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  • 28 Jun 2025 निबंध लेखन निबंध

    दिवस- 12

    प्रश्न 1."भारत की विदेश नीति अब केवल अस्तित्व की बात नहीं रही, बल्कि स्थिति निर्धारण की रणनीति बन चुकी है।" (1200 शब्द)

    प्रश्न 2. "युद्ध के लिये तैयार रहना, शांति बनाए रखने के सबसे प्रभावी उपायों में से एक है।" (1200 शब्द)

    1. 

    परिचय 

    वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान जब चीनी सेना हिमालय क्षेत्र में भीतर तक बढ़ती चली आ रही थी, तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी को एक आपातकालीन पत्र भेजकर सैन्य सहायता की माँग की थी। यह क्षण उस समय की भारत की रक्षात्मक, असहाय और अस्तित्व-रक्षा पर केंद्रित विदेश नीति को समग्र रूप में दर्शाता है। पड़ोसी देशों से तनाव, सीमाओं की असुरक्षा, वैश्विक शक्तियों के दबाव और साथ ही देश के भीतर व्याप्त गहरी गरीबी व असुरक्षा के कारण, भारत (एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के रूप में) के पास यह शक्ति या अवसर नहीं था कि वह कोई दीर्घकालिक या दूरदर्शी रणनीतिक योजना बना सके।

    वर्ष 2023 में जब भारत ने नई दिल्ली में G20 शिखर सम्मेलन की मेज़बानी की और जलवायु वित्त, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना तथा बहुपक्षीय सुधार जैसे वैश्विक मुद्दों पर एजेंडा तय किया, तो यह भारत की भूमिका में आये बड़े बदलाव का संकेत था। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, "दुनिया आशा की दृष्टि से भारत की ओर देख रही है"—यह कथन उस आत्मविश्वास और नेतृत्व-भावना को दर्शाता है जो पहले नहीं था। यह बदलाव सुरक्षा की गुहार लगाने से लेकर वैश्विक मंचों पर नेतृत्व करने तक भारत की विदेश नीति में एक गहन परिवर्तन का प्रतीक है। 

    अब भारत की वैश्विक भागीदारी केवल संप्रभुता की रक्षा तक सीमित नहीं है। यह अब वैश्विक मंच पर स्वयं को सशक्त बनाने, शक्ति-संतुलन स्थापित करने और अंतर्राष्ट्रीय मानकों को आकार देने का प्रयास बन चुकी है।   

    मुख्य भाग: 

    ऐतिहासिक संदर्भ: अस्तित्व की विदेश नीति 

    • स्वतंत्रता-उपरांत काल:
      • शीत युद्ध की उलझनों से बचाव हेतु नेहरूवादी गुटनिरपेक्षताअपनायी गयी।
      • आर्थिक आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन पर बल दिया गया।
      • चीन (वर्ष 1962 का युद्ध) तथा पाकिस्तान (वर्ष 1948, 1965, 1971) से उत्पन्न सैन्य खतरे प्रमुख रहे।
      • विदेशी सहायता और हथियारों के लिये महाशक्तियों पर निर्भरता रही (जैसे: वर्ष 1971 की भारत-सोवियत संधि)।
    • संप्रभुता के लिये चुनौतियाँ:
      • क्षेत्रीय संघर्षों और संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे के कारण भारत की संप्रभुता पर प्रश्नचिह्न खड़े हुए।
      • परमाणु अप्रसार संधि (NPT) और व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) के दबावों ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को जटिल बना दिया।
    • एक रक्षात्मक उपाय के रूप में कूटनीति:
      • भारत की विदेश नीति रक्षात्मक यथार्थवाद से प्रेरित थी, जिसका मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय अस्तित्व की रक्षा था।
      • वैश्विक महत्त्वाकांक्षाएँ सीमित रहीं; 'तृतीय विश्व' (Global South) के साथ एकजुटता पर ज़ोर रहा।

    समकालीन परिवर्तन: स्थिति-आधारित विदेश नीति

    • बहुध्रुवीय विश्व में रणनीतिक पुनर्स्थापन:
      • गुटनिरपेक्षता से रणनीतिक स्वायत्तता की ओर परिवर्तन।
      • बहुपक्षीय समूहों में सक्रिय भागीदारी: QUAD, BRICS, SCO, G20, I2U2 
      • आक्रामक कूटनीति का प्रदर्शन (जैसे: डोकलाम, बालाकोट, गलवान प्रतिक्रिया)।
    • आर्थिक कूटनीति:
      • व्यापार समझौते (UAE CEPA, ऑस्ट्रेलिया के साथ ECTA
      • एक्ट ईस्ट नीति, इंडो-पैसिफिक रणनीति तथा अफ्रीकी देशों की ओर बढ़ता संपर्क।
      • ऊर्जा सुरक्षा का विविधीकरण (रूस, खाड़ी देश, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत)।
    • नेतृत्व आकांक्षाएँ:
      • G20 की अध्यक्षता (वर्ष 2023) – "एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य" के संदेश के साथ वैश्विक नेतृत्व का प्रदर्शन।
      • वैक्सीन मैत्री तथा विकास सहायता-आधारित कूटनीति।
      • डिजिटल कूटनीति, अंतरिक्ष सहयोग तथा जलवायु नेतृत्व (अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन– ISA, 'LiFE' पहल)।

    अस्तित्व से स्थिति निर्धारण की ओर बदलाव के प्रमुख प्रेरक तत्त्व

    • आंतरिक कारक:
      • आर्थिक उत्थान (भारत अब पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है; डिजिटल और तकनीकी क्षेत्र में तीव्र विकास हो रहा है)।
      • सैन्य आधुनिकीकरण और रक्षा उत्पादों का निर्यात।
      • आकांक्षी युवावर्ग और बढ़ती सांस्कृतिक/सॉफ्ट पावर।
    • बाह्य कारक:
      • अमेरिकी वर्चस्व का ह्रास और चीन का उदय।
      • अफगानिस्तान, म्यांमार और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी क्षेत्रों में अस्थिरता।
      • परस्पर निर्भरता का राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग, जैसे: सेमीकंडक्टर, आपूर्ति शृंखलाएँ आदि।
    • राजनय की बदलती प्रकृति:
      • विदेश सहायता पाने वाले देश से विकास साझेदार की भूमिका में परिवर्तन।
      • वैश्विक मुद्दों पर अधिक मुखर और स्वतंत्र रुख (जैसे: रूस-यूक्रेन युद्ध में तटस्थता)।
      • प्रवासी भारतीयों और सांस्कृतिक कूटनीति को प्रभाव के उपकरण के रूप में प्रयोग।

    परिवर्तन को दर्शाने वाले केस स्टडीज़ 

    • G20 नेतृत्व:
      • भारत ने वैश्विक सहमति निर्माण में एक सुदृढ़ भूमिका निभायी है।
      • 'ग्लोबल साउथ' की आवाज़ को बुलंद करने के लिये आयोजित 'वॉइस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट' इसका उदाहरण है।
    • भारत और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र:
      • भारत ने रणनीतिक संतुलन बनाते हुए क्वाड (QUAD) का हिस्सा रहते हुए भी चीन को खुले रूप से विरोधी नहीं बनाया है।
      • साथ ही, भारत की सागर (SAGAR) नीति इस क्षेत्र में समुद्री प्रभाव को सुदृढ़ करने का एक प्रमुख उपकरण रही है।
    • डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर कूटनीति:
      • 'इंडिया स्टैक' जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों को निर्यात किये गये हैं।
      • इस तरह भारत ने डिजिटल सॉफ्ट पावर का प्रभावी उपयोग किया है।
    • वैक्सीन कूटनीति:
      • भारत-निर्मित टीकों को 150 से अधिक देशों तक पहुँचाकर भारत ने वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य में एक ज़िम्मेदार भागीदार की भूमिका निभायी है।

    भारत की वैश्विक स्थिति निर्धारण में चुनौतियाँ

    • भौगोलिक-राजनीतिक तनाव: चीन के साथ सीमा तनाव तथा पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद जैसी समस्याएँ भारत के समक्ष निरंतर बनी हुई हैं।
    • आंतरिक विरोधाभास: लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट की आशंका तथा सांप्रदायिक मुद्दे भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित करते हैं।
    • रणनीतिक दबाव: रूस, अमेरिका और ग्लोबल साउथ के साथ संतुलित संबंध बनाए रखना भारत के लिये एक कठिन कार्य है।
    • संसाधन संबंधी सीमाएँ: रक्षा व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 2% से भी कम है तथा राजनयिक कर्मचारियों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम है।

    आगे की राह  

    • भारत को विदेश नीति में संस्थागत समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता है, इसके लिये विदेश मंत्रालय के पुनर्गठन, प्रवासी भारतीयों की संलग्नता और थिंक टैंक कूटनीति को सुदृढ़ करना महत्त्वपूर्ण है।
    • भारत को आयुर्वेद, योग, भारतीय सिनेमा और डिजिटल अर्थव्यवस्था के माध्यम से अपनी सॉफ्ट पावर को और समृद्ध करना चाहिये।
    • 'वसुधैव कुटुंबकम्' के सिद्धांत के साथ भारत को ‘भारतीय विशेषताओं वाली बहुध्रुवीयता’ को प्रोत्साहित करना चाहिये।
    • भारत को रणनीतिक स्वायत्तता को बनाये रखते हुए वैश्विक संस्थाओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिये।

    निष्कर्ष:

    भारत की विदेश नीति अब प्रतिक्रियाशील नहीं रही। जैसा कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने उचित ही कहा है,  "भारत की विदेश नीति अब अधिक आत्मविश्वासी, लक्ष्य-स्पष्ट और रणनीतिक महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित है।" 

    यह संक्रमण केवल अस्तित्व की रक्षा से हटकर वैश्विक मंच पर अपनी सक्रिय भूमिका स्थापित करने की दिशा में भारत की बढ़ती क्षमताओं और आकांक्षाओं का संकेत है। चाहे इंडो-पैसिफिक क्षेत्र हो, जलवायु कूटनीति या डिजिटल नीतिनिर्धारण; भारत अब केवल अपनी स्थिति सुरक्षित करने पर ही केंद्रित नहीं रह गया है, बल्कि उस स्थान को परिभाषित करने की ओर अग्रसर भी है।

    इस बहुध्रुवीय युग में भारत के लिये सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने रणनीतिक हितों और नैतिक नेतृत्व के बीच संतुलन को बनाये रखे। दूरदर्शी नेतृत्व और निरंतर वैश्विक सहभागिता के माध्यम से भारत न केवल अपना भविष्य सुरक्षित कर सकता है, बल्कि विश्व के स्वरूप को भी आकार दे सकता है।


    2. 

    परिचय: 

    अप्रैल 2025 की एक शांत दोपहर में, कश्मीर की बैसरन घाटी की शांति पहलगाम में एक क्रूर आतंकवादी हमले से भंग हुई, जिसमें 26 निर्दोष नागरिकों की जान चली गई, इनमें कुछ नवविवाहित हिंदू युवक भी शामिल थे। हमलावरों ने मासूमियत और आस्था के प्रतीकों को निशाना बनाया, जिससे शोक की लहर और राष्ट्रीय आक्रोश समूचे देश में गूंज उठा। इस भयावह घटना के बाद भारत सरकार के समक्ष एक निर्णायक प्रश्न खड़ा हुआ: ऐसे आतंकवादी हमलों के विरुद्ध जो राष्ट्र की एकता और अस्मिता को चुनौती देते हैं, देश को किस प्रकार प्रतिक्रिया देनी चाहिये?

    भारत का त्वरित और दृढ़ जवाब था— ऑपरेशन सिंदूर। इस सुनियोजित अभियान के तहत भारतीय सशस्त्र बलों ने पाकिस्तान और पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर में स्थित आतंकी ढाँचों पर सटीक हमले किये, जो लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिज़्बुल मुजाहिदीन जैसे संगठनों से जुड़े नौ प्रमुख ठिकानों पर केंद्रित थे। यह कार्रवाई केवल सामरिक प्रतिशोध नहीं थी, बल्कि भारत की सैन्य तत्परता, तीनों सेनाओं की तालमेलपूर्ण क्षमता तथा रणनीतिक संयम का एक मज़बूत संदेश भी था। भारतीय नौसेना ने समुद्री प्रभुत्व सुनिश्चित किया, वायुसेना ने लक्षित हवाई हमले किये और सीमा सुरक्षा बल ने घुसपैठ की कोशिशों को विफल किया, जो सब एकीकृत कमान संरचना के अंतर्गत संचालित हुआ। 

    'ऑपरेशन सिंदूर' ने एक स्पष्ट संदेश दिया: जब कूटनीति और तर्क की अपीलों का सामना लगातार आक्रामकता से होता है, तब एक निर्णायक और सजग सैन्य प्रतिक्रिया न केवल उचित होती है बल्कि अनिवार्य बन जाती है। इस अभियान ने एक शाश्वत रणनीतिक सिद्धांत को रेखांकित किया, युद्ध के लिये तैयार रहना, शांति बनाए रखने के सबसे प्रभावी उपायों में से एक है। अपनी तत्परता और सामर्थ्य का प्रदर्शन करके भारत का उद्देश्य केवल अपराधियों को दंडित करना ही नहीं था, बल्कि भविष्य के हमलों को रोकना एवं सीमाओं पर भंग होती शांति को पुनः स्थापित करना भी था।

    मुख्य भाग: 

    ऐतिहासिक एवं सैद्धांतिक आधार 

    • जॉर्ज वॉशिंगटन ने कहा था, "युद्ध के लिये तैयार रहना, शांति बनाये रखने के सबसे प्रभावशाली उपायों में से एक है।"
    • यथार्थवादी सिद्धांत (थ्यूसीडिडीज़, हॉब्स) यह मानता है कि शक्ति और खतरों के संतुलन के माध्यम से ही शांति संभव है।
    • निवारक सिद्धांत (Deterrence Theory) के अनुसार यदि आपकी रक्षा-व्यवस्था मज़बूत हो, तो संघर्ष की संभावना कम हो जाती है, जैसे: शीतयुद्ध के दौर में ‘परस्पर सुनिश्चित विनाश’ (MAD) के सिद्धांत के तहत।
    • कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' भी इस बात का समर्थन करता है कि शांति के समय में भी युद्ध की पूरी तैयारी होनी चाहिये।

    शांति बनाये रखने हेतु युद्ध की तैयारी

    • भारत का रणनीतिक सिद्धांत:
      • गुटनिरपेक्षता से 'रणनीतिक स्वायत्तता' की ओर भारत का झुकाव तथा वर्ष 1998 में परमाणु निवारण क्षमता का विकास, इस दिशा में एक मज़बूत संकेत है।
      • 'नो फर्स्ट यूज़' की नीति तथा 'विश्वसनीय न्यूनतम निवारण' की अवधारणा भारत की 'शक्ति के माध्यम से शांति' की रणनीति को दर्शाती है।
    • शीत युद्ध एवं शक्ति संतुलन:
      • USA–USSR परमाणु गतिरोध: शत्रुता के बावजूद, आपसी प्रतिरोध के कारण युद्ध टाला गया।
      • क्यूबा मिसाइल संकट (वर्ष 1962): तैयारी ने स्थिति को बढ़ने से रोका।
    • चीन की आक्रामकता और भारत की प्रतिक्रिया:
      • डोकलाम (वर्ष 2017) और गलवान (वर्ष 2020): भारतीय सैन्य तैयारियों ने आगे की स्थिति को बिगड़ने से रोका।
    • इज़रायल की रक्षा नीति:
      • दुश्मन देशों से घिरे होने के बावजूद, इज़रायल की सतत् सैन्य तैयारी न केवल उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करती है, बल्कि क्षेत्रीय शांति बनाये रखने का भी एक प्रभावी साधन है।

    हथियारों से परे तैयारी के आयाम 

    • तकनीकी और साइबर तैयारी: 
      • आधुनिक युद्ध में साइबर सुरक्षा तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान में शांति केवल सीमाओं पर नहीं बल्कि डिजिटल दुनिया में भी भंग हो सकती है। 
      • इसलिये अब तैयारी में पारंपरिक सैन्य क्षेत्रों के अतिरिक्त, गैर-पारंपरिक क्षेत्रों को भी शामिल करना आवश्यक हो गया है।
    • रणनीतिक अवसंरचना:
      • सीमावर्ती सड़कें, निगरानी प्रणालियाँ तथा मिसाइल रक्षात्मक तंत्र न केवल भौतिक सुरक्षा प्रदान करते हैं, बल्कि शत्रु के लिये एक मनोवैज्ञानिक अवरोध (Deterrent) के रूप में भी कार्य करते हैं।
    • सैन्य कूटनीति और गठबंधन:
      • मालाबार, युद्ध अभ्यास जैसे संयुक्त सैन्य अभ्यास तथा क्वाड जैसे बहुपक्षीय मंचों के माध्यम से सामरिक स्थिरता को बढ़ावा मिलता है। ये सैन्य सहयोग न केवल विश्वास निर्माण करते हैं, बल्कि क्षेत्रीय संतुलन को भी सुनिश्चित करते हैं।
    • शांति स्थापना और सॉफ्ट पावर:
      • भारत की संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में सक्रिय भूमिका यह दर्शाती है कि युद्ध की तैयारी का उपयोग वैश्विक शांति बनाए रखने के लिये भी किया जा सकता है। यह 'सशक्त शांति' का दृष्टिकोण है, जो शक्ति के साथ उत्तरदायित्व की भी माँग करता है।

    प्रतिवाद: सैन्यीकरण शांति को खतरे में डाल सकता है  

    • अत्यधिक सैन्य निर्माण से हथियारों की होड़ भड़क सकती है (उदाहरण के लिये, दक्षिण एशिया, अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता)।
    • सैन्य-प्रथम नीतियाँ विकास और सामाजिक सुरक्षा से धन को हटा सकती हैं।
    • गलत अनुमानों के ऐतिहासिक उदाहरण (जैसे, प्रथम विश्व युद्ध - संधि उलझनें + हथियारों की दौड़ = वैश्विक युद्ध)।
    • गांधीजी का दृष्टिकोण: बल से नहीं, न्याय और संवाद से शांति।

    दोनों दृष्टिकोणों में संतुलन की आवश्यकता: एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण

    • सुरक्षा की तैयारी विश्वसनीय होनी चाहिये, केवल उत्प्रेरक नहीं।
    • जैसा कि जोसेफ नाई ने कहा था 'हार्ड पावर' और 'स्मार्ट पावर' का संतुलन — अर्थात् रक्षा, कूटनीति और विकास का समन्वय आवश्यक है।
    • भारत की नीति एक रक्षात्मक रुख अपनाती है, यह विस्तारवादी नहीं है, 'पहले उपयोग' की नीति नहीं रखता, लेकिन सैन्य रूप से सजग अवश्य है।
    • शांति तभी स्थायी रह सकती है जब शक्ति के साथ संयम और बुद्धिमत्ता का संतुलन बना रहे।

    आगे की राह 

    • रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता (आत्मनिर्भर भारत) को बढ़ावा देते हुए स्वदेशी रक्षा निर्माण में निवेश किया जाना चाहिये।
    • साइबर और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) आधारित युद्ध क्षमताओं को मज़बूत किया जाना चाहिये।
    • पड़ोसी देशों के साथ सैन्य कूटनीति और विश्वास निर्माण उपायों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
    • नियम-आधारित व्यवस्था, संयुक्त राष्ट्र सुधारों और बहुपक्षवाद के माध्यम से शांति को बढ़ावा दिया जाये।
    • युद्ध की तैयारी को राष्ट्रीय सुरक्षा और शांति रणनीति का अंग माना जाये, न कि उसका अंतिम उद्देश्य।

    निष्कर्ष:

    एक ऐसे विश्व में, जो दिन-प्रतिदिन अस्थिर होता जा रहा है, जहाँ विषम युद्ध, आतंकवाद और भू-राजनीतिक अनिश्चितता जैसी चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं, सैन्य तैयारी कोई उकसावे की कार्रवाई नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण निर्णय है। 'ऑपरेशन सिंदूर' इसका उदाहरण है कि किस प्रकार अनुशासित, संतुलित और दृढ़ उत्तर देकर किसी आक्रामकता का सामना किया जा सकता है तथा शांति व प्रतिरोधक क्षमता की व्यापक भावना को सुदृढ़ किया जा सकता है। इसने यह सिद्ध किया कि जो राष्ट्र शांति के प्रति प्रतिबद्ध हैं, उन्हें उसकी रक्षा के लिये भी सक्षम होना चाहिये।

    भारत जब एक जटिल सुरक्षा परिदृश्य में आगे बढ़ रहा है, तब उसकी रणनीति में शक्ति के साथ संयम और तत्परता के साथ उत्तरदायित्व का संतुलन आवश्यक है।  इस संदर्भ में, विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर की अंतर्दृष्टि स्थायी प्रासंगिकता के साथ प्रतिध्वनित होती है:

    "एक अधिक असुरक्षित विश्व को एक अधिक सुरक्षित भारत की आवश्यकता है।"

    यह सुरक्षित भारत (मज़बूत, तैयार और सिद्धांतों पर अडिग) ही इस क्षेत्र में और इसके बाहर शांति, संप्रभुता और स्थिरता का सबसे विश्वसनीय संरक्षक बना हुआ है।

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