालित नौसेना की ओर परिवर्तन को चिह्नित करता है। चर्चा कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. भारतीय समुद्री सिद्धांत 2025 क्या है?
यह भारतीय नौसेना का शीर्षतम मार्गदर्शक दस्तावेज़ है, जो रणनीतिक सिद्धांतों, बलों के उपयोग, क्षमता विकास और पूर्ण समुद्री संघर्ष स्पेक्ट्रम में परिचालन भूमिकाओं का विवरण देता है।

2. कौन-सी राष्ट्रीय पहलों का IMD-2025 के साथ समन्वय है?
यह सिद्धांत सागरमाला, प्रधानमंत्री गति शक्ति, मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030, मैरीटाइम अमृत काल विज़न 2047 और महासागर (MAHASAGAR) जैसी पहलाओं के साथ मेल खाता है।

3. IMD-2025 में किन आधुनिक खतरा क्षेत्रों पर ज़ोर दिया गया है?
इसमें ग्रे-ज़ोन वारफेयर, हाइब्रिड वारफेयर, अनियमित जोखिम, अंतरिक्ष, साइबर और कॉग्निटिव डोमेन पर विशेष ज़ोर दिया गया है।

4. दिसंबर को नौसेना दिवस क्यों मनाया जाता है?
यह 1971 के ऑपरेशन ट्राइडेंट की याद में मनाया जाता है, जब भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर सफल मिसाइल-नौका हमला किया था।

सारांश

  • भारतीय नौसेना ने नौसेना दिवस पर भारतीय समुद्री सिद्धांत 2025 जारी किया, जिससे नौसैनिक रणनीति को दीर्घकालिक राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के साथ संरेखित किया गया और “नो-वॉर, नो-पीस” को एक औपचारिक परिचालन श्रेणी के रूप में मान्यता दी गई।
  • यह सिद्धांत संयुक्तता, बहु-डोमेन तैयारी और उभरती तकनीकों को अपनाने पर ज़ोर देता है, जो भविष्य के थिएटर कमांडों को समर्थन प्रदान करेगा।
  • यह सागरमाला, प्रधानमंत्री गति शक्ति, मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 और विकसित भारत 2047 जैसी राष्ट्रीय पहलों के साथ तालमेल रखते हुए भारत की सक्रिय समुद्री रणनीति को और सुदृढ़ करता है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)

प्रिलिम्स

प्रश्न. हिंद महासागर नौसैनिक परिसंवाद (सिम्पोज़ियम) (IONS) के संबंध में निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2017)

  1. प्रारंभी (इनाँगुरल) IONS भारत में 2015 में भारतीय नौसेना की अध्यक्षता में हुआ था।
  2. IONS एक स्वैच्छिक पहल है जो हिंद महासागर क्षेत्र के समुद्रतटवर्ती देशों (स्टेट्स) की नौसेनाओं के बीच समुद्री सहयोग को बढ़ाना चाहता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1

(b) केवल 2

(c) 1 और 2 दोनों

(d) न तो 1, न ही 2

उत्तर: (b)


प्रश्न. 'INS अस्त्रधारिणी' का, जिसका हाल ही में समाचारों में उल्लेख हुआ था, निम्नलिखित में से कौन-सा सर्वोत्तम वर्णन है? (2016)

(a) उभयचर युद्धपोत

(b) नाभिकीय शक्ति-चालित पनडुब्बी

(c) टॉरपीडो प्रमोचन और पुनप्राप्ति (recovery) जलयान

(d) नाभिकीय शक्ति-चालित विमान-वाहक

उत्तर: (c)


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