- फ़िल्टर करें :
- भूगोल
- इतिहास
- संस्कृति
- भारतीय समाज
- कर्रेंट अफेयर्स
- डाटा इंटरप्रिटेशन
-
प्रश्न :
प्रश्न .भक्ति साहित्य ने भारतीय संस्कृति को विकसित करने में किस प्रकार योगदान दिया तथा विभिन्न क्षेत्रों में इसकी अभिव्यक्ति की प्रकृति क्या थी?(250 शब्द)
05 May, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भक्ति आंदोलन और उसकी साहित्यिक परंपरा का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
- इसकी प्रकृति पर बल देते हुए भारतीय संस्कृति, भाषा, सामाजिक सुधार, कला रूपों और धार्मिक सद्भाव पर इसके प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भक्ति आंदोलन, जो दक्षिण भारत में (7वीं-12वीं शताब्दी के दौरान) विकसित हुआ और बाद में पूरे उपमहाद्वीप में इसका विस्तार हुआ, ने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक बदलाव को जन्म दिया, जिसमें कर्मकांड की तुलना में व्यक्तिगत भक्ति पर अधिक बल दिया गया। भक्ति साहित्य ने भारतीय संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया, भक्ति के माध्यम से क्षेत्रों को एकजुट किया और स्थानीय परंपराओं को विविध रूपों में दर्शाया।
भक्ति साहित्य ने भारतीय संस्कृति को आकार दिया:
- स्थानीय भाषाएँ और साहित्य: भक्ति रस के कवियों ने संस्कृत के अभिजात्यवाद को चुनौती देने के लिये तमिल (अलवर), मराठी (तुकाराम), हिंदी (तुलसीदास), कन्नड़ (बसवन्ना) और असमिया (शंकरदेव) जैसी क्षेत्रीय भाषाओं को चुना।
- इससे न केवल धार्मिक विमर्श का लोकतंत्रीकरण हुआ, बल्कि क्षेत्रीय साहित्यिक सिद्धांतों और भविष्य के राष्ट्रवादी स्थानीय भाषा आंदोलनों की नींव भी रखी गई।
- सांस्कृतिक अंतरंगता: दोहा (कबीर), अभंग (तुकाराम), कीर्तन (चैतन्य महाप्रभु) और पद (मीराबाई) जैसे भक्ति संगीत रूपों को जन्म दिया, जो मौखिक परंपराओं, लोक मुहावरों एवं स्थानीय संगीत शैलियों के साथ प्रतिध्वनित हुए।
- कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत (कर्नाटक में त्यागराज) जैसे शास्त्रीय नृत्य एवं संगीत परंपराओं से प्रेरित हुए।
- सामाजिक रूढ़िवादिता का उन्मूलन: जीवंत उदाहरणों और शिक्षाओं के माध्यम से, रविदास (जाति से दलित) जैसे भक्ति संतों ने जातिगत कठोरता को चुनौती दी।
- उनकी रचनाएँ केवल असमानता की निंदा नहीं थीं, बल्कि उन्होंने यह स्थापित किया कि सच्चा धार्मिक या आध्यात्मिक अधिकार जाति या वंश से नहीं, बल्कि 'भाव' यानी भक्ति से उत्पन्न होता है।
- अक्कमहादेवी और मीराबाई जैसी महिला संतों ने पुरुष-प्रधान सामाजिक नियमों (पितृसत्तात्मक मानदंडों) से परे जाकर अपनी भक्ति को व्यक्त किया।
- अंतर-धार्मिक संवाद और बहुलवाद: कबीर की निर्गुण भक्ति ने मूर्ति पूजा और अनुष्ठानों को अस्वीकार कर दिया, जबकि इस्लामी एकेश्वरवाद को प्रतिध्वनित किया।
- फिर भी किसी भी परंपरा को पूरी तरह अपनाए बिना, उन्होंने एक संश्लेषित आध्यात्मिक शब्दावली गढ़ी, जो बढ़ते धार्मिक ध्रुवीकरण के बीच हिंदुओं और मुसलमानों दोनों से संगत थी।
- सूफी परंपराओं के साथ साझा मूल्य, सहिष्णुता और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दिया गया।
विभिन्न क्षेत्रों में भक्ति अभिव्यक्ति की प्रकृति:
क्षेत्र
प्रमुख विशेषताएँ
प्रमुख संत
दक्षिण भारत
प्रारंभिक उत्पत्ति (6वीं-9वीं शताब्दी), विष्णु और शिव की भक्ति की प्रधानता
अलवार और नयनार
महाराष्ट्र
वारकरी परंपरा, विट्ठल पूजा, अभंगों (भक्ति कविता) के प्रयोग पर केंद्रित है।
संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर
उत्तर भारत
निर्गुण (निराकार) और सगुण (आकृति सहित) परंपराएँ, राम और कृष्ण भक्ति पर बल।
कबीर, तुलसीदास, सूरदास
कर्नाटक
लिंगायत/वीरशैव आंदोलन, जातिवाद और कर्मकांड की सख्त अस्वीकृति।
बसवन्ना, अक्कमहादेवी
बंगाल और ओडिशा
कृष्ण के प्रति भाव-भक्ति पर बल देने से स्थानीय वैष्णव धर्म प्रभावित हुआ।
चैतन्य महाप्रभु, जयदेव
निष्कर्ष
भक्ति साहित्य ने भारतीय संस्कृति को गहराई से आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है— जहाँ आध्यात्मिकता, सामाजिक जीवन के साथ एकीकृत हुई, कला का संबंध साहित्य से जुड़ा और व्यक्ति की अनुभूति सामूहिक चेतना में समाहित हुई। इसकी क्षेत्रीय विविधता ने एक अधिक समावेशी और मानवीय भारतीय समाज की नींव रखी, जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Print