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प्रश्न :
प्रश्न. परीक्षण कीजिये कि राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 ने भाषाई एवं क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति में किस प्रकार योगदान किया, साथ ही राष्ट्रीय एकीकरण और प्रशासनिक दक्षता पर इसके प्रभाव की भी चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
22 Apr, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के परिणामस्वरूप भाषाई और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के ऐतिहासिक संदर्भ का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि अधिनियम ने भाषाई मांगों, इसके प्रशासनिक प्रभाव और राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने में किस प्रकार भूमिका निभाई।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
फज़ल अली आयोग की सिफारिशों पर अधिनियमित राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 स्वतंत्रता के बाद के भारत में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी, जिसने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समायोजित करने, प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने और राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने के लिये मुख्य रूप से भाषाई आधार पर राज्य की सीमाओं को पुनर्गठित किया।
मुख्य भाग:
भाषाई और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को सुनिश्चित करना:
- भाषाई राज्यों का निर्माण: यह अधिनियम एक ऐसा मंच प्रदान करता है जहाँ एक समान भाषा साझा करने वाले लोग सामूहिक रूप से स्वयं पर शासन कर सकते हैं, जिससे एकता, पहचान और अपनेपन की भावना बढ़ेगी।
- वर्ष 1953 में आंध्र प्रदेश को तेलुगु भाषी राज्य के रूप में गठित करके एक मिसाल कायम की गई तथा इसी अधिनियम के तहत भाषा के आधार पर कर्नाटक, गुजरात आदि राज्यों का गठन किया गया।
- आत्मनिर्णय और प्रतिनिधित्व: इस अधिनियम ने भाषाई समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक शक्तियाँ प्रदान कीं।
- उदाहरण के लिये, केरल के निर्माण से त्रावणकोर-कोचीन के मलयालम भाषी क्षेत्र और मद्रास के कुछ हिस्से एकीकृत हो गए, जिससे मलयाली समुदाय को एक ही प्रशासनिक इकाई मिल गई।
- सांस्कृतिक और भाषाई सद्भाव: इस अधिनियम ने भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण करके सांस्कृतिक और भाषाई सद्भाव को बढ़ावा दिया (जैसे: मराठी भाषियों के लिये महाराष्ट्र और गुजराती भाषियों के लिये गुजरात) तथा प्रशासनिक संरचनाओं को स्थानीय पहचान के साथ संरेखित किया।
- इससे भाषाई समूहों के बीच तनाव कम हुआ तथा अधिक समावेशी शासन को बढ़ावा मिला।
राष्ट्रीय एकीकरण और प्रशासनिक दक्षता पर SRA, 1956 का प्रभाव:
- संतुलित क्षेत्रीय समायोजन: पुनर्गठन से तमिलनाडु व केरल जैसे विविध भाषाई और क्षेत्रीय समूहों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में एकीकृत करने में सहायता मिली, जिससे राजनीतिक स्थिरता को बढ़ावा मिला।
- हालाँकि, इसने सभी क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूरी तरह से पूर्ति नहीं की, जैसा कि बाद में तेलंगाना और बोडोलैंड जैसे पृथक् राज्यों की मांगों में देखा गया।
- एकता और उप-राष्ट्रवाद: इस अधिनियम ने समावेशिता को बढ़ावा दिया और संघीय संरचना के भीतर क्षेत्रीय पहचान को पनपने की अनुमति देकर भारत के बहुलवादी चरित्र को सुदृढ़ किया।
- इसने पहचान आधारित राजनीति और क्षेत्रवाद को भी बढ़ावा दिया, जो DMK, शिवसेना और TDP जैसी पार्टियों के उदय में स्पष्ट है।
- उप-राष्ट्रवाद के उदय ने कभी-कभी क्षेत्रीय निष्ठाओं (गोरखालैंड और बोडोलैंड के लिये चल रहे आंदोलन) को गति देकर राष्ट्रीय पहचान को कमज़ोर कर दिया है।
- स्थानीयकृत शासन: भाषाई रूप से सुसंगत राज्यों के गठन से अधिक स्थानीयकृत और उत्तरदायी शासन संभव हुआ, क्योंकि प्रशासन जनसंख्या की सांस्कृतिक और भाषाई वास्तविकताओं के साथ बेहतर रूप से संरेखित था।
- हालाँकि, कई नवगठित या कम संसाधन वाले राज्य अभी भी बुनियादी अवसंरचना और वित्तीय सीमितताओं से जूझ रहे हैं, जिससे उनकी कार्यकुशलता कम हो रही है।
- प्रशासनिक संरेखण: पुनर्गठन से स्थानीय सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के साथ प्रशासनिक संरेखण में सुधार हुआ तथा स्वामित्व एवं भागीदारी की भावना को बढ़ावा मिला।
- हालाँकि, भाषाई सीमाओं ने संसाधनों और प्रशासनिक नियंत्रण (तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी जल विवाद) को लेकर अंतर-राज्यीय विवादों को बढ़ावा दिया है।
निष्कर्ष:
भारत में राज्यों का पुनर्गठन, संवैधानिक संरचना के भीतर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समायोजित करने के लिये महत्त्वपूर्ण था। इसने संघवाद को सुदृढ़ किया और भारत के विविध भाषाई परिदृश्य के बीच एकता बनाए रखने में योगदान दिया। हालाँकि, चुनौतियाँ समावेशी शासन और राष्ट्रीय एकीकरण सुनिश्चित करने के लिये संवैधानिकता, संघीय सद्भाव एवं राजनीतिक स्थिरता पर आधारित संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता को उजागर करती हैं।
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