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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    "वायुमंडलीय प्रक्रमों तथा मौसमों एवं जलवायु के तत्त्वों ने जीवमंडल में विभिन्न पौधों और जंतुओं के उद्भव, विकास तथा संवर्द्धन को प्रभावित एवं नियंत्रित किया है।" उक्त कथन के संदर्भ में जीवमंडल में सौर्यिक ऊर्जा के निवेश और उसके महत्त्व की चर्चा करें।

    13 Mar, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोणः

    • वायुमंडल के महत्त्वपूर्ण संघटकों का उल्लेख तथा जीवमंडल एवं वायुमंडल में संबंध।

    • सौर्यिक ऊर्जा का वायुमंडल हेतु महत्त्व।

    • सौर्यिक ऊर्जा एवं पारिस्थितिकीय उत्पादकता में सह संबंध।

    • निष्कर्ष।

    संसार में मौसम और जलवायु की विविधता के कारण ही भिन्न-भिन्न जाति-प्रजाति के जीव-जन्तु पाए जाते हैं। सूर्य का प्रकाश तापमान, वायुमण्डलीय गैसें तथा आर्द्रता आदि वायुमंडल के कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण संघटक हैं जो जीवमंडल में विभिन्न पौधों तथा जंतुओं के उद्भव, विकास तथा संवर्द्धन को प्रभावित तथा नियंत्रित करते हैं। जीवमण्डल सामान्य रूप में पृथ्वी की सतह के चारों ओर व्याप्त एक आवरण है जिसके अंतर्गत पौधों तथा जंतुओं का जीवन बिना किसी रक्षक साधन के संभव होता है।

    सूर्य जीवमंडल में समस्त जीवों एवं वनस्पतियों को ऊर्जा प्रदान करता है। यद्यपि पृथ्वी सूर्य से विकीर्ण ऊर्जा का अल्पांश ही प्राप्त कर पाती है परंतु ऊर्जा की यह अल्प मात्रा ही जीवमण्डल में जीवों के अस्तित्व को कायम रखने में समर्थ होती है। वायुमंडल में स्थित कतिपय गैसें (यथा-ओज़ोन) सौर्यिक विकिरण तरंगों को बीच में ही रोक लेती हैं तथा धरातल को अति गर्म होने से बचाती हैं। सौर्यिक विकिरण, संबंधित मौसम (गर्मी, सर्दी, बरसात) और जलवायु (उष्ण कटिबंधीय, शीतोष्ण कटिबंधीय एवं शीत कटिबंधीय) का निर्धारण करता है जो जीव-जंतुओं के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि विभिन्न जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों का विकास एक निश्चित मौसम या जलवायु परिस्थितियों में होता है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में प्रति इकाई क्षेत्र में सूर्यातप के अधिक निवेश से मृदा में ह्यूमस की अधिकता होती है जो पौधों के आदर्श विकास में सहायक होती है। शीत कटिबंधीय क्षेत्रों में सूर्यातप के न्यूनतम निवेश में ह्यूमस मर जाते हैं जिससे यहाँ अत्यल्प वनस्पतियों का विकास होता है। तदनुसार सामान्य रूप में भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर पारिस्थितिकीय उत्पादकता में भी उसी क्रम से ह्रास होता जाता है।

    वस्तुतः पारिस्थितिकीय उत्पादकता का स्तर किसी क्षेत्र विशेष में पौधों एवं जीव-जंतुओं के विकास की अवस्था को निर्धारित करता है। सूर्यातप तथा आर्द्रता की सुलभता एवं पारिस्थितिकीय उत्पादकता में धनात्मक सहसंबंध होता है। वायुमण्डलीय आर्द्रता एवं वर्षा तथा तापमान के विभिन्न संयोगों के फलस्वरूप पारिस्थितिकीय उत्पादकता में भी प्रादेशिक विभिन्नता पाई जाती है। वर्ष भर पर्याप्त सौर्यिक प्रकाश एवं आर्द्रता की प्राप्ति के कारण विषुवतरेखीय वर्षा वनों की पारिस्थितिकीय उत्पादकता सर्वाधिक होती है। फलतः यहाँ पौधों एवं जंतुओं की अनेकों प्रजातियाँ उच्चतम जैव विविधता को प्रकट करती हैं। इसके विपरीत आर्द्रता एवं वर्षा के अभाव में उष्ण मरुस्थलीय जलवायु प्रदेशों की पारिस्थितिकीय उत्पादकता न्यूनतम होती है जिससे वहाँ वनीय बायोम का अभाव, न्यूनतम जैव विविधता को दर्शाता है। इसी तरह टुण्ड्रा जलवायु में न्यूनतम सूर्यातप के कारण वहाँ वनस्पति आवरण का अभाव होता है तथा कठोर जलवायविक दशा में जंतुओं के शरीर बालों से ढके रहते हैं।

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