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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ग्लेशियरों, प्रवाल भित्तियों, आर्द्रभूमियों और वनों जैसी महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं में होने वाले परिवर्तनों के कारणों और प्रभावों का मूल्यांकन कीजिये। हम इनका संरक्षण और पुनर्विकास किस प्रकार कर सकते हैं? (250 शब्द)

    06 Mar, 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं के महत्त्व को संक्षेप में समझाते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये।
    • भौगोलिक विशेषताओं में परिवर्तन के कारणों और प्रभावों पर चर्चा करते हुए इनके संरक्षण और पुनर्विकास की रणनीतियों का सुझाव दीजिये।
    • तदनुसार निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताएँ जैसे ग्लेशियर, प्रवाल भित्तियाँ, आर्द्रभूमि और वन पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के महत्त्वपूर्ण घटक हैं। पिछले कुछ दशकों में विभिन्न प्राकृतिक और मानव-प्रेरित कारकों से इन विशेषताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।
    • इन परिवर्तनों का पर्यावरण, जैव विविधता और मानव समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इसलिये प्रभावी संरक्षण और पुनर्विकास रणनीतियों को विकसित करने में इन परिवर्तनों के कारणों और प्रभावों को समझना महत्त्वपूर्ण है।

    मुख्य भाग:

    • महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं में परिवर्तन के कारण और प्रभाव:
      • ग्लेशियर: ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं।
        • ग्लेशियर के पिघलने का प्राथमिक कारण ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ता तापमान है। जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं इससे समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होती है जिसका तटीय समुदायों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है।
        • इसके अलावा ग्लेशियरों के पिघलने से मीठे जल की उपलब्धता कम हो जाती है जिससे कृषि, जलविद्युत और अन्य क्षेत्र प्रभावित होते हैं।
      • प्रवाल भित्तियाँ: प्रवाल भित्तियाँ पृथ्वी पर सबसे अधिक जैव विविधता वाले पारिस्थितिकी तंत्रों में शामिल हैं लेकिन ये सबसे अधिक खतरे में भी हैं।
        • अत्यधिक मछली पकड़ने और प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियों एवं जलवायु परिवर्तन से प्रवाल भित्तियों को काफी नुकसान हुआ है। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का बढ़ता तापमान प्रवाल विरंजन का कारण बनता है जो प्रवाल भित्तियों की मृत्यु का कारण बनता है।
        • प्रवाल भित्तियों के विनाश का समुद्री जीवन और उन लाखों लोगों पर गंभीर प्रभाव होता है जो अपनी आजीविका के लिये प्रवाल भित्तियों पर निर्भर होते हैं।
      • आर्द्रभूमि: जल की गुणवत्ता, बाढ़ नियंत्रण और जैव विविधता को बनाए रखने के लिये आर्द्रभूमि आवश्यक हैं।
        • हालाँकि भूमि उपयोग प्रतिरूप में परिवर्तन, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी गतिविधियों के कारण इनमें काफी गिरावट आई है।
        • आर्द्रभूमि के नुकसान का जैव विविधता और जल शोधन, बाढ़ नियंत्रण एवं कार्बन प्रच्छादन सहित पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
      • वन: यह पृथ्वी पर सबसे महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों में शामिल हैं जो मनुष्यों को कई लाभ प्रदान करते हैं जिनमें इमारती लकड़ी, औषधि और कार्बन प्रच्छादन शामिल हैं।
        • वनों की कटाई से वनों को काफी खतरा है, जिसका कारण कृषि विस्तार और खनन जैसी मानवीय गतिविधियाँ हैं।
        • इसके अलावा इसका जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता हानि और पारिस्थितिक तंत्र की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
    • संरक्षण और पुनर्विकास रणनीतियाँ:
      • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिये ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना: इसका अर्थ कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसों की मात्रा में कटौती करना है जो ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती हैं।
        • ऐसा करने के कुछ तरीकों में सार्वजनिक परिवहन का अधिक उपयोग करना, ड्राइविंग के बजाय साइकिल चलाना या पैदल चलने पर बल देना; ऊर्जा-कुशल उपकरणों को अपनाना; कार्बन को अवशोषित करने वाले पेड़ और झाड़ियाँ लगाना; और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सीमित करने वाली सहायक नीतियों को अपनाना शामिल है।
      • जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करना: इसका तात्पर्य सतत प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना है जैसे कि सौर, पवन, जल या बायोमास ऊर्जा।
        • इनसे हानिकारक उत्सर्जन या अपशिष्ट उत्पन्न न होने के साथ आयातित तेल या गैस पर निर्भरता में भी कमी आ सकती है।
      • जल संरक्षण और पुनर्चक्रण को अपनाना: इसका अर्थ है जल का कुशलता से उपयोग करने के साथ जब भी संभव हो इसके पुन: उपयोग करने पर बल दिया जाए।
        • ऐसा करने के कुछ तरीकों में कम प्रवाह वाले नल और शावरहेड पर बल देना; सिंचाई के लिये वर्षा जल एकत्र करना; लीक पाइप की मरम्मत करना और बोतलबंद जल से परहेज करना शामिल है।
      • इमारती लकड़ी और खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से बचना: इसका मतलब है कि इन संसाधनों का दोहन उस स्तर तक करना है ताकि दोहन की दर इनके पुनर्भरण से अधिक न हो।
        • ऐसा करने के कुछ तरीकों में धातु, प्लास्टिक और कागज की रीसाइक्लिंग करना और गैर-आवश्यक वस्तुओं की खपत को कम करना शामिल हैं।
      • स्थायी कृषि और वानिकी प्रथाओं को अपनाना: इसका अर्थ है कृषि और पशुपालन को इस तरीके से किया जाए जिससे पर्यावरण या मानव स्वास्थ्य को नुकसान न हो।
        • ऐसा करने के कुछ तरीकों में जैविक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करना; उत्पादन प्रणालियों में विविधता लाना; एग्रोफोरेस्ट्री अपनाना; मृदा संरक्षण करना; परागणकों (जैसे मधुमक्खियों) और लाभकारी कीटों की रक्षा करना शामिल है।
      • वन्यजीवों के लिये संरक्षित क्षेत्रों और गलियारों का निर्माण करना: इसका अर्थ है जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये भूमि या जल क्षेत्रों को संरक्षित किया जाए।
        • ऐसे क्षेत्र संकटग्रस्त प्रजातियों के लिये आवास प्रदान कर सकते हैं, अवैध शिकार को रोक सकते हैं, पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं को बनाए रख सकते हैं (जैसे पोषक चक्रण), मनोरंजन के अवसर प्रदान कर सकते हैं (जैसे इकोटूरिज्म), सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा दे सकते हैं (जैसे पवित्र स्थल)। संरक्षित गलियारों से वन्यजीव स्वतंत्र रूप से आ-जा सकते हैं।

    निष्कर्ष:

    पृथ्वी की महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताएँ विभिन्न प्राकृतिक और मानव-प्रेरित कारकों से खतरे में हैं। इन परिवर्तनों के प्रभाव गंभीर और दूरगामी हैं जो जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज को प्रभावित करते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिये हमें संरक्षण और पुनर्विकास रणनीतियों को अपनाने की आवश्यकता है और इन रणनीतियों को लागू करके हम प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग सुनिश्चित कर सकते हैं एवं उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं की रक्षा कर सकते हैं। अपने ग्रह की महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं की रक्षा करने और सभी के लिये एक स्वस्थ एवं समृद्ध भविष्य सुरक्षित करने की दिशा में प्रयास किया जाना आवश्यक है।

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