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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    नैतिक दुविधा क्या होती है? सरकारी संस्थानों के सम्मुख आने वाली विभिन्न प्रकार की नैतिक दुविधाओं का उल्लेख कीजिये तथा उनके समाधान के तरीकों को भी सुझाइये। (150 शब्द)

    16 Jun, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • नैतिक दुविधा पद को संक्षेप में परिभाषित कीजिये।
    • सरकारी संस्थाओं में कार्य करने वाले अधिकारियों के सम्मुख आने वाली नैतिक दुविधाओं की चर्चा कीजिये।
    • नैतिक दुविधा को कम करने के मार्गों को सुझाइये।
    • संतुलित निष्कर्ष दीजिये।


    नैतिक दुविधा नैतिक निर्णयन में ऐसी परिस्थिति है जहाँ दो बराबर महत्त्व के विकल्पों में किसी एक को चुनने में दुविधा होती है। इस स्थिति में दोनों विकल्पों में से एक का चयन अनिवार्य होता है तथा किसी एक को चुनकर पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव नहीं हो पाता तो इस स्थिति को नैतिक दुविधा कहते हैं। यह एक जटिल स्थिति है जिसमें एक विकल्प का चयन करने पर दूसरे की अवज्ञा हो जाती है। इस प्रकार की दुविधा में कम से कम एक पक्ष नैतिकता से संबंधित होता है तथा ऐसा भी संभव है कि दोनों पक्ष अलग-अलग नैतिक मूल्यों से संबंधित हों।

    लोक सेवकों द्वारा अपने सेवा काल में कई प्रकार की नैतिक दुविधाओं का सामना किया जाता है जिन्हें निम्नवत् देखा जा सकता है-

    • प्रशासनिक विवेकाधिकार संबंधी दुविधाएँ: लोक सेवक न केवल सरकारी नीतियों के निष्पादक होते हैं बल्कि वे जनता के जीवन संबंधी निर्णय, जैसे- कर संबंधी, आजीविका संबंधी एवं बर्खास्तगी संबंधी आदि निर्णय लेते हैं, उनके समक्ष चयन हेतु विकल्पों की अधिकता के कारण नैतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न होती है।
    • भ्रष्टाचार: भारत में भ्रष्टाचार ने सरकारी तंत्र को गहरे से जकड़ा हुआ है, ऐसे में लोक सेवकों का अपने व्यक्तिगत लाभों के वशीभूत होकर भ्रष्टाचार में संलग्न होने की नैतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
    • भाई-भतीजावाद: सरकारी पदों पर अपने मित्रों एवं परिवार के सदस्यों की नियुक्ति करवाना लोक सेवाओं में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देता है।
    • सार्वजनिक जवाबदेही: लोक सेवकों को अपने वरिष्ठ अधिकारियों, अदालतों व जनता के लिये अपने आधिकारिक कार्यों के लिये जवाबदेह होना चाहिये। किंतु वे कई बार अपने कार्यों से बढ़कर व्यक्तिगत लाभों को अधिक वरीयता देते हैं तो नैतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न होती है।
    • नीतिगत दुविधा: नीति निर्माता सामान्यत: नीति निर्माण प्रक्रियाओं में परस्पर विरोधी ज़िम्मेदारियों का सामना करते हैं। उन्हें अपनी तरफ से दूसरे के हितों के लिये कार्य करने की स्वतंत्रता होती है किंतु उन्हें अपने वरिष्ठ अधिकारियों तथा समाज के प्रति जवाबदेह भी होना चाहिये।

    लोक सेवा में कदाचार तथा लातफीताशाही की प्रवृत्ति को रोकने के साथ-साथ नैतिक मानकों को लागू करना अत्यधिक जटिल मुद्दा है। नैतिक दुविधा को कम करने हेतु निम्नलिखित मार्गों को अपनाया जा सकता है-

    • लोक सेवा में समय के साथ-साथ नैतिक सिद्धांतों और नियमों के पतन को रोकने के लिये नैतिक मूल्यों व मानकों पर पुन: संवेदीकरण कार्यक्रम की शुरुआत की जा सकती है।
    • आचरण संहिता का कड़ाई से पालन कर प्रशासनिक जवाबदेही को बढ़ावा दिया जा सकता है तथा लोक सेवकों को अनिवार्य एवं अनुमन्य आचरण का पालन करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
    • कदाचार एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने वाले कानूनों का कड़ाई से पालन करना चाहिये तथा उल्लंघन करने वाले को उचित दंड भी देना चाहिये।
    • लोक सेवा में नैतिक मूल्यों की उच्च प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करने के लिये सर्वोच्च प्रशासनिक प्राधिकरणों को मज़बूत बनाना चाहिये।
    • लोक सेवक को भी व्यक्तिगत स्तर पर ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, जवाबदेही, वस्तुनिष्ठता, लोक सेवा के प्रति समर्पण तथा नियमों व कानूनों का पूर्णत: पालन सुनिश्चत करने इत्यादि गुणों का विकास करना चाहिये।

    वस्तुत: भारत में सिविल सेवाओं की प्रकृति अत्यधिक जवाबदेहीपूर्ण एवं जनता के लिये सेवा वितरण हेतु अत्यावश्यक है, ऐसे में लोक सेवकों में नैतिक दुविधा होना स्वाभाविक है किंतु उच्च नैतिक मानकों एवं मूल्यों के विकास से इसे कम किया जा सकता है।

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