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दिल्ली-एनसीआर लिए ही पराली क्यों बन रही मुसीबत

जिन दो फसलों से दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों का पेट भरता है, उनमें गेहूं और चावल शामिल हैं। लेकिन, चावल यानी धान की इसी फसल का डंढल दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तर भारत के लोगों के लिए एक बड़ी समस्या बन गया है। धान की फसल कटने के साथ ही इस पूरे इलाके के ऊपर एक खतरनाक धुआं तैरने लगता है जो इस क्षेत्र के करोड़ों लोगों का दम घोंटता। इसके चलते बहुत सारे लोगों के लिए पराली शब्द ही खलनायक बन गया है। वे इसका इस्तेमाल बेहद नकारात्मक अर्थों में करते हैं। आइये जानते हैं कि पराली की समस्या आखिर है क्या। इसके चलते क्या-क्या परेशानियां पैदा होती हैं। इसकी रोकथाम के लिए उठाए जाने वाले कदमों का कितना असर पड़ा है। इस आलेख में हम इन्हीं बिन्दुओं पर विचार करेंगे।

धान के डंठल को आमतौर पर पराली या पुआल कहा जाता है। दुनिया के अन्य देशों की तरह ही भारत के भी तमाम हिस्सों में धान की खेती सदियों से की जाती रही है और यह भारत के प्रमुख खाद्यान्न में शामिल है। फसल कटने के बाद बालियों को धान से अलग कर लिया जाता रहा है और पौधे के डंठल यानी पराली को अन्य उपयोग में लाया जाता रहा है। यह हमेशा से ही कृषि अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा रहा है लेकिन हाल के दिनों में खासतौर पर पंजाब और हरियाणा में यह एक बड़ी समस्या का कारक बन गया है।

दरअसल, फसल चक्र में बदलाव, खेती में मशीनीकरण, इंसानी गतिविधियों और मौसम के कारकों के एक साथ मिल जाने के चलते अक्तूबर माह के मध्य से लेकर नवंबर महीने के अंत तक पराली का धुआं एक मुसीबत बन जाता है। पंजाब और हरियाणा में बड़े पैमाने पर धान की खेती की जाती है। इस फसल की कटाई अक्तूबर महीने से शुरू होती है जो कि नवंबर महीने तक चलती है। धान की कटाई के साथ ही किसान अपने खेतों को अगली फसल यानी गेहूं के लिए तैयार करता है। पंजाब और हरियाणा में धान की फसल की ज्यादातर कटाई मशीनों के जरिए होती है। इसके चलते धान के डंठल का कुछ हिस्सा नीचे बचा रह जाता है। अपने खेत को गेहूं के लिए जल्दी से जल्दी तैयार करने के क्रम में नीचे बचे रह गए डंठल को जलाने का एक उपक्रम रहा है। खेतों में लगाई जाने वाली यह आग संख्या में इतनी ज्यादा होती है कि दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे उत्तर भारत में इसका धुआं फैल जाता है और लोगों को प्रदूषित हवा में सांस लेना पड़ता है।

इसलिए पराली को जलाने से रोकने के लिए स्थानीय प्रशासन, राज्य सरकारों से लेकर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय तक अलग-अलग कदम उठाते रहे हैं। इसके चलते पिछले चार सालों में पराली जलाने की घटनाओं में पहले की तुलना में काफी कमी आई है। इसके बावजूद अभी तक लोगों को इससे पूरी तरह से छुटकारा नहीं मिला है। हालांकि, चार सालों में इनकी संख्या घटकर आधी रह गई है। केन्द्रीय वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के मुताबिक वर्ष 2020 की तुलना में इस वर्ष यानी 2023 में पराली जलाने की घटनाएं आधी रह गई हैं। ऐसे दिनों की संख्या भी पहले की तुलना में कम हुई है जब पराली जलाने की दो हजार से ज्यादा घटनाएं हुई हों। नीचे दिए गए आंकड़े केन्द्रीय वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के हैं---

साल---पराली जलाने की घटनाएं

2020---87 हजार 632
2021---78 हजार 550
2022–-53 हजार 792
2023---39 हजार 186

(नोटः यह संख्या पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और एनसीआर में शामिल उत्तर प्रदेश और राजस्थान के जिलों में जलाई जाने वाली पराली के हैं)

पंजाब में ऐसे दिनों की संख्या जब पराली जलाने की दो हजार से ज्यादा घटनाएं हुईं---
2020---16 दिन
2021---14 दिन
2022---10 दिन
2023---04 दिन

हरियाणा में ऐसे दिन जब पराली जलाने की 100 से ज्यादा घटनाएं हुईं---
2020---16 दिन
2021---32 दिन
2022---15 दिन
2023---03 दिन

पंजाब में किसी एक दिन पराली की सबसे ज्यादा हुई घटनाएं---
2020---5491 घटनाएं
2021---5327 घटनाएं
2022---3916 घटनाएं
2023---3230 घटनाएं

हरियाणा में किसी एक दिन पराली की सबसे ज्यादा घटनाएं---
2020--- 166 घटनाएं
2021---363 घटनाएं
2022---250 घटनाएं
2023---127 घटनाएं

कमी आई, पर बनी हुई है समस्याः

केन्द्रीय वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग द्वारा जारी उपरोक्त आंकड़े बताते हैं कि बीते चार सालों में पराली जलाने की प्रवृत्ति की रोकथाम के लिए किए गए प्रयासों को कुछ हद तक सफलता मिली है। इसके चलते पराली जलाने की घटनाओं में कमी तो आई है लेकिन समस्या अभी भी बनी हुई है। आंकड़ों के मुताबिक 15 अक्तूबर से 30 नवंबर के समय में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश और राजस्थान के एनसीआर जिलों में पराली जलाने की घटनाएं चार साल पहले के मुकाबले में आधी रह गई हैं। वर्ष 2020 में इस क्षेत्र में पराली जलाने की 87 हजार 632 घटनाएं सामने आई थीं। लेकिन, वर्ष 2023 में 39 हजार 186 घटनाएं ही सामने आई हैं। इसी प्रकार, एक ही दिन पराली जलाने की सबसे ज्यादा घटनाएं भी पहले की तुलना में कम हुई हैं। वर्ष 2020 में पंजाब में ऐसे सोलह दिन रहे थे जब पराली जलाने की दो हजार से ज्यादा घटनाएं हुई थीं। जबकि, इस वर्ष ऐसे दिनों की संख्या सिर्फ चार रही है।

बनी रही प्रदूषण में पराली की हिस्सेदारीः

आंकड़े यह भी बताते हैं कि पराली जलाने की घटनाओं में भले ही कमी आई हो लेकिन दिल्ली के प्रदूषण में अभी भी इनकी बड़ी हिस्सेदारी बनी हुई है। पृथ्वी मंत्रालय द्वारा तैयार डिसीजन सपोर्ट सिस्टम के मुताबिक इस सीजन में 03 नवंबर के दिन दिल्ली के प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा यानी 35 फीसदी तक रही। यह दिन भी दिल्ली के लिए इस सीजन का सबसे प्रदूषित दिन रहा था। इस दिन का वायु गुणवत्ता सूचकांक 468 के अंक पर यानी अत्यंत गंभीर श्रेणी में रहा था। हालांकि, पहले की तुलना में प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी में कमी आई है। क्योंकि, वर्ष 2020 की पांच नवंबर को दिल्ली के प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी 42 फीसदी तक रही थी।

छह राज्यों में रखा जाता है पराली जलने पर नजरः

यूं तो देश भर में ही पराली जलाने की घटनाओं पर निगाह रखी जाती है। लेकिन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों और अन्य डाटा का विश्लेषण करके मुख्य तौर पर छह राज्यों में पराली जलाने की घटनाओं को लेकर लगातार बुलेटिन जारी करता है। इसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश शामिल हैं। खास बात यह है कि हाल के दिनों में पंजाब और हरियाणा में जहां पराली जलाने की घटनाओं में पहले की तुलना में कमी आई है। वहीं, उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में खेत में ही धान की फसल के अवशेष को जलाने की प्रवृत्ति में बढ़ोतरी हुई है। इसके पीछे बढ़ते मशीनीकरण को कारण माना जा सकता है। यहां पर यह जान लेना भी उचित होगा कि धान की तरह ही गेंहू की फसल के बचे-खुचे अवशेष जलाने का भी प्रचलन कई प्रदेशों में है। लेकिन, मौसम के कारकों के चलते गेहूं के फसल अवशेष इस तरह से प्रदूषण की परेशानी पैदा नहीं करते हैं।

पहले पराली संपदा थी, अब परेशानी में बदल गईः

पराली या पुआल को हमेशा ही कृषि अर्थव्यवस्था का एक अंग माना जाता रहा है। आमतौर पर कृषि और पशुपालन जुड़े रहे हैं। सदियों से धान की बालियां अलग करने के बाद पराली को पशुओं के चारे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। जबकि, तमाम जगहों पर इसे बिछावन के गद्दे के तौर पर इस्तेमाल करने से लेकर सामानों को टूट-फूट से बचाने के लिए पैकेजिंग तक में इस्तेमाल किया जाता रहा है। हाथ से होने वाली कटाई में धान के पौधे को ज्यादा नीचे से काटा जाता था और कटाई के बाद खेत में हल चला दिया जाता था। कुछ ही दिनों में उसके अवशेष भी मिट्टी में क्षरित हो जाते थे और खेतों की उर्वरता में ही इजाफा करते थे। लेकिन, मशीनों के जरिए होने वाली कटाई में एक तो फसल ज्यादा ऊपर से काटी जाती है, दूसरे खेत को अगली फसल के लिए जल्द से जल्द तैयार करने का दबाव किसान पर रहता है। इसके चलते इन कृषि अवशेषों को खेत में ही क्षरित होने देने का इंतजार करने की बजाय बहुत सारे किसान इसमें आग लगा देते हैं। जिससे तात्कालिक तौर पर तो खेत अगली बुआई के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन, प्रदूषण जैसी तमाम किस्म की दूसरी परेशानी शुरू हो जाती है।

बायो डी-कंपोजर का प्रयोगः

धान की फसल के बचे-खुचे अवशेष को खेत में ही जल्द से जल्द गलाने के लिए हाल ही में दिल्ली सरकार द्वारा एक खास किस्म के बायो डी-कंपोजर का छिड़काव करने की शुरुआत की गई है। इसके लिए सरकार की ओर से किसानों से फार्म भी भराए जाते हैं और सरकार द्वारा नियुक्त अलग-अलग टीमें खेतों में जाकर इसका छिड़काव मुफ्त में करती हैं। सरकार का दावा है कि धान की फसल की कटाई के बाद इस घोल को खेत में छिड़कने से पराली तेजी से गलकर क्षरित हो जाती है और खेत अगली फसल के लिए जल्द ही तैयार हो जाते हैं। हालांकि, अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि पंजाब और हरियाणा के खेतों में इस घोल का इस्तेमाल कितना किया जाता है और इसे किस हद तक सफलता आगे जाकर मिलती है। कुल मिलाकर अभी इसे अन्य तमाम उपायों जैसा एक उपाय ही कहा जा सकता है।

मौसम के कारकों से घातक हो जाती है पराली की समस्याः

पराली से होने वाले प्रदूषण में मौसम के कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आमतौर पर अक्तूबर महीने तक देश भर से मानसून की वापसी हो जाती है। इसके बाद उत्तर भारत में हवा की दिशा मुख्यतौर पर उत्तरी पश्चिमी रहती है। इसी दौरान पंजाब और हरियाणा (यहां तक कि पंजाब के भी सीमावर्ती हिस्सों में) खेतों में पराली जलाने की शुरुआत होती है। यह उत्तरी पश्चिमी हवा अपने साथ खेतों में जलाए जाने वाले पराली के धुएं को भी लेकर दिल्ली-एनसीआर की तरफ आती है। यही वह समय होता है जब हवा की गति भी बेहद कम हो जाती है। इसके चलते एक बार आने वाला धुआं वातावरण में काफी देर तक बना रहता है। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में तमाम गतिविधियों के चलते यूं भी प्रदूषण के स्रोत ज्यादा हैं। ऐसे में पराली के धुएं के साथ मिलने से यह स्थिति ज्यादा घातक हो जाती है। मध्य प्रदेश में भी धान की पराली जलाने की घटनाएं कम नहीं हैं। लेकिन, हवा की दिशा अलग होने और भौगोलिक स्थिति अलग होने के चलते उसका ज्यादा असर नहीं देखने को मिलता है। इसी प्रकार, अप्रैल और मई के महीने में गेहूं की फसल कटाई भी होती है और बहुत जगहों पर इसके अवशेष भी खेत में ही जला दिए जाते हैं। लेकिन, उस समय हवा की रफ्तार तेज होने और दिन भर खिली धूप निकलने के चलते प्रदूषक कणों का बिखराव भी तेज रहता है। ये प्रदूषक कण वायु मंडल में ज्यादा देर तक नहीं टिकते हैं। इसलिए इनसे होने वाला प्रदूषण ज्यादा घातक साबित नहीं हो पाता है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हाल के दिनों में उठाए गए कदमों से पराली जलाने की घटनाओं में तो कमी आई है। लेकिन, अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। इसमें फसल चक्र में बदलाव, मशीनों का सूझ-बूझ के साथ उपयोग, पराली का प्रबंधन करने केे नवोन्मेषी तरीकों की खोज करने के साथ-साथ एक व्यापक जागरुकता की भी जरूरत है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि खेत में कृषि अवशेष जलाने से निकलने वाली राख खेत की उर्वरता में इजाफा करती है। हालांकि, विशेषज्ञों का विचार इससे उलट है। उनका मानना है कि इससे खेत की उर्वरता कम होती है। जबकि, खेतों में लगाई जाने वाली आग से खेत में ही रहने वाले तमाम तरह के कीट-पतंगे मर जाते हैं। इसमें लाभ दायक कीट भी शामिल होते हैं। ऐसे में आग लगाकर कृषि अवशेष को जलाना फायदेमंद विकल्प नहीं हैं। किसानों को किसी खलनायक की तरह प्रस्तुत करने की बजाय उन्हें पराली के प्रबंधन का ज्यादा से ज्यादा लाभ दिलाया जाना चाहिए। ताकि, पराली का प्रयोग उनकी अर्थव्यवस्था में इजाफा कर सके। ऐसा होने से इस पराली के ज्यादा से ज्यादा प्रयोग को बढ़ावा मिलेगा और किसान भी इसे जलाने की बजाय इससे होने वाले लाभों को लेना ज्यादा पसंद करेगा।

  कबीर संजय  

कबीर संजय पेशे से लेखक व पत्रकार हैं। ये तद्भव, पल प्रतिपल, नया ज्ञानोदय, लमही, कादंबिनी, कृति बहुमत, बनास जन, इतिहास बोध, गंगा-जमुना व दैनिक हिंदुस्तान जैसी पत्र-पत्रिकाओं में कहानी व कविताएँ लिखते रहे हैं। ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित इनकी लिखी कहानी ‘पत्थर के फूल’ का लखनऊ में मंचन हो चुका है। इनकी दो कहानियाँ 'संग्रह सुरखाब के पंख' और 'फेंगशुई' प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा वन्यजीवन पर इनकी दो किताबें 'चीताः भारतीय जंगलों का गुम शहजादा' और 'ओरांग उटानः अनाथ, बेघर और सेक्स गुलाम' प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके कहानी संग्रह 'सुरखाब के पंख' के लिए इन्हें प्रथम रवीन्द्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत किया जा चुका है। ये सोशल माध्यम फेसबुक पर वन्यजीवन और पर्यावरण पर लोकप्रिय पेज़ ‘जंगलकथा’ का संचालन भी करते हैं।

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