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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव

  • 14 Sep 2023
  • 40 min read

प्रिलिम्स के लिये:

आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (GMO), DNA, जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC), रीकॉम्बिनेंट DNA प्रौद्योगिकी, CRISPR-Cas9 प्रणाली, RNA इंटरफेरेंस (RNAi), सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर (क्लोनिंग) 

मेन्स के लिये:

मानव स्वास्थ्य के संदर्भ में आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (GMO) के निहितार्थ। 

आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (GMO):

  • परिचय: 
    • आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (GMO) का आशय ऐसे जीवों (चाहे वह जंतु, पादप या सूक्ष्मजीव हो) से है जिनके DNA में आनुवंशिक इंजीनियरिंग विधियों का उपयोग करके संशोधन किया जाता है।
    • चयनात्मक प्रजनन के माध्यम से मक्का जैसी फसलों, मवेशियों एवं कुत्तों जैसे पालतू जानवरों में विशिष्ट लक्षण विकसित किये गए हैं। हाल के दशकों में जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति ने शोधकर्ताओं को सूक्ष्मजीवों, पौधों एवं जानवरों की आनुवंशिक संरचना में प्रत्यक्ष रूप से हेरफेर करने में सक्षम बनाया है।
  • आनुवंशिक संशोधन:
    • इसमें विशिष्ट लक्षणों या विशेषताओं को प्राप्त करने के क्रम में किसी जीव के डी.एन.ए. को संशोधित करना शामिल है। आनुवंशिक संशोधन में कई तकनीकों का उपयोग किया जाता है, जिनमें से प्रत्येक के अपने फायदे और अनुप्रयोग हैं। 

जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC):

  • GEAC पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) के तहत कार्य करती है। 
  • इसका कार्य अनुवांशिक रूप से संशोधित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के कृषि में उपयोग को स्वीकृति प्रदान करना है|
  • जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों के लिये स्थापित किया गया भारत का सर्वोच्च नियामक है| 
  • GEAC की अध्यक्षता MoEF&CC के विशेष सचिव/अपर सचिव द्वारा की जाती है और सह-अध्यक्षता जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) के एक प्रतिनिधि द्वारा की जाती है। वर्तमान में इसके 24 सदस्य हैं और संबंधित क्षेत्रों में आवेदनों की समीक्षा के लिये इसकी हर महीने बैठक होती है।

महत्त्वपूर्ण जीन एडिटिंग तकनीकें:

  • रीकॉम्बिनेंट डी.एन.ए. तकनीक: इस तकनीक में एक जीव (स्रोत) से विशिष्ट डी.एन.ए. खंडों को अलग करना और काटना तथा उन्हें दूसरे जीव (मेज़बान) के डी.एन.ए. में जोड़ना शामिल है। इसके बाद मेज़बान जीव के जीनोम में डी.एन.ए. के शामिल होने से वांछित गुण व्यक्त होते हैं। इस तकनीक का उपयोग व्यापक तौर पर आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों एवं फार्मास्यूटिकल्स क्षेत्र में किया जाता है।
  • CRISPR-Cas9: CRISPR-Cas9 प्रणाली वैज्ञानिकों को विशिष्ट डी.एन.ए. अनुक्रमों को सटीक रूप से लक्षित और संशोधित करने में सक्षम बनाती है। इसका उपयोग बैक्टीरिया से लेकर पौधों एवं जानवरों के रूप में जीवों की एक विस्तृत शृंखला में जीन जोड़ने, हटाने या बदलने के लिये किया जा सकता है।
  • TALENs (ट्रांसक्रिप्शन एक्टिवेटर-लाइक इफेक्टर न्यूक्लियेज़): TALENs एक अन्य जीन संपादन तकनीक है जिसे विशिष्ट डी.एन.ए. अनुक्रमों को लक्षित करने के लिये प्रोग्राम किया जा सकता है। यह CRISPR-Cas9 के समान कार्य करती हैं और इसका उपयोग विभिन्न जीवों में आनुवंशिक संशोधन के लिये किया जाता है।
  • RNA इंटरफेरेंस (RNAi): RNA इंटरफेरेंस (RNAi) एक प्राकृतिक सेलुलर प्रक्रिया है जो यूकेरियोटिक कोशिकाओं में जीन अभिव्यक्ति को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके द्वारा लक्षित जीन के मैसेंजर RNA (mRNA) को ट्रिगर कर संबंधित प्रोटीन की अभिव्यक्ति को कम किया जाता है।
  • सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर (क्लोनिंग): इस तकनीक में सोमैटिक सेल (शुक्राणु या अंडाणु कोशिकाओं को छोड़कर कोई भी कोशिका) के केंद्रक को अंडे की कोशिका में स्थानांतरित करना शामिल है, जिसमें से केंद्रक को हटा दिया गया है। इस प्रक्रिया द्वारा आनुवंशिक रूप से समान जीव (क्लोन) बनाते हैं। डॉली भेड़ को सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर का उपयोग करके बनाया गया था।
  • सिंथेटिक बायोलॉजी: सिंथेटिक बायोलॉजी में नए जैविक अंगों, उपकरणों और प्रणालियों को डिज़ाइन एवं निर्मित करने के साथ-साथ मौजूदा जैविक प्रणालियों को फिर से डिज़ाइन करना शामिल है। इसमें अक्सर डी.एन.ए. अनुक्रमों का संश्लेषण, मौजूदा जीन को संशोधित करना शामिल होता है।
  • वायरल वेक्टर: यह ऐसा संशोधित वायरस है जो विशिष्ट जीन को लक्षित कोशिकाओं में ले जा सकता है। आनुवंशिक विकारों के इलाज के लिये जीन थेरेपी में इसका उपयोग किया जाता है।
  • सेलेक्टेबल मार्कर और रिपोर्टर जीन: इन्हें आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों की पहचान और चयन में सहायता हेतु वांछित जीन के साथ जोड़ा जाता है। सेलेक्टेबल मार्कर विशिष्ट एंटीबायोटिक दवाओं या रसायनों के प्रति प्रतिरोध प्रदान करते हैं जबकि रिपोर्टर जीन सफल जीन स्थानांतरण को इंगित करने के लिये आसानी से पता लगाने योग्य प्रोटीन (जैसे, फ्लोरोसेंट प्रोटीन) का उत्पादन करते हैं।
  • एग्रोबैक्टीरियम-मीडिएटिड संशोधन: इस विधि में पौधों में आनुवंशिक पदार्थ को स्थानांतरित करने के लिये जीवाणु, एग्रोबैक्टीरियम टूमफेशियन्स की प्राकृतिक क्षमता का उपयोग किया जाता है। इसमें जीवाणु को वांछित जीन ले जाने हेतु तैयार किया जाता है और इससे जीन, पौधे के जीनोम में एकीकृत हो जाता है।
  • माइक्रोइंजेक्शन: इस तकनीक में विदेशी डी.एन.ए. को सीधे लक्ष्य कोशिका के केंद्रक में इंजेक्ट करने के लिये एक महीन सुई का उपयोग करना शामिल है। इसका उपयोग अक्सर पशु आनुवंशिक संशोधन में किया जाता है।
  • इलेक्ट्रोपोरेशन: इसके तहत कोशिकाओं को एक विद्युत क्षेत्र के संपर्क में लाया जाता है जिससे अस्थायी रूप से कोशिका झिल्ली के विरूपित होने से इसमें बाहरी डी.एन.ए. प्रवेश कर जाता है। 

जीन एडिटिंग के लाभ:

  • आनुवंशिक संशोधन में परिशुद्धता: जीन एडिटिंग से किसी जीव के डी.एन.ए. में सटीक परिवर्तन किया जा सकता है। यह परिशुद्धता सटीकता के साथ विशिष्ट जीन या आनुवंशिक अनुक्रम को लक्षित कर सकती है।
  • कृषि क्षेत्र में प्रगति: जीन एडिटिंग से फसलों और पशुधन की उत्पादकता को बढ़ावा दिया जा सकता है। जैसे कि बढ़ी हुई उपज के साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता या पोषण गुणवत्ता के बढ़ने से खाद्य सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का समाधान होगा।
  • रसायनों का कम उपयोग: कृषि में जीन एडिटिंग के माध्यम से विकसित आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों को कीटनाशकों एवं पोषक तत्त्वों की आवश्यकता कम हो सकती है, जिससे पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य दोनों को ही लाभ होगा।

आनुवंशिक रूप से संशोधित (GN) पौधे:

  • आनुवंशिक रूप से संशोधित पौधे वे पौधे होते हैं, जिनमें आनुवंशिक अभियांत्रिकी तकनीकों के माध्यम से उनके आनुवंशिक पदार्थों में जानबूझकर परिवर्तन किया गया है। ये संशोधन उन विशिष्ट लक्षणों या विशेषताओं के लिये किये जाते हैं जो पौधे के जीनोम में स्वाभाविक रूप से नहीं पाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिये:
    • Bt कपास: बैसिलस थुरिंजिएन्सिस (Bt) कपास को बैक्टीरियम बैसिलस थुरिंजिएन्सिस से एक प्रोटीन का उत्पादन करने के लिये विकसित किया गया है, जो कुछ कीड़ों के लिये विषैला होता है। यह बैक्टीरिया विशेष प्रोटीन का उत्सर्जन करता है, जिसे "क्राई प्रोटीन" कहा जाता है, जो कीड़ों के प्रति विषाक्तता रोकता है। यह गुण रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता को कम करता है और कपास की फसल को नुकसान से बचाने में सहायता करता है।
    • गोल्डन राइस: गोल्डन राइस को विटामिन A के अग्रदूत बीटा-कैरोटीन के उच्च स्तर का उत्पादन करने के लिये संशोधित किया गया है। इस संशोधन का उद्देश्य विटामिन A की कमी को दूर करना है, जो कई विकासशील देशों में एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता है।
    • सूखा-प्रतिरोधी फसलें: कुछ पौधों को ऐसे जीन के रूप में प्रस्तुत करके सूखे की स्थिति को बेहतर ढंग से सहन करने के लिये तैयार किया गया है, जो पौधे को निर्जलीकरण की स्थिति का सामना करने में सहायता करते हैं।
    • कीट-प्रतिरोधी बैंगन (Bt बैंगन): Bt कपास के समान, Bt बैंगन कुछ कीटों के लिये विषैला प्रोटीन उत्पन्न करता है। इस संशोधन से रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता कम हो जाती है, जिससे किसानों और पर्यावरण दोनों को लाभ होता है।
    • पपीता रिंगस्पॉट वायरस-प्रतिरोधी पपीता: पपीते के रिंगस्पॉट वायरस को रोकने के लिये हवाई पपीता की फसलों को आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया था, जिसने पहले हवाई द्वीप में पपीता उत्पादन को नष्ट कर दिया था।
    • फ्लेवर सेवर टमाटर: फ्लेवर सेवर टमाटर पहले आनुवंशिक रूप से संशोधित खाद्य पदार्थों में से एक था। जिसे नरमी और क्षय के लिये जीन के माध्यम से लंबी शेल्फ लाइफ के लिये विकसित किया गया था।
    • प्रतिरोधी कसावा: कसावा, जो विश्व के कई भागों में उत्पन्न होने वाली एक प्रमुख फसल है, को वायरल रोगों का प्रतिरोध करने के लिये संशोधित किया गया है जो पैदावार को काफी कम कर सकती है।
    • शीत सहन करने वाली स्ट्रॉबेरी: स्ट्रॉबेरी को शीत को सहन करने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है, जिससे शीत जलवायु में लंबे समय तक बढ़ते मौसम की अनुमति मिलती है।
    • सेब को भूरा होने से रोकना: सेब को काटने पर भूरा होने से बचाने के लिये इसे विकसित  किया गया है, जो भोजन की बर्बादी को कम करने और सेब के जीवन को बढ़ाने में सहायता कर सकता है।

आनुवंशिक रूप से संशोधित औषधियाँ: 

  • जी.एम. दवायें, जिन्हें बायोफार्मास्यूटिकल्स या बायोलॉजिकल दवाओं के रूप में भी जाना जाता है, आनुवंशिक इंजीनियरिंग तकनीक का उपयोग करके उत्पादित किये फार्मास्युटिकल उत्पाद हैं। ये दवायें बैक्टीरिया, यीस्ट या स्तनधारी कोशिकाओं जैसे जीवित जीवों से प्राप्त होती हैं, जिन्हें चिकित्सीय प्रोटीन या अन्य बायोएक्टिव अणुओं का उत्पादन करने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है।
    • इन्सुलिन: मधुमेह के इलाज के लिये इंसुलिन का उत्पादन करने के लिये पुनरावर्ती डी.एन.ए. प्रौद्योगिकी (रीकॉम्बिनेंट डी.एन.ए. तकनीक) का उपयोग किया गया है। मानव इंसुलिन जीन को बैक्टीरिया या यीस्ट कोशिकाओं में डाला जाता है, जो तब इंसुलिन का उत्पादन करते हैं जो प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले हार्मोन के समान होता है।
    • मानव वृद्धि हार्मोन (Human Growth Hormone):  आनुवंशिक रूप से संशोधित बैक्टीरिया या स्तनधारी कोशिकाओं का उपयोग सिंथेटिक मानव विकास हार्मोन का उत्पादन करने के लिये किया जाता है, जिसका उपयोग बच्चों में विकास विकारों और वयस्कों में हार्मोन की कमी के इलाज के लिये किया जाता है।
    • एरिथ्रोपोइटीन (EPO): ई.पी.ओ., एक हार्मोन है जो लाल रक्त कोशिकाओं (आर.बी.सी.) के उत्पादन को बढ़ाता है, आनुवंशिक रूप से संशोधित स्तनधारी कोशिकाओं का उपयोग करके उत्पादित किया जाता है। इसका उपयोग किडनी रोग और कीमोथेरेपी जैसी स्थितियों से जुड़े एनीमिया के इलाज के लिये किया जाता है।
    • मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़: ये आनुवंशिक रूप से इंजीनियर प्रोटीन का एक वर्ग है जिसका उपयोग कैंसर, स्व-प्रतिरक्षित विकार और सूजन संबंधी स्थितियों सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिये किया जाता है। मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का उत्पादन स्तनधारी कोशिकाओं को विशिष्ट एंटीबॉडीज़ का उत्पादन करने के लिये संशोधित करके किया जाता है जो रोग-संबंधी अणुओं को लक्षित करते हैं।
    • रक्त का थक्का जमाने वाले कारक: आनुवंशिक रूप से संशोधित कोशिकाओं का उपयोग हेमोफिलिया के उपचार के लिये फैक्टर VIII और फैक्टर IX जैसे रक्त के थक्के बनाने वाले कारकों का उत्पादन करने के लिये किया जाता है।
    • वैक्सीन: कुछ वैक्सीन आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों, जैसे कि यीस्ट या बैक्टीरिया का उपयोग करके एंटीजन को व्यक्त करने के लिये तैयार की जाती हैं जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को उत्तेजित करते हैं। उदाहरण के लिये, हेपेटाइटिस बी. का टीका आनुवंशिक रूप से संशोधित यीस्ट कोशिकाओं का उपयोग करके बनाया जाता है।
    • एंज़ाइम रिप्लेसमेंट थेरेपी: जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग उन एंज़ाइमों का उत्पादन करने के लिये किया जाता है जो कुछ आनुवंशिक विकारों में कम मात्र में या अनुपस्थित होते हैं। उदाहरण के लिये, एंज़ाइम रिप्लेसमेंट थेरेपी का उपयोग गौचर रोग और फैब्री रोग जैसी स्थितियों के इलाज के लिये किया जाता है।
    • कैंसर चिकित्सा: आनुवंशिक रूप से संशोधित टी कोशिकाओं (एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिका) को कुछ प्रकार के कैंसर के लिये इम्यूनोथेरेपी के रूप में विकसित किया जा रहा है। इन संशोधित कोशिकाओं का काइमेरिक एंटीज़न रिसेप्टर्स (CARs) को व्यक्त करने के लिये गहन अध्ययन किया गया है जो कैंसर कोशिकाओं को लक्षित करते हैं
    • रक्त का थक्का-विघटित करने वाले एजेंट: आनुवंशिक रूप से संशोधित बैक्टीरिया या यीस्ट का उपयोग थक्के को घोलने वाले एंज़ाइम, जैसे टिश्यू प्लास्मिनोज़ेन एक्टिवेटर (TPA) का उत्पादन करने के लिये किया जा सकता है, जिसका उपयोग कुछ प्रकार के स्ट्रोक और हृदयघात  के उपचार में किया जाता है।

आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव:

  • आनुवंशिक रूप से संशोधित (जी.एम.) जीव वे हैं जिन्हें जानबूझकर आनुवंशिक इंजीनियरिंग विधियों के माध्यम से संशोधित किया गया है, जिसका उद्देश्य उन विशेष लक्षणों या विशेषताओं को शामिल करना है जो जीवों के आनुवंशिक रूपांतरण में स्वाभाविक रूप से मौजूद नहीं हो सकते हैं।
    • ग्लोफिश: ग्लोफिश आनुवंशिक रूप से संशोधित जेब्राफिश है जिसे जेलीफिश और मूंगा से फ्लोरोसेंट प्रोटीन को व्यक्त करने के लिये विकसित किया गया है। इन मछलियों का उपयोग वैज्ञानिक अनुसंधान में, पालतू जानवरों के रूप में आनुवंशिक लक्षणों और पर्यावरण प्रदूषकों का अध्ययन करने के लिये किया जाता है।
    • एक्वाएडवांटेज सैल्मन: इन सैल्मन को तेज़ी से बढ़ने और बाज़ार के आकार तक तेज़ी से पहुँचने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। उनमें चिनूक सैल्मन और महासागरीय पाउटट के जीन होते हैं, जो उन्हें साल भर विकास हार्मोन का उत्पादन करने की अनुमति देते हैं।
    • पर्यावरण: एनविरोपिग को भी आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है ताकि उनके कचरे में फास्फोरस की मात्र को कम किया जा सके, जिससे पानी की गुणवत्ता और पर्यावरण  
    • पर सुअर पालन के प्रभाव को संभावित रूप से कम किया जा सकेगा।
    • नॉकआउट चूहे: चूहों को अक्सर विशिष्ट जीन को "नॉक आउट" या निष्क्रिय करने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित किया जाता है। यह शोधकर्ताओं को जीन फ़ंक्शन के प्रभावों का अध्ययन करने और मानव रोगों के लिए मॉडल विकसित करने की अनुमति देता है।
    • ट्रांसजेनिक बकरियाँ: इन बकरियों को उनके दूध में अधिक प्रोटीन उत्पन्न करने के लिये तैयार किया गया है जिसे निकालकर फार्मास्युटिकल उद्देश्यों के लिये उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, ट्रांसजेनिक बकरियाँ एक प्रोटीन एंटीथ्रोम्बिन का उत्पादन कर सकती हैं, जो रक्त के थक्के विकारों में उपयोगी होता है।14 सितंबर
    • आनुवंशिक रूप से संशोधित मच्छर: मच्छरों को मलेरिया और डेंगू बुखार जैसी बीमारियों को फैलाने की उनकी क्षमता को कम करने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। संशोधित मच्छरों को एक जीन ले जाने के लिये तैयार किया जा सकता है जो रोग पैदा करने वाले परजीवियों के विकास को रोकता है।
    • डॉली भेड़: डॉली दैहिक कोशिका परमाणु स्थानांतरण नामक तकनीक का उपयोग करके वयस्क दैहिक कोशिका से क्लोन किया गया पहला स्तनपायी था। जबकि क्लोनिंग एक पारंपरिक आनुवंशिक संशोधन नहीं है, इसमें एक अलग प्रक्रिया के माध्यम से किसी जीव की आनुवंशिक संरचना को बदलना शामिल है।
    • अंग प्रत्यारोपण हेतु आनुवंशिक रूप से संशोधित सूअर: सूअरों को उनके अंगों में मानव जीन को व्यक्त करने के लिये संशोधित किया गया है, जिसका उद्देश्य सुअर के अंगों को मनुष्यों में प्रत्यारोपण (ज़ेनोट्रांसप्लांटेशन) के लिये उपयुक्त बनाना है।
    • पंख विहीन मुर्गियाँ: आनुवंशिक रूप से संशोधित कुछ मुर्गियों को पंख कम रखने के लिये पाला गया है, जिससे प्रसंस्करण के दौरान उत्पादन की आवश्यकता कम हो सकती है।
    • मकड़ी रेशम उत्पादक बकरियाँ: कुछ बकरियों को उनके दूध में मकड़ी रेशम प्रोटीन का उत्पादन करने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। इन प्रोटीनों का उपयोग मज़बूत और हल्के पदार्थ बनाने के लिये किया जा सकता है।

भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों की स्थिति:

  • Bt कपास:
    • भारतीय किसानों ने वर्ष 2002-03 में कपास की कीट-प्रतिरोधी (आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्म) किस्म, Bt कपास की कृषि करना शुरू किया।
    • इसमें Bt जीन को मृदा के जीवाणु बैसिलस थुरिनजेनेसिस से प्राप्त किया जाता है।
    • कपास के एक सामान्य कीट, बॉलवॉर्म का मुकाबला करने के क्रम में कीटनाशक का उत्पादन करने हेतु इसे आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) किया गया है।
    • Bt कपास बॉलवर्म (एक कीट जो कपास के पौधों को नष्ट कर देता है) के प्रति प्रतिरोधी है।
    • वर्ष 2014 तक भारत में कपास की कृषि के अंतर्गत लगभग 96% क्षेत्र Bt कपास का था।
    • यह भारत को क्षेत्रफल के हिसाब से जी.एम. फसलों का चौथा सबसे बड़ा और उत्पादन के हिसाब से दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश बनाता है।
    • Bt कपास एकमात्र ट्रांसजेनिक फसल है जिसे भारत में व्यावसायिक खेती के लिए केंद्र द्वारा अनुमोदित किया गया है।
  • GM सरसों:
    • GEAC ने हाल ही में आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों की व्यावसायिक कृषि को मंजूरी दी है।
    • धारा मस्टर्ड हाइब्रिड (DMH-11) को दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा विकसित किया गया था।
    • इसमें मृदा के जीवाणु के जीन का उपयोग कर सरसों को आमतौर पर स्व-परागण करने में अनुकूल बनाने के साथ मौजूदा तरीकों की तुलना में संकरण के लिए बेहतर रूप से अनुकूलित किया गया है।
    • सितंबर 2017 में एक रिपोर्ट में कहा गया था कि DMH-11 के डेवलपर्स ने गैर-हाइब्रिड किस्मों की तुलना में इसकी 25-30% अधिक उपज वृद्धि का दावा किया था, जिसका कई गैर सरकारी संगठनों ने खंडन किया था।
    • GEAC ने “व्यावसायिक रिलीज़ से पहले मौजूदा ICAR दिशानिर्देशों और अन्य मौजूदा नियमों/विनियमों के अनुसार हाइब्रिड DMH-11 सरसों के बीज उत्पादन एवं परीक्षण को पर्यावरणीय मंजूरी दी है।
    • वर्ष 2007 में GEAC ने Bt बैंगन की वाणिज्यिक प्रदर्शन की सिफारिश की।
    • इसे महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्स कंपनी द्वारा कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, धारवाड़ और तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के सहयोग से विकसित किया गया था।
  • Bt बैंगन:
    • भारत ने वर्ष 2010 में Bt बैंगन की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया है।
    • इस पहल को वर्ष 2010 में अवरुद्ध कर दिया गया था।

भारत में नियामक ढाँचा:

  • संस्थाएँ:
    • आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों से संबंधित सभी गतिविधियाँ, संचालन एवं
    • उत्पाद पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय द्वारा विनियमित होते हैं।
    • यह पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत विनियमित है।
    • यह MoEFCC के तहत जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) GMO के आयात, निर्यात, परिवहन, निर्माण, उपयोग या बिक्री सहित सभी गतिविधियों की समीक्षा, निगरानी और अनुमोदन करने के लिये अधिकृत है।
    • खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) द्वारा GM खाद्य पदार्थों को भी नियमों के अधीन लाया गया है।
  • अधिनियम और नियम:
    • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 (EPA):
      • जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) भारत में जैव प्रौद्योगिकी के लिये प्रमुख नियामक प्राधिकरण के रूप में कार्य करती है। एक वैधानिक निकाय के रूप में कार्य करते हुए यह पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के दायरे में संचालित होती है तथा इसे पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार स्थापित किया गया है।
    • जैव विविधता अधिनियम, 2002:
      • इस अधिनियम के तहत, GMO अनुसंधान एवं वाणिज्यीकरण सहित भारतीय जैविक संसाधनों तक पहुँचने के इच्छुक किसी भी संगठन या व्यक्ति को पूर्व अनुमोदन प्राप्त करना और राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA) के साथ लाभ-साझाकरण समझौते में प्रवेश करना आवश्यक है।
      • इस अधिनियम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है, कि इन संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों को स्थानीय समुदायों और स्वदेशी लोगों के साथ उचित रूप से साझा किया जाए।
    • प्लांट क्वारंटाइन आदेश, 2003:
      • प्लांट क्वारंटाइन आदेश, 2003 में आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) पौधों की सामग्रियों सहित GMO के आयात और निर्यात को विनियमित करने के प्रावधान शामिल हैं।
    • खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006:

आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों से संबंधित कन्वेंशन:

  • जैविक विविधता पर कन्वेंशन (CBD):
    • यह जैव विविधता के संरक्षण के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि है।
    • उद्देश्य:
      • जैविक विविधता का संरक्षण,
      • जैविक विविधता के घटकों का सतत् उपयोग
      • आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों का उचित और न्यायसंगत विभाजन
    • सचिवालय: मॉन्ट्रियल, कनाडा।
      • यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तहत संचालित होता है।
  • जैव सुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल:
    • यह मुख्य रूप से जीवित संशोधित जीवों (LMO) के पारगमन गतिविधियों से संबंधित है, इसमें GMO का संचालन, परिवहन और उपयोग से संबंधित प्रावधान शामिल हैं, जिसके परिणामस्वरूप जानवर भी GMO में शामिल हो सकते हैं।
    • जैव सुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल, जैविक विविधता पर कन्वेंशन का पूरक है।
    • इसे वर्ष 2000 में स्वीकृति दी गई थी।
    • यह वर्ष 2003 में लागू हुआ।
  • नागोया प्रोटोकॉल:
    • आनुवंशिक संसाधनों तक पहुँच एवं उसका उपयोग आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (GMO) से होने वाले लाभों की निष्पक्ष और न्यायसंगत साझेदारी है।
    • इसे वर्ष 2010 में नागोया, जापान में COP10 में अपनाया गया था।
    • नागोया प्रोटोकॉल वर्ष 2014 में लागू हुआ।

GMO से जुड़ी चिंताएँ:

  • पर्यावरणीय प्रभाव: प्रमुख चिंताओं में से एक GMO द्वारा पर्यावरण पर अनपेक्षित और अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसी आशंका है कि आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें वाइल्ड रिलेटिव के साथ संकरण करके संभावित रूप से आक्रामक प्रजातियाँ बना सकती हैं या प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बदल सकती हैं।
  • जैव विविधता: GMO की शुरुआत पौधों और जानवरों की प्रजातियों की विविधता को संभावित रूप से कम करके जैव विविधता को प्रभावित कर सकती है। ऐसा तब हो सकता है जब GMO गैर-GMO प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं या यदि GMO के उपयोग से पारंपरिक, स्थानीय रूप से अनुकूलित फसल की किस्मों में कमी आती है।
  • अनपेक्षित परिणाम: आनुवंशिक संशोधनों के अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं जिनका पूर्वानुमान करना मुश्किल है, जैसे एलर्जी या विषाक्त पदार्थों का उत्पादन जो शुरू में परीक्षण के दौरान पहचाने नहीं गए थे।
  • स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: कुछ लोग मानव स्वास्थ्य पर GMO के सेवन के संभावित प्रभावों के बारे में चिंतित हैं। जबकि वर्तमान में बाज़ार में मौजूद GMO को कठोर सुरक्षा मूल्यांकन से गुजरना पड़ा है, कुछ लोगों को चिंता है कि दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों को पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है।
  • कॉर्पोरेट नियंत्रण और एकाधिकार: एक महत्त्वपूर्ण नैतिक चिंता कुछ बड़े निगमों के हाथों में खाद्य आपूर्ति पर शक्ति तथा नियंत्रण की एकाग्रता है। GMO के पेटेंट से कंपनियों को इन आनुवंशिक संशोधनों पर विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं, जिससे संभावित रूप से बीजों तक पहुँच सीमित हो जाती है एवं किसानों को कुछ आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता के लिये मजबूर होना पड़ता है।
  • लेबलिंग और उपभोक्ता की पसंद: कई लोगों का मानना है कि उन्हें यह जानने का अधिकार है कि जिन उत्पादों का वे उपभोग करते हैं उनमें GMO हैं या नहीं। कुछ क्षेत्रों में अनिवार्य लेबलिंग की कमी के कारण पारदर्शिता तथा उपभोक्ताओं की सूचित विकल्प चुनने की क्षमता को लेकर चिंताएँ पैदा हो गई हैं।
  • सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: GMO को अपनाने से विशेष रूप से विकासशील देशों में जटिल सामाजिक तथा आर्थिक प्रभाव पड़ सकते हैं। जबकि GMO में फसल की पैदावार बढ़ाने एवं खाद्य सुरक्षा में सुधार करने की क्षमता है, छोटे पैमाने के किसानों व पारंपरिक कृषि प्रथाओं पर प्रभाव के बारे में चिंताएँ मौजूद हैं।
  • पशुओं के साथ नैतिक व्यवहार: आनुवंशिक संशोधन केवल फसलों तक ही सीमित नहीं है, इसमें पशुधन उत्पादकता बढ़ाने जैसे विभिन्न उद्देश्यों को संशोधित करना भी शामिल है। साथ ही इन आनुवंशिक रूप से संशोधित पशुओं के कल्याण और उपचार के बारे में नैतिक चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • क्रॉस-संदूषण: गैर-GMO फसलों के साथ GMO का अनजाने में मिश्रण एक चिंता का विषय है, क्योंकि इससे जैविक या गैर-GMO फसलों में GMO की अप्रत्याशित उपस्थिति हो सकती है, जो GMO मुक्त उत्पादों की मांग करने वाले बाज़ारों को प्रभावित कर सकती है।
  • दीर्घकालिक प्रभाव: पारिस्थितिकी तंत्र, मानव स्वास्थ्य और समाज पर GMO के दीर्घकालिक प्रभावों का पूर्वानुमान लगाना चुनौतीपूर्ण है। जेनेटिक इंजीनियरिंग की तीव्र गति संभावित जोखिमों के बारे में हमारी समझ से आगे निकल सकती है।

आगे की राह:

  • व्यापक जोखिम मूल्यांकन: GMO को पर्यावरण या बाज़ार में जारी करने से पहले उनका कठोर और पारदर्शी जोखिम मूल्यांकन करना जारी रखें।  इसमें संभावित पर्यावरणीय प्रभावों, मानव स्वास्थ्य जोखिमों तथा अनपेक्षित परिणामों का मूल्यांकन शामिल है।
  • पारदर्शिता और लेबलिंग: उपभोक्ताओं को सूचित विकल्प चुनने की अनुमति देने के लिये GMO उत्पादों की स्पष्ट और अनिवार्य लेबलिंग लागू करें। यह पारदर्शिता को बढ़ावा देता है तथा उपभोक्ताओं के यह जानने के अधिकार का सम्मान करता है कि वे क्या खरीद रहे हैं एवं क्या उपभोग कर रहे हैं।
  • अनुसंधान और विकास: पर्यावरण, जैव विविधता, मानव स्वास्थ्य तथा सामाजिक प्रणालियों पर GMO के दीर्घकालिक प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के लिये आगे के शोध में निवेश करें। वैज्ञानिकों, नियामकों एवं हितधारकों से जुड़े सहयोगात्मक प्रयास यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि जोखिमों को पर्याप्त रूप से संबोधित किया जाए।
  • जैवनैतिकता और सार्वजनिक सहभागिता: GMO के विकास तथा तैनाती से संबंधित चर्चा में वैज्ञानिकों, नीतिशास्त्रियों, किसानों, उपभोक्ताओं एवं गैर सरकारी संगठनों सहित विभिन्न प्रकार के हितधारकों को शामिल करें। यह भागीदारी दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है कि विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार किया जाए व नैतिक चिंताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित किया जाए।
  • पर्यावरणीय निगरानी: GMO के जारी होने के बाद उनके पर्यावरण और स्वास्थ्य प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये चल रही निगरानी प्रणाली स्थापित करें। इससे किसी भी अप्रत्याशित समस्या का समय पर पता लगाने तथा उसका प्रबंधन करने में मदद मिलेगी।
  • सतत् कृषि: GMO विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करें जो सतत् कृषि पद्धतियों में योगदान करते हैं, जैसे कि सूखा या कीट प्रतिरोध में वृद्धि वाली फसलें, रासायनिक आदानों की कम आवश्यकता और बेहतर पोषण सामग्री।
  • जैव विविधता संरक्षण: GMO को इस तरह से डिज़ाइन करें कि जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव डालने की उनकी क्षमता कम-से-कम हो। इसमें रोकथाम के उपायों को लागू करना, उन लक्षणों का चयन करना जिनमें नुकसान पहुँचाने का जोखिम कम है और जीन संपादन तकनीकों का उपयोग करना शामिल हो सकता है जिनके लक्ष्य से कम प्रभाव होते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: GMO के विकास, परीक्षण और व्यापार के लिये अंतर्राष्ट्रीय समझौते एवं दिशानिर्देश स्थापित करना। इससे विभिन्न देशों में सुसंगत मानक और नियामक दृष्टिकोण सुनिश्चित होंगे तथा वैश्विक स्तर पर GMO के ज़िम्मेदार उपयोग की सुविधा मिलेगी।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न.  निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: 

  1. भावी माता-पिता के अंड या शुक्राणु उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं में आनुवंशिक परिवर्तन किये जा सकते हैं।  
  2. व्यक्ति का जीनोम जन्म से पूर्व प्रारंभिक भ्रूणीय अवस्था में संपादित किया जा सकता है।  
  3. मानव प्रेरित प्लुरिपोटेंट स्टेम कोशिकाओं को एक शूकर के भ्रूण में अंतर्वेशित किया जा सकता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 2
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न:  अनुप्रयुक्त जैव-प्रौद्योगिकी में शोध तथा विकास संबंधी उपलब्धियाँ क्या हैं? ये उपलब्धियाँ समाज के निर्धन वर्गों के उत्थान में किस प्रकार सहायक होंगी? (2021)

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