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सुशासन की अवधारणा: लोकतंत्रीकरण के यंत्र के रूप में

‛सुशासन, मानव अधिकारों के लिये सम्मान और कानून का शासन सुनिश्चित करता है तथा लोकतंत्र को मज़बूती, लोक प्रशासन में पारदर्शिता एवं सामर्थ्य को बढ़ावा देता है।’ -कोफ़ी अन्नान आज हम सब उस दौर के साक्षी हैं जब विश्व अधिकाधिक लोकतांत्रिक बनता जा रहा है। दुनियां भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और संस्थानों में क्रमिक विस्तार हो रहा है। यदि राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो विश्व समुदाय की एक बड़ी आबादी अब स्वतंत्र रूप से चुनी गई सरकारों के अंतर्गत शासित है। जैसा की हम जानते हैं लोकतंत्र एक बहुआयामी प्रक्रिया है और लोकतंत्र की संकल्पना का मूल भाव स्व-शासन से जुड़ा हुआ है। 21वीं सदी की वैश्वीकृत दुनियां लोकतांत्रिक लहर की गवाह बन रही है। शक्तियों का विकेंद्रीकरण हो रहा है और आज सभी क्षेत्रों में लोकतंत्रीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। लोकतंत्रीकरण की प्रकिया को विस्तार देने के लिए अनगिनत अवधारणाएं कार्यशील हैं। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण अवधारणा है- सुशासन। सुशासन की अवधारणा ने धरातल पर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

आज के दौर में लोकतंत्र के प्रभावी संचालन में सुशासन की अवधारणा एक यंत्र के रूप में कार्य कर रही है। इसलिए इस अवधारणा का मूल अर्थ, ऐतिहासिकता और भूमिका का परीक्षण करना समकालीन परिवेश में न सिर्फ जरूरी बल्कि रुचिकर भी है। भारतीय संदर्भ में तो यह और भी महत्वपूर्ण अवधारणा है क्योंकि विश्व के विशालतम लोकतंत्र को यह न सिर्फ आकार दे रही है बल्कि हम इस अवधारणा से जुड़े सरोकारों पर विमर्श और क्रियान्वयन के लिए वर्ष 2014 से प्रत्येक वर्ष 25 दिसंबर को ‛सुशासन दिवस’ के रूप में मनाते हैं।

सुशासन की अवधारणा नई नहीं है। गतिशीलता की वजह से सुशासन की अवधारणा लगातार लोकप्रिय होती जा रही है। अरस्तू कहता है, 'सरकार जीवन के लिए अस्तित्व में आई, किंतु यह अच्छे जीवन के लिए चलती आ रही है।' सुशासन की अवधारणा को अभिव्यक्त करता है। सुशासन की अवधारणा को लोकतंत्र, नागरिक समाज, जन भागीदारी, मानवाधिकार, सामाजिक विकास और स्थायित्व के साथ जोड़कर देखा जाता है। सुशासन का सामान्य अर्थ है - अच्छा शासन। लेकिन सुशासन की पाश्चात्य और भारतीय अवधारणा में अंतर है। पाश्चात्य जगत में सुशासन की आधुनिक अवधारणा का उद्भव मुख्य रुप से शीत युद्ध के बाद से होता है जो कि प्रशासन को प्रबंधन से जोड़ता है। इसके प्रमुख लक्ष्य प्रशासन में भागीदारी, पारदर्शिता, प्रतिस्पर्धा, प्रभावशीलता, कुशलता तथा जवाबदेही लाना है। जबकि सुशासन को लेकर भारतीय अवधारणा पाश्चात्य जगत से थोड़ा भिन्न है। भारत में सुशासन का संबंध सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय अर्थात सबका भला तथा सबकी खुशी से लिया जाता है। सुशासन का उद्देश्य समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति का कल्याण है।

भारतीय संदर्भ में अच्छे शासन को स्पष्ट करने के लिए हमें अच्छे शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। अच्छे शब्द में मूल्य निर्धारण अन्तर्निहित है, जैसे क्या अच्छा है और क्या बुरा, उचित - अनुचित तथा नैतिक - अनैतिक का भेद। अच्छे प्रशासन के संदर्भ में अच्छे का अर्थ उन लोगों द्वारा किए गए सही और नैतिक कार्य होते हैं

जो लोक-हित या लोग कल्याण के लिए सत्ता प्रयोग करते हैं। लोक-हित का अर्थ है-बहुत से लोगों के हित का योग। यदि हम भारतीय समाज व चिंतन का विश्लेषण करें तो प्राचीन काल से ही सुशासन की अवधारणा का परिचय मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर वर्तमान भारतीय संविधान में भी सुशासन की अवधारणा को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। चूंकि सुशासन की अवधारणा आम जन से जुड़ी हुई है इसलिए लोकतंत्रीकरण एवं सुशासन की अवधारणाएं एक दूसरे की पूरक हैं।

भगवद्गीता सुशासन की अवधारणा को कई प्रकार से संदर्भित करती है जिसकी आधुनिक संदर्भ में पुनः व्याख्या की जा सकती है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा के कार्यों में ‘लोगों के कल्याण’ को सर्वोपरि माना गया। महात्मा गांधी के चिंतन का मूल ‛सु-राज’ और ‛सर्वोदय’ है। जिसका अनिवार्य रूप से मतलब है ‘सुशासन’। विवेकानंद का ‛दरिद्रनारायण’ एवं दीनदयाल उपाध्याय का ‛अंत्योदय’ का दर्शन सुशासन की अवधारणा से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।

भारतीय संविधान सुशासन की अवधारणा के लिए एक मार्गदर्शक और जीवंत दस्तावेज है। भारतीय संविधान की ‛प्रस्तावना’ में वर्णित एक-एक शब्द सुशासन की अवधारणा को अभिव्यक्त करते हैं। भारतीय संविधान में उपबंधित ‛मूल अधिकार’ और ‛नीति-निर्देशक सिद्धांत’ सुशासन की अवधारणा के मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। जिनके माध्यम से भारत में लोक हित की अभिवृद्धि के लिए लगातार प्रयास किया जाता रहा है। भारतीय संविधान में शासन के महत्त्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है जो कि संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक गणराज्य पर आधारित है, साथ ही लोकतंत्र, कानून का शासन और लोगों के कल्याण के लिये प्रतिबद्ध है। सतत् विकास लक्ष्यों के तहत ‘लक्ष्य 16’ को सीधे तौर पर सुशासन से जुड़ा हुआ माना जा सकता है क्योंकि यह शासन, समावेशन, भागीदारी, अधिकारों एवं सुरक्षा में सुधार के लिये समर्पित है।

आजादी के बाद विभिन्न समितियों के माध्यम से सुशासन की स्थापना हेतु लगातार सिफारिश की जाती रही है तथा सुशासन की स्थापना हेतु विभिन्न संस्थाओं की स्थापना भी की गई है। स्वतंत्रता के बाद प्रशासनिक ढांचे में ढांचागत और व्यवहार संबंधी परिवर्तन लाने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं। ए.डी. गोरावाला ने 1951 की अपनी रिपोर्ट में कहा कि प्रजातांत्रिक सरकार की सफलता की पहली शर्त स्वच्छ, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन होता है। संथानम समिति(1964), प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग(1966), चुनाव सुधार हेतु गठित समितियां, स्थानीय स्वशासन से संबंधित समितियां, लोक सेवाओं में सुधार से संबंधित समितियां, संघ-राज्य संबंधों से संबंधित समितियां और उनकी सिफारिशें सुशासन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास रहे हैं। 1996 में मुख्य सचिवों के सम्मेलन, 1997 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में सुशासन की स्थापना हेतु विशेष चर्चाएं की गई। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग(2005) ने तो नागरिक केंद्रित शासन को ही ‛सुशासन का हृदय’ कहा है।

शीत युद्ध के काल में तीसरी दुनिया के देशों के विकास में सहयोग करना सुशासन की नई राजनीति का विषय रहा है। वर्ष 1992 में ‘शासन और विकास’ (Governance and Development) नामक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने सुशासन अर्थात् ‘गुड गवर्नेंस’ (Good Governance) की परिभाषा तय की। इसने सुशासन को ‘विकास के लिये देश के आर्थिक एवं सामाजिक संसाधनों के प्रबंधन में शक्ति का प्रयोग करने के तरीके’ के रूप में परिभाषित किया। सुशासन की 8 प्रमुख विशेषताएँ हैं। यह भागीदारी, आम सहमति, जवाबदेही, पारदर्शी, उत्तरदायी, प्रभावी एवं कुशल, न्यायसंगत और समावेशी होने के साथ-साथ ‘कानून के शासन’ का अनुसरण करता है। आज SMART(Simple,Moral,Accountable,Responsible, Transparent) शब्द का उपयोग भी सुशासन को परिभाषित करने के लिए किया जा रहा है।

मानव जीवन के विकास के साथ-साथ सुशासन की अवधारणा में भी क्रमशः परिवर्तन और विकास हुआ है। वर्तमान में भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण के प्रभाव के फलस्वरुप सुशासन की अवधारणा ने नया और व्यापक अर्थ ले लिया है। 2002 की ‛मानव विकास रिपोर्ट’ ने अच्छे प्रशासन या सुशासन के कुछ कारणों की पहचान की है जो कि सुशासन के लक्षणों का वर्णन करते हैं। समकालीन परिदृश्य में सुशासन की अवधारणा के लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण लोकतांत्रिक प्रशासन से मिलता जुलता इसका स्वरुप है। लोकतांत्रिक प्रशासन का मुख्य उद्देश्य लोगों के मानवीय अधिकारों की रक्षा, मौलिक स्वतंत्रता का सम्मान, आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण तथा जवाबदेह प्रशासन होता है। सुशासन के माध्यम से उपर्युक्त लोकतांत्रिक प्रशासन के उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता है।

अतः सुशासन एक व्यापक अवधारणा है जिसमें शामिल है आर्थिक उदारवाद, राजनीतिक बहुलतावाद, सामाजिक विकास, प्रशासनिक जवाबदेही और सार्वजनिक क्षेत्र का सुधार। सुशासन की यह बहुआयामी अवधारणा अपनी बहुआयामी स्वरूप में लोकतंत्रीकरण के यंत्र के रूप में कार्य कर रही है।

यदि हम सुशासन की अवधारणा के व्यावहारिक प्रयास की बात करें तो ‛सूचना का अधिकार’ एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ है। वैश्विक स्तर सूचना के अधिकार को एक नई पहचान तब मिली जब वर्ष 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (Universal Declaration of Human Rights) को अपनाया गया। इसके माध्यम से सभी को मीडिया या किसी अन्य माध्यम से सूचना मांगने एवं प्राप्त करने का अधिकार दिया गया। अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जैफरसन के अनुसार, “सूचना लोकतंत्र की मुद्रा होती है एवं किसी भी जीवंत सभ्य समाज के उद्भव और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।” भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत करने और शासन में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से भारतीय संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू किया।

भारत में मनरेगा, निःशुल्क शिक्षा का अधिकार, सिटिजन चार्टर, लोकपाल एवं लोकायुक्त की नियुक्ति सुशासन की स्थापना एवं लोकतंत्रीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण एवं प्रभावी कदम हैं।

ई-गवर्नेंस ने सुशासन की अवधारणा एवं लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने में प्रभावशाली भूमिका का निर्वहन किया है। ई-गवर्नेंस के माध्यम से सरकार तथा नागरिकों के बीच मौजूद दूरियां कम हुई हैं। ई- गवर्नेंस पारदर्शिता में सुधार, त्वरित सूचना प्रदान करने, प्रसार, प्रशासनिक दक्षता में सुधार और सार्वजनिक सेवाओं में मदद करता है। इंटरनेट, मोबाइल फोन और गांव-गांव, शहर-शहर में फैले सरकारी सेवा प्रदाताओं के जरिए लोग पहले की तुलना में ज्यादा आसानी से सरकारी सेवाओं का लाभ ले पा रहे हैं। इसके माध्यम से प्रक्रियाएं सरल हुई हैं तथा पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी है। ई-गवर्नेंस सुशासन का भविष्य है और यह भारत का रूपांतरण एक पारदर्शी एवं डिजिटल रूप से सशक्त देश के रूप में करने के विजन के अनुरूप भी है। डिजिटल इंडिया, आधार, डिजिलॉकर, माईगॉव, यूपीआई, डीबीटी, आरोग्य सेतु एप, एम परिवहन एप, पीएमओ इंडिया एप, उमंग एप, दीक्षा एप, निष्ठा, स्वयं कार्यक्रम, ई-पाठशाला, आयुष्मान भारत, ई- चालान, बॉयोमेट्रिक पहचान, जीपीएस आधारित सेवाएं, डाक से जुड़ी ‛दर्पण’ डिवाइस जैसी ई-गवर्नेंस से संबंधित पहल भारत सरकार की ‛मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ की अवधारणा की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास हैं।

जहां ई-गवर्नेंस से अनेक लाभ है वहीं अनेक मुद्दे और चुनौतियां भी हैं। ई-गवर्नेंस सेवाएं भारत में गति पकड़ रही हैं लेकिन डिजिटल साक्षरता, सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने और डिजिटल डिवाइड को कम करने की भी आवश्यकता है।

सुशासन की स्थापना हेतु बहुआयामी सुधार की भी जरूरत है। लोक सेवाएं सरकार के कामकाज के संचालन के लिए अति आवश्यक हैं। औपनिवेशिक काल से ही लोक सेवा को भारत में प्रशासन का लौह ढांचा(स्टील फ्रेम) माना जाता है। भौतिकवादी और मशीनीकरण के युग में औपनिवेशिक विरासत में प्राप्त लोक सेवाओं को और भी नागरिक केंद्रित तथा संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है।

सुशासन एवं लोकतंत्रीकरण को गति देने के लिए भारत में वर्ग, जाति, लिंग आधारित पारंपरिक असमानताओं पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यह पुरानी तथा गहरी बैठी असमानताएं भारतीय समाज तथा राजनीतिक पर भारी असर रखती हैं। पारदर्शी शासन व्यवस्था के माध्यम से उपरोक्त पारंपरिक भेदभाव को खत्म किया जा सकता है।

21 वीं शताब्दी में सुशासन की स्थापना में आतंकवाद एक बड़ी समस्या है। वर्तमान में आतंकवाद सबसे ज्वलंत अंतरराष्ट्रीय समस्या है। आतंकवाद न सिर्फ एक हिंसक घटना है बल्कि मानवाधिकार हनन का घृणतम रूप है जो न केवल सरकारी तंत्र को अव्यवस्थित करता है, बल्कि इसने संपूर्ण मानव जीवन को प्रभावित किया है।

अभिव्यक्ति के असंख्य माध्यमों के दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी अपना मूल्य है। यह लोकतांत्रिक राजनीति का एक महत्वपूर्ण हथियार भी है। जो लोगों की क्षमता और वास्तविक भागीदारी को मजबूत करता है। न ही आर्थिक समानता और न ही राजनीतिक लोकतंत्र अकेले सब नागरिकों को प्रतिष्ठा देने में सक्षम हैं। दोनों को एक साथ चलना होगा। वह उच्चतर संवृद्धि दर निरर्थक साबित होगी जो गरीबों की स्थिति को बेहतर नहीं बना सकती। भारतीय लोकतंत्र के परिपक्वता की ओर बढ़ने के फलस्वरुप पूंजीपतियों और शक्तिशाली लोगों द्वारा चुनाव के परिणामों को निर्धारित करने की उनकी ताकत पर उत्तरोत्तर लगाम लगाना भी बेहद जरूरी है। तभी सुशासन की स्थापना की जा सकती है और लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जा सकता है।

भारत में आर्थिक विकास के मुद्दों को लोकतंत्र तथा सामाजिक न्याय की मांगों के व्यापक संदर्भ में देखना होगा। ऊंची और टिकाऊ वृद्धि दर को हासिल करने में सफलता अंततः इस बात से ही आंकी जाएगी कि इस आर्थिक वृद्धि का लोगों के जीवन तथा उनकी स्वाधीनताओं पर क्या प्रभाव पड़ा है। तेज आर्थिक वृद्धि के दौर में कुछ लोग तेजी से विकास तो कर लेते हैं लेकिन अनेक लोग अभी भी अभाव तथा गरीबी का जीवन जी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके जीवन स्तर में कोई सुधार हुआ ही नहीं लेकिन अधिकांश लोगों के लिए सुधार की रफ्तार बहुत धीमी है और कुछ लोगों के जीवन में तो कोई फर्क ही नहीं पड़ा है। हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा बुनियादी सामाजिक सेवाओं से निरंतर वंचित रहा है। जीडीपी वृद्धि के मामले में हमने जरूर बढ़ोतरी हासिल की है लेकिन जीवन प्रत्याशा, साक्षरता, कुपोषण, मातृ मृत्यु दर जैसे संकेतकों के मामले में हमारी प्रगति बहुत संतोषजनक नहीं है। हमारे संघर्ष का एक बड़ा कारण महत्वपूर्ण विचारों को आगे बढ़ाने और उन्हें लागू न कर पाने की हमारी क्षमता में भी है। भारत में सरकार दो भूमिकाओं में विचित्र रूप से उलझी हुई है एक समान व सेवाएं मुहैया कराने की भूमिका में और दूसरे नियामक व निर्माता की भूमिका में। हमें कई द्वंदों से बाहर निकल लोकतंत्रीकरण को गति देना होगा।

21वीं सदी के संक्रमण की इस दौर में लोकतंत्रीकरण के यंत्र के रूप में सुशासन की अवधारणा एक प्रभावशाली, निष्पक्ष और गतिशील अवधारणा साबित हो सकती है। जरूरत इस बात की है कि सरकार नागरिक केंद्रित विचारों और कार्यक्रमों को संवेदनशील तरीके से लागू करें तथा आम जनता भी नागरिक बोध के साथ अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें।

विकास की विभिन्न अवधारणाओं के मध्य महात्मा गांधी का चिंतन न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए अनुकरणीय है। महात्मा गांधी का प्रसिद्ध जंतर न सिर्फ सरकारों बल्कि नागरिकों का भी मार्गदर्शन करता है और दुनियां को और भी लोकतांत्रिक तथा खूबसूरत बनाने का आश्वासन भी। जब वे कहते हैं- ‛ तुम्हें एक जंतर देता हूं। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहं तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ- जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा।’

  विमल कुमार  

विमल कुमार, राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अध्ययन-अध्यापन के साथ विमल विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन और व्याख्यान के लिए चर्चित हैं। इनकी अभिरुचियाँ पढ़ना, लिखना और यात्राएं करना है।

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