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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    निबंध विषय:

    प्रश्न 1. जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है, वे यह नहीं जानते कि धर्म क्या है। (1200 शब्द)
    प्रश्न 2. बुद्धिमत्ता सही मार्ग को जानना है; ईमानदारी उस मार्ग पर चलना है। (1200 शब्द)

    08 Nov, 2025 निबंध लेखन निबंध

    उत्तर :

    प्रश्न 1. जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है, वे यह नहीं जानते कि धर्म क्या है। (1200 शब्द)

    परिचय:

    23 सितंबर 1931 को लंदन के गिल्डहाउस चर्च में एक भाषण में महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक मिशन पर विचार करते हुये कहा:

    “हालाँकि सभी को बाहरी रूप से मेरा मिशन पॉलिटिकल लगता है, लेकिन इसकी जड़ें, यदि मुझे ऐसा कहने की अनुमति हो, तो आध्यात्मिक हैं। मैं मानता हूँ कि मेरी राजनीति नैतिकता, अध्यात्म और धर्म से अलग नहीं है। जो व्यक्ति सत्य और ईश्वर की खोज करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र को अछूता नहीं छोड़ सकता, और अपने अनुभवों से मैंने समझा है कि समाज की सेवा के लिये राजनीतिक जीवन में सक्रिय भागीदारी आवश्यक है।”

    “जो लोग कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं, वे धर्म के वास्तविक अर्थ को नहीं जानते।” गांधी के लिये धर्म केवल कर्मकाण्ड, संप्रदाय या व्यक्तिगत आस्था भर नहीं था, बल्कि एक नैतिक दिशा-निर्देशक था जो न्याय, नैतिक आचरण और लोककल्याण का मार्गदर्शन करता है। राजनीति उनके लिये उन मूल्यों– सत्य, अहिंसा और मानव सेवा को समाज में लागू करने का स्वाभाविक माध्यम बन गयी।

    मुख्य भाग :

    धर्म का व्यापक दार्शनिक अर्थ

    • धर्म का मतलब केवल आस्था या रीति-रिवाज़ नहीं है।
    • यह मूल्य, करुणा, नैतिक कर्त्तव्य, आचरण-संहिता, न्याय, निःस्वार्थता, सेवा और सामाजिक समरसता को भी समाहित करता है।
    • गांधी ने धर्म को ‘नैतिकता के व्यवहारिक रूप’ के रूप में देखा।
    • विवेकानंद ने धर्म को आध्यात्मिक मानववाद माना।
    • अंबेडकर ने धर्म को समानता और न्याय की सामाजिक शक्ति के रूप में समझा।

    राजनीति पर धर्म का ऐतिहासिक प्रभाव

    • प्राचीन भारत: अशोक का धम्म बौद्ध सिद्धांतों से प्रेरित था जिसने अहिंसा, करूणा, न्याय और लोककल्याण आधारित नीतियाँ विकसित कीं।
    • मध्यकालीन भारत: भक्ति और सूफी आंदोलन ने समावेशी तथा समानताधर्मी सामाजिक चेतना को बढ़ावा दिया।
    • भारत का स्वाधीनता संघर्ष: गांधी ने सत्य और अहिंसा का आधार धार्मिक नैतिकता से लिया।
    • वैश्विक उदाहरण:
      • मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने ईसाई नैतिक मूल्यों द्वारा नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किया।
      • नेल्सन मंडेला की राजनीति अफ्रीकी नैतिक दर्शन ‘उबंटू’ से प्रेरित थी।

    धर्म द्वारा राजनीति का मार्गदर्शन बनाम धर्म का राजनीतिकरण

    • धर्म का राजनीति पर प्रभाव का मतलब है:
      • सत्ता पर नैतिक संयम स्थापित करना
      • करुणा, न्याय और समानता को बढ़ावा देना
      • नेताओं को अंतःकरण और मूल्यों के माध्यम से मार्ग-दर्शन करना
      • लोककल्याण तथा सामाजिक सुधार का प्रेरक बनना
    • दूसरी ओर, धर्म के राजनीतिकरण का मतलब है:
      • वोटों के लिये धर्म का शोषण
      • भय, घृणा और ‘हम बनाम वो’ की मानसिकता पैदा करना
      • सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ को बढ़ावा देना।

    भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में धर्म का राजनीति को आकार देना

    • सकारात्मक योगदान:
      • Iसत्य, अहिंसा और सद्भाव जैसे मूल्य नेताओं तथा मतदाताओं को प्रभावित करते हैं।
      • दान, सेवा और समुदाय-समर्थन जैसी परंपराएँ कल्याणकारी नीतियों को आकार देती हैं।
      • अस्पृश्यता उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री-शिक्षा जैसे सामाजिक सुधार धार्मिक सुधार-आंदोलन से प्रेरित रहे हैं।
    • नकारात्मक पहलू (सावधान करने योग्य पक्ष):
      • सांप्रदायिक हिंसा, ध्रुवीकरण और वोट-बैंक की राजनीति
      • पहचान-आधारित राजनीति जो धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को कमज़ोर करती है
      • बंधुत्व के लिये खतरा, जो संविधान के मूल भावनाओं में से एक है।

    संवैधानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण

    • भारत का धर्मनिरपेक्ष मॉडल विशिष्ट है:
    • यह धर्म को परे नहीं रखता, बल्कि सभी पंथों का समान आदर सुनिश्चित करता है।
    • राज्य सैद्धांतिक दूरी बनाए रखता है— जब धर्म अधिकारों का हनन करे तो राज्य हस्तक्षेप करता है और जब धर्म लोककल्याण को बढ़ावा देता है तो राज्य समर्थन देता है।

    वैश्विक संदर्भ में नैतिक राजनीति

    • स्कैंडिनेवियाई देशों की राजनीति प्रोटेस्टेंट नैतिकता और समानता के मूल्यों को दर्शाती है।
    • जापान की राजनीतिक संस्कृति शिंतो-बौद्ध सद्भाव के मूल्यों से बनी है।
    • दलाई लामा आध्यात्मिकता और वैश्विक शांति के राजनीतिक पक्षधर हैं।

    समालोचनात्मक मूल्यांकन

    • धर्म नैतिक मार्गदर्शक भी बन सकता है और संघर्ष का कारण भी।
    • राजनीति में नैतिक आधार की आवश्यकता होती है, किंतु धार्मिक वर्चस्व से बचना अनिवार्य है।
    • धार्मिक मूल्यों से लोकतंत्र सुदृढ़ होता है, परंतु धर्म को विधि निर्धारित करने का अधिकार नहीं होना चाहिये।
    • अंतर-धार्मिक संवाद, संवैधानिक नैतिकता और संस्थागत सुदृढ़ता बढ़ाना आवश्यक है।
    • नेतृत्व मूल्य-आधारित होना चाहिये, पहचान-आधारित नहीं।
    • हेट स्पीच, भ्रामक सूचना और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर कठोर नियंत्रण होना चाहिये।

    निष्कर्ष:

    धर्म यदि नैतिक, मानवीय एवं आध्यात्मिक अर्थों में समझा जाये तो राजनीति से अलग नहीं हो सकता, क्योंकि वही राजनीतिक कार्रवाई को मूल्य, दिशा और नैतिक विवेक प्रदान करता है। धर्म-विहीन राजनीति केवल शक्ति-संघर्ष बन सकती है जबकि नैतिकता-आधारित राजनीति न्याय, समानता, लोककल्याण और सामाजिक समरसता की आधारशिला रखती है। गांधी ने स्पष्ट किया कि “समाज की सच्ची सेवा के लिये राजनीति का मार्गदर्शन आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों से होना चाहिये ताकि धर्म विभाजन का नहीं बल्कि नैतिक नेतृत्व का स्रोत बने।”


    प्रश्न 2. बुद्धिमत्ता सही मार्ग को जानना है; ईमानदारी उस मार्ग पर चलना है। (1200 शब्द)

    परिचय:

    वर्ष 1975 में युवा प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर कार्य करते हुए भारत की पहली महिला IPS ऑफिसर किरण बेदी को तिहाड़ जेल में सुधारों का प्रस्ताव रखने पर कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। हालाँकि वह जानती थीं कि कैदियों के लिये शिक्षा और वोकेशनल ट्रेनिंग जैसी मानवीय, सुधार-उन्मुख प्रैक्टिस शुरू करना सही कदम था, लेकिन उन्हें लागू करने का मतलब था गहन राजनीतिक दबाव, प्रशासनिक प्रतिरोध और सामाजिक संदेह का सामना करना।

    तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने इन सुधारों को लागू किया, जिससे यह सिद्ध होता है कि ‘बुद्धिमत्ता सही मार्ग की पहचान करना है, और ईमानदारी (सत्यनिष्ठा) उस मार्ग पर चलना है, भले ही वह मार्ग कठिन हो या नापसंद हो।’

    मुख भाग:

    बुद्धिमत्ता और सत्यनिष्ठा का संबंध

    • एक-दूसरे के पूरक गुण:
      • बुद्धिमत्ता: उचित तथा नैतिक निर्णय-पथ का अभिनिर्धारण करने में सहायता करती है।
      • सत्यनिष्ठा: यह सुनिश्चित करती है कि अभिनिर्धारित किया गया मार्ग व्यवहार में भी उतनी ही दृढ़ता से अपनाया जाये।
    • सत्यनिष्ठा के बिना बुद्धिमत्ता केवल सैद्धांतिक बनकर रह जाती है और बुद्धिमत्ता के बिना सत्यनिष्ठा गलत दिशा में प्रयुक्त हो सकती है।
    • दोनों मिलकर नैतिक निर्णय-निर्माण की आधारशिला बनाते हैं।

    प्रशासन एवं सार्वजनिक जीवन से उदाहरण

    • सरदार वल्लभभाई पटेल: रियासतों के एकीकरण में दूरदर्शी बुद्धिमत्ता तथा उसके दृढ़ क्रियान्वयन में सत्यनिष्ठा का प्रदर्शन।
    • किरण बेदी: प्रशासनिक प्रतिरोध के बावजूद कारागार सुधारों को लागू किया, जो दूरदर्शिता तथा सत्यनिष्ठा दोनों का उदाहरण है।
    • डॉ. भीमराव अंबेडकर: संविधान के माध्यम से सामाजिक न्याय की अनुशंसा की, जो उनकी दूरदर्शिता का द्योतक है और विपरीत परिस्थितियों में भी उसके निरंतर अनुसरण ने उनकी सत्यनिष्ठा को सिद्ध किया।
    • कॉर्पोरेट क्षेत्र: वित्तीय लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्तियों के बावजूद नैतिक व्यावसायिक आचरण को लागू करने वाले नेतृत्व इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

    शासन तथा नेतृत्व में महत्त्व

    • दूरदर्शीता/बुद्धिमत्ता दीर्घकालिक परिणामों को समझने तथा नैतिक दुविधाओं का मूल्यांकन करने में सहायक होती है।
    • सत्यनिष्ठा: सत्यनिष्ठा निर्णयों को ईमानदारी से लागू करने में सहायक होती है जिससे जन-विश्वास, उत्तरदायित्व और सामाजिक न्याय सुदृढ़ होता है।
    • नैतिक नेतृत्व से नीतियाँ अधिक प्रभावी बनती हैं, विधि का सम्मान बढ़ता है और समाज का समग्र कल्याण होता है।
    • इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति भ्रष्टाचार, अक्षमता तथा सार्वजनिक विश्वास के ह्रास की ओर ले जाती है।

    बुद्धिमत्ता और सत्यनिष्ठा के पालन में चुनौतियाँ

    • राजनीतिक तथा सामाजिक दबाव समझौतों के लिये विवश करते हैं।
    • अल्पकालिक लाभ तथा दीर्घकालिक नैतिक दायित्वों में अंतर्विरोध।
    • संस्थागत समर्थन का अभाव या प्रतिक्रिया का भय।
    • सही निर्णय पर अडिग रहने से प्रतिष्ठा, पद या सुरक्षा को जोखिम पहुँचने की संभावना।

    आगे की राह

    • शिक्षा: नेतृत्व एवं प्रशासनिक क्षेत्र में नैतिक तर्क, निर्णय-क्षमता तथा आचार-प्रशिक्षण को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
    • संस्थागत समर्थन: RTI, जवाबदेही प्रणालियाँ तथा लोकपाल जैसी व्यवस्थाएँ सत्यनिष्ठा को प्रोत्साहित करती हैं।
    • व्यक्तिगत विकास: नैतिक रूप से कार्य करने के लिये साहस, धैर्य तथा आत्म-अनुशासन का विकास आवश्यक है।
    • जन-जागरूकता: समाज द्वारा नैतिक कार्यों का समर्थन उनकी प्रभावशीलता और वैधता को बढ़ाता है।

    निष्कर्ष

    सत्यनिष्ठा के बिना बुद्धिमत्ता अधूरी है और बुद्धिमत्ता के बिना सत्यनिष्ठा दिशाहीन हो सकती है। वास्तविक नेतृत्व, प्रशासन और नैतिक आचरण तभी विकसित होते हैं जब व्यक्ति न केवल सही मार्ग की पहचान करता है, बल्कि सही मार्ग को अपनाने का साहस और अनुशासन भी रखता है।

    प्रशासनिक तथा सार्वजनिक जीवन में इससे नीतियाँ प्रभावी होती हैं, न्याय की प्रतिष्ठा होती है और जनता का विश्वास सुदृढ़ बनता है।

    जैसा कि जे. सी. वॉट्स ने कहा है: “चरित्र का वास्तविक रूप वही है जिसमें व्यक्ति वह सही कार्य करे जिसे कोई देख भी न रहा हो, परंतु अंतरात्मा देख रही हो।”

    अतः बुद्धिमत्ता और सत्यनिष्ठा का संयोग परिवर्तनकारी, नैतिक और आदर्श नेतृत्व की वास्तविक नींव है।

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