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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न . संघवाद और संसदीय अनुशासन को बनाए रखने में राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में भारत के उपराष्ट्रपति की भूमिका का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)

    06 May, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने दृष्टिकोण का दृष्टिकोण:

    • संघवाद और संसदीय अनुशासन पर ध्यान केंद्रित करते हुए, राज्य सभा के पदेन सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका का संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि उपराष्ट्रपति किस प्रकार संघीय सिद्धांतों का समर्थन करते हैं तथा संसदीय कार्यवाही में सदाचार सुनिश्चित करते हैं।
    • उचित निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    भारत का उपराष्ट्रपति देश में दूसरा सबसे बड़ा संवैधानिक पद हैं, जो राज्यसभा के पदेन सभापति भी होते हैं (अनुच्छेद 64)। इस संदर्भ में, उपराष्ट्रपति संघवाद को बनाए रखने और संसदीय अनुशासन सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

    मुख्य भाग:

    संघवाद को बनाए रखने में राज्य सभा के पदेन सभापति की भूमिका:

    • राज्य हितों का प्रतिनिधित्व: उपराष्ट्रपति, जो राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं, चर्चा के माध्यम से यह सुनिश्चित करते हैं कि केंद्रीय हित राज्य हितों पर हावी न हों। विशेष रूप से कराधान (GST) और संसाधनों के वितरण जैसे मुद्दों पर वे संघीय संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं।
    • निर्णायक मत: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 100 के तहत राज्य सभा के सभापति को निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया है।
      • यह शक्ति यह सुनिश्चित करती है कि निर्णय बिना किसी गतिरोध के कुशलतापूर्वक लिये जाएँ, केंद्रीय प्रभुत्व को रोका जाए तथा विधायी प्रक्रिया में राज्य की स्वायत्तता को संरक्षित किया जाए।
    • विशेष शक्तियों का प्रयोग: राज्य सभा के पास राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाना (अनुच्छेद 249) या अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन करने (अनुच्छेद 312) जैसी कुछ संघीय शक्तियाँ हैं।
      • अध्यक्ष, पीठासीन अधिकारी के रूप में, प्रक्रियागत तटस्थता के साथ इन प्रावधानों के अंतर्गत प्रस्तावों को सुगम बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • संघीय चिंताओं को संबोधित करना: अध्यक्ष के रूप में अपनी भूमिका में, उपराष्ट्रपति प्रमुख संघीय मुद्दों, जैसे कि अंतर-राज्य परिषद, अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन), और राज्य की स्वायत्तता को प्रभावित करने वाले निर्णयों पर बहस में मध्यस्थता करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

    संसदीय अनुशासन बनाए रखने में पदेन सभापति की भूमिका:

    • सदन में व्यवस्था बनाए रखना: राज्य सभा में प्रक्रिया तथा कार्य संचालन के नियम 256 के अंतर्गत, सभापति किसी सदस्य, जिसका आचरण कुशलता पूर्वक नही है या उसने सभापति के प्राधिकार की अवहेलना की है, को शेष सत्र के लिये निलंबित कर सकता हैं।
    • अवरोधवाद को रोकना: राज्यसभा को भूमि अधिग्रहण विधेयक और GST जैसे मामलों में अवरोधवाद के लिये आलोचना का सामना करना पड़ा है। ऐसे में, अध्यक्ष की निष्पक्ष और संतुलित भूमिका रचनात्मक बहस को प्रोत्साहित करने और विधायी गतिरोध को रोकने के लिये आवश्यक है।
    • अयोग्यता से संबंधित शक्ति: संविधान का अनुच्छेद 103 अध्यक्ष को 10वीं अनुसूची (दल-बदल विरोधी कानून) के तहत सदस्यों की अयोग्यता पर निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है।
      • इस पद पर सभापति की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, ताकि राज्यसभा की अखंडता को बनाए रखा जा सके तथा यह सुनिश्चित किया जा सके कि अपने राजनीतिक दल से अलग होने वाले सदस्यों को विधि के अनुसार अयोग्य घोषित किया जाए।
    • समितियों को संदर्भित करना और विचार-विमर्श करना: हाल के वर्षों में राज्यसभा की भूमिका में कमी (वर्ष 2014-2021 तक 74%, यहाँ तक कि वर्ष 2018 में 40% तक कम) देखने को मिली है, अध्यक्ष विधेयकों को गहन विश्लेषण के लिये संसदीय समितियों को संदर्भित करने को प्रोत्साहित कर सकते हैं तथा जल्दबाजी में कानून बनाने से बच सकते हैं।

    निष्कर्ष:

    जैसा कि सरकारिया और पुँछी आयोगों ने जोर दिया है, कि राज्य सभा संघीय संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्यसभा विचार-विमर्श, क्षेत्रीय समावेशन और संवैधानिक निगरानी का एक मंच बनी रहे, जो एक संघीय लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं।

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