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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न.1. सत्य आपको मुक्त करेगा, परंतु पहले यह आपको दुखी करेगा। (1200 शब्द)

    प्रश्न.2. जीवन का उद्देश्य है अपनी क्षमता/प्रतिभा को पहचानना और जीवन का अर्थ है उसे समाज को अर्पित करना। (1200 शब्द)

    23 Aug, 2025 निबंध लेखन निबंध

    उत्तर :

    1. सत्य आपको मुक्त करेगा, परंतु पहले यह आपको दुखी करेगा। (1200 शब्द)

    परिचय:

    वर्ष 1994 में, दक्षिण अफ्रीका दशकों तक चले रंगभेद से लोकतंत्र की ओर संक्रमण कर रहा था। राष्ट्र को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया को दिशा देने के लिये नेल्सन मंडेला और डेसमंड टुटू ने Truth and Reconciliation Commission (सत्य एवं सुलह आयोग) की स्थापना की। इसके अंतर्गत पीड़ितों और अपराध करने वालों, दोनों को ही खुले तौर पर गवाही देने तथा हुए अत्याचारों को स्वीकार करने के लिये आमंत्रित किया गया।

    सुनवाई की प्रक्रिया अत्यंत पीड़ादायक रही, जहाँ पीड़ितों को अपने आघात को पुनः जीना पड़ा और दोषियों को सार्वजनिक लज्जा का सामना करना पड़ा। फिर भी, इस कटु सत्य का सामना करना ही क्षमा और सुलह की नींव बना। राष्ट्र ने यह समझ लिया कि घृणा और प्रतिशोध के चक्र से मुक्ति केवल सत्य की पीड़ा को सहन करने के बाद ही संभव है।

    यह भाव स्पष्ट करता है कि ‘सत्य एवं सुलह’ जैसी प्रक्रियाएँ केवल न्यायिक नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक उपचार के साधन होती हैं, जो लोकतांत्रिक राज्य-निर्माण एवं शांति-स्थापना के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

    मुख्य भाग:

    दार्शनिक आयाम

    • सुकरात: ने कहा कि “बिना जाँचे-परखे जीवन जीने योग्य नहीं है।” उन्होंने सत्य की खोज पर ज़ोर दिया, जिसकी कीमत उन्हें अपने प्राणों से चुकानी पड़ी, परंतु उनके विचारों ने मानवीय चिंतन को मुक्त किया।
    • नीत्शे ने ‘सत्य का बोझ’ की बात की, जिसे सहन करने के लिये साहस की आवश्यकता होती है, क्योंकि यह असुविधाजनक वास्तविकताओं से सामना कराता है।
    • गांधी का सत्य: गांधीजी के सत्य की अवधारणा में सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा पर आग्रह था। यह न केवल ब्रिटिश शासकों के लिये बल्कि कई बार उनके अनुयायियों के लिये भी कष्टकारी सिद्ध हुआ, किंतु अंततः इसी ने भारत को स्वतंत्रता दिलायी।

    मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिगत आयाम

    • व्यक्तिगत विकास के लिये कठोर सच्चाइयों का सामना करना आवश्यक है। जैसे नशामुक्ति की प्रक्रिया हो या परीक्षाओं में असफलता का अनुभव, आरंभ में यह पीड़ादायक होता है, किंतु जब व्यक्ति उसे स्वीकार कर लेता है तो वह आत्म-भ्रम और अस्वीकृति की स्थिति से मुक्त हो जाता है।
    • संज्ञानात्मक असंगति: संज्ञानात्मक असंगति की स्थिति में लोग उन सच्चाइयों को स्वीकार करने से कतराते हैं जो उनकी सुविधा और आदतों के विपरीत हों। किंतु जब इन सच्चाइयों को स्वीकार कर लिया जाता है तो मनोवैज्ञानिक शांति एवं आंतरिक स्थिरता प्राप्त होती है।
      • उदाहरण: आघात (दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार घोटाले) के शिकार लोगों को वास्तविकता को स्वीकार करने में कष्ट का सामना करना पड़ता है, फिर भी उपचार सत्य का सामना करने के बाद ही शुरू होता है।

    सामाजिक और नैतिक आयाम

    • सामाजिक सुधार: सामाजिक सुधार के लिये राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। आरंभ में उन्हें परंपरावादी समूहों के प्रतिरोध और असंतोष का सामना करना पड़ा, किंतु इसने समाज को एक दकियानूसी कुप्रथा से मुक्त किया।
    • मुखबिरी: व्हिसलब्लोइंग के उदाहरण में एडवर्ड स्नोडेन और जूलियन असांजे द्वारा असुविधाजनक सत्य को उजागर किया गया। इसने राष्ट्र-राज्यों के लिये कठिनाई और असंतोष उत्पन्न किया, किंतु वैश्विक स्तर पर स्वतंत्रता एवं निजता पर गहन विमर्श को आगे बढ़ाया।
    • न्याय: न्यायालय सत्य पर निर्भर करते हैं; यद्यपि अपराधियों और कभी-कभी पीड़ितों के लिये यह कष्टदायक होता है, फिर भी सत्य सुलह को संभव बनाता है। (दक्षिण अफ्रीका का सत्य और सुलह आयोग)।

    राजनीतिक आयाम

    • प्रचार के पीछे छिपने वाले नेता कुछ समय के लिये भ्रम में रह सकते हैं, लेकिन अंततः सत्य सामने आ ही जाता है (उदाहरण के लिये, वियतनाम युद्ध, वाटरगेट कांड)। नेता यदि प्रोपेगेंडा के सहारे वास्तविकताओं को छिपाते हैं तो यह भ्रम कुछ
      समय तक ही टिक सकता है, अंततः सत्य सामने आता ही है (जैसे: वियतनाम युद्ध, वाटरगेट कांड)।
    • भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम: इस अधिनियम ने शासन-प्रणाली की असुविधाजनक सच्चाइयों को उजागर किया। इसे प्रारंभ में प्रशासनिक तंत्र ने प्रतिरोध किया, परंतु इसने नागरिकों को सशक्तीकरण प्रदान किया।
      • उदाहरण: आपातकाल (1975-77)— अधिनायकवाद का सत्य कड़वा था, लेकिन इसे स्वीकार करने से लोकतंत्र की पुनर्स्थापना सुनिश्चित हुई।

    वैज्ञानिक और तकनीकी आयाम

    • वैज्ञानिक सत्यों को स्वीकार करना प्रारंभ में प्रायः असुविधा उत्पन्न करता है, जैसे डार्विन का सिद्धांत जिसने धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी। किंतु स्वीकृति के पश्चात् यही सत्य मानवता को अज्ञान से मुक्ति दिलाते हैं।
    • इसी प्रकार जलवायु परिवर्तन एक कटु सत्य है, जिसे विभिन्न स्वार्थी तत्त्व नकारने का प्रयास करते हैं, परंतु उसका स्वीकार करना मानव अस्तित्व की रक्षा हेतु अनिवार्य है।

    समकालीन वैश्विक आयाम

    • कोविड-19 महामारी: COVID-19 महामारी ने यह कठोर सत्य उजागर किया कि स्वास्थ्य प्रणाली कितनी अप्रस्तुत और दयनीय स्थिति में थी, परंतु इसी चुनौती का सामना करने से स्वास्थ्य सुधार और वैक्सीन विकास में तीव्रता आयी।
    • लैंगिक समानता: लैंगिक समानता के संदर्भ में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कटु सत्य असुविधा उत्पन्न करते हैं, किंतु सुधारात्मक उपाय सामाजिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
    • कृत्रिम बुद्धिमत्ता और प्रौद्योगिकी: नौकरी में व्यवधान का सच दर्दनाक है, लेकिन स्वीकार्यता पुनः कौशल विकास और नवाचार को प्रेरित करती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में रोज़गार के संकट की वास्तविकता पीड़ादायक है, परंतु इसे स्वीकार करने से पुनःकौशल निर्माण और नवाचार को गति मिलती है।

    विपरीत दृष्टिकोण

    • सत्य केवल नैतिक अवधारणा नहीं है, बल्कि सामाजिक स्थिरता से भी जुड़ा हुआ है। अनेक बार ऐतिहासिक सत्यों के राजनीतिकरण से सांप्रदायिक तनाव और अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है।
    • अतः सत्य को केवल उजागर करना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उसे विवेक, करुणा और उत्तरदायित्व के साथ प्रस्तुत करना आवश्यक है ताकि समाज में समरसता, पारदर्शिता एवं रचनात्मक संवाद को बढ़ावा मिले।

    निष्कर्ष:

    सत्य केवल एक दार्शनिक आदर्श नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता, न्याय और नैतिक प्रगति का आधार है। हालाँकि इसका प्रकटीकरण शुरू में असहजता एवं प्रतिरोध का कारण बन सकता है, लेकिन अंततः यह व्यक्तियों एवं समाजों दोनों को शुद्ध, मुक्त और सुदृढ़ बनाता है। एक राष्ट्र जो असहज सत्यों का सामना करने का साहस करता है, वह प्रामाणिक लोकतंत्र, नैतिक शासन और समावेशी विकास की दिशा में आगे बढ़ता है।

    ‘सत्यमेव जयते’ केवल एक आदर्श वाक्य नहीं है बल्कि भारतीय राष्ट्र की मूल आत्मा का दर्पण है। यह संदेश देता है कि वास्तविक स्वतंत्रता दुःख या चुनौतियों से पलायन में नहीं, बल्कि सत्य को स्वीकार करने और उसके अनुसार जीवन व शासन को संचालित करने में निहित है।


    2. जीवन का उद्देश्य है अपनी क्षमता/प्रतिभा को पहचानना और जीवन का अर्थ है उसे समाज को अर्पित करना। (1200 शब्द)

    परिचय:

    वर्ष 1970 के दशक में डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम SLV-3 प्रक्षेपण अभियान पर कार्य कर रहे थे। पहली बार प्रक्षेपण असफल रहा, जिससे पूरा देश निराश हुआ और स्वयं कलाम गहरे आघात में थे। किंतु उनके मार्गदर्शक सतीश धवन ने

    सार्वजनिक रूप से असफलता की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली और कलाम को सुरक्षित रखा। बाद में जब मिशन सफल हुआ तो धवन ने पूरा श्रेय कलाम को दिया। इस घटना ने कलाम में न केवल वैज्ञानिक उत्कृष्टता प्राप्त करने की प्रेरणा जगायी

    बल्कि निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा में समर्पित करने का दृढ़ संकल्प भी जगाया। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा केवल मिसाइलों और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी तक सीमित नहीं रही, बल्कि वे ‘जनता के राष्ट्रपति’ के रूप में भी उभरे तथा लाखों युवाओं को प्रेरित किया।

    यह कथन इस विचार को अभिव्यक्त करता है कि जीवन का उद्देश्य अपनी प्रतिभा या क्षमता को पहचानने में निहित है, जैसे: डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के लिये उनकी वैज्ञानिक दक्षता। परंतु जीवन का वास्तविक अर्थ तब प्रकट होता है जब उस प्रतिभा का निःस्वार्थ उपयोग समाज को सशक्त करने तथा व्यापक कल्याण में योगदान करने के लिये किया जाये। पाब्लो पिकासो के शब्दों में, “जीवन का अर्थ है अपनी प्रतिभा को खोजना और जीवन का उद्देश्य है उसे समाज को अर्पित कर देना।”

    मुख्य भाग:

    दार्शनिक आयाम

    • यूनानी दर्शन: अरस्तू का यूडेमोनिया (सद्गुणों के माध्यम से समृद्धि) का विचार।
    • भारतीय दर्शन: भगवद् गीता में धर्म और निष्काम कर्म की अवधारणा – जीवन का सच्चा अर्थ निस्वार्थ सेवा में निहित है।
    • अस्तित्ववादी दृष्टिकोण: विक्टर फ्रैंकल — उद्देश्य और दूसरों की सेवा के माध्यम से अर्थ खोजना।
    • गाँधी: “स्वयं को खोजने का सबसे अच्छा तरीका है दूसरों की सेवा में खुद को खो देना।”

    आध्यात्मिक और धार्मिक आयाम

    • ईसाई धर्म: प्रतिभाओं का दृष्टांत - प्रतिभाओं का उपयोग दूसरों की सेवा में किया जाना चाहिये।
    • बौद्ध धर्म: करुणा को जीवन का मूल उद्देश्य और मुक्ति के लिये एक आवश्यक गुण माना जाता है।
    • हिंदू धर्म: सेवा और लोकसंग्रह (सभी का कल्याण)।
    • भारत में सूफी और भक्ति परंपराएँ: प्रेम और भक्ति को जीवन का अर्थ मानते हैं।

    मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

    • मास्लो की आवश्यकताओं का पदानुक्रम: आत्म-साक्षात्कार अपने उपहार की खोज है; आत्म-उत्कर्ष उसे दान करना है।
    • सकारात्मक मनोविज्ञान: व्यक्तिगत शक्तियाँ (रचनात्मकता, सहानुभूति, नेतृत्व) तभी सार्थक होती हैं जब उन्हें साझा किया जाता है।
    • नेतृत्व में भावनात्मक बुद्धिमत्ता: व्यक्तिगत प्रतिभाओं को समुदाय के कल्याण के लिये दिशा प्रदान करना।

    समाजशास्त्रीय और नैतिक आयाम

    • समाज तब फलता-फूलता है जब व्यक्ति अपनी अनूठी क्षमताओं का योगदान देते हैं।
    • सामाजिक अनुबंध सिद्धांत: व्यक्ति स्वयं का एक अंश समुदाय के प्रति समर्पित करते हैं।
    • सद्गुण नैतिकता: चरित्र का निर्माण तब होता है जब प्रतिभाओं का उपयोग सामूहिक भलाई के लिये किया जाता है।
    • उबुंटू दर्शन (अफ्रीका): “मैं हूँ क्योंकि हम हैं।”

    ऐतिहासिक और समकालीन चित्रण

    • महात्मा गांधी: उन्होंने सत्य और अहिंसा में अपना उपहार पाया; इसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के रूप में दान किया।
    • बी. आर. अंबेडकर: उनकी बुद्धि ही उनका उपहार थी; उन्होंने इसे संविधान निर्माण के माध्यम से दान किया।
    • स्टीव जॉब्स: नवाचार का उपहार, इसे वैश्विक समाज के लिये प्रौद्योगिकी में परिवर्तन करके दान किया।
    • साधारण नागरिक: कोविड-19 के दौरान शिक्षक, नर्स, स्वयंसेवक– देने के अर्थ को साकार करते हैं।

    समकालीन प्रासंगिकता

    • उपभोक्तावाद और व्यक्तिवाद के युग में, सामाजिक साझेदारी के बिना व्यक्तिगत प्रतिभाओं की खोज शून्यता की ओर ले जाती है।
    • ज्ञान अर्थव्यवस्था: नवाचार तभी सार्थक होता है जब वह सुलभ हो (ओपन-सोर्स आंदोलन)।
    • जलवायु परिवर्तन: संवहनीयता पृथ्वी को वापस करने की मांग करती है।
    • वैश्वीकरण: परस्पर जुड़े विश्व को सीमाओं से परे प्रतिभाओं को साझा करने की आवश्यकता है।

    प्रति-दृष्टिकोण और संतुलन

    • कुछ लोग तर्क देते हैं कि जीवन का उद्देश्य व्यक्तिगत खुशी है, सामाजिक जिम्मेदारी नहीं।
    • लेकिन साझेदारी के बिना, व्यक्तिगत खुशी अधूरी है– यह स्वार्थ सुखवाद बन जाती है।
    • सच्ची संतुष्टि आत्म-देखभाल और आत्म-दान के बीच संतुलन में निहित है।

    आगे की राह

    • शिक्षा को छात्रों को उनकी अनूठी प्रतिभाओं को खोजने में सहायता करनी चाहिये।
    • सामाजिक संस्थाओं को सेवा और सामुदायिक जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करना चाहिये।
    • स्वयंसेवा, सामाजिक उद्यमिता और परोपकार को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू किया जाना चाहिये।
    • सार्वजनिक जीवन में सहानुभूति, नैतिकता और करुणा का विकास किया जाना चाहिये।

    निष्कर्ष:

    जीवन का उद्देश्य किसी की प्रतिभा की खोज में नहीं, बल्कि उस प्रतिभा को व्यापक हित के लिये साझा करने में निहित है। जैसा कि टैगोर ने कहा था, “मैं सोया और स्वप्न देखा कि जीवन आनंद है। मैं जागा और देखा कि जीवन सेवा है। मैंने कर्म किया और देखा कि सेवा ही आनंद है।” जब प्रतिभाओं को करुणा के साथ जोड़ दिया जाता है, तो वे न्याय, सद्भाव और सामूहिक प्रगति के साधन बन जाती हैं। मानवता अलग-अलग उपलब्धियों से नहीं, बल्कि साझा योगदान से आगे बढ़ती है।

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