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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    क्या 'आदिकाल' नामकरण उपयुक्त है? चर्चा कीजिये।

    27 Jun, 2020 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भूमिका

    • आदिकाल  के नामकरण में विवाद के बिंदु

    • आदिकाल नामकरण के पीछे का तर्क

    • निष्कर्ष


    हिंदी साहित्येतिहास लेखन में सर्वाधिक विवादास्पद प्रसंगों में से एक यह है कि इसके आरंभिक काल के लिए सर्वश्रेष्ठ नाम कौन सा हो सकता है? किसी साहित्यिक युग का समुचित नामकरण वह होता है जो उस युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों का बोधकराता है। आदिकाल के संबंध में यह प्रश्न जटिल इसलिये है कि कई अनसुलझे प्रश्न इसमें शामिल हैं, जैसे- हिंदी भाषा का आरंभ सातवीं सदी से माना जाए या 10 वीं या 12 वीं सदी से; धार्मिक संप्रदाय की रचनाओं को साहित्य माना जाए या नहीं; कौन सी रचना प्रमाणिक है और कौन सी रचनाएँ अप्रमाणिक हैं?

    नामकरण का प्रथम प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन ने "द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर नदर्न हिंदुस्तान" में किया व इसे 'चारण काल' कहा इसके पश्चात मिश्र बंधु ने इसे 'प्रारंभिक काल' कहा तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'बीजपवन काल' कहा क्योंकि यही वह काल था जहाँ से हिंदी साहित्य की शुरुआत हुई और आगे के साहित्य की प्रवृत्तियाँ भी बीज रूप में यहाँ दिखती हैं किंतु यह दोनों नाम अत्यंत सामान्य व अपर्याप्त हैं एवं 'चारण काल' नाम इसलिए सही नहीं है क्योंकि इस काल में केवल चारण काव्य नहीं लिखा गया।

    इस श्रृंखला में पहला महत्वपूर्ण प्रयास आचार्य शुक्ल ने किया और अपनी विधेयवादी दृष्टि के आधार पर इसे 'वीरगाथा काल' कहा। किंतु यदि इस काल की रचनाओं को समग्र रूप से देखा जाए तो इसमें न केवल वीरगाथा काव्य बल्कि धार्मिक सांप्रदायिक काव्य, लौकिक काव्य (विद्यापति एवं अमीर खुसरो) इत्यादि, भी लिखा गया है। अतः यह नाम इस काल को समुचित रूप से व्याख्यायित नहीं कर पाता है।

    आचार्य शुक्ल के उपरांत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को 'आदिकाल' कहा इसके पीछे मूल तर्क यह था कि संपूर्ण आदिकाल में किसी भी साहित्यिक प्रवृत्ति को केंद्रीय नहीं माना जा सकता है जो उसे पूर्णता में व्यक्त करे। इस नामकरण से इस काल में रचित लगभग सभी प्रकार के काव्यों, जैसे- सिद्ध-नाथ साहित्य, जैन साहित्य, लौकिक साहित्य, वीरगाथा सहित्य की धारा भी शामिल हो जाती है।
    वस्तुतः इस काल की वैविध्यपूर्ण साहित्यिक प्रवृत्तियों को समेटने के लिये कोई भी प्रवृत्ति सूचक नामकरण अनुपयुक्त है क्योंकि इस काल में कोई केंद्रीय तथा सर्व समावेशी प्रवृत्ति है ही नहीं। अतः निर्विशिष्ट नामकरण ही इस काल के लिये उचित हो सकता है। इस दृष्टि से 'आदिकाल' इस काल हेतु सर्वश्रेष्ठ नामकरण प्रतीत होता है। इससे ना केवल आरंभ का संकेत मिलता है बल्कि आगे आने वाले युगों में दिखने वाली वीरता, आध्यात्मिकता तथा श्रृंगारिका जैसी प्रवृत्तियाँ भी यहीं से विकसित हुई हैं।

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