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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन की बढ़ती आवृत्ति हेतु उत्तरदायी कारकों एवं उनके प्रभावों पर चर्चा कीजिये। इस बढ़ती समस्या को दूर करने हेतु स्थायी शमन रणनीतियों का सुझाव दीजिये। (250 शब्द)

    13 Sep, 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 3 आपदा प्रबंधन

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन को परिभाषित करते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन के कारणों और उनके प्रभावों पर चर्चा कीजिये।
    • इस संदर्भ में कुछ स्थायी शमन रणनीतियों का सुझाव दीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भूस्खलन का आशय गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के फलस्वरूप मृदा, चट्टान या मलबे के ढेर का नीचे की ओर खिसकना है। यह प्रक्रिया हिमालय क्षेत्र में सामान्य है, क्योंकि यह क्षेत्र भौगोलिक रूप से युवा, टेक्टोनिक रूप से सक्रिय और जलवायवीय रूप से विविध है। हिमालय में भूस्खलन की बढ़ती आवृत्ति में योगदान देने वाले कारकों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है: प्राकृतिक और मानवजनित।

    मुख्य भाग:

    हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन के कुछ कारण:

    • संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र: चट्टानों के विरूपण और चट्टानों के पुनः निर्माण जैसी कई प्रक्रियाओं से जुड़ी टेक्टोनिक या नव-टेक्टोनिक गतिविधियों के साथ अपरदन, अपक्षय एवं वर्षा जैसी सतही प्रक्रियाएँ पारिस्थितिकी तंत्र को स्वाभाविक रूप से संवेदनशील बनाती हैं।
      • भूकंप: हिमालय क्षेत्र में यूरेशियन प्लेट और भारतीय प्लेट के अभिसरण से भूमिगत तनाव पैदा होता है जो भूकंप के रूप में सामने आता है, जिससे फ्रैक्चर होने से पहाड़ की सतह कमज़ोर हो जाती है। इससे ढलान के साथ चट्टानों के खिसकने की संभावना बढ़ जाती है।
        • मलबे के प्रवाह और भूमिगत जल से इसको और भी बढ़ावा मिल सकता है।
    • जलवायु प्रेरित घटनाएँ: जलवायु-प्रेरित घटनाएँ जैसे ठंड और भारी वर्षा के कारण हिमस्खलन, भूस्खलन, मलबा प्रवाह होने से अचानक बाढ़ आती है। इससे पर्वतीय संरचना की अनिश्चितता को बढ़ावा मिलता है। मानवजनित गतिविधियों से हिमालय क्षेत्र पर और अधिक दबाव पड़ता है।
      • जलवायु परिवर्तन का ग्लेशियरों, नदी प्रणालियों, भू-आकृति विज्ञान एवं जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप पर्वतीय राज्यों में लोगों की असुरक्षा बढ़ जाती है।
        • भूमि क्षरण से समस्या को और भी बढ़ावा मिलता है।
    • भू-वैज्ञानिक संरचना: हिमालय की कुछ चट्टानें चूना पत्थर से बनी हैं, जो अन्य प्रकार की चट्टानों की तुलना में जल और भूस्खलन के प्रति अधिक प्रवण होती हैं क्योंकि यह अम्लीय वर्षा के जल या भूजल के साथ घुल सकती हैं। इससे गुफाएँ, सिंकहोल और अन्य कार्स्ट विशेषताएँ देखी जाती है जिससे ढलानों की स्थिरता कमज़ोर होती है।
    • पश्चिमी विक्षोभ और मानसून: पश्चिमी विक्षोभ एक कम दबाव प्रणाली है, जो भूमध्य सागर से उत्पन्न होता है, इसके कारण भारत में दक्षिण पश्चिम ग्रीष्मकालीन मानसून के कारण जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में अत्यधिक और केंद्रित वर्षा होने के साथ उत्तराखंड में भूस्खलन तथा अचानक बाढ़ की समस्या बढ़ती है।
    • मानवजनित कारक: सड़क निर्माण, सुरंग निर्माण, खनन, उत्खनन, वनों की कटाई, शहरीकरण, कृषि, अत्यधिक पर्यटन और जलविद्युत परियोजनाओं जैसी मानवीय गतिविधियाँ भी हिमालय में भूस्खलन का कारण बन सकती हैं। ये गतिविधियाँ वनस्पति आवरण को कम करने, जल निकासी पैटर्न में बदलाव लाने, मृदा के कटाव को तीव्र करने, चट्टानों को नष्ट करने तथा कंपन पैदा करने के साथ ढलानों के प्राकृतिक संतुलन को अस्थिर करने ले लिये उत्तरदायी हैं।
      • ये गतिविधियाँ मानव बस्तियों और बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचाने के साथ भूस्खलन के जोखिम को भी बढ़ा सकती हैं।
      • वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी भी इस क्षेत्र में होने वाले अनियोजित विकास और विनिर्माण गतिविधियों का परिणाम थी, जिससे प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली में परिवर्तन होने के साथ मृदा का कटाव बढ़ गया था।

    शमन रणनीति के रूप में किये जा सकने वाले कुछ उपाय:

    • विनिर्माण को अनुकूलित बनाना: इन चुनौतियों से निपटने के लिये प्राकृतिक प्रक्रियाओं, पर्यावरणीय क्षरण और मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाले भू-खतरों के खिलाफ अनुकूलन विकसित करना महत्त्वपूर्ण है। इसमें वास्तविक समय की निगरानी और डेटा संग्रह के लिये सेंसर नेटवर्क लागू करना भी शामिल है।
    • प्रभावी निगरानी के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना:
      • वेब-आधारित सेंसर जैसे रेन गेज, पीज़ोमीटर, इनक्लिनोमीटर, एक्सटेन्सोमीटर, InSAR (इंटरफेरोमेट्रिक सिंथेटिक एपर्चर रडार) संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी में मदद कर सकते हैं। इसके साथ ही घनी आबादी क्षेत्रों में इस प्रकार की निगरानी व्यवस्थाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
      • एकीकृत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (EWS): AI और मशीन लर्निंग (ML) एल्गोरिदम का उपयोग करके एकीकृत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (EWS) का विकास महत्त्वपूर्ण है। ऐसी प्रणाली समुदायों को आसन्न खतरों के बारे में भविष्यवाणी करने और सचेत करने में सहायता कर सकती है, जिससे उन्हें निवारक उपाय करने के लिये बहुमूल्य समय मिल सकता है।
    • हिमालयी राज्य परिषद का गठन: एक ऐसे सहयोगी मंच की स्थापना करना, जो हिमालयी क्षेत्र के विभिन्न राज्यों के आपदा प्रबंधन अधिकारियों को एक साथ लाता है, एक महत्त्वपूर्ण रणनीतिक कदम है। यह केंद्रीकृत परिषद इस क्षेत्र से संबंधित विभिन्न समस्याओं का प्रभावी ढंग से आकलन और प्रबंधन करने के लिये ज्ञान, अनुभव एवं संसाधनों को साझा करने में सक्षम बनायेगा।
    • सतत् सामाजिक आर्थिक विकास: इस क्षेत्र में मौजूद मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों जैसे ग्लेशियर, झरने, खनिज, ऊर्जा स्रोत और औषधीय पौधों के महत्त्व को पहचानना, स्थायी सामाजिक आर्थिक विकास का आधार है। हालाँकि दीर्घकालिक व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिये संसाधन दोहन और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
    • पर्यावरण संबंधी विचार: पहाड़ी इलाकों की अनूठी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए उचित नगर नियोजन महत्त्वपूर्ण है। अत्यधिक विनिर्माण को प्रतिबंधित करना, प्रभावी जल निकासी प्रणालियों को लागू करना और रिटेनिंग दीवारों का उपयोग करना पर्यावरण के प्रति अनुकूल विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
      • रिटेनिंग दीवारें अपेक्षाकृत कठोर दीवारें होती हैं जिनका उपयोग मृदा को पार्श्व रूप से सहारा देने के लिये किया जाता है ताकि इसे दोनों तरफ विभिन्न स्तरों पर बनाए रखा जा सके।
    • सतत् पर्यटन: सतत् पर्यटन पर्यावरण जागरूकता, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और जैव विविधता तथा पारिस्थितिकी तंत्र के लिये सम्मान को बढ़ावा देकर भूस्खलन को कम कर सकता है।
      • यह स्थानीय समुदायों के लिये आर्थिक प्रोत्साहन और सामाजिक लाभ भी प्रदान कर सकता है, जिससे प्राकृतिक खतरों से निपटने के क्रम में इनकी अनुकूलन क्षमता को बढ़ावा मिल सकता है।
    • सरकारी परियोजनाओं का सतत् निर्माण: हिमालयी कक्षेत्रों में तार्किक विकास सुनिश्चित करने के लिये, पर्यावरण मूल्यांकन करना, पर्यावरण-अनुकूल प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना, स्थानीय समुदायों को शामिल करना, हितधारकों की जागरूकता बढ़ाना तथा सरकारी क्षेत्रों के बीच समन्वय को बढ़ावा देना शामिल है।

    निष्कर्ष:

    हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन की बढ़ती आवृत्ति विभिन्न कारणों और प्रभावों के साथ एक जटिल मुद्दा है। इस संदर्भ में सतत् शमन रणनीतियों में एक समग्र दृष्टिकोण शामिल होना चाहिये जो पर्यावरण तथा इस संवेदनशील क्षेत्र में रहने वाले लोगों की भलाई हेतु भू-वैज्ञानिक समझ, जलवायु अनुकूलन, भूमि-उपयोग योजना और सामुदायिक भागीदारी के समन्वय पर आधारित हो।

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