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झारखंड स्टेट पी.सी.एस.

  • 04 Oct 2025
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पलामू की चेरो तीरंदाज़ी

चर्चा में क्यों?

आगामी आर्चरी प्रीमियर लीग (APL) में झारखंड फ्रैंचाइज़ी का नाम चेरो आर्चर्स रखा गया है, जो पलामू की चेरो जनजाति के साहस और युद्ध परंपराओं की विरासत का सम्मान करता है।

  • 2 से 12 अक्तूबर, 2025 तक आयोजित होने वाले APL में पृथ्वीराज योद्धा, काकतीय नाइट्स, माइटी मराठा, राजपुताना रॉयल्स और चोला चीफ्स जैसी टीमें भाग लेंगी, जो आधुनिक खेलों को भारत की युद्ध परंपराओं के साथ मिश्रित रूप से प्रस्तुत करेंगी।

मुख्य बिंदु

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
    • पाल साम्राज्य (12वीं-13वीं शताब्दी) के पतन के बाद चेरो वर्तमान बिहार और झारखंड में प्रमुखता से उभरे। बाद में वे पलामू (पश्चिमी झारखंड) में बस गए, जहाँ उनके धनुष जनजातीय दृढ़ता का प्रतीक बन गए।
    • मुगल और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों के विरुद्ध चेरो ने अपने वन-छावनी क्षेत्रों से लगातार गुरिल्ला रणनीति का उपयोग किया।

  • प्रमुख हस्तियाँ एवं घटनाएँ:
    • साहबल राय (17वीं शताब्दी): जहाँगीर के समकालीन, जिन्होंने ग्रैंड ट्रंक रोड पर मुगल आपूर्ति लाइनों (1613) को बाधित किया। 
      • उन्हें पकड़कर सम्राट के सामने बाघ से लड़ने के लिये मज़बूर किया गया, जहाँ उनकी मृत्यु गई, जिससे उन्हें जनजातीय लोगों में सम्मान प्राप्त हुआ।
    • मेदिनी राय (चेरो नेपोलियन): सबसे प्रसिद्ध चेरो नेता; झारखंड में मेदिनीनगर का नाम उनके नाम पर रखा गया।
      • वर्ष 1660 में औरंगज़ेब के सेनापतियों जैसे दाउद खान और शाइस्ता खान के खिलाफ प्रतिशोध का नेतृत्व किया।
      • इतिहासकार डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर ने उनके साहसी तीरंदाज़ी की प्रशंसा की।
    • 18वीं शताब्दी प्रतिशोध: वर्ष 1730 में, चेरो तीरों ने पलामू में मुअज्ज़म खान के नेतृत्व में मुगल सेना को अस्थिर कर दिया।
      • बाद में फखरुद्दौला उनके साथ असहज राजस्व समझौते पर सहमत हुआ।
    • अंग्रेज़ों के विरुद्ध: वर्ष 1771 में चित्रजीत राय के चेरोस ने कैप्टन जैकब कैमक को धनुष और बाण से चुनौती दी।
      • वर्ष 1817-1857 के बीच छोटे-छोटे विद्रोहों के साथ उनका प्रतिशोध जारी रहा।
    • 1857 का विद्रोह: चेरो बंधुओं नीलांबर और पीतांबर ने संथालों के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के खिलाफ जनजातीय विद्रोह का नेतृत्व किया।
  • धनुष और बाण का सांस्कृतिक महत्त्व: 
    • चेरो जनजाति के लिये तीरंदाजी केवल कौशल नहीं बल्कि जीवन शैली थी, जिसमें पुरुष और महिलाएँ दोनों युद्ध और सांस्कृतिक प्रथाओं जैसे शिकार और नदी-गोताखोरी में भाग लेते थे। उनके सरल और मुड़े हुए धनुष शत्रु के विरुद्ध वीर प्रतिरोध का प्रतीक थे।


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